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संकर ओज तथा अंत: प्रजनन अवनमन क्या है (Hybrid Vigour and Inbreeding Depression in hindi)

(Hybrid Vigour and Inbreeding Depression in hindi) संकर ओज तथा अंत: प्रजनन अवनमन क्या है ?

संकर ओज तथा अंत: प्रजनन अवनमन (Hybrid Vigour and Inbreeding Depression)

मनुष्य द्वारा अति प्राचीन काल से ही आर्थिक महत्त्व के विभिन्न पौधों में संकरण की प्रक्रिया सम्पन्न करवाई जाती रही है, परन्तु पौधों में संकर प्रजनन (Cross-breeding or hybridization) से होने वाले लाभों की आंशिक जानकारी 18वीं शताब्दी से मिलने लगी । विभिन्न वनस्पतिशास्त्रियों एवं वैज्ञानिकों जैसे कालरयूटर (Kolreuter 1763) स्प्रैन्जेल (Sprengel 1793) एवं डारविन (Darwin 1876) के द्वारा पौधों में पर- परागण क्रिया से होने वाले फायदों का आने वाली पीढ़ियों में पर्यवेक्षण किया गया तथा वे अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पौधों को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए संकरण की आवश्यकता होती है, तथा प्रकृति इसे प्रोत्साहित करती है। यही नहीं तत्कालीन वैज्ञानिकों द्वारा किये गये प्रयोगों के आधार पर अंत:प्रजनन (Inbreeding पौधों में कृत्रिम रूप से स्वपरागण सम्पन्न करवाने की प्रक्रिया) एवं संकर (Hybrid vigour) के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किये, जैसे-

(1) अन्त:प्रजनन (Inbreeding) के कारण पौधों में जीवन-क्षमता या ओज (Vigour) में कमी आती है, इस प्रक्रिया को अंत: प्रजनन अवनमन (Inbreeding Depression) कहते हैं।

(2) आनुवंशिक रूप से भिन्न पौधों में संकरण करवाने से आने वाली पीढ़ियों में पौधे अधिक जीवनक्षम या तेजस्वी या ओजयुक्त (Robust or Vigorous) उत्पन्न होते हैं। संकरण के परिणामस्वरूप संतति पीढ़ी में ओज (Vigour) का समावेश, संकर ओज (Vigour) कहलाता है ।

(3) संकर प्रजनन (Hybridization) को जैविक स्तर पर एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया कहा जा सकता है ।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि “पौधों में अंतः प्रजनन (Inbreeding) के परिणामस्वरूप संकर ओज ( Hybridi vigour ) एवं जनन क्षमता (Fertility) में जो कमी देखी जाती है, उसे अंतः प्रजनन क्षमता अवनमन (Inbreeding Depression) कहते हैं । ”

मानव सभ्यता के प्रारम्भिक चरण से ही मनुष्य ने पेड़-पौधों एवं प्राणियों में अन्त: प्रजनन अवनमन को महसूस किया है। आज भी मानव की सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक जातियों एवं कबीलों में भाई-बहन या नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह करना प्रतिबंधित है, क्योंकि ऐसे विवाह के परिणामस्वरूप उत्पन्न संतति हालाँकि जनक पीढ़ी (Parents) से अनेक लक्षणों में समानता प्रदर्शित करती है, लेकिन इनसे समयुग्मजी अवस्था (Homozygous Condition) की भी बलवती होती है। इसके परिणामस्वरूप अनेक घातक जीन्स या कारक जो विषमयुग्मजी अवस्था में अपने प्रभाव की अभिव्यक्ति (Expression) में असमर्थ थे, वे समयुग्मजी अवस्था में आते ही पौधों के ओज या जीवन- क्षमता (Vigour) पर हानिकारक प्रभाव प्रदर्शित करते हैं। विभिन्न कृष्य पौधों में इस प्रभाव की सीमा अलग-अलग प्रकार की हो सकती है। हानिकारक अप्रभावी जीन्स के समयुग्मजा अवस्था में आ जाने के कारण अनेक प्रकार के रोग हो सकते हैं।

अंतःप्रजनन के दुष्प्रभाव (Adverse Effects of Inbreeding):

अंतः प्रजनन के परिणामस्वरूप पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव निम्न  से हैं :-

