उच्च न्यायालय किसे कहते हैं high court in hindi उच्च न्यायालय की परिभाषा क्या है , कार्य शक्तियाँ के न्यायाधीश
high court in hindi उच्च न्यायालय किसे कहते हैं उच्च न्यायालय की परिभाषा क्या है , कार्य शक्तियाँ के न्यायाधीश का कार्यकाल कितना होता है ? वेतन संख्या आदि कितनी है ?
उच्च न्यायालय
हमारा संविधान एक उच्च न्यायालय को राज्य विधायिका के शीर्ष पर रखता है। भारतीय संविधान, भाग-टप् के अध्याय-ट में उच्च न्यायालय के संगठन तथा प्रकार्यों के संबंध में प्रावधान हैं। अनुच्छेद 125 के प्रावधान, जो कहता है, “प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा‘‘, के अनुसार भारत के प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय है और इन न्यायालयों की एक संवैधानिक प्रतिष्ठा है।
संसद को दो अथवा अधिक राज्यों के लिए एक सर्वमान्य उच्च न्यायालय विहित करने का अधिकार है। उदाहरण के लिए, पंजाब और हरियाणा एक सर्वमान्य उच्च न्यायालय रखते हैं। इसी प्रकार असम, नागालैण्ड, मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा के लिए एक ही उच्च न्यायालय है।
केन्द्रशासित प्रदेशों के मामले में, संसद विधानानुसार एक उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को किसी भी केन्द्र-शासित प्रदेश तक बढ़ा सकती है, अथवा एक उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को किसी भी केन्द्रशासित प्रदेश से निकाल सकती है, अथवा किसी केन्द्रशासित प्रदेश के लिए एक उच्च न्यायालय बना सकती है। इस प्रकार, दिल्ली, एक केन्द्रशासित प्रदेश, अपना एक पृथक् उच्च न्यायालय रखता है जबकि, मद्रास उच्च न्यायालय पांडिचेरी पर, केरल उच्च न्यायालय लक्षद्वीप पर, मुम्बई उच्च न्यायालय दादरा व नागर हवेली पर, कालकता उच्च न्यायालय अण्डमान और नीकोबार द्वीपसमूह पर, पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय चण्डीगढ़ पर क्षेत्राधिकार रखता है।
उच्च न्यायालय का संयोजन
सर्वोच्च न्यायालय से भिन्न, उच्च न्यायालय के लिए न्यायाधीशों की कोई न्यूनतम संख्या नहीं है। राष्ट्रपति, समय-समय पर, प्रत्येक उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या तय करेगा। उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति भारत के मुख्य न्यायमूर्ति तथा राज्य के राज्यपाल, जिसका वस्तुतः अर्थ है राज्य का वास्तविक कार्यकारिणी, की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा चुना जाता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति करने में, राष्ट्रपति से उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति से विचार-विमर्श करने की अपेक्षा की जाती है। संविधान काम निपटाने के लिए अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु भी व्यवस्था देता है। बहरहाल, ये नियुक्तियाँ अस्थायी होती हैं जो दो वर्ष की अवधि से अधिक नहीं होती।
कोई न्यायाधीश सामान्यतः 62 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक पदासीन रहता है। वह त्याग-पत्र देकर, सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश नियुक्त होकर अथवा राष्ट्रपति द्वारा किसी अन्य उच्च न्यायालय को स्थानान्तरित होकर अपना पद खाली कर सकता है। एक न्यायाधीश राष्ट्रपति द्वारा दुराचार अथवा अक्षमता के आधार पर हटाया जा सकता है, उसी प्रकार जैसे कि सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश हटाया जाता है।
अधिकार-क्षेत्र
