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संकुलों की ज्यामिति व चुम्बकीय आचरण क्या हैं , Geometry and magnetic behaviour in hindi

Geometry and magnetic behaviour in hindi संकुलों की ज्यामिति व चुम्बकीय आचरण क्या हैं ?

संयोजकता बन्ध सिद्धान्त (Valence Bond Theory)

संयोकता बन्ध सिद्धान्त का धातु संकुलों में अनुप्रयोग इस सिद्धान्त का बहुपरमाणुक अणुओं में अनुप्रयोग जैसा ही है। संकुलों को इस सिद्धान्त द्वारा समझाने में पॉलिंग ने सिजविक के इस विचार को स्वीकार किया कि एक संकुल का निर्माण एक धातु आयन तथा लिगण्डों के मध्य उपसहसंयोजकता आबन्ध बनने का परिणाम है।

इसकी सहायता से उपसहसंयोजन यौगिकों के त्रिविम रसायन, चुम्बकीय आचरण, बलगति विज्ञान (kinetics) तथा अन्य भौतिक व रासायनिक गुण आसानी से समझाये जा सकते हैं। यह बन्धित परमाणुओं का एक सरल मॉडल प्रदान करता है, जिसे सुगमतापूर्वक समझा जा सकता है। रसायन के सभी क्षेत्रों में पॉलिंग की चिर स्थाई छाप है। उन्हें दो बार नोबल पुरस्कार से सुशोभित किया गया- पहली बार 1954 में रसायन (संयोजकता बन्ध सिद्धान्त) के लिये तथा दूसरी बार 1962 में शांति के लिए यह पुरस्कार दिया गया था।

संयोजकता बन्ध सिद्धान्त के संक्रमण धातु संकुलों में अनुप्रयोग का मुख्य सार निम्न तीन मूल कल्पनाओं के रूप में रखा जा सकता है-

  1. केन्द्रीय धातु परमाणु / आयन अपनी समन्वय संख्या के बराबर खाली परमाणु कक्षक उपलब्ध कराता है। ये खाली कक्षक संकरित होकर संकर कक्षकों का एक नया समूह बनाते हैं जो किसी सामान्य ज्यामितीय आकृति के कोनों की ओर इंगित होते हैं। संकुलों में पाये जाने वाले, बहुत सामान्य संकरण ये हैं- d2 sp3, dsp3, dsp2, sp 3 तथा sp इनसे बनी संरचनाएँ, बन्धों की आपेक्षिक सामर्थ्य इत्यादि का विवरण सारणी 3.9 में दिया गया है।
  2. o – बन्ध बनाने के लिए धातु के खाली संकर कक्षक, दाता परमाणुओं के भरे हुए कक्षकों से अतिव्यापन करते हैं। निर्मित बन्ध, जिसे सामान्यतः उपसहसंयोजकता आबन्ध कहा जाता है, दो कक्षकों के अतिव्यापन ( overlapping) से बने सहसंयोजक बन्ध जैसा ही होता है। तथापि, बंध निर्माण में दोनों इलेक्ट्रॉन एक ही परमाणु से प्राप्त होने के कारण बंध में काफी मात्रा में ध्रुवता (polarity) पाई जाती है।
  3. धातु तथा लिगण्डों के मध्य ०- बन्ध के अतिरिक्त ग-बन्ध बनने की भी सम्भावना होती है। ऐसा तभी हो सकता है जब धातु के भरे हुए d-कक्षक दाता परमाणु के उपयुक्त खाली कक्षकों से अतिव्यापन कर सकें जैसा कि आगे बताया गया है। इस प्रक्रम में तन्त्र ( system) विद्युत उदासीनता प्राप्त करता है जिससे धातु – लिगण्ड बन्ध और अधिक सबल हो जाता है।

