अमृतसर की स्थापना किसने की | अमृतसर शहर की नींव किसने रखी सिक्ख गुरु नाम in which year amritsar city was founded in hindi

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सिक्ख धर्म का विकास (Development of Sikhism)
इस अनुभाग में हम गुरू नानक द्वारा संस्थापित सिक्ख समाज की संरचना तथा समय के साथ सिक्ख धर्म के विकास पर चर्चा करेंगे।

 नये समाज की रचना (Creation of a New Society)
समाजशास्त्री के रूप में आप जानना चाहेंगे कि कैसे एक धार्मिक अवधारणा के आधार पर एक नये समाज की रचना होती है तथा कैसे यह अपने अनुयायियों के व्यवहार को नियंत्रित करता है। गुरू नानक ने एक नये समाज की रचना व विकास में योगदान दिया। आइए देखें कि कैसे उन्होंने आचार-संहिता तथा इस समाज के सदस्यों के क्रियाकलापों की व्याख्या की। अपने जीवन के अंतिम चरण में गुरू नानक रावी नदी (अब पाकिस्तान में) के तट पर एक छोटे से गांव में बस गये। उन्होंने इसे नाम दिया-करतारपुर अर्थात परमात्मा का डेरा । वहाँ उन्होंने खेत पर काम किया व अपनी कमाई दूसरों के साथ बांटी। करतारपुर में उनके शिष्यों का एक समूह तैयार हो गया पर उसे एक मठ के रूप में नहीं देखा जा सकता। वास्तव में, यह आम आदमी व औरतों का समूह था जो जीवन के सामान्य क्रियाकलापों में लगे थे, निष्पाप माध्यमों से अपनी कमाई अर्जित करते थे और इस कमाई को दूसरों के साथ बांटते थे। पर करतारपुर के बारे में विशेष बात यह थी कि इस शैली ने एक ऐसी नई जीवन-शैली के प्रतिरूप को तैयार किया।

आगे चलकर यह सिक्ख समाज के विकास तथा सिक्ख मूल्यों के ढांचे का आधार बना। यहाँ गुरू तथा उनके अनुयायी भोर से पहले उठते तथा नित्य क्रिया से निवृत हो स्नान कर परमात्मा की प्रार्थना करते । पूजा-पाठ के इस क्रम के उपरांत गुरू और उनके अनुयायी सामूहिक रसोई से पवित्र भोजन ग्रहण करते, तत्पश्चात अपने रोजमर्रा के काम-धंधे में लग जाते । शाम को वे फिर एक स्थल पर एकत्रित होते, सांयकाल की वंदना करते तथा भोजन ग्रहण करते । सोने से पहले सभी कीर्तन सोहिला का उच्चारण करते।
बॉक्स 1
सिक्ख गुरुओं ने जल्दी उठने और परमात्मा का ध्यान करने पर विशेष बल दिया है। जल्दी उठने, परिश्रम करने तथा परमात्मा का ध्यान करने पर बल देने वाले इस नये दर्शन ने एक नये समाज की रचना की जहाँ न कोई शोषण करने वाला हो सकता था, न कोई शोषित और न ही शोषण के लिए कोई स्थान था। निष्पाप व ईमानदार जीवन तथा अपनी कमाई दूसरों के साथ बांटने पर जोर देने की बात ने समानता की व्यवस्था की नींव रखी। सिक्ख गुरुओं ने आध्यात्मिक व संसारिक कार्यों में एक मधुर सामंजस्य स्थापित किया।

सिक्ख धर्म का विकास (Development of Sikhism)
जैसा कि आपने अन्य धर्मों के अध्ययन के संबंध में पाया कि समय के साथ-साथ धार्मिक दर्शन के संबंध में अनेक विकास होते चले गये जिन्होंने उस धर्म को और अधिक समृद्ध किया। उसी प्रकार समय के साथ सिक्ख धर्म में भी विकास की अनेक प्रक्रियाएं होती रहीं।

विकास की इन प्रक्रियाओं में सिक्खवाद में अनेक प्रथाओं का प्रतिस्थापन हुआ। गुरू नानक देव साहिब के बाद नौ अन्य गुरू हुए जिन्होंने न केवल उनके दर्शन व आदर्शों को आगे बढ़ाया वरन सिक्ख समुदाय के लिए अनेक प्रथाओं की प्रतिस्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