एक उच्च न्यायालय के मौलिक क्षेत्राधिकार में शामिल हैं – मौलिक अधिकारों का बाध्यकरण, संघ व राज्य के चुनाव तथा राजस्व मामलों पर क्षेत्राधिकार से संबंधित विवादों का निपटारा। इसका पुनर्वादी क्षेत्राधिकार असैनिक व आपराधिक, दोनों मामलों तक विस्तीर्ण है। असैनिक मामलों में, उच्च न्यायालय या तो पहला पुनरावेदन अथवा दूसरा पुनरावेदन न्यायालय होता है। आपराधिक मामलों में, किसी सत्र न्यायाधीश अथवा किसी अतिरिक्त सम-न्यायाधीश के निर्णयों से पुनरावेदन किया जाता है, जहाँ कारावास का दण्डादेश सात वर्ष से अधिक ही व छोटे-मोटे अपराधों के अलावा अन्य उल्लिखित केस एक उच्च न्यायालय के पुनर्वादी क्षेत्राधिकार का संघटन करते हों। इन सामान्य मौलिक तथा पुनर्वादी क्षेत्राधिकारों के अलावा, संविधान उच्च न्यायालयों में चार अतिरिक्त शक्तियाँ निहित करता है। ये हैं:
ऽ मौलिक अधिकारों के बाध्यकरण हेतु आज्ञा-पत्र अथवा आदेशों को जारी करने का अधिकार । दिलचस्प बात है कि एक उच्च न्यायालय का आज्ञा-पत्र क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से विस्तृत है। यह न सिर्फ मौलिक अधिकार भेजने के मामलों में बल्कि किसी साधारण वैधानिक अधिकार के मामलों में भी आज्ञा-पत्र जारी कर सकता है।
ऽ सशस्त्र बल सम्बद्धों को छोड़कर अन्य सभी न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों के अधीक्षण का अधिकार। वह नियम बना सकता है और तीव्रतर तथा प्रभावी न्यायिक उपचार के लिए निदेशों के साथ समय-समय पर मार्गदर्शन हेतु निर्देश भी जारी कर सकता है।
ऽ संविधान की व्याख्या से संबंधित मामलों को अधीनस्थ न्यायालयों से स्वयं को हस्तांतरित करने करने का अधिकार।
ऽ उच्च न्यायालय के अधिकारियों व सेवाकर्मियों को नियुक्त करने का अधिकार ।
कुछ मामलों में, उच्च न्यायालयों का क्षेत्राधिकार सीमित है। उदाहरण के लिए, उसका एक न्यायाधिकरण पर कोई क्षेत्राधिकार नहीं होता और एक केन्द्रीय अधिनियम अथवा संघ के किसी प्रशासनिक प्राधिकरण द्वारा बनाए गए किसी नियम, विज्ञप्ति अथवा आदेशों को भी अवैध करार देने का कोई अधिकार नहीं है, चाहे वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो अथवा नहीं।
अधीनस्थ न्यायालय
उच्च न्यायालय के अधीन, न्यायालयों का एक पदानुक्रम होता है जिन्हें भारतीय संविधान में अधीनस्थ न्यायालयों के रूप में जाना जाता है। चूंकि ये न्यायालय राज्य सरकार द्वारा अधिनियम के कारण अस्तित्व में आए हैं, उनकी नामावली और पदनाम राज्य-राज्य में भिन्न हैं । तथापि, मोटे तौर पर संगठनात्मक आधार के शब्दों में एकरूपता है।
राज्य जिलों में बँटा होता है और प्रत्येक जिले में एक न्यायालय होता है जिसका उस जिले में एक पुनर्वादी क्षेत्राधिकार होता है। जिला न्यायालयों के अधीन, अतिरिक्त जिला न्यायालय, उप-न्यायालय, मुन्सिफ न्यायाधिकारी अदालत, द्वितीय श्रेणी विशेष न्यायिक न्यायाधिकारी की अदालत, प्रथम श्रेणी विशेष न्यायिक न्यायाधिकारी की अदालत, कारखाना अधिनियम तथा श्रम कानूनों के लिए विशेष मुन्सिफ न्यायाधिकारी की अदालत, आदि जैसी निचली अदालत होती हैं। अधीनस्थ न्यायालय पदानुक्रम के सबसे नीचे हैं – पंचायत अदालतें (न्याय पंचायत, ग्राम पंचायत, पंचायत अदालत, आदि) उन्हें, बहरहाल, आपराधिक न्यायालय क्षेत्राधिकार के प्रयोजन से अदालतों के रूप में नहीं लिया जाता है।
जिला न्यायालय का मुख्य कार्य अधीनस्थ न्यायालयों से पुनरावेदनों की सुनवाई करना है। तथापि, ये न्यायालय विशेष स्थिति के अन्तर्गत मौलिक विषयों का परिज्ञान भी ले सकते हैंय उदाहरण के लिए, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, अभिभावक अधिनियम व संरक्षकता अधिनियम तथा भू-अधिग्रहण अधिनियम।