यदि किसी संकुल में – बन्ध अनुपस्थित है तो ०- बन्धन के फलस्वरूप लिगण्ड से धातु की और इलेक्ट्रॉन स्थानान्तरण के कारण धातु पर अत्यधिक ऋण आवेश एकत्रित हो जाना चाहिए। उदाहरणार्थ [Co(H2O)6]2+ संकुल आयन में जल अणुओं से Co2 + आयन की और 6 इलेक्ट्रॉन स्थानांतरित होने से कोबाल्ट पर 4 आवेश हो जायेगा। लेकिन इतने अधिक आवेश वाला तन्त्र स्थायी नहीं हो सकता संकुलों में, स्थायित्व को समझाते हुए पॉलिग ने सुझाव दिया कि ठ-बन्ध के परिणामस्वरूप धातु आयन पर इस प्रकार से एकत्रित ऋण आवेश धातु तथा लिगण्डों के मध्य पुनवितरित हो जाता है, जिससे किसी भी परमाणु पर है। इलेक्ट्रॉन से अधिक आवेश नहीं रहता। इलेक्ट्रॉनों का पुनर्वितरण दो पर कि समझाया जा सकता है— (i) पश्च बन्धन द्वारा तथा (ii) विद्युत उदासीनता सिद्धान्त द्वारा ।

(i) पश्च बन्धन (Back bonding):- बन्धन में जहाँ इलेक्ट्रॉन का स्थानान्तरण लिगण्ड से धातु की ओर (LM) होता है, पश्च बन्धन में यह स्थानान्तरण ठ-बन्धन के विपरीत, अर्थात् धातु स लिगण्ड की ओर (ML) होता है। पश्च बन्धन में धातु के भरे हुए कक्षक लिगण्ड के खाली कक्षकों से अतिव्यापन कर-बन्ध बनाते हैं, जिससे धातु पर 6-बन्धन के कारण एकत्रित ऋण आवेश वापिस लिगण्डी पर चला जाता है। अष्टफलकीय तथा वर्गाकार संकुलों में बन्धन हेतु धातु के dxy dyz तथा dxz कक्षक प्रयुक्त होते हैं। लिगण्डों के खाली कक्षक दो प्रकार के हो सकते हैं- (i) d कक्षक, या (ii) विपरीत बन्धी – कक्षक | प्रथम प्रकार के खाली कक्षक बहुत से लिगण्डों में पाये जाते हैं, जैसे PR3 में P पर, SR2 में S पर तथा AsR3 में As पर। इस प्रकार के अतिव्यापन को dr-dr अतिव्यापन कहते हैं। दूसरी प्रकार के कक्षक CO. CN,NO”, NO2 आदि लिगण्डों में पाये जाते हैं। M-CO बन्ध में -तथा-बन्ध का निर्माण चित्र 3.42 में दिखाया गया है। जल या अमोनिया जैसे अणु, लिगण्ड के रूप में प्रयुक्त हों तो पश्च बन्धन सम्भव नहीं है क्योंकि धातु तथा लिगण्ड, दोनों में, ग-बन्ध में प्रयुक्त हो सकने वाले कक्षक पूर्ण रूप से भरे होते हैं।

(ii) विद्युत् उदासीनता सिद्धान्तः- लिगण्ड में दाता परमाणु यदि अत्यधिक विद्युत्ऋणीय हो, जैसे कि N, O, F तो धातु तथा लिगण्ड के मध्य इलेक्ट्रॉन युग्म असमान रूप से सहभाजित होता है जिससे धातु परमाणु पर कुछ धन आवेश प्रेरित हो जाता है। इस प्रकार धातु परमाणु पर एकत्रित ऋण आवेश काफी हद तक समाप्त हो जाता है तथा यह लगभग एक उदासीन परमाणु बन जाता है। इसे विद्युत उदासीनता सिद्धान्त कहते हैं। उदाहरणस्वरूप हम [Be(H2O)4]2+ तथा [Be(H2O)6l2+ पर विचार करते हैं| [Be(H2O)4]2+ संकुल में Be के +2 आवेश को चार H2O अणु प्रभावशाली ढंग से लगभग समाप्त कर देते हैं जिससे संकुल आयन में Be पर मात्र 0.04 आवेश रह जाता है। लेकिन [Be(H2O)6]2+ में Be पर ऋण आवेश – 1. 12 आता है। अतः यह संकुल अस्थाई है जबकि [Be(H2O) | संकुल स्थाई है। इसी प्रकार [AI(H2O)6]3+ तथा [AI(NH3)6]3+ Al पर आवेश क्रमशः -0.12 तथा -1.18 हैं जिसके परिणामस्वरूप पहला संकुल ही स्थाई हो सकता है दूसरा नहीं ।

