Internal structure of heart in hindi , हृदय की आंतरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए

हृदय की आंतरिक संरचना का सचित्र वर्णन कीजिए Internal structure of heart in hindi ?

हृदय की आन्तरिक संरचना (Internal structure of heart)

हृदय की क्षैतिज अनुलम्ब काट (H.L. section) में इसकी आन्तरिक सरंचना का अध्ययन अच्छी प्रकार से किया जा सकता है। हृदय की भित्ति मुख्यतया हृदय पेशियों (cardiac muscles) की बनी होती है। ये पेशियाँ शाखान्वित ( branched ) रेखित ( striated ) तथा अनैच्छिक (involutary) प्रकृति की होती है। इस भित्ति को पेशी हृदय स्तर का मायोकार्डियम (myocardium) कहते हैं।

हृदय के दाहिने आलिंद (right aurile) में पृथक् पृथक् छिद्रों द्वारा अग्र एवं पश्च महाशिराऐं (pre and post cavel veins) खुलती है। पश्च महाशिरा के छिद्र पर एक यूस्टेकीयन कपाट (eustachan valve) उपस्थित रहता है। दोनों आलिन्दों के मध्य उपस्थित अन्तरा – आलिंद पट्टी (inter auricular septum) पर एक अण्डाकार आकृति का गड्डा (pit) पाया जाता है जिसे फोसा ओवेलिस (fossa ovalis) कहते हैं । भ्रूणावस्था (embroyonic stage) में इस स्थान पर फोरोमेन ओवेलिस (formen ovalis) नामक छिद्र उपस्थित रहता है तो फुफ्फुस के क्रियाशील होने पर बन्द हो जाता है। इसका एक स्मृति चिन्ह ( impression sign) फोसा ओवेलिस के रूप में शेष रह जाता है। बाँयी अग्र कोरोनरी साइनस (coronary sinus) का छिद्र स्थित रहता है। इस छिद्र पर बाँयी अग्र महाशिरा के छिद्र तक फैला कोरोनरी या थिब्रेसियन कपाट (coronary or Thebesian valve) पाया जाता हैं बाँयें आलिन्द (left aurical) की दीवार में पल्मोनरी शिराएँ (pulmonary veins) खुलती है।।। जो फुफ्फुसों से शुद्ध रुधिर लेकर आती है। ये दोनों शिराऐं एक ही छिद्र द्वारा बाँये आलिंद में खुलती है।

दाहिने आलिन्द की दीवार में दाँयी अग्र महाशिरा के छिद्र के पास एक छोटी सी घुण्डी रूपी रचना पाई जाती है, इसे शिरा – आलिंद घुण्डी (sinu- auricular node) अथवा पेस मेकर (pace maker) कहते हैं। इससे अनेक छोटे एवं महीन पेशीय तन्तुक निकलकर आलिंद की सम्पूर्ण दीवार में फैले रहते हैं। तन्तुक आलिन्दों में संकुचन उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार एक आलिंद-नियल घुण्डी (artio-ventricular node – A. V. N) आन्तर आलिंद पट के आधार पर दाँयें आलिंद की ओर स्थित रहती है। आलिंद-निलय घुण्डी से एक जोड़ी विशिष्ट पेशियों का समूह निकलता है जो अन्तर निलय घुण्डी से एक जोड़ी विशिष्ट पेशियों का समूह निकलता है जो अन्तर-निलय पट (inter ventricular septum) में बढ़ जाता है।

आलिंद एवं नियम को पृथक करने वाली पटटी की (आलिंद नियम पट्ट (auriculo ) कहते हैं। दाँया आलिंद एक आलिंद निलय छिद्र (auriculo ventriuclar ‘ ventricular ‘ septum) द्वारा दाँयें निलय में खुलता है। इस पर एक त्रिदलीय या टाइकैस्पिड कपाट (tricuspid valve) उपस्थित रहता है। इसी प्रकार बाँया आलिंद एक आलिंद-नियल छिद्र (auriculo ventricular aperture) द्वारा बाँये नियल में खुलता है। इस पर एक द्वि-दलीय या बाइकस्प आलिन्द – निलय छिद्र, आलिंद-निलय पट्ट पर उपस्थित रहते हैं। दोनो कपाटों से अनेक छोटे-छोटे कपाट या (मिटल कपाट (bicuspid valve or mitral valve) उपस्थित रहता है। ये दोनों की झिल्लीनुमा पेशीय तंतुक निकलकर निलय की भीतरी दीवार पर ही स्थित मोटे पेशी स्तम्भों (columnae cornae or papillary muscles) से जुड़े रहते हैं। इन्हें कंडरा रज्जु या कॉर्डी टेन्डिनी ((chordae tendinae) कहा जाता है। ये दोनों की कपाट रक्त को आलिन्द से निलय में तो जाने देते हैं किन्तु विपरीत दिशा में नहीं जाने देते।

