साम्राज्यवाद क्या है | साम्राज्यवाद को परिभाषित कीजिए अर्थ किसे कहते है ? नाश imperialism in hindi

imperialism in hindi साम्राज्यवाद क्या है | साम्राज्यवाद को परिभाषित कीजिए अर्थ किसे कहते है ? नाश की परिभाषा क्या है ?

साम्राज्यवाद
पाल्मर एवं पार्किन्स का कहना है कि साम्राज्यवाद की कोई सटीक परिभाषा करना तकरीबन नामुमकिन है। वे कहते हैंः “साम्राज्यवाद की विवेचना भर्त्सना और उसकी पैरवी की जा सकती है उसके लिए मरा जा सकता है, किन्तु इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकती’’ द्य पश्चिमी विद्वान साम्राज्यवाद को अनिवार्य मानते थे क्योंकि दुनिया को सभ्य बनाना “गोरे व्यक्ति का बोझ’’ था। लेकिन अफ्रीका एवं एशिया के देशों में इसकी सर्वत्र भर्त्सना की गई क्योंकि वे ही इसके शिकार थे। दरअसल एक राज्य पर दूसरे राज्य का राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व ही साम्राज्यवाद की परिभाषा का मूलतत्व है। पाल्मर एवं पार्किन्स के विचारों के रहते हुए भी हम पाते हैं कि साम्राज्यवाद की परिभाषा को लेकर अलग-अलग विद्वान अलग-अलग और अक्सर विरोधी बात करते हैं।

साम्राज्यवाद का अर्थ
मैरिज गुलियस बोन के अनुसार, ष्साम्राज्यवाद साम्राज्य बनाने, संगठित करने तथा उसकी देखभाल की नीति है अर्थात एक विशाल आकार का राज्य जो कमोबेश अनेक विशिष्ट राष्ट्रीयताओं का संग्रह होता है किन्तु जिस पर एकल केन्द्रीकृत सत्ता का नियंत्रण हो। चार्ल्स ए वियर्ड ने लिखा है कि ‘‘क्षेत्र, प्रोटेक्टोरेट, तथा प्रभाव हासिल करने के लिए सरकारी और कूटनीतिक जरियों के इस्तेमाल का नाम ही साम्राज्यवाद है। पी टी मून ने साम्राज्यवाद की सटीक किन्तु संक्षिप्त परिभाषा इस प्रकार की है, ‘‘साम्राज्यवाद का अर्थ है गैर यूरोपीय देशों पर यूरोपीय देशों का जो आपस में एक दूसरे से नितांत भिन्न थी, आधिपत्य। इस तरह मून की परिभाषा में यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि साम्राज्यवाद एशिया और अफ्रीका के काले लोगों पर यूरोपियनों का आधिपत्य का नाम था। ये यूरोपीन अपने को श्रेष्ठ समझते थे तथा मानते थे कि औपनिवेशिक सत्ता श्वेत लोगों के ऊपर एक बोझ है। हालांकि बियर्ड ने साम्राज्यवाद की परिभाषा से आर्थिक कारणों को खारिज कर दिया है, फिर भी साम्राज्यवाद का इतिहास दर्शाता है कि पश्चिमी देशों द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने के पीछे आर्थिक शोषण ही मूल आकर्षण रहा था।

घोर यथार्थवादी मांटेक्यू जो राजनीतिक को सत्ता संघर्ष मानता है, भी साम्राज्यवाद की परिभाषा में आर्थिक कारणों को शामिल नहीं करता। उसके लिए साम्राज्यवाद किसी राज्य द्वारा अपनी सीमाओं के विस्तार करने का नाम है। शुपिटर के लिए साम्राज्यवाद वह शक्ति है जो अपनी उद्भावना में प्राचीन तथा राष्ट्रवाद के युग में पतनशील और आत्मचेतन है। फिर भी वह अपने प्रतिद्वंद्वियों यानि उभरते पूँजीवाद को मात देने में सक्षम है।‘‘ किन्तु मार्क्सवादी विद्वान साम्राज्यवाद को पूँजीवाद का प्रतिद्वंद्वी नहीं मानते। उनके लिए, जैसा कि लेनिन ने कहा है, साम्राज्यवाद न केवल पूरी तरह आर्थिक है, अपितु पूँजीवाद के विकास की स्वाभाविक परिणति भी है।

साम्राज्यवाद की अभिप्रेरणा मूल रूप से आर्थिक रही है, यानी उपनिवेशों के शोषण से आर्थिक लाभ अर्जित करना। अक्सर साम्राज्यवाद राज्य विस्तार में परिणत हुआ और इसीलिए कुछ विद्वान आर्थिक प्रेरणा को विशाल साम्राज्य कायम करने की चाहत से अलग देखने की वकालत करते हैं। पाल्मर व पार्किन्स अच्छे और बुरे साम्राज्यवाद में विभेद करते हैं, किन्तु तीसरी दुनिया की नजर में कोई भी साम्राज्यवाद अच्छा नहीं हो सकता क्योंकि शोषण किसी के लिए अच्छा नहीं हो सकता। पूर्वी यूरोप की हाल की घटनाओं से भी यह बात साबित नहीं होती।