संकुलों की ज्यामिति व चुम्बकीय आचरण (Geometry and magnetic behaviour)

धातु आयन में खाली परमाणु कक्षकों की उपलब्धता के आधार पर उपसहसंयोजन यौगिकों की ज्यामिति तथा चुम्बकीय गुणों को संयोजकता बन्ध सिद्धान्त की सहायता से सफलतापूर्वक समझाया जा सकता है। सारणी 3.9 में संकर कक्षकों की आपेक्षिक बन्ध सामर्थ्य देखने से स्पष्ट हो जाता है कि आयनों में 6- उपसहसंयोजित अष्टफलकीय संकुल बनाने की सर्वाधिक प्रवृत्ति पाई जानी चाहिए क्योंकि d-sp. संकरित अवस्था से निर्मित धातु-लिगण्ड बन्ध की सामर्थ्य सर्वाधिक होती है। यह तर्क उचित प्रतीत होता है क्योंकि अष्टफलकीय ज्यामिति वाले संकुलों की संख्या अन्य ज्यामितियों वाले संकुलों की अपेक्षा सबसे अधिक है। आपेक्षिक बंध सामर्थ्य के आधार पर विभिन्न ज्यामितियों वाले संकुलों को इस क्रम में रखा जा सकता है अष्टफलकीय > वर्गाकार समतलीय > चतुष्फलकीय > एक रेखीय ।

अष्टफलकीय ज्यामिति में लिगण्ड एक अष्टफलक के कोनों पर स्थित होते हैं। इसी दिशा में dx2x2 व d2 कक्षक भी अभिविन्यस्त होते हैं। इसलिए, ये d कक्षक खाली होने चाहिए जिससे ये d2sp संकरण के लिए उपलब्ध हो सकें। इसलिए ऐसी सभी स्थितियों में जहाँ धातु के पास रिक्त d x2y2 व dx 2 कक्षक हो तो संकुलों की ज्यामिति सदैव अष्टफलकीय होगी। जिन धातु परमाणुओं में व कक्षक भी पूर्ण रूप से भरे हो उनमें लिगण्ड 2-अक्ष की दिशा में संलग्न नहीं हो सकते। अर्थात् धातु आयन के पास केवल dx2y2 कक्षक ही रिक्त हों तो dsp2 संकरण के कारण संकुल आकार समतलीय ज्यामिति का होगा। फलतः वर्गाकार संकुल का निर्माण अष्टफलकीय संकूल बनाने के असफल प्रयत्न के परिणाम के रूप में माना जा सकता है। उन स्थितियों में जहाँ सभी कक्षक पूर्ण रूप से भरे हों d कक्षक संकरण में भाग नहीं लेते तथा sp3 संकरण होने के कारण चतुष्फलकीय संकुल प्राप्त होते हैं।

(i) अष्टफलकीय संकुल (Octahedral Complexes) (a) (d0, d1, d2 तथा d3 विन्यास):- ऊपर की गई विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि d0, d1, d2 तथा d3 विन्यास वाले सभी परमाणु आयन हमेशा अष्टफलकीय संकुल बनायेंगे। ऐसे सभी धातु आयनों में दो खाली (n-1)d कक्षक, (eg ns तथा np कक्षकों के साथ संकरित होने के लिए सदैव उपलब्ध होते हैं (चित्र 3.43)। ये खाली परमाणु कक्षक संकरित होकर छ: समतुल्य d2 sp 3 संकर कक्षक बनाते हैं।