संविधान अधीनस्थ न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। जिला न्यायालयों की नियुक्तियाँ राज्यपाल द्वारा उच्च न्यायालय की सलाह से की जाती हैं। नियुक्ति हेतु अहर्त होने के लिए व्यक्ति सात वर्ष सम्मानित अधिवक्ता अथवा वकील रहा हो, अथवा संघ या राज्य की सेवा में एक अधिकारी रहा हो। किसी राज्य की न्यायिक सेवा हेतु जिला न्यायाधीशों के अलावा व्यक्तियों की नियुक्ति उच्च न्यायालय तथा राज्य लोक सेवा आयोग के साथ विचार-विमर्श करने के बाद राज्यपाल द्वारा, उसी के द्वारा उसके निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार, की जाती है।
उच्च न्यायालय, राज्य न्यायिक सेवा में संबंधित सभी व्यक्तियों की तैनाती, पदोन्नति तथा अवकाश-अनुमति जैसे मामलों में, जिला न्यायालयों तथा उनके अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण रखता है।
न्यायिक समीक्षा
यथार्थतः न्यायिक पुनरीक्षण के द्योतन का अर्थ है – एक प्रवर न्यायालय द्वारा किसी अवर न्यायालय की आज्ञप्ति अथवा दण्डादेश का संशोधन । न्यायिक पुनरीक्षण का सार्वजनिक कानून में अधिक तकनीकी महत्त्व है, विशेषतः परिमित सरकार की संकल्पना पर आधारित, एक लिखित संविधान रखने वाले देशों में। इस प्रकरण में न्यायिक पुनरीक्षण का अर्थ है कि विधि-न्यायालयों के पास संविधान के प्रावधानों के संदर्भ सहित वैधानिक के साथ-साथ अन्य सरकारी कार्यवाही की वैधता के परीक्षण का अधिकार है।
इंग्लैण्ड में, वहाँ कोई लिखित संविधान नहीं है। यहाँ संसद ही सर्वोच्च अधिकारप्राप्त है। वहाँ न्यायालयों को सर्वसत्ताक संसद द्वारा पारित कानूनों की पुनरीक्षा का अधिकार नहीं है। बहरहाल, इंग्लिश न्यायालय कार्यकारिणी की कार्यवाहियों की वैधता का पुनरावलोकन करते हैं। संयुक्त राज्य में, विधायिका ने कार्यकारिणी के कार्यों की संवीक्षा तथा दय प्रक्रिया‘ (ड्यू प्रोसेस) के सिद्धांत द्वारा विधि-निर्माण की संवैधानिक वैधता की जाँच करने का अधिकार लिया। विषमतः भारत में, विधि-निर्माण अधिनियमों की अवैध घोषित करने का न्यायालय का अधिकार संविधान में स्पष्टतया अधिनियमित है। संविधान में परिगणित मौलिक अधिकार न्याय-योग्य बने हैं और संवैधानिक उपचार का अधिकार स्वयं ही एक मौलिक अधिकार बनाया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय का न्यायिक पुनरीक्षण अधिकार संविधान संशोधनों के साथ-साथ विधायिकाओं, कार्यकारिणी तथा दूसरे सरकारी माध्यमों की अन्य कार्यवाहियों तक विस्तीर्ण है। तथापि, न्यायिक पुनरीक्षण संविधान संशोधनों के सम्बन्ध में विशेषकर महत्त्वपूर्ण और विवादास्पद रहा है। अनुच्छेद 368 के तहत, संविधान में संशोधन संसद द्वारा किए जा सकते हैं। परन्तु अनुच्छेद 13 कहता है कि राज्य ऐसा कोई कानून नहीं बनाएगा जो मौलिक अधिकारों का हनन अथवा संक्षेपण करता हो और इस नियम का उल्लंघन करता बनाया गया कोई भी कानून अमान्य होगा। प्रश्न है कि क्या संविधान का संशोधन राज्य द्वारा बनाया गया एक कानून है? क्या मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करता कोई कानून असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है? भारत के एक गणतंत्र बन जाने के बाद लगभग दो दशकों तक न्यायपालिका के सामने यह एक पहेली रही।