दोनों निलयों के मध्य उपस्थित तिरछी अंतरा – निलय पट्टी (inter ventricular septum) पेशियों का समूह पाया जाता है जिसे “हिस का समूह” (bundle of His) कहते हैं। इसकी दोनों शाखाऐं बारम्बार शाखित होकर दोनों निलयों की एण्डोकार्डियम स्तर में एक जाल सा बनाती है। इसे परकिन्जे के तंतु या परकिन्जे तंत्र (fibres of Purkinje or Purkinje system) कहा जाता है। दाहिने नियय के दाँयी की ओर से एक फुफ्फुस महाधमनी (pulmonay arterties) बाहर निकलती है। यह बाहर आकर फुफ्फुस धमनियों (pulmonary arterties) में विभाजित हो जाती है। 4. ये दोनों धमनियों, फेफड़ों को शुद्धिकरण हेतु अशुद्ध रुधिर लेकर जाती है। इसी प्रकार बाँये निलय के दाहिनी ओर से एक बड़ी कैरोटिकों सिस्टेमिक महाधमनी (carotico-systemic aorta) अधरतल से होती है। यह फेफड़ों से शुद्धिकरण के पश्चात् आये रुधिर को हृदय के अधरतल से होती हुई नीचे आकर एक पृष्ठ महाधमनी (dorsall aorta) में परिवर्तित हो जाती है। पृष्ठ महाधमनी से अनेक धनियाँ (arteries) निकलकर के अनेक भागों को शुद्ध रुधिर पहुँचाती है।

हृदय पेशियों की कार्यकीय विशेषतायें (Functional specially of cardia)

सभी जन्तुओं की हृदय पेशियों में आन्तरागीय और कायिक पेशियों के गुण पाए जाते हैं और ये कुछ महत्वपूर्ण कार्यकीय क्रियाओं को प्रदर्शित करते है-

(i) तापमान का प्रभाव

(ii) चालकता

(iii) उपापचय.

(iv) उत्तेजनशीलता

(v) संकुचनशीलता

(vi) वैगस तंत्रिका की क्रिया

(vii) नियमित अन्तराल के बाद धड़कन

(viii) सोडियम एवं पोटेशियम आयनों का प्रभाव (ix) सभी और कोई नहीं का नियम

हृदयी चक्र (Cardiac cycle)

हृदय एक ऐसा अंग है जो सम्पूर्ण जीवन बिना किसी आराम के संकुचन की क्रिया दर्शाता है। हृदय के नियमित या क्रमिक (rhythmic) संकुचन को धड़कन या स्पंदन (beating of heart) कहते हैं। प्रत्येक स्पंदन में दो अवस्थाएँ होती है। प्रथम अवस्था प्रकुंचन या सिस्टोल (systole) कहलाती है जिसमें हृदय में सिंकुचन (contraction) होता है। द्वितीय अवथा अनुशिथिलन या डायस्टोल (diastole) होती है। जिसमें हृदय में प्रसरण होकर यह पुनः पूर्व स्थिति में आता है। सिस्टोल अवस्था में हृदय रक्त को विभिन्न अंगों में ले जाने वाली रक्त वाहिनियों अर्थात् धमनियों (arteries) में पम्प करता है जबकि अनुशिथिलिन या डायस्टोल अवस्था में विभिन्न दैहिक अंगों (body organs) से रक्त लाने वाली शिराएँ ( veins) अपना रक्त इसमें डालती है। हृदय अपनी क्रिया विधि में एक पम्प की तरह कार्य करता है। इसके विभिन्न भागों का स्पंदन एक नियमित क्रमिक अवस्थाओं में होता है जिसे हृदयी चक्र अथवा कार्डियिक चक्र (cardiac cycle) अलग-अलग होता है। विभिन्न स्तनियों में हृदयी की स्पंदन दर (heart heat rat) पर निर्भर करता है। सामान्यतया यह हृदय की स्पंदन दर से उल्टे अनुपात (reverse ratio) में होता है। मनुष्य में स्पंदन दर 75 प्रति मिनट होती है। इस कारण हृदय द्वारा रुधिर को पम्प करने की क्रिया एक चक्रीय प्रक्रम (cyclic process) के रूप में होती है। एक हृदयी चक्र को निम्न तीन प्रावस्थाओं में वर्गीकृत किया जाता है-

(1) आलिन्दी प्रकुंचन (Atrial systole)

हृदय की क्रियाविधि के प्रथम चरण में सर्वप्रथम दोनों आलिन्द रुधिर से पूरा तरह भर हैं। दाहिने आलिंद अग्र एवं पश्च महाशिराओं द्वारा अशुद्ध रक्त तथा बाँये आलिन्द में पल्मोनरी शिराओं द्वार फेफड़ों से शुद्ध रुधिर एकत्रित किया जाता है। दोनो आलिंदों में पूरी तरह रुधिर के भर जाने के पश्चात् आलिंदी प्रकुंचन की क्रिया प्रारम्भ होती है। इस क्रिया में शिरा आलिंदी घुण्डी (S.A. Node) से संकुचन की तरंग उत्पन्न होती है जो धीरे-धीरे दोनों आलिंदों की दीवारों में फैल जाती है इससे दोनों आलिन्दों में संकुचन होता है जिसे आलिन्दी-प्रकुंचन (atrial systole) कहते हैं। आलिंदों में संकचन से इनका एक साथ संकुचन होता है जिसे आलिन्दी – प्रकुंचन में एक साथ आयतन कम होता है । परन्तु रक्त का दबाव बढ़ता है जिससे ट्राइकस्पिड एवं बाइकस्पिड कपाट खुल जाते हैं। इन कपाटों के खुलने से दाँये आलिन्द का अशुद्ध रुधिर दाँये निलय में तथा बाँये लि तथा आदि का शुद्ध रुधिर बाँये नियल में आ जाता है। आलिन्दी प्रकुचन में 0.1 सैकण्ड का समय लगता है।

