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प्लाज्मिड के कार्य क्या है , functions of plasmids in hindi , works , प्लाज्मिड्स के काम क्या होते है

जानेंगे प्लाज्मिड के कार्य क्या है , functions of plasmids in hindi , works , प्लाज्मिड्स के काम क्या होते है ?

साल्मोनेला (Salmonella) के प्लाज्मिड पारद्, निकल, कोबाल्ट एवं आर्सनेट के विरुद्ध प्रतिरोध क्षमता को विकसित करते हैं।

(G) अर्बुद प्रेरक प्लाज्मिड्स (Tumor Inducing Plasmids) –— ऐसे प्लाज्मिड्स कुछ विशेष जीवा प्रजातियों जैसे- एग्रोबेक्टीरियम (Agrobacterium) में पाये जाते हैं तथा अपने प्रति संवेदी (Sensitive द्विबीजपत्री पौधों के शरीर में गांठे (Tumors) उत्पन्न करते हैं । अतः इनको Ti – प्लाज्मिड (Ti-plasmid) कहते हैं। आधुनिक अनुवांशिक अभियांत्रिकी (Genetic Engineering) के अध्ययन में इनका विशेष महत्त्व है।

प्लाज्मिड वाहक के वांछित लक्षण (Desired Characters of Vectors)—

  1. यह प्लाज्मिड स्वायत्त प्रतिकृतिकरण (Autonomous replication) में सक्षम होना चाहिये।
  2. वाहक प्लाज्मिड अणु में संकुचन स्थल (Restriction site) मौजूद होने चाहिये, इन संकुचन स्थलों को है विशेष रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम्स की सहायता से आसानी से अलग किया जा सकता है एवं इनको बाहरी DNA (Foreign से समाकलित कर सकते हैं।

प्लाज्मिड की पोषी जीवाणु कोशिका के लिए वांछनीय लक्षण (Desired Characters for Host Bacterial Cell)—–—–—

  1. इस प्रकार की जीवाणु कोशिका में पुनर्योजी DNA का प्रतिकृतिकरण (Replication) आसानी से हो जाना नि चाहिये । इसके साथ ही पुनर्योजी DNA प्रतिकृति को नष्ट करने वाले रेस्ट्रिक्शन एन्जाइमों की उपस्थिति पोषी कोशिका हेतु पूर्णतया अवांछनीय है ।
  2. पोषी जीवाणु कोशिका का रूपान्तरण सरल होना चाहिये ।
  3. इनमें स्वयं की पुनर्योजन क्षमता नहीं होनी चाहिये ।
  4. पोषी कोशिका में मिथाइलेज अनुपस्थित होना चाहिये, क्योंकि यदि पोषी कोशिका में यह एन्जाइम मौजूद होगा, तो इसकी वजह से रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम्स के पहचान स्थलों का मिथाइलेशन सम्भव है।

आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology) के क्षेत्र में उपरोक्त विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए, ऐस्केरेशिया कोलाई (Escherischia Coli) नामक जीवाणु प्रजाति की कोशिकाओं को एक आदर्श पौषी (leal host) के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

प्लाज्मिड्स के कार्य (Functions of Plasmids)

  1. प्लाज्मिड्स में कुछ महत्त्वपूर्ण ऐन्टीबायोटिक प्रतिरोधी जीन पाई जाती हैं, जिनका अनुप्रयोग औषधि निर्माण उद्योग एवं अन्य अनुसंधान कार्यों में किया जा सकता है।
  2. प्लाज्मिड्स पुनर्योजी DNA (Recombinant DNA) के विकास में सक्रिय योगदान करते हैं ।
  3. जीवाणु संयुग्मन द्वारा प्लाज्मिड्स महत्त्वपूर्ण जीनों को स्थानान्तरित कर सकते हैं ।
  4. कुछ प्लाज्मिड DNA खण्ड, पोषी कोशिकाओं में रोग प्रतिरोधी गुण भारी धातु प्रतिरोध इत्यादि क्षमताएँ विकसित करते हैं ।

5.जीन प्रतिरोपण या क्लोनिंग में प्लाज्मिड महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

अभ्यास-प्रश्न

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न अथवा रिक्त स्थानों की पूर्ति

(Very short answer questions/Fill in the blanks) :

  1. कोशिका द्रव्य द्वारा प्रेषित अनुवांशिक सूचनाएँ …………..कहलाती है।
  2. मुख्य गुणसूत्र के अलग DNA खण्ड कहलाते हैं।
  3. कोल प्लाज्मिड की खोज किसने की थी ?
  4. अधिकाय या इपीसोम क्या होते हैं?
  5. प्लाज्मिड की परिभाषा दीजिये ।
  6. प्लाज्मिड के दो कार्य लिखिये ।
  7. हरित लवक DNA की विशेषता बताइये ।
  8. प्लाज्मिड वाहक के वांछनीय गुणों को बताइये।