(1) जनन क्षमता का ह्रास (Loss of Fertility) : अंतःप्रजनन के द्वारा किसी भी प्रजाति की पादप समष्टि (Population) में जनन क्षमता का क्रमिक ह्रास (Gradual loss ) स्पष्टतया देखा जा सकता है। अनेक अन्तःप्रजात वंशक्रमों (Inbred lines) में तो जनन क्षमता इतनी कम हो जाती है, कि ये पौधे प्रजनन के योग्य ही नहीं रह पाते। हालांकि कुछ फसलों में जनन क्षमता बरकरार रहती है एवं इनका उपयोग विभिन्न पादप प्रजनन प्रयोगों में किया जाता है।

( 2 ) सजीवों में घातक जीनों का प्रकटीकरण (Appearance of Lethal Genes in Organisms): अनेक पौधों एवं प्राणियों की आनुवंशिक संरचना में हानिकारक प्रभाव डालने वाले जीन्स पाये जाते हैं, इनको घातक जीन्स (Lethal Genes) कहते हैं। प्राय: यह देखा गया है कि ये घातक जीन अप्रभावी होते हैं, अत: विषमयुग्मजी अवस्था में पौधों या प्राणियों पर किसी भी प्रकार का दुष्प्रभाव उत्पन्न करने में असमर्थ होते हैं, अपितु ये तो केवल समयुग्मजी (Homozy gous) अवस्था में ही अभिव्यक्त होते हैं तथा घातक प्रभाव प्रदर्शित करते हैं।

अतः जनक पौधों में घातक जीन अप्रभावी प्रारूप (Recessive form) में या विषमयुग्मजी (Heterozygous) अवस्था में होती हैं। लेकिन यदि अन्तःप्रजनन (Inbreeding) करवाया जावे तो संतति पीढ़ी में इन जीन्स के समयुग्मजी अवस्था प्राप्त कर लेने की सम्भावना बढ़ जाती है । समयुग्मजी अवस्था में ये जीन्स अपने प्रभावों की अभिव्यक्ति अनेक घातक लक्षणों के रूप में करती हैं, परिणामस्वरूप पौधों एवं प्राणियों में भयंकर बीमारियाँ हो सकती हैं और अन्त में इसकी परिणति पौधे या प्राणी की मृत्यु के रूप में भी हो सकती है। घातक जीनों की अभिव्यक्ति के कारण कुछ नवांकुर पौधों में जड़ें विकसित नहीं हो पातीं (Rootless seedlings) या कुछ पौधों की पत्तियों में क्लोरोफिल बिल्कुल ही नहीं बनता, अथवा कम मात्रा में बनता है, कुछ पौधों में पुष्प विरूपित या अव्यवस्थित (Deform) हो जाते हैं। उपरोक्त लक्षणों में गड़बड़ी पौधे की जीवन-क्षमता एवं जनन क्षमता को अत्यधिक प्रभावित करती है। इनके कारण अनेक उदाहरणों में पौधों की असमय मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार से मनुष्यों में भी अनेक रोग जैसे-सिकल सैल एनिमिया (Sickle Cell Anemia), एल्बीनिज़्म (Albinism – सन्तान का सूरजमुखी होना), व एल्केप्टोन्यूरिया (Alkaptonuria) इत्यादि अप्रभावी घातक जीन्स की समयुग्मजी अवस्था में अभिव्यक्ति के कारण होते देखे गये हैं ।

( 3 ) पैदावार या उत्पादन में कमी (Reduction in Crop Yield) : अन्त: प्रजनन अवनमन के कारण प्रायः कृष्य पौधों के फसल उत्पादन में उल्लेखनीय कमी आती है। अनेक पर – परागित फसलों, जैसे- प्याज, गाजर एवं मक्का आदि में जब स्वपरागण करवाया जाता है तो यह दुष्प्रभाव स्पष्टतया परिलक्षित होता है। हालाँकि उत्पादन में कमी की मात्रा अलग-अलग फसलों में भिन्न होती है।