चित्र 3.43 से स्पष्ट है कि d0 से d3 तक विन्यास वाले परमाणु आयनों में खाली eg परमाणु कक्षकों के संकरण से अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं आता है। इसलिए ऐसे संकुलों का चुम्बकीय आघूर्ण स्वतन्त्र धातु आयन के चुम्बकीय आघूर्ण जितना होता है। दूसरे शब्दों में, d° विन्यास वाले धातु आयनों के संकुल प्रतिचुम्बकीय होंगे तथा d1, d2, d3 विन्यास वाले धातुओं के सभी संकुल अनुचुम्बकीय होंगे जिनका अनुचुम्बकत्व इलेक्ट्रॉनों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता जायेगा ।

(b) d4, d5 तथा विन्यास: d4 d5 तथा विन्यास वाले धातु आयनों की न्यूनतम अवस्था में अष्टफलकीय संकरण के लिए खाली दो d कक्षक उपलब्ध नहीं होते हैं जैसा कि चित्र 3.44 में बताया गया है। लेकिन अष्टफलकीय संकुलों के निर्माण हेतु धातु आयनों में दो रिक्त कक्षकों की उपलब्धता आवश्यक है। न्यूनतम अवस्था (चित्र 3.44) से ये रिक्त कक्षक निम्न दो प्रकार से प्राप्त हो सकते

  1. इलेक्ट्रॉनों की पुनर्व्यव्यवस्था द्वारा : ‘d4,d5 तथा d6 कविन्यास वाले धातु आयनों में दोनों d कक्षकों (eg कक्षक) को संकरण के लिए उपलब्ध कराने के लिए उनके इलेक्ट्रॉनों की इस प्रकार से पुनर्व्यवस्था की जानी चाहिए कि इन सब इलेक्ट्रॉनों की t2g, कक्षकों में स्थान दिया जा सके। फलतः 12 कक्षक अर्धपूर्ण हैं वे t2g कक्षकों के एक-एक इलेक्ट्रॉन को और ग्रहण कर लेते हैं जिसके फलस्वरूप इनमें अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या में परिवर्तन आ जाता है जैसा कि चित्र 3.45 से स्पष्ट है।

यद्यपि इस पुनर्व्यवस्था के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, d2sp 3 संकर कक्षकों से इतने ज्यादा सबल बन्ध बनते हैं कि बन्ध बनने से निकली ऊर्जा पुनर्व्यवस्था के लिए चाही जाने वाली ऊर्जा से कहीं अधिक होती है। ऐसी स्थिति में स्वतन्त्र धातु आयन (चित्र 3. 44 ) तथा इनसे बने अष्टफलकीय संकुलों (चित्र 3.45) में अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या निश्चित रूप से भिन्न-भिन्न होगी।d4, d5 तथा विन्यास वाले धातु आयन निम्नतम अवस्था में प्रबल अनुचुम्बकीय हैं क्योंकि d4 तथा d6 के विन्यास वाले स्वतन्त्र धातु आयनों में चार-चार अयुग्मित इलेक्ट्रॉन जबकि d5 विन्यास में पांच अयुग्मित इलेक्ट्रॉन पाये जाते हैं। लेकिन संकुल बनने के पश्चात् d6 विन्यास वाली धातुओं में कोई इलेक्ट्रॉन अयुग्मित नहीं होता है जिसके फलस्वरूप ऐसे संकुल प्रतिचुम्बकीय होते हैं। d4 व d5 विन्यास वाले संकुल दुर्बल अनुचुम्बकीय होंगे क्योंकि d4 विन्यास वाली धातुओं के संकुलों में एक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन तथा विन्यास वाले संकुलों में दो अयुग्मित इलेक्ट्रॉन ही पाये जाते हैं।