पूँजीवाद की कथित जीत और समाजवाद के पतन के आधार पर यह बात नहीं कही जा सकती कि साम्राज्यवाद अब कम शोषणकारी हो गया है न ही यह इन परिस्थितियों में पैदा होने वाले लोकतंत्रों के लिए साम्राज्यवादी फायदेमंद है। इसके अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, एफ ए ओ विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के अध्ययन से भी यह साबित होता है कि तीसरी दुनिया से बड़े पैमाने पर पूँजी का बहिर्गमन हो रहा है और वहाँ के लोगों के जीवनस्तर में गिरावट आई है। प्रकारान्तर से यह सिद्ध होता है कि इन देशों का साम्राज्यवादी शोषण पहले से कहीं ज्यादा हो रहा है लेकिन यह सब विषय अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की नजर से ही संभव हो सका है क्योंकि तीसरी दुनिया के देशों को असमान व्यापार की शों से जोड़ दिया गया है। फिर ये देश बहुराष्ट्रीय कंपनियों व कर्ज की गिरफ्त में आ गये हैं।

एक महत्वपूर्ण (साम्राज्यवाद – एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण) के हवाले हैरी मेगडॉफ ने निष्कर्ष निकाला है कि पूँजी के वर्चस्व और एकाधिकार के आधार पर साम्राज्यवाद का जो रूप हमारे सामने है, वह पुराने साम्राज्यवाद से कतई भिन्न नहीं है। आक्रामक पूँजीवादी राष्ट्र राज्य (लेनिन) बदस्तूर कायम है। अलबत्ता, शोषण के तरीकों में तब्दीली जरूर आयी है। मेगडॉफ ने साम्राज्यवादी शोषण के तीन नये तरीकों को रेखांकित किया हैः
1) प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र के साथ सैन्य उत्पादन का एकीकरण।
2) बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बढ़ता महत्व जो अधिक लाभ देने वाले और नये तरह के उद्योगों पर चाहे वे उपनिवेश में हो या विकसित देशों में, विश्व व्यापी नियंत्रण की कोशिश करता है, और
3) राज्य के कारोबार में सैन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों की प्राथमिकता ।

साम्राज्यवादी शोषण के ये नये तरीके गौरतलब हैं कि क्योंकि इनसे तीसरी दुनिया के देशों का शोषण और घनीभूत ही हुआ है, न कि कम पश्चिमी उपनिवेशवाद के खात्में के साथ विद्वानों ने ऐसी-ऐसी उद्भावनाओं का प्रचलन कराया है जिसे सारांश रूप में हम साम्राज्यवाद का अंत भी कह सकते हैं। जॉन स्टैची, माइकल बैरटे ब्राउन, हाम्जा आलवी उन विद्वानों में से है जिनका मानना है कि साम्राज्यवाद का जोर अब आर्थिक शोषण पर उतना नहीं रहा। सच कहा जाये तो ऐसे सारे तर्क महज विचारधारात्मक हैं, न कि वास्तविक। पॉल स्लीजी ने अपने एक लेख ‘‘नवे दशक में साम्राज्यवाद‘‘ में इसकी सटीक विवेचना की है। आल्वी की राय है कि नवसाम्राज्यवाद पूँजी का शोषण नहीं करता है। अब तक इसे ही साम्राज्यवाद की प्रमुख विशेषता माना जाता रहा , है, अपितु वह विश्व बाजार पर नियंत्रण तक सीमित है, इस के जवाब में स्वीजी का कहना है कि छठे दशक की शुरूआत से ही बहुराष्ट्रीय कंपनियां सस्ती मजदूरी वाले देशों में अपनी उत्पादन इकाइयाँ स्थापित करने का प्रयास करती रही हैं। दूसरे शब्दों में तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण उनके बाजार पर नियंत्रण तक ही सीमित नहीं है, अपितु उत्पादन और वित्त के क्षेत्र में भी उनकी मौजूदगी बरकरार है।

उद्योगों के निजीकरण विविध नियंत्रणकारी उपायों को अप्रतिसाधित करने तथा उदारीकरण को केन्द्र में रखकर सुधार लागू करने से भूमंडलीकरण की जो नयी बयार बही है, वह दरअसल नवसाम्राज्यवाद को ही प्रतिबिंबित करती है। समाजवाद का पतन हो जाने से अब साम्राज्यवाद को कोई चुनौती देने वाला भी न रहा। साम्राज्यवाद खत्म नहीं हुआ है, केवल उसका रूप बदला है, लक्ष्य वही है किन्तु रास्ता बदल गया है यानी गरीब और आश्रित देशों का शोषण ।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर को मिलाइए।
(1) साम्राज्यवाद को परिभाषित कीजिए।
(2) साम्राज्यवादी शोषण के नये तरीकों की पहचान कीजिए।