लघूत्तरात्मक प्रश्न ( Short Answer Questions ) :

  1. प्लाज्मा जीन्स से आप क्या समझते हैं?
  2. कोशिकाद्रव्यीय व केन्द्रकीय वंशागति में अन्तर स्पष्ट कीजिए ।
  3. हरित लवक DNA पर टिप्पणी लिखिये ।
  4. प्लाज्मिड्स के कार्य लिखिये ।
  5. F कारक एवं Hfr स्थानान्तरण को समझाइये |
  6. रोग प्रतिरोधी कारक को समझाइये |

निबन्धात्मक प्रश्न (Essay type Questions) :

1.प्लाज्मिड क्या होते हैं? उनका विस्तृत विवरण देते हुए महत्त्व पर प्रकाश डालिये।

  1. कोशिकाद्रव्यीय वंशागति या अतिरिक्त केन्द्रकीय जीनोम का वर्णन कीजिये ।
  2. हरित लवक DNA एवं माइटोकोन्ड्रियल DNA का वर्णन कीजिये ।
  3. प्लाज्मिड्स के वर्गीकरण का वर्णन कीजिये ।

उत्तरमाला (Answers)

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न अथवा रिक्त स्थानों की पूर्ति

  1. कोशिका द्रव्यीय वंशागति
  2. प्लाज्मिड्स
  3. फ्रेडरिक ने
  4. प्लाज्मिड समाकलित जीवाणु गुणसूत्र

गुणसूत्रीय संरचना में परिवर्तन (Chromosomal Aberrations)

गुणसूत्रीय संरचना में परिवर्तन (Chromosomal alterations) प्रत्येक जीव में गुणसूत्रों की एक निश्चित संरचना व संगठन होता है। ये भौतिक संरचनाएँ हैं जिनमें जीन रेखीय (Linear) क्रम में व्यवस्थित रहते हैं। साधारण अवस्था में गुणसूत्र की संरचना अपरिवर्तनीय होती है, किन्तु कुछ प्राकृतिक या कृत्रिम अवस्थाओं में गुणसूत्र की संरचना में परिवर्तन हो सकता है जिससे जीव के आकार अथवा कार्य दोनों में रूपान्तरण हो जाता है। इस प्रकार आनुवंशिक परिवर्तन (उत्परिवर्तन) गुणसूत्रीय परिवर्तन ( Chromosomal alterations) या गुणसूत्रीय विपथन (chromosomal aberrations) कहलाते हैं । इनमें से कुछ उत्परिवर्तन दुर्घटनावश प्राकृतिक कारणों से स्वत: ही प्रेरित हो सकते हैं, किन्तु कुछ भौतिक एवम् रासायनिक कारकों द्वारा भी प्रेरित किये जा सकते हैं। जैसे LSD (Lysergic acid diethylamide) द्वारा । गुणसूत्रीय संरचनात्मक परिवर्तन एक समजात (homologous) या असमजात (non homologous) जोड़े में हो सकते हैं।

गुणसूत्रीय परिवर्तनों के प्रकार (Types of chromosomal alterations)

(A) अन्तः गुणसूत्रीय परिवर्तन ( Intra-chromosomal Changes)

एक ही गुणसूत्र में होने वाले परिवर्तन अन्तः गुणसूत्रीय परिवर्तन कहलाते हैं । इसके उदाहरण निम्न हैं-

(1) हीनताएँ अथवा विलोपन (Deficiencies or Deletions)

जब किसी गुणसूत्र से छोटे या बड़े अकेन्द्रीक खण्ड की हानि हो जाती है, इसे(deficiency) कहते हैं। जब किसी गुणसूत्र से एकल खण्डन द्वारा उसका अन्तस्थ भाग टूट जाता है, अन्तस्थ (Terminal) हीनता कहलाती है किन्तु यदि गुणसूत्र का अन्तर्वेशीय खण्ड दो खण्डनों द्वारा जाता है तो इसे अन्तराली (Interstitial ) हीनता कहते हैं। चूँकि निकाला गया खण्ड अकेद्रां (Acentric) होता है, अतः तर्क तन्तु से नहीं जुड़ पाने के कारण पश्चावस्था ( Anaphase) में होने वाली गुणसूत्रीय गति में भाग नहीं ले पाता तथा अन्तिम रूप से केन्द्रक में विघटित हो जाता है। इ प्रकार छोटी-छोटी हीनताओं को विषमयुग्मनजी ( heterozygote) दशा अर्थात् जब हीनता दोनों समजातीय गुणसूत्रों (homologous chromosomes ) में से किसी एक में होती है तो जीव द्वारा सहन किया सकता है। किन्तु यदि लुप्त होने वाला खण्ड परिमाप में बड़ा हो तो इस पर स्थित जीनों की कमी है कारण जीवों के लिए हीनता घातक हो जाती है। जैसे-मक्का, ड्रोसोफिला, मनुष्य आदि में।