उदाहरण : Co3+ आयन प्रबल अनुचुम्बकीय है लेकिन इसका संकुल [Co(NH3)6]3+ प्रतिचुम्बकीय है, समझाइये।

हल : Co3+ आयन एक तन्त्र है तथा इसमें चार अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं।

[Co(NH3)6l3+ संकुल आयन प्रतिचुम्बकीय ( diamagnetic) है। इसे समझाने के लिए हम यह मानते हैं कि स्वतन्त्र Co3+ आयन में इलेक्ट्रॉनों की पुर्नव्यवस्था होती है तथा चारों अयुग्मित इलेक्ट्रॉन युग्मित होकर संकरण से पूर्व की निम्न अवस्था में आ जाते हैं-

इस प्रकार हमारे पास d2sp 3 संकरण के लिए खाली eg कक्षक प्राप्त हो जाते हैं। संकरण से प्राप्त सभी छः d2sp3 संकर कक्षक समान ऊर्जा के होते हैं तथा इनके बनने से संकरण के काम में आये परमाणु कक्षकों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है जैसा कि नीचे बताया गया है-

अब छः अमोनिया लिगण्डों से एक-एक पूर्ण रूप से भरा हुआ कक्षक धातु के प्रत्येक खाली d2sp3 संकर कक्षक से अतिव्यापन कर प्रतिचुम्बकीय [Co(NH3) ] 3+ संकुल आयन बना देते हैं क्योंकि इसमें कोई अयुग्मित इलेक्ट्रॉन नहीं है ।

  1. उच्चतर ऊर्जा के d कक्षकों के उपयोग से : ऊपर बताया गया है कि संयोजी कक्षकों, (h – 1)d कक्षक, में से दो d-कक्षक रिक्त कराने के लिए इनके इलेक्ट्रॉनों को यदि शेष d-कक्षकों में भेजा जाता है तो इलेक्ट्रॉनों के मध्य प्रतिकर्षण के कारण इलेक्ट्रॉनों के युग्मन हेतु ऊर्जा व्यय करनी होगी। हम जानते हैं कि सभी संक्रमण तत्वों में nd कक्षक पूर्णतः खाली पड़े रहते हैं। अतः सुझाव दिया गया कि यदि (n – 1)d तथा nd कक्षकों के मध्य ऊर्जा अन्तर अधिक नहीं है तो संकरण हेतु दो nd कक्षकों का उपयोग किया जा सकता है जैसा कि d4‘ से d7 विन्यास वाले धातु के लिए चित्र 3.46 में दिखाया गया है।

उच्चत्तर ऊर्जा के d कक्षकों के संकरण में उपयोग को रेखांकित करने के लिए इसे sp3 d2 संकरण द्वारा प्रदर्शित किया जाता है जबकि आन्तरिक d कक्षकों के समावेश को d2 sp 3 द्वारा बताया जाता है। उपर्युक्त चित्र से स्पष्ट है कि धातु आयन का इलेक्ट्रॉनिक वितरण sp3d2 संकरण होने पर भी ज्यों का त्यों बना रहता है। फलतः स्वतन्त्र धातु आयन तथा संकुल का चुम्बकत्व समान रहता है। इस प्रकार d4, d5 तथा d6 विन्यास वाले धातु आयनों की तरह उनके संकुल प्रबल चुम्बकीय होते हैं क्योंकि इनमें 4 या 5 अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं।

उपर्युक्त दोनों प्रकार के संकुलों के मध्य अन्तर स्पष्ट करने के लिए पॉलिंग ने दूसरी प्रकार के संकुलों को आयनिक तथा पहली तरह के संकुलों को सहसंयोजक कहा जो धातु-लिगण्ड बन्ध की प्रकृति पर प्रकाश डालते हैं। लेकिन इस प्रकार का विभाजन उपयुक्त नहीं पाया गया है।