(2) निलयी प्रकुंचन (Ventricular systole )

आलिंदी प्रकुचन के अन्त में शिरा – आलिंदी घुण्डी (S.A. Node) से संवेदना आलिंदी – निलय घुण्डी (A. Vnode) पर भेज दिया जाता हैं जिससे यह घुण्डी उत्तेजित होकर अन्य संकुचन की तरंग उत्पन्न करती है। यह संकुचन की तरंग ‘हिस के समूह’ एवं परकिन्जे तंतुओं के द्वारा सम्पूर्ण निलय दीवारों पर पहुंच जाती है। इससे दोनों निलयों में एक साथ संकुचन प्रारम्भ हो जाता है। दाँये एवं बाँये निलय द्वारा उत्पन्न दाब को चित्र 3.15 में दिखाया गया है। निलयों में उत्पन्न दाब ट्राकस्पिड एवं बाइकस्पिड कपाट बन्द हो जाते हैं। इन कपाटों के बन्द होने के हृदय धड़कन की प्रथम ध्वनि (first sound) सुनाई देती है। इसे ध्वनि को लुब (lubb) के रूप में आलिंदी निलयी कपाटों (auriculo ventricular valves) के बन्द होने पर भी निलयों का आयतन लगातार कम होता रहता है जिससे इनमें दाब बढ़ता है।

सामान्य शरीर क्रियात्मक (normal physiological) स्थिति में बाँयें निलय से अधिकतम दाब 115 से 125 mm Hg तथा दाँयें निलय से 25 से 30 mm Hg उत्पन्न होता हैं बाँयें आलिंद में अधिक दाब इसमें अधिक शाक्तिशाली मध्य उच्च दाब मायोकार्डियम (myocardium) की उपस्थिति के कारण उत्पन्न होती है। इस उच्च दाब के कारण की बाँया निलय सम्पूर्ण शरीर में रुधिर पम्प कर पाता है । निलयों में अत्यधिक दाब उत्पन्न होने पर पल्मोनरी महाधमनी एवं कैरोटिको सिस्टेमिक महाधमनी के निचले सिरे पर उपस्थित अर्द्धचन्द्राकार कपाट (semilunar vlaves) खुल जाते हैं जिससे दाँयें सिरे पर उपस्थित रुधिर पल्मोनरी महाधमनी में तथा बाँयें निलय का शुद्ध कैरोटिको-सिस्टेमिक महाधमनी में प्रवेश कर जाता है । निलयी प्रकुंचन में 0.3 सैकण्ड का समय लगता है। जैसे ही रुधिर निलयों से महाधमनी एवं अन्य धमनियों में प्रवेश करता है वैसे ही इनमें उपस्थित रुधिर का दाब धमनियों की अपेक्षा कम होने लगता है जिससे अर्द्धचन्द्राकार कपाट बन्द होकर द्वितीय हृदय-ध्वनि (second heart sound) उत्पन्न करते हैं। यह ध्वनि डुप (dup) के रूप में होती है। द्वितीय हृदय ध्वनि का उत्पन्न होना निलयी प्रकुंचन के अन्त तथा निलयी शिथिलन का द्योतक होता है।

निलयी प्रकुंचन के समय आलिंद-निलयी कपाट बन्द रहते हैं क्योंकि इस समय निलयों में आलिंदों की अपेक्षा रुधिर का दाब अधिक होता है। इस स्थिति में आलिंद शिथिलन की अवस्था में होते हैं तथा रुधिर शिराओं से शिथिल आलिन्द में प्रवेश करता है।

(3) निलयी शिथिलन (Ventricular diastor )

निलय प्रकुचन के पश्चात् निलयों में शिथिलन होता है जिससे इनका आयतन बढ़ता है । निलयों के आयतन में वृद्धि होने से इनमें रुधिर का दाब कम होने लगता है। निलयों में रुधिर का दाब काफी कम होने पर आलिन्द निलयी कपाट खुल जाते हैं जिससे रुधिर आलिन्दों से निलय में आ जाता हैं शिथिल शिथिल निलयों में रुधिर का दाब, आलिन्दों एवं शिराओं में उपस्थित दाब से कम होता है। इस कारण आलिन्दों में रुधिर निलयों में प्रवेश करता है । सम्पूर्ण हृदय के शिथिलन में 0.4 सैकिण्ड का समय लगता है। हृदय के शिथिलन के पश्चात् पुनः हृदयी चक्र प्रारम्भ होता है जिससे आलिन्दी प्रकुंचन की अवस्था फिर से देखी जाती है।