आरम्भिक वर्षों में, न्यायालय कहा करते थे कि संविधान में कोई संशोधन अनुच्छेद 13 के अभिप्राय से कानून नहीं है और इस कारण, यदि इसने किसी मौलिक अधिकार की उपेक्षा भी की है, इसे अमान्य करार नहीं दिया जाना चाहिए। परन्तु 1967 में, प्रसिद्ध गोलक नाथ केस में, सर्वोच्च न्यायालय ने एक पूर्णरूपेण विपरीत स्थिति अंगीकार की। यह कहा गया कि संविधान में कोई भी संशोधन कानून है और यदि संशोधन ने किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है, इसे असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है। पूर्ववर्ती वे सभी संशोधन जो सम्पत्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते थे, असंवैधानिक पाए गए। जब कोई कानून एक लम्बे समय तक प्रभाव में रहता है, यह स्वयं स्थापित हो जाता है और समाज द्वारा उसका अनुपालन किया जाता है। यदि पिछले सभी संशोधन अवैध घोषित कर दिए जाते हैं, उन कार्यविवरणों की संख्या जो उन संशोधनों के अनुसरण में हुए, डाँवाडोल हो जाती है। यह बात आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था में अस्तव्यस्तता की ओर उन्मुख करेगी। इस स्थिति से बचने के लिहाज से और वास्तव में, कार्यविवरणों को कायम रखने के उद्देश्य से, पूर्व संशोधन अवैध बता दिए गए। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भविष्य में मौलिक अधिकारों के पूर्णरूपेण विपरीत कोई भी कार्यविवरण अथवा संशोधन अवैध होगा। पुराने कार्यविवरणों को वैध और भावी कार्यविवरणों को अवैध मानने की तकनीक को पुरोलक्षी प्रत्यादेश कहा जाता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि संशोधनों वाले अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधित करने की शक्ति निहित नहीं है, बल्कि वह केवल संशोधन करने की प्रक्रिया तय कर सकता है। इस व्याख्या ने मुश्किल पैदा कर दी। जब कभी भी संविधान के एक प्रावधान विशेष को संशोधित करने की आवश्यकता होती है, यदि इस संशोधन का मौलिक अधिकारों पर प्रभाव पड़ता है, ऐसा करना असंभव होगा।
1970 में, जब सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीमती इंदिरा गाँधी के जनवादी कदमों में से कुछ को आघात पहुँचाया, जैसे कि भूतपूर्व राजाओं के प्रीवी पर्स का उन्मूलन और बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रधानमंत्री महोदया ने संसद की सर्वोच्चता का दावा करना शुरू कर दिया। 1971 के आम चुनावों में दो-तिहाई बहुमत हासिल करने के बाद, वह अपनी इच्छाओं को कार्यरूप देने में सक्षम थीं। 1972 में संसद ने 25वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया जिसने उस स्थिति में मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण हेतु विधायिका को स्वीकृति दी दी, यदि वह राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों को कार्यरूप देने में अनुसारी बताया जाता है। किसी भी न्यायालय को ऐसी घोषणा पर प्रश्न करने की अनुमति नहीं थी। 28वें संशोधन अधिनियम ने भारतीय राज्यों के भूतपूर्व शासकों को स्वीकृत मान्यता समाप्त कर दी और उनके प्रीवी पर्स समाप्त कर दिए गए।
इन संशोधनों को 1973 के प्रसिद्ध केशवानन्द भारती केस (अन्यथा मौलिक अधिकार केस के रूप में विदित) में सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि जबकि, संसद संविधान द्वारा प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों को भी संशोधित कर सकती है, वह संविधान के ‘मूल प्राधार‘ अथवा श्ढाँचेश् को परिवर्तित करने में सक्षम नहीं है। ‘मूल प्राधार‘ के नवोद्भुत सिद्धांत के तहत, संविधान में कोई संशोधन तभी वैध है यदि वह संविधान के मूल प्राधार की प्रभावित नहीं करता है। अनुच्छेद 31-सी का दूसरा भाग ख्अनुच्छेद 39 (बी) और (सी) में दिए गए निदेशक सिद्धांतों को लाग करने हेतु किसी घोषणा वाले किसी कानून पर कोई भी प्रश्न नहीं किया जाएगा। वैध नहीं ठहराया गया क्योंकि इस संशोधन ने न्यायिक पुनरीक्षण हेतु वह अवसर छीन लिया था जो संविधान के मूल अभिलक्षणों में से एक है। मूल अभिलक्षणों के सिद्धांत ने न्यायिक पुनरीक्षण के अधिकार को व्यापक विस्तीर्णता प्रदान की।