जिन संकुलों में d2 sp3 संकरण के लिए अन्दर के (n-1) d कक्षकों का प्रयोग होता है उन्हें टॉबे ने ‘आन्तर कक्षक संकुल’ (inner orbital complexes) तथा वे संकुल जिनमें बाह्य nd कक्षक sp3 d2 संकरण मे काम आते हैं, उन्हें बाह्य कक्षक संकुल (outer orbital complexes) कहा । सारणी 3.10 में इन दोनों प्रकार के संकुलों के लिए विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा दिये गये नामों को बताया गया है। पॉलिंग के नामकरण आजकल प्रचलन मे नहीं हैं। अन्य वैज्ञानिकों द्वारा दिये गये नाम अधिकतर काम में लिये जाते हैं। सामान्यतः, आन्तर कक्षक संकुल बाह्य कक्षक संकुलों की अपेक्षा अधिक स्थाई होते हैं ।

D7 विन्यास : d7 विन्यास वाले धातु आयन दो खाली d कक्षक उपलब्ध न हो सकने के कारण साधारणतया d2 sp 3 संकरण नहीं कर पाते हैं। लेकिन Co2+ आयन (जो एक d तन्त्र है) अष्टफलकीय संकुल बनाता है। पॉलिंग ने सुझाव दिया कि ऐसी अवस्था में 3d इलेक्ट्रॉन उच्च स्तर (4d या 5s) में कमोन्नत हो जाता है जिससे d2 sp3 संकरण के लिए दो खाली कक्षक उपलब्ध हो जाते हैं। इस प्रकार से उन्नत होने वाले इलेक्ट्रॉन, नाभिक से दूरी बढ़ जाने के कारण, दुर्बल बल से आकर्षित होते हैं जिससे का आसानी से ऑक्सीकरण हो जाता है। अतः Co(II) में यह इलेक्ट्रॉन सुगमता से निकल जाता संकुलों है जिससे अष्टफलकीय Co(II) संकुल अपचायक का काम करते हैं तथा Co(III) संकुलों में ऑक्सीकृत हो जाते हैं। संकुल निर्माण प्रक्रिया को निम्न चित्र द्वारा दर्शाया गया है।

■ उदाहरण : [FeF6]3- तथा [ Fe (CN)6 ] 3 संकुल आयनों में केन्द्रीय परमाणु +3 ऑक्सीकरण अवस्था में हैं फिर भी [ FeF6] – प्रबल अनुचुम्बकीय तथा [ Fe(CN)6]3-अति दुर्बल अनुचुम्बकीय है, समझाइये।

हल : दिये गये संकुलों में केन्द्रीय आयन Fe3 + है जिसका विन्यास 3d5 है। इसमें पाँचों इलेक्ट्रॉन अयुग्मित हैं जैसाकि नीचे बताया गया है। फलतः यह आयन प्रबल अनुचुम्बकीय है।

F- आयन एक दुर्बल प्रकृति का लिगण्ड है जिससे Fe 3 + आयन के साथ 6 बंध बनने पर प्राप्त ऊर्जा दो d कक्षकों से इलेक्ट्रॉन निकाल कर अन्य कक्षकों में प्रेषित करने में असमर्थ हैं। फलत: 3d कक्षक ज्यों के त्यों बने रहते हैं तथा दो 4d कक्षक संकरण में भाग लेते हैं। [FeF6] – निर्माण हेतु Fe3+ की sp3 d2 संकरित अवस्था नीचे दी गई है।

दूसरी ओर CN – एक प्रबल लिगण्ड है जो Fe3+ के साथ इतना प्रबल बंध बनाता है कि उससे निकली ऊर्जा पाँचों. 3d इलेक्ट्रॉनों को तीन 3d कक्षकों में समायोजित कर सकती है जिससे संकरण हेतु दो 3d कक्षक उपलब्ध हो जाते हैं जैसा कि नीचे बताया गया है।

