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औपनिवेशिक भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इतिहास क्षेत्र के विकास , history of science and technology in colonial india in hindi pdf

By   December 20, 2022

history of science and technology in colonial india in hindi pdf औपनिवेशिक भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इतिहास क्षेत्र के विकास ?

औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान का स्वागत
अब प्रश्न उठता है किए ‘‘किन सामाजिक समूहों ने सर्वप्रथम भारत में आधुनिक विज्ञान की दस्तक को स्वीकार किया और प्रत्युगार दिया?’’ वस्तुतः, विभिन्न संस्कृतियों के बीच वैज्ञानिक विचारों के पारेषण पर अधिक काम नहीं हुआ।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, हिंदू एवं मुस्लिम दोनों के अपने अभिजात्य समूह थे। हालांकि, विसंगत रूप से, यह केवल हिंदू थे जहां अभिजात्य या अभिजन वग्र उच्च जातियों, प्रधान तौर पर ब्राह्मण, और बंगाल प्रांत में कायस्थ और वैद्य, जिन्होंने ब्रिटिश शासकों के साथ संपर्क स्थापित किया और आधुनिक विज्ञान को उत्सुकता से प्राप्त किया, और जिनके वैध ज्ञान के तौर पर जड़ें यूरोप में थीं। बंगाली मुस्लिमों के बीच, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से अधिक बड़ा निम्न वग्र था और इसके परिणाम स्वरूप हिंदुओं की तुलना में इनका अभिजन वग्र छोटा था। यह तथ्य स्वयं इस बात की व्याख्या नहीं करता कि 19वीं शताब्दी के बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा के प्रति मुस्लिमों में उत्साह का लगभग पूरी तरह अभाव था और ना ही मुस्लिमों के रुझान की व्याख्या या स्पष्टीकरण उनके धार्मिक दृष्टिकोण पर आधारित था। उदाहरणार्थ, 1876-77 और 1885-86 के बीच 51 मुस्लिमों और 1,338 हिंदुओं ने कलकत्ता में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1870 में, केवल 2 मुस्लिमों, दोनों ही परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाए, ने बी.ए. की परीक्षा दी, जबकि उसी वर्ष 151 हिंदू परीक्षा में बैठे जिनमें से 56 ने डिग्री धारण की। उत्तरी-पश्चिमी प्रांतों में, बिहार, ओडिशा और अवध, यद्यपि मुस्लिम अल्पसंख्या में थे, समुदाय-वार शिक्षा पैटर्न बंगाल में प्रचलित पैटर्न से बिल्कुल विपरीत था।
भारत में आधुनिक वैज्ञानिक युक्तियों एवं तकनीकों का आगमन ब्रिटिश विजय के साथ हुआ, लेकिन इन्हें तीन मुख्य सीमाओं का सामना करना पड़ा। पहला, विज्ञान के आरोपण का पैमाना और इसकी उपयोगिता की सीमा शासकों की नीतियों तक सीमित थी। दूसरे, विज्ञान शिक्षण ने विज्ञान का सृजन बौद्धिकता एवं सामाजिक रूपांतरण के एक उपकरण के रूप में करने की अपेक्षा विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में केवल प्रशिक्षण प्रदान करने तक सीमित रखा। तीसरे, विज्ञान को अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत किया गया। परिणामस्वरूप, विज्ञान की यूरोप में निभाई गई भूमिका की बजाय, यह अलग-अलग हो गया। इसने समाज के विभिन्न संस्तरों के साथ अंतक्र्रिया नहीं की। फिर भी, भारतीय बुद्धिजीवियों का एक वग्र था, जो विश्वास करता था कि ब्रिटिश सभ्यता जीवन एवं प्रकृति की एक नई शैली का प्रतिनिधित्व करती है और उसमें भारत के उत्थान एवं मुक्ति की आशा रखी।
इस बौद्धिक आभासीकरण का एक पहलू ज्ञान के प्रति पिपासा थी। इसने आधुनिक विज्ञान तक पहुंच प्रदान करने के लिए भारतीयों द्वारा वैज्ञानिक सोसायटीज एवं संस्थानों के निर्माण का नेतृत्व किया। अधिकतर भारतीय बुद्धिजीवियों एवं सांस्कृतिक अभिजन ने प्रकृति एवं जीवन के बारे में ज्ञान के नवीन क्षितिज खोलने के लिए भारतीयों को विज्ञान की शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता महसूस की। इसके विपरीत, यह गौर करना आवश्यक है कि जब ब्रिटिश साम्राज्य ने पश्चिमी शिक्षा को प्रस्तुत किया, उन्होंने पाठ्यक्रम में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को शामिल नहीं किया। इसकी अपेक्षा, उन्होंने साहित्य, कानून, व्याकरण इत्यादि पर अधिक बल दिया। भारतीय बुद्धिजीवियों ने इस तथ्य को जल्दी से जाग लिया और पूरी 19वीं सदी में वे इससे परिचित रहे और यहां तक कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भी वे जागरूक थे। इस परिप्रेक्ष्य में, भारतीयों ने मनोविज्ञान एवं अनुसंधान के लिए वैज्ञानिक संस्थानों की स्थापना द्वारा आधुनिक विज्ञान की स्वदेशी परम्परा का निर्माण किया।