दूसरे गुरू श्री अंगद देव साहिब ने एक विशिष्ट वर्णमाला गुरुमुखी (गुरू के मुख से निकली) का विकास किया जो सिक्खों के लिए पवित्र वाणी को लिपिबद्ध करने का एकमात्र माध्यम बनी। इसी लिपि में सिक्खों के पवित्र धर्मग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब को लिखा गया है। तीसरे गुरू श्री अमरदास साहिब ने मंजी और पीढ़ी की परंपराओं का प्रारंभ कर सिक्ख पंथ को और मजबूत किया । ये वो पद थे जो महत्वपूर्ण पुरुष व स्त्री सिक्ख उपदेशकों को उनके संबंधित क्षेत्रों में दिये जाते थे। वर्ग भेद के उन्मूलन के लिए जिसने उस समय भारतीय समाज को बुरी तरह जकड़ रखा था, गुरू ने यह नियम बनाया कि उनसे मिलने आने वाले लंगर में भोजन ग्रहण करने के बाद उनसे मिलें। एक अत्यधिक प्रचलित कथा के अनुसार समकालीन मुगल सम्राट अकबर जब गुरू से मिलने गोविंदवाल गय तो उन्हें भी अपने मंत्रियों व नौकरों के साथ एक पंक्ति में बैठकर लंगर ग्रहण करना पड़ा। गुरू द्वारा समानता के सिद्धांत का इतनी दृढ़ता से पालन करने ने सम्राट को इतना अधिक प्रभावित किया कि उन्होंने एक गांव गुरू के प्रति समर्पित कर दिया। इसी स्थान पर चैथे व पांचवें गुरू के समय में अमृतसर का आधुनिक शहर बसा। गुरू ने अपने अनुयायियों की सुविधा के लिए अनेक बावलियों (पानी से भरी) का भी निर्माण करवाया ताकि वे इनमें सुबह का स्नान कर सकें जो कि शरीर व मन-मस्तिष्क की पवित्रता के लिए आवश्यक समझा जाता है। गुरू ने सिक्ख समाज के विकास के लिए सरल और सार्थक धार्मिक अनुष्ठान प्रतिस्थापित किये।

चैथे गुरू श्री रामदास साहिब ने पवित्र शहर अमृतसर की

नींव रखी जो बाद में सिक्ख मत के मुख्य धार्मिक केन्द्र अथवा धार्मिक राजधानी के रूप में विकसित हुआ। कारीगरों व व्यापारियों को निमंत्रित कर तथा उन्हें वहाँ बसने के लिए प्रोत्साहित कर गुरू ने एक विशाल व्यापारिक व औद्योगिक केन्द्र की भी नींव रखी जो इस नव गठित शहर के इर्द-गिर्द विकसित हुआ।

पाँचवे गुरू श्री अर्जन देव साहिब गुरू रामदास साहिब के सुपुत्र व उत्तराधिकारी ने हरमंदिर साहिब जो कि स्वर्णमंदिर के नाम से जाना जाता है, का निर्माण किया तथा वहां गुरू ग्रंथ साहिब का संग्रह व स्थापना की।

छठे गुरू श्री हरगोबिंद साहिब ने अकाल तख्त का निर्माण किया । अकाल तख्त अर्थात शाश्वत का सिंहासन। उन्होंने इसे सिक्खों का प्रामाणिक धर्म केन्द्र घोषित किया ।

सातवें गुरू श्री हर राय ने अपने पूर्व गुरुओं के कार्य को आगे बढ़ाया तथा धर्म के कार्य को देखने के लिए बागरियन तथा कैथल भाई परिवारों की नियुक्ति की।

आठवें गुरू श्री हरकिशन साहिब ने दिल्ली में चेचक के रोगियों का उपचार किया। उन्हें सिक्खों की प्रार्थना में ऐसे गुरू के रूप में याद किया जाता है जिनके दर्शन मात्र से सब कष्टों का निवारण हो जाता है।