[Fe(CN)6]3- में Fe3+ की संकरित अवस्था [T]

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि Fe3+ आयन की तरह [ FeF6] 3 में पाँच अयुग्मित इलेक्ट्रॉन हैं जबकि [Fe(CN)6)3- में मात्र एक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन । फलत: फ्लुओरिडो संकुल प्रबल अनुचुम्बकीय तथा सायनिडो संकुल दुर्बल अनुचुम्बकीय है।

(ii) वर्गाकार समतलीय संकुल (Square palanr complexes) (d8 व d9 विन्यास):- d8 विन्यास वाले धातु आयनों में दो d कक्षक (eg कक्षक) संकरण के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते। अतः ये अष्टफलकीय संकूल बनाने के लिए अनुपयुक्त हैं, क्योंकि उच्च स्तरों में दो d इलेक्ट्रॉनों को उन्नत करने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी। अतः ऐसी सम्भावना निराधार है। पॉलिंग ने सुझाव दिया कि ऐसी अवस्थाओं में धातु आयन दो खाली d कक्षक उपलब्ध कराने की अपेक्षा अपने d कक्षक (जिसे आसानी से खाली उपलब्ध कराया जा सकता है) का संकरण में प्रयोग कर चार समतुल्य dsp – संकर कक्षक बना लेते हैं जो एक वर्ग के कोनों की ओर लक्षित होते हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, 4-उपसहसंयोजित संकुल चतुष्फलकीय ज्यामिति रखने की अपेक्षा वर्गाकार समतलीय ज्यामिति रखना अधिक पसन्द करते हैं। यह मुख्यतः इसलिए हैं, क्योंकि dsp2 संकर कक्षक, sp3 संकर कक्षकों की अपेक्षा आकाश (Space) में अधिक हद तक अभिविन्यस्त होने के कारण, लिगण्डों के साथ अधिक सबल बन्ध बनाते हैं ।

यह दिखाने के लिए कि d8 तन्त्रों में वर्गाकार समतलीय ज्यामिति होती है, हम [Ni(NH3)4]2+ संकुल आयन उदाहरण के रूप में लेते हैं । स्वतन्त्र Ni2+ आयन d8 तन्त्र है, जिसमें केवल दो अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं।

[Ni(NH3)4]2+ संकुल आयन प्रतिचुम्बकीय है। इसे समझाने के लिए हम यह मानते हैं कि अयुग्मित इलेक्ट्रॉन dsp2 संकरण के लिये खाली dx2y2 कक्षक उपलब्ध कराने हेतु, युग्मित हो जाते हैं। पहले बताया जा चुका है कि dx2y2 कक्षक की पाँलियाँ x तथा y अक्षों की ओर अभिविन्यस्त हैं, अतः यही वह कक्षक है तो बन्धन में भाग लेता है।

अब, चार NH3 लिगण्डों के N-परमाणुओं के भरे कक्षक खाली dsp3 संकर कक्षक से अतिव्यापन कर प्रतिचुम्बकीय [Ni(NH3)4]2+ संकुल आयन बना देते हैं। यही कारण है कि संकुल का चुम्बकीय आघूर्ण स्वतन्त्र धातु आयन के चुम्बकीय आघूर्ण से भिन्न है। अर्थात्, जहाँ Ni2+ आयन अनुचुम्बकीय है, [Ni(NH3)4]2+ प्रतिचुम्बकीय है। अन्य धातु आयन, जिनका विन्यास d8 होता है, उदहारणार्थ Pd (II). Pt(II), Au(III) इत्यादि भी वर्गाकार समतलीय संकुल बनाते हैं। 1