( 4 ) ओज या तेजस्विता का ह्रास (Reduction in vigour) : स्वपरागण या अन्तःप्रजनन के द्वारा इन वंशक्रमों (Inbred lines) के ओज में कमी (Reduction) स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है। परिणामस्वरूप पौधे दुर्बल एवं छोटे रह जाते है। इसके साथ ही पौधों की पत्तियों, पुष्प एवं फलों की साइज एवं आकृति पर भी ये दुष्प्रभाव देखे जा सकते हैं।

संगठन युक्त समयुग्मजी जनकों में संकरण करवाया जाता है तो आने वाली पीढी में संकर (Hybrid) संतति प्राप्त संकर ओज एवं हेटेरोसिस (Hybrid Vigour and Heterosis) : जब दो अलग-अलग आनुवंशिक होती है जो कार्यिकी रूप में (Physiologically) एवं बाह्य लक्षणों में (Morphologically) दोनों ही जनकों से बेहतर होती है। संकर पीढ़ी के पौधे या जीवन आकृति में बड़े अधिक रोग-प्रतिरोधी, जीवनक्षम एवं प्रबल जनन क्षमता से युक्त होते हैं ।

अतः पौधों में “संकर पादपों की जनक पीढ़ी से श्रेष्ठता या उत्तम गुणवत्ता की अभिव्यक्ति को संकर ओज (Hybrid vigour) कहते हैं।” संकर ओज (Hybrid vigour) के लिए अन्य शब्द हेटेरोसिस (Heterosis) का बहुधा उपयोग किया जाता है। हालाँकि दोनों शब्द लगभग समानार्थी हैं। दोनों का प्रयोग भी एक ही अभिप्राय के लिए सामान्यतया किया जाता है, लेकिन फिर भी इन दोनों को एक-दूसरे का पर्यायवाची (Synonym) नहीं कह सकते। कुछ वैज्ञानिकों जैसे “हेले (Whaley 1944) के अनुसार ‘संकर ओज (Hybrid vigour) केवल हेटेरोसिस (Heterosis) की अभिव्यक्ति (Manifestation or Expression) कही जा सकती है । ”

सर्वप्रथम डॉ. जी.एच. शल (G.Shull 1914) ने हेटेरोसिस शब्द का प्रतिपादन किया था। उनके अनुसार “संकर पौधों में ओज (Vigour) की वृद्धि को हेटेरोसिस कहते हैं ।”

हेटेरोसिस (Heterosis) का अर्थ है एक भिन्न अवस्था या जनक पीढ़ी से अलग हटकर लक्षणों को धारण करने की विशेषता । शब्द हेटेरोसिस (Heterosis) का गठन ग्रीक भाषा के दो शब्दों क्रमश: Hetero = different (भिन्न) एवं Osis = condition (अवस्था) को मिलाकर किया गया है। इसका शाब्दिक अर्थ है भिन्न अवस्था अर्थात् संतति में जनक पीढ़ी से तुलनात्मक भिन्नता ।

पावेराई (Poweri 1944, 1945) के अनुसार हेटेरोसिस संकर पौधों की जनक पीढ़ी से केवल श्रेष्ठता ही नहीं अपितु दोनों अवस्थाओं क्रमशः दुर्बलता एवं श्रेष्ठता दोनों को परिलक्षित करती है। अर्थात् हेटेरोसिस दो प्रकार की होती है – लाभदायक या धनात्मक (Positive) एवं हानिकारक या ऋणात्मक (Negative Heterosis) । इनमें संकर पौधे क्रमशः ओजपूर्ण या दुर्बल होते हैं।

परन्तु इससे पूर्व शल (Shull 1909) के द्वारा इस तथ्य का प्रमाण भी प्रस्तुत किया गया था कि जब मक्का की दो किस्मों (Varieties) का क्रॉस या संकरण करवाया जाता है तो संतति पीढ़ी (Progeny) के पौधे उत्तम गुणवत्ता (Quality) लक्षणों वाले एवं ओजयुक्त होते हैं (चित्र 14.1 ) ।