विषमयुग्मनजी (heterozygote) हीनताओं को अर्धसूत्रण के दौरान देखा जा सकता है। समजात (homologous) गुणसूत्र जोड़े बनाते हैं तो सामान्य समजात (homologue) में लुप्त खण्ड प्रतिरूप (counter part) को युगलित होने के लिए हीनता वाले गुणसूत्र पर कुछ नहीं मिलता। य हीनता अन्तस्थ हो तो प्रतिरूप (counterpart) एक अयुगलित (unpaired ) सिरे के रूप में और यदि हीनता अन्तराली हो तो यह एक पाश (Loop) बना लेते हैं जिसको स्थूल पट्ट (Pachytene) अवस्था में देखा जा सकता है

हीनताओं का वंशागति पर भी प्रभाव पड़ता है। हीनता की उपस्थिति में एक अप्रभावी (recessive) युग्मविकल्पी एक प्रभावी (dominant) युग्मविकल्पी की भाँति व्यवहार करता है । इसीलिए इसको आभास प्रभाविता (Pseudo-dominance) कहते हैं।

मनुष्य में छोटे सिर और निम्न मानसिक शक्ति तथा बिल्ली की भाँति म्याऊँ करने (cat like cry) वाले बच्चों में इन लक्षणों का कारण मनुष्य के पाँचवें गुणसूत्र पर हीनता होना हैं।

(2) द्विगुणन (Duplications)यदि किसी गुणसूत्र में एक खण्ड, जिसमें कई जीन हों, एक से अधिक बार उपस्थित तो इस परिघटना को द्विगुणन (Duplication) कहते हैं । द्विगुणन यदि दोनों समजातीय गुणसूत्रों में से केवल एक गुणसूत्र पर ही हो तो इसमें भी अर्धसूत्री विभाजन के अन्तर्गत स्थल- पट्ट अवस्था में वही लक्षण प्राप्त होता है जो हीनता की दशा में मिलता है, अर्थात् इसकी एक विशिष्ट युगली (Pairing) पर एक पाश (Loop) देखा जा सकता है (चित्र 7.3A)।

एक गुणसूत्र खण्ड का द्विगुणन निम्नानुसार हो सकता है-

निकटवर्ती अनुक्रमी द्विगुणन (Tandem duplication)

इस प्रकार के द्विगुणन में जो खण्ड गुणसूत्र से जुड़ता है उसमें जीन उसी क्रम में लगे रहते हैं (चित्र 7.3 B(a))

(i) विस्थापित अनुक्रमी (एक ही भुजा पर ) द्विगुणन (Displaced tandem duplication)—यह एक ही भुजा में विस्थापित स्थिति में योग द्वारा होता है (चित्र 7.3B(b))।

(ii) विस्थापित अनुक्रमी (दूसरी भुजा पर ) द्विगुणन

यह एक ही गुणसूत्र की अन्य भुजा में योग द्वारा होता है ( चित्र 7.3 B(c))।

(iv) अन्य गुणसूत्र में द्विगुणन (Duplication on different chromosome)

इस प्रकार के द्विगुणन में गुणसूत्रीय खण्ड असमजात (non homologous) गुणसूत्र से जुड़ जाता है (चित्र 7.3B (d))।

(v) प्रतिलोम अनुक्रमी द्विगुणन (Reverse Tandem duplication)

जब किसी गुणसूत्र में द्विगुणित भाग में जीनों का क्रम विपरीत हो जाता है ( चित्र 7.3B (e))

गुणसूत्रों में होने वाला द्विगुणन जीवों के लिए हीनता के समान घातक नहीं होता है बल्कि जीवों में अप्रभावी जीनों की कमी से होने वाले प्रभाव से रोकता है। द्विगुणन नये आनुवंशिक पदार्थ के विकास में मदद करता है तथा जीवों में लक्षण प्ररूपी प्रभाव दिखाता है। जैसे ड्रोसोफिला में x-गुणसूत्र पर उपस्थित नेत्र आकार का जीन द्विगुणन प्रदर्शित करता है । सामान्य नेत्र दीर्घवृत्तीय (Ellipsoidal) होते हैं किन्त नेत्र जीन के द्विगुणन के कारण मक्खियों में दण्ड नेत्र (bar eyes) पाये जाते हैं ।