यदि संकुल की ज्यामिति चतुष्फलकीय होती तो संकरण sp3 होता अर्थात् d कक्षक धनायन की जैसी स्थिति में ही बने रहते । अर्थात्, धनायन की भाँति संकुल में दो अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते तथा संकुल अनुचुम्बकीय (Paramagnetic) होता | [NiCl4] 2 इस प्रकार का संकुल है जिसका वर्णन आगे किया गया है।

D9 विन्यास वाली धातु आयनों, उदाहरणार्थ Cu(II) तथा Ag(II), के पास dsp2 संकर में भाग लेने के लिये खाली dx2y2 2कक्षक नहीं होता । इन धातु आयनों द्वारा वर्गाकार समतलीय संकुल बनाया जाना यही मानकर समझाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉन उच्च स्तर (सम्भवतः 4p) में उन्नत हो जाता है। ऐसी स्थिति में स्वतन्त्र धातु आयन तथा संकुल दोनों में ही एक-एक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन पाया जायेगा । अतएव इनके चुम्बकीय आघुर्ण का मान समान होना चाहिये । तथापि, कॉपर संकुलों के चुम्बकीय आघूर्ण एक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन के लिए परिकलित आघूर्ण से कुछ कम होता है। इन समतलीय संकुलों में, कुछ हद तक यह चक्रण-चण युग्मन (spin-spin coupling) का परिणाम है जो उनकी क्रमबद्ध ( stacked ) व्यवस्था के ऊपर दूसरी) के कारण है-यदि संकुल चतुष्फलकीय होता तो चुम्बकीय आघूर्ण में इस प्रकार

यदि Cu2+ से 3d इलैक्ट्रॉन प्रोन्नत नहीं हो पाता, अर्थात 3d कक्षक संकरण के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता, तो यह धातु आयन sp 3 संकरण से चतुष्फलकीय संकुल बनाता जैसा कि [CuCl4]2 के लिए पाया जाता है।

(ii) चतुष्फलकीय संकुल (Tetrahedral complexes) d8, d9, d10 विन्यास :- ऊपर बताया जा है कि d8 व d9 विन्यास वाले धनायन कुछ ऐसे संकुल बनाते हैं जिनमें धातु आयन dsp2 संकरण हेतु d कक्षक उपलब्ध कराने में असमर्थ रहता है। ऐसी स्थिति में ये आयन sp3 संकरण कर चतुष्फलकीय संकुल का निर्माण करते हैं। [NiCl4]2-तथा [CuCl4]2-, उदाहरणार्थ, ऐसे संकुल हैं जिनमें धातु की sp3 संकरित अवस्था नीचे दिखाई गई हैं:

d’° विन्यास वाले आयनों में s, p तथा बाह्य d कक्षक ही खाली होते हैं जो sp3 या sp3d2 संकरण में भाग ले सकते हैं। उदाहरण के लिए Zn2+ आयन अमोनिया के साथ चतुष्फलकीय [Zn(NH3)4]2+ तथा अष्टफलकीय [Zn(NH3)6]2+ दोनों प्रकार के संकुल आयन बनाता है। ऐसे धातु आयन तथा इनसे 4-उपसहसंयोजित संकुल सभी चतुष्फलकीय होते हैं, क्योंकि वर्गाकार समतलीय संकुल बनाने के dx2y2 कक्षक से दो इलेक्ट्रॉनों को उच्च ऊर्जा के स्तरों में स्थानान्तरण करना पड़ेगा, जिसमें अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी। अतः यह अवांछनीय है। d10 विन्यास वाले धातु आयनों में कोई अयुग्मित इलेक्ट्रॉन नहीं होने के कारण इनके संकुल प्रतिचुम्बकीय होते हैं। इस प्रकार, चुम्बकीय आघूर्ण के माप से संकुलों की ज्यामिति तथा उनकी समन्वय संख्या के बारे में अनुमान लगया जा सकता है।