परन्तु जब संकर पीढ़ी या उनके जनक पौधों में स्वपरागण या अंत:प्रजनन (Inbreeding) करवाया जाता है तो ओज (Vigour) या तेजस्विता की कमी, क्रमिक रूप से (Gradually ) आने वाली पीढ़ियों में स्पष्टतया दिखाई देती है। क्योंकि स्वपरागण या अंतःप्रजनन से विषमयुग्मजता (Heterozygosity) का तेजी से ह्रास होता है, और इसके विपरीत समयुग्मजता (Homozygosity) में तेजी से वृद्धि होती है। सम्भवत: इसी कारण संकर ओज (Hybrid vigour) की प्रक्रिया अपने प्रभाव में स्थिरता एवं स्थायित्व लिये हुए नहीं होती, अपितु इसका प्रभाव आने वाली पीढियों में धीरे-धीरे कमजोर होता जाता है। इस प्रभाव का एक मात्र प्रबल एवं संभावित कारण मेंडेलियन लक्षणों का पृथक्ककरण (Seggregation of characters) है। समयुग्मजता में लक्षणों का पृथक्करण नहीं हो पाता, अत: ओज में कमी आ जाती है। अत: संकर ओज (Hybrid vigour) को अंत:प्रजनन अवनमन के प्रभाव का विलोम लक्षणी (Converse) भी माना जा सकता है। यही नहीं, संकर ओज (Hybrid vigour) में संतति पीढ़ी की जनक पौधों पर श्रेष्ठता का आकलन (Superiority over parents) किया जाता है, जबकि हेटेरोसिस में श्रेष्ठता एवं दुर्बलता (Inferiority) दोनों का ही विश्लेषण किया जाता है।

हेटेरोसिस के प्रकार (Types of Heterosis) — इस प्रक्रिया में संतति पौधों की अनुकूलन क्षमता (Adaptability), जनन क्षमता (Fertility) एवं प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, हेटेरोसिस को निम्न वर्गों में विभेदित किया जा सकता है-

  1. सत्य-हेटेरोसिस या यूहेटेरोसिस (Euherosis) – यह एक प्रकार की आनुवंशिक हेटेरोसिस है, जो कि उत्परिवर्तनों (Mutations) या जीन पुनर्योजन के कारण विकसित हो सकती है, यह भी निम्न दो उपश्रेणियों में बांटी जा सकती है-
  2. उत्परिवर्तन यूहेटेरोसिस ( Mutational Euheterosis)—- घातक या अप्रभावी जीन्स के कारण किसी पौधे में विकसित यूहेटेरोसिस को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
  3. संतुलित यूहेटेरोसिस (Balance Euheterosis ) — इस प्रक्रम (Process) में प्राय: जीन्स का संतुलित संयोजन (Combination) सम्पन्न होता है। परिणामस्वरूप पौधे में वातावरण के प्रति अनुकूलता एवं बेहतर उत्पादन क्षमता विकसित हो जाती है।
  4. छद्म या कूट हेटेरोसिस (Pseudo heterosis ) — जब किसी पौधे में आनुवंशिक कारकों के अतिरिक्त अन्य किसी कारण से अस्थायी ओज (Vigour) एवं अत्यधिक कायिक वृद्धि (Vegetative growth) के गुण पाये जावें तो इसे छद्म हेटेरोसिस (Pseudoheterosis) कहते हैं। जैसे – अंर्तप्रजातीय क्रॉस द्वारा उत्पन्न संकर पौधों में प्रचुर कायिक वृद्धि (Luxurient vegetative growth) तो पाई जाती है, परन्तु ऐसे पौधें बन्ध्य (Sterile) होते हैं। अतः इस घटना को सत्य-हैटेरोसिस (Eutherosis) की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि जिन पौधों में यूहेटोरोसिस होती है वे प्रचुर कायिक वृद्धि के साथ-साथ अत्यधिक जनन क्षमता (Fertility) भी प्रदर्शित करते हैं।

हालाँकि हेटेरोसिस की प्रक्रिया स्वपरागित एवं परपरागित दोनों प्रकार के कृष्य पौधों में पाई जाती है, लेकिन स्वपरागित पौधों जैसे, टमाटर एवं मटर आदि में इसका समुचित उपयोग नहीं किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर अनेक पर- परागित फसलों जैसे- कपास, मक्का व बाजरा में हेटेरोसिस का सफलतापूर्वक उपयोग नई संकर किस्मों (hybrid varieties) के विकास में किया गया है।