इस संदर्भ में, हिंदू काॅलेज (1816), दिल्ली काॅलेज (1825), अलीगढ़ साइंटिफिक सोसायटी (1864), बिहार साइंटिफिक सोसायटी (1868), और इ.िडयन एशोसिएशन फाॅर द कल्टीवेशन आॅफ साइंस (1876) जैसी वैज्ञानिक संस्थाएं अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इन संस्थाओं का शुभारंभ अधिकतर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में किया गया। इन संस्थाओं का उद्देश्य विज्ञान शिक्षा के अनुकरण से भारतीयों के लिए अवसरों के सृजन द्वारा भारत में न केवल वैज्ञानिक ज्ञान को लोकप्रिय बनाना अपितु इसका लोकतंत्रीकरण करना भी था।
सी.वी. रमन, एम.एन. साहा, एस.एन. बोस, डी.एन. वाडिया, पी.सीमहालनोबिस, एस.आर. कश्यप, बीरबल साहनी, एस. रामानुजन, एस. चंद्रशेखर जैसे कुछ वैज्ञानिकों ने वैश्विक रूप से प्रतिस्पद्र्धी वैज्ञानिक अनुसंधान को आगे बढ़ाया। इनमें से अधिकतर वैज्ञानिक भारत में प्रशिक्षित हुए थे और उन्होंने भारतीय विश्वविद्यालयों में अपने अनुसंधान को जारी रखा।
प्रथम विश्व युद्ध का प्रारंभ विज्ञान की शिक्षा और वैज्ञानिक अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकीय विकास के पैटर्न में आमूल-चूल परिवर्तन लेकर आया। ब्रिटेन से अलग-थलग औपनिवेशिक सरकार को युद्ध की जरूरतों को पूरा करने के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी कार्मिकों के स्थानीय संसाधनों को सक्रिय रूप से गतिशील करने के लिए बाध्य किया गया।
औपनिवेशिक भारत के वैज्ञानिक संस्ंस्थान
हिन्दू काॅलेजः भारत में केवल मिशनरीज थी जो पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने के लिए प्रतिबद्ध थी, विशेष रूप से एंग्लिकन, जो हिंदुओं के नैतिक उत्थान के लिए पश्चिमी कला, दर्शन एवं धर्म का प्रयोग करना चाहते थे।
इसके तीव्र विरोध में (ओरियंटलिस्ट और मिशनरीज दोनों के प्रयास में), हालांकि,एक स्थानीय भद्रजन समुदाय उदित हुआ। इन भद्रजनों को भद्रलोक के नाम से अधिक बेहतर तरीके से जागा जाता था। ओरियंटलिस्ट और मिशनरीज दोनों के प्रयासों की प्रतिक्रिया की निरतंरता में, भद्रलोक ने 1816 में कलकत्ता में एक महाविद्यालय (इसे हिन्दू काॅलेज के नाम से अधिक जागा जाता है) की स्थापना की। इसका उद्देश्य सरकार से बिना किसी प्रकार की मदद प्राप्त किए ‘‘यूरोपीय साहित्य एवं विज्ञान’’ का विकास करना। मौलिक पाठ्यक्रम में न केवल पढ़ने को शामिल किया गया, अपितु इतिहास, भूगोल, घटनाक्रम, खगोलशास्त्र, रसायन विज्ञान एवं अन्य विज्ञानों की पढ़ाई को भी शामिल किया गया। काॅलेज का संचालन एवं प्रबंधन विशेष रूप से कलकत्ता के भद्रलोक द्वारा किया गया। यह संस्था केवल हिंदू परिवारों के बेटों के लिए खुली थी। इसमें जाति भेदभाव एवं लिंग पक्षपात होता था। इसके बावजूद, इसमें 1828 तक 400 विद्यार्थियों
भारत में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वैज्ञानिक उपलब्धियां
 लौह एवं इस्पात
ऽ लौह धातु का दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व गंगा की घाटी में पता चला।
ऽ जंग मुक्त इस्पात भारत की खोज थी एवं शताब्दियों तक इसके उत्पादन में भारत का एकाधिकार रहा।
 जिंक
ऽ भारत का धातु विद्या में महत्वपूर्ण योगदान जिंक के आविष्कार एवं उसके प्रयोग के रूप में सामने आया। भारत ने जिंक आसवन की विधि खोजी जिसमें धातु के वाष्पीकरण एवं फिर संघनन द्वारा उसे शुद्ध रूप में प्राप्त करना शामिल था। यह वैज्ञानिक खोज में मील का पत्थर साबित हुआ।
 अभियांत्रिकी
ऽ भारत की स्वदेशी तकनीकें बहुत विशिष्ट एवं उच्च स्तर की थीं जिसने पूरे विश्व में कुतूहल उत्पन्न कर

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