(3) प्रतिलोमन ( Inversion)

गुणसूत्र के इस प्रकार के संरचनात्मक परिवर्तन में गुणसूत्र का एक अंतराली खण्ड गुणसूत्र पर 180° घूर्णन के पश्चात् पुन: जुड़ जाता है। इस प्रकार गुणसूत्र में दो खंडन होते हैं तथा टूटने वाला खण्ड 180o पर घूम जाता है जिससे जीनों का रेखिक क्रम उल्टा हो जाता है। इसे प्रतिलोमन (Inversion) कहते हैं (चित्र 74 ) । प्रतिलोमन के दो प्रकार है-

  • परिकेन्द्री (Pericentric ) — इस प्रकार में प्रतिलोमित खण्ड में सेन्ट्रोमीयर सम्मिलित होता है।

(ii) पराकेन्द्री (Paracentric ) – इस प्रकार के प्रतिलोमन में सेन्ट्रोमीयर प्रतिलोमित खण्ड के बाहर स्थित होता है ।

विषमयुग्मनजी प्रतिलोमन में दो समजातीय गुणसूत्रों में से एक गुणसूत्र में प्रतिलोमित खण्ड होता है । इसलिए सामान्य युग्मन (normal pairing) सम्भव नहीं होता । इस प्रकार के प्रतिलोमन के परिणाम भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं । परिणामों में विविधता प्रतिलोमन की स्थिति, उसमें सम्मिलित काइएज्मेटा (chiasmata) की उपस्थिति, जीन विनिमय (cross overs) की संख्या और युग्मकों के अर्धसूत्री उत्पादनों के वितरण पर निर्भर करती है।

विषमयुग्मनजी प्रतिलोमन के निम्न प्रकार हैं-

  1. पराकेन्द्री प्रतिलोमन एकल जीन विनिमय सहित (Paracentric inversion with single cross over)

इस प्रकार के प्रतिलोमन के परिणामस्वरूप बनने वाले युग्मक ( gametes ) सामान्य प्रकार के होते हैं । प्रतिलोमित क्षेत्र में केवल एकल जीन विनिमय के फलस्वरूप दो सेन्ट्रोमीयर युक्त एक द्विकेन्द्रीक (dicentric) गुणसूत्र और एक सेन्ट्रोमीयर रहित अकेन्द्रीक ( acentric) गुणसूत्र का निर्माण होता है। दो शेष बचे अर्धगुणसूत्रों (chromatids ) में से एक सामान्य होता है तथा दूसरे में प्रतिलोमन पाया जाता है ( चित्र 7.5 A&B ) । पश्चावस्था प्रथम (Anaphase I) में द्विकेन्द्रीक और अकेन्द्रीक अर्धगुणसूत्र (chromatid) एक सेतु (bridge) एवम् एक टुकड़े के रूप में देख जाते हैं ।

  1. परिकेन्द्री प्रतिलोमन (Pericentric inversion)

जैसा कि विदित है कि एक परिकेन्द्री प्रतिलोमन में प्रतिलोमित खण्ड के अन्दर ही सेन्ट्रोमीयर उपस्थित रहता है। यद्यपि इस प्रकार के प्रतिलोमन में भी स्थलपट्ट (Pachytene) अवस्था में गुणसूत्रों का विन्यास पराकेन्द्री प्रतिलोमन में होने वाले विन्यास के समान ही होता है, किन्तु जीन विनिमय उत्पाद व अर्धसूत्री विभाजन के बाद वाली अवस्थाओं में गुणसूत्रों का विन्यास पराकेन्द्री प्रतिलोमन से भिन्न होता है । इस प्रकार के प्रतिलोमन के परिणामस्वरूप अर्धसूत्री विभाजन से बनने वाले चार अर्धगुणसूत्रों (chromatids) में से दो द्विगुणन (duplication) एवम् हीनताएँ ( deficiencies) होंगी किन्तु इसमें द्विकेन्द्री सेतु (dicentric bridge ) एवम् अकेन्द्री ( acentric) खण्ड नहीं मिलते ( चित्र 7.6 ) । इसके अलावा इस प्रकार के प्रतिलोमन में यदि गुणसूत्र के टूटने के स्थान (breaks A & B) सेन्ट्रोमीयर से समान दूरी पर नहीं होते हैं, तो इसके फलस्वरूप गुणसूत्र की आकृति में परिवर्तन आ जाता है। जैसे एक मध्यकेन्द्री (metacentric) गुणसूत्र उपमध्यकेन्द्री गुणसूत्र (submetacentric chromosome) में बदल सकता है या इसका विपरीत भी हो सकता है।

प्