संकर ओज या धनात्मक हेटेरोसिस की अभिव्यक्ति (Manifestation of Hybrid vigour or Positive Heterosis) संकर ओज या हेटेरोसिस की अभिव्यक्ति संकर पौधे का आकार, कायिक वृद्धि एवं उत्पादन क्षमता के अतिरिक्त, अनेक प्रारूपों द्वारा परिलक्षित हो सकती है। अर्थात् संकर पौधे (Morphology) एवं कार्यिकी गतिविधियाँ (Physiological activities) दोनों के पर्यवेक्षण द्वारा इसकी अभिव्यक्ति का आंकलन किया जा सकता है। जैसे- फूलगोभी का पुष्पक्रम (फूल की साइज), मटर की कलियाँ एवं पालक तथा पत्तागोभी में पत्तियों की वृद्धि इत्यादि हेटेरोसिस की अभिव्यक्ति के उपयुक्त उदाहरण हैं। संख्यात्मक दृष्टि से हेटेरोसिस का अभिव्यक्ति प्रतिशत अग्रांकित सूत्र के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है-

यहाँ F = F, संकर पीढ़ी का पौधा

P = प्रथम जनक

P2 = द्वितीय जनक

उदाहरणतया यदि P, व P, जनक पौधों की लम्बाई क्रमश: 45 एवं 35 सेमी. है, तथा F, संकर पौधे की लम्बाई 60 सेमी. है तो सकर ओज 60/40 × 100 = 150 प्रतिशत होगी। हेटेरोसिस की अभिव्यक्ति विभिन्न जीवों में तीन स्तरों पर हो सकती हैं, ये निम्न प्रकार है –

(A) परिमाणात्मक स्तर (Quantitative level ) — निम्न लक्षणों के द्वारा संकर ओज के परिमाणात्मक प्रभावों की गणना की जा सकती है :-

(1) बेहतर फसल उत्पादन (Better Crop yield)

(2) दुधारू पशुओं में दूध का एवं रेशम कीटों के द्वारा रेशम का उत्पादन बढ़ जाता है।

(3) जीवों में कोशिका विभाजन की दर तीव्र हो जाती है, व इनका आकार भी बढ़ जाता है, परिणामस्वरूप कोशिकाओं की संख्या एवं सक्रियता में वृद्धि होती है ।

(4) पौधों में शाखाओं, पत्तियों, पुष्प, फल एवं बीजों की संख्या बढ़ जाती है।

(B) कार्यिकी स्तर (Physiological level)—–—

(1) पौधों में रोग प्रतिरोधी एवं कीट प्रतिरोधी क्षमता का विकास, वातावरण के प्रति अधिक अनुकूलनशीलता (Adaptability) का प्रदर्शन, तथा ऐसे पौधों में विषम जलवायु के प्रति सहनशीलता (Tolerance) का होना।

(2) शीघ्र पुष्पन (Early flowering) एवं अधिक उत्पादन (yield) ।

(3) बीजों का शीघ्र एवं समान अंकुरण, नवांकुरों (Seedlings) की अधिक वृद्धि दर का होना ।

(4) उर्वरता दर (Fertility rate) एवं जीवनक्षमता (Viability) में वृद्धि ।

(C) जैविक स्तर (Biological level) ——— हेटेरोसिस के परिणामस्वरूप जैविक क्षमता में पर्याप्त बढ़ोत्तरी देखी गई है, पौधों का जीवन चक्र (Life cycle) लम्बा हो जाता है। ऐसी जीन की क्रियाशीलता भी बढ़ सकती है, जिसके कारण आर्थिक उपयोग के लक्षण प्रभावित होते हैं, जैसे खच्चर (Mule) में कार्य क्षमता का बढ़ जाना, या पौधों में सघनता का बढ़ जाना संकर ओज के जैविक स्तर के परिवर्तन के उपयुक्त उदाहरण है। यह भी देखा गया है कि एक प्रजाति की दो किस्मों के क्रॉस से उत्पन्न संकर पीढ़ी की तुलना में, दो अलग-अलग प्रजातियों के संकरण द्वारा उत्पन्न संतति पीढ़ी में अधिक संकर ओज पाया जाता है।