बाद का इतिहास संविधान संशोधनों के पुनरीक्षण में इस सिद्धांत द्वारा निभाई गई महत्त्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है। प्रधानमंत्री के पद पर आसीन किसी व्यक्ति के संसदीय चुनाव को चुनौती देने के लिए, 39वें संविधान संशोधन ने एक भिन्न प्रक्रिया बुझाई। चुनाव को केवल संसद द्वारा बनाए गए विशेष कानून के अधीन ही एक प्राधिकरण के समक्ष चुनौती दी जा सकती है और इस प्रकार के किसी कानून की वैधता पर प्रश्न में विचार नहीं किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह संशोधन अवैध था क्योंकि यह संविधान वे निष्पक्ष चुनाव अनिवार्य हैं और किसी प्रत्याशी विशेष के चुनाव की निष्पक्षता की न्यायिक जाँच को निकाल देना उचित नहीं है और यह लोकतंत्र के उस आदर्श के विरुद्ध जाता है जो हमारे संविधान का आधार है।
एक परवर्ती केस, मिनर्वा मिल केस, में सर्वोच्च न्यायालय एक कदम और आगे बढ़ा। 1976 के 42वें संविधान संशोधन ने, अन्य बातों के लोच, न्यायिक पुनरीक्षण को किसी संविधान संशोधन से परे रखते हुए, अनुच्छेद 368 में एक उपवाक्य जोड़ा था। उक्त न्यायालय ने कहा कि न्यायिक पुनरीक्षण के सिद्धांत संविधान के एक मूल अभिलक्षण, के विरुद्ध था।
न्यायिक पुनरीक्षण पर प्रतिबंधों में से एक अधिस्थिति का सिद्धांत रहा है। इसका अर्थ है कि केवल वही व्यक्ति जो किसी प्रशासनिक कार्यवाही द्वारा अथवा कानून के किसी अन्यायपूर्ण प्रावधान द्वारा व्यथित है, क्षतिपूर्ति हेतु न्यायालय जाने का अधिकारी होगा। 1982 में, तथापि, सर्वोच्च न्यायालय ने एशियाई खेलों के निर्माण-कर्मियों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर एक निर्णय में ‘लोकतांत्रिक अधिकार जनसंघ‘ को जनहित वाद (चाचिका) का अधिकार प्रदान किया। उस पत्रात्मक क्षेत्राधिकार का सहारा लेते हुए, जिसके तहत संयुक्त राज्य सर्वोच्च न्यायालय ने एक कैदी की ओर से मिले पोस्ट-कार्ड को याचिका माना था, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘जन भावना से ओतप्रोत‘ कोई भी व्यक्ति या संगठन एक पत्र लिखकर भी न्यायालय जा सकता है। 1988 में, ‘सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका‘ के रूप में लिए जाने वाले मामलों को निरूपित किया। ये श्रेणियाँ हैं: बँधुआ मजदूरों, उपेक्षित बच्चों से संबंधित मामले, कैदियों से याचिका, पुलिस के विरुद्ध याचिका, महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों पर न शंसता के विरुद्ध याचिका, पर्यावरणीय मामले, दवाओं व खाद्य-पदार्थों में मिलावट, विरासत व संस्कृति का अनुरक्षण तथा जनहित के ऐसे ही अन्य मामले।
जब से जनहित याचिका का अधिकार मिला है, जो कि कुछ लोग भारत की जनता के पास एकमात्र बड़ा लोकतांत्रिक अधिकार होने, और संसद नहीं बल्कि न्यायपालिका प्रदत्त होने का दावा करते हैं, अदालतें ‘याचिकाओं‘ से भर गई हैं। जबकि ऐसे वाद (मुकदमों) की बाढ़ लोकतांत्रिक अधिकारों के वंचित दशा की व्यापक प्रकृति को दर्शाती है, वे उन न्यायालयों पर दवाब बढ़ने के खतरे को भी सामने रखते हैं जो पहले ही अतिभारित हैं।
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