बोध प्रश्न 1 उत्तर 
1. साम्राज्यवाद एक देश पर दूसरे देश का आधिपत्य स्थापित करने का तंत्र, गैर यूरोपीय लोगों पर यूरोपीय देशों का आधिपत्य तथा राज्य सत्ता का अपनी सीमा से बाहर जाकर विस्तार करने का नाम है।
साम्राज्यवाद का विकास
इतिहास बताता है कि दुनिया विकास के कई चरणों से गुजर चुकी है। हम जानते हैं 14 नवता का इतिहास समाज और सामाजिक संरचना के विकास से जुड़ा हुआ है। पूँजीवाद एक सामाजिक संरचना के रूप में सामंतवाद की कोख से पैदा हुआ और वही उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद के लिए उत्तरदायी है।

सामंतवाद 16-17वीं शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में था। यूरोप में सामंतवाद मध्ययुगीन राज्यतंत्र से संबद्ध था। यह राज्यतंत्र मूलरूप से कुलीनतंत्र (राज और भूस्वामी) ही था और वही अर्थव्यवस्था व राज्यसत्ता का नियंत्रण करता था। सामंती राज्य के कारोबार में चर्च की भी अहम भूमिका थी। तेरहवीं सदी से इंगलैंड में सामंतवाद का पतन शुरू हुआ जो धीरे-धीरे पूरे यूरोप को अपनी गिरफ्त में लेता गया। इस पतन के पीछे औद्योगिक क्रांति, शहरों का विकास, सामंतों का आपसी संघर्ष आदि कारण रहे थे। नतीजतन यूरोप का सामाजिक जीवन भी बदलना शुरू हो गया। इसके साथ आर्थिक संगठन में बदलाव आया। अब अर्थव्यवस्था पर स्वतंत्र व्यापारियों और व्यावसायियों का नियंत्रण कायम हुआ। इसका मतलब यह हुआ कि व्यापारिक पूँजीवाद सामंतवाद व पूँजीवाद के बीच संक्रमण की स्थिति थी और यह 16वीं सदी से लेकर 19वीं सदी तक जारी रहा। सामंतवाद की कोख से पैदा होने वाली व्यवस्थाएँ अलग-अलग देशों में अलग-अलग रही। उदाहरण के लिए इंगलैंड में पूँजीवाद का विकास अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में ज्यादा तेजी से हुआ। फ्रांस ने इस बदलाव का अनुकरण किया। बाद में जर्मनी और रूस भी इस दौड़ में शामिल हो गये। इस तरह प्रत्येक विकास होने के साथ-साथ पूंजीपतियों ने कच्चे माल व बाजार की खोज यूरोप से बाहर जाकर करने लगे। यही खोज एशिया व अफ्रीका में साम्राज्यवादी घुसपैठ का कारण बनी।

पूँजीवाद वह व्यवस्था है जिसमें वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन बाजार में विनिमय के लिहाज से किया जाता है ताकि लाभ कमाया जा सके। पूँजीवाद में पूँजी का स्वरूप वही नहीं रहता जो । सामंतवाद में होता है। मालूम हो, सामंतवाद के अंतर्गत पूंजी मुख्यतया व्यापारिक पूँजी होती है। पूँजीवाद के अंतर्गत उत्पादक पूँजी प्रमुख होती है यानी वह पूंजी जिसका श्रम बाजार में निवेश किया जाता है। श्रम वह है जिसे कोई श्रमिक पूँजी के बदले देता है ताकि वह जीवित रह सके। इस तरह के श्रम को फिर उत्पादन की प्रक्रिया में शामिल कर नये लाभ के लिए नई वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। इस तरह व्यापारी और वित्तधारकों (बैंक, सूदखोरों, आदि) की पूँजी संचरित होकर नई वस्तुओं का उत्पादन करती है। इस व्यापारिकध्वित्तीय पूँजी का कार्य उत्पादक पूँजी की जरूरतों पर निर्भर करता है और वही उनका नियंत्रण भी करता है। इस तरह श्रम भी एक वस्तु बन गया है जिसे बाजार में खरीदा अथवा बेचा जा सकता है।

जिस तरह पूँजीवाद ने आर्थिक जीवन को प्रभवित किया था, उसी तरह उसने सामाजिक और राजनीतिक जीवन को भी प्रभावित किया। पूँजीवाद के साथ दो वर्गों-पूँजीपति (बर्जुआई) व श्रमिक (सर्वहारा) का उदय हुआ। इन दो प्रमुख वर्गो के अलावा अन्य छोटे छोटे वर्ग भी अस्तिव में आये। राजनीतिक व्यवस्था भी पूर्ववत नहीं रही। इंगलैंड में राजसत्ता पर जमीदोज कुलीनों के साथ साथ व्यापारियों का भी नियंत्रण कायम हुआ। इसी तरह फ्रांस में जमींदोड कुलीनों की जगह गणतंत्र की स्थापना हुई। इस तरह पूँजीवाद के साथ निजी उद्यमों का विकास हुआ तथा राजसत्ता में जनता की भागीदारी बढ़ी।