उपरोक्त स्तरों पर संकर ओज की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त हेटेरोसिस का प्रभाव संकर पौधों में एंजाइम की कार्यप्रणाली तथा टमाटर, आँवला एवं मिर्च में विटामिन-सी की मात्रा एवं अन्य जैव रासायनिक गुणों पर भी देखा गया है, लेकिन इनका अभी तक आसानी से परीक्षण नहीं किया जा सका है।

जनक पीढ़ी में अनेक प्रभावी जीन्स के द्वारा, प्रबल लक्षणों को संतति पीढ़ी में अभिव्यक्त करने की अपूर्व क्षमता होती है। परन्तु प्रभावी जीन्स की संख्या अलग-अलग या कम हो सकती है।

ये प्रभावी जीन प्राय: संतति पीढ़ी में इच्छित या लाभदायक लक्षणों को अभिव्यक्त करते हैं, क्योंकि संतति पीढ़ी में प्रभावी जीनों की संख्या, दोनों जनकों की तुलना में अधिक होती है, संकर ओज द्वारा उत्तम गुणवत्ता की प्राप्ति का सम्भवतया यह भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू हो सकता है

अंतः प्रजनन अवनमन एवं संकर ओज (Inbreeding depression and Hybrid vigour)—– विभिन्न सजीवों में विशेषकर पौधों में अंतःप्रजनन अवनमन द्वारा उत्पन्न दुष्प्रभाव को, संकर ओज के द्वारा दूर किया जा सकता है । विभिन्न फसल उत्पादक पौधों में अंतःप्रजात वंशक्रमों (Inbred lines) का आपस में क्रॉस या संकरण करवाने से, यह हानिकारक प्रभाव या अवनमन (Depression) दूर हो जाता है तथा इस प्रकार प्राप्त संकर पौधे बेहतर गुणवत्ता प्रदर्शित करते हैं। इसीलिए पादप प्रजनन विज्ञानी विभिन्न फसलों की किस्म को सुधारने के लिए प्रत्येक संतति पीढ़ी में श्रेष्ठता एवं वांछित लक्षणों की उपस्थिति का विशेष ध्यान रखते हैं। वांछित लक्षणों में शुद्धता (Purity) बनाये रखने के लिए आंशिक रूप से अंतःप्रजनन क्रियाओं को दोहराया (Repeat) भी जाता है, परन्तु इसके तुरन्त बाद बेहतर गुणवत्ता स्थापित करने के लिए संकरण का ही उपयोग किया जाता है। स्वपरागित कृष्य पौधों में अंतःप्रजनन अवनमन पर काबू करने के लिए कृत्रिम चयन (Artificial selection) का सहारा लिया जाता है, जिसमें प्रत्येक पीढ़ी से सर्वश्रेष्ठ पौधों का चुनाव किया जाता है, एवं दुर्बल तथा अवांछित लक्षणों वाले पौधों को हटा दिया जाता है। प्रकृति भी अपने स्तर पर चयन, या उत्तम पौधों को छाँटने का काम करती है। यहाँ भी प्राकृतिक वातावरण में अपने आप ही कमजोर पौधों की छँटाई होती है व इसमें स्वपरागण या क्रॉस नहीं हो पाता है । अत: इनकी वंशवृद्धि नहीं हो पाती। इस प्रकार प्राकृतिक चयन (Natural selection) द्वारा अप्रभावी (Recessive) एवं अपूर्ण प्रभावी लक्षणों वाले पौधों की छँटनी हो जाती है, अतः इन लक्षणों का अभिगमन अगली पीढ़ी में नहीं होता। पर – परागित फसलों में पौधों के सभी प्रकार के वांछित एवं अवांछित लक्षणों को नियंत्रित करने वाले जीन्स विषमयुग्मजी अवस्था में पाये जाते हैं । इसलिए प्रत्येक आने वाली पीढ़ी में ये लक्षण विभिन्न प्रकार से प्रभावी एवं अप्रभावी रूप से प्रकट होते हैं। यह भी देखा गया है कि उत्परिवर्तन के द्वारा भी जीन संरचना में परिवर्तन हो सकता है, जैसे समयुग्मजी जीन युग्म (BB) का परिवर्तन विषमयुग्मजी (Bb) में हो सकता है, एवं जीन्स की यह विषमयुग्मजी स्थिति संकर ओज के लिए उत्तरदायी होती है।