नौवें गुरू श्री तेग बहादुर साहिब ने धार्मिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में एक अद्वितीय उदाहरण पेश किया जब उन्होंने अपने जीवन का बलिदान हिन्दुओं के पवित्र चिह्नों अर्थात तिलक तथा जंजू की रक्षा के लिए किया । दसवें गुरू ने इसका उल्लेख कलयुग में एक अद्वितीय घटना के रूप में किया है। श्री गुरू तेग बहादुर साहिब की शहीदी ने सिक्खों के इतिहास को एक उल्लेखनीय मोड़ दिया।

धर्म की रक्षा हेतु दसवें व अंतिम गुरू, श्री गुरू गोबिंद सिंह साहिब ने खालसा पंथ की स्थापना की। 1699 में बैसाखी के दिन गुरू ने शिवालिक पहाड़ियों में आनंदपुर में सिक्खों को एकत्रित किया । अत्यधिक संख्या में उपस्थित जन समूह को संबोधित करते हुए गुरू जी ने पांच सिक्खों के शीर्ष की मांग की। वे पांच जिन्होंने अपने शीर्ष प्रस्तुत किये तथा जिन्हें तदुपरांत सिक्ख मत में दीक्षा दी गई सिक्खों की प्रार्थनाओं में पंज पियारे अथवा पांच प्रिय शिष्यों के रूप में याद किये जाते हैं। ये पांच प्यारे अलग दिशाओं से आये थे तथा विभिन्न पारंपरिक भारतीय जातियों से संबंधित थे। उनमें से तीन तथाकथित निम्न जाति से थे। उन्हें नया नाम दिया गया तथा उनका उपनाम “सिंह‘‘ रखा गया जिसका अर्थ होता है-शेर। उन्हें नये पंथ के पांच चिह्नों को धारण करने का आदेश दिया गया, ये हैं-अनकतरे केश, एक कंघा, छोटा पाजामा अथवा जांघिया, एक लोहे का कड़ा व एक तलवार/कृपाण ।

सिक्ख मत के इतिहास में गुरू गोबिंद सिंह साहिब जी द्वारा श्री ग्रंथ साहिब को शाश्वत गुरू के रूप में घोषित करना एक महत्वपूर्ण घटना थी। गुरू अर्जन देव द्वारा संकलित सिक्खों का यह धार्मिक ग्रंथ सिक्ख मत के मुख्य उद्देश्यों का अद्वितीय उदाहरण है। गुरू ग्रंथ साहिब में 5894 श्लोक हैं, जिनमें से एक बड़ी संख्या (2216) का योगदान स्वयं पांचवे गुरू ने दिया है। सिक्ख गुरुओं के श्लोकों के अतिरिक्त गुरू ग्रंथ साहिब में मुस्लिम व हिन्दू संतों की वाणी का भी समावेश है। इन संतों में से कुछ तो हिन्दू समाज में तथाकथित निम्न जाति से हैं। जब श्रद्धालु धर्म ग्रंथ के सामने सिर झुकाता अथवा माथा टेकता है, जिसमें विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के संतों की वाणी का समावेश है तब सभी धर्मों के प्रति समान आदर का प्रदर्शन होता हैं।

बोध प्रश्न 2
प) इन गुरुओं में से किसने पवित्र शहर अमृतसर की नींव रखी।
क) श्री गुरू हर राय साहिब
ख) श्री गुरू रामदास साहिब
ग) श्री गुरू तेग बहादुर साहिब
घ) श्री गुरू गोबिंद सिंह साहिब
पप) सिक्खों के धार्मिक ग्रंथ श्री गुरू ग्रंथ साहिब का संकलन किस गुरू साहिब ने किया?
क) श्री गुरू राम दास साहिब
ख) श्री गुरू तेग बहादुर साहिब
ग) श्री गुरू गोबिंद सिंह साहिब
घ) श्री गुरू अर्जुन देव साहिब
पपप)गुरू ग्रंथ साहिब में केवल निम्नलिखित श्लोकों का समावेश है।
क) सिक्ख गुरुओं की वाणी
ख) सिक्ख गुरुओं व हिन्दू संतों की वाणी
ग) सिक्ख गुरुओं व मुस्लिम संतों की वाणी
घ) सिक्ख गुरुओं तथा हिन्दू व मुस्लिम संतों की वाणी।

बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) ख)
पप) घ)
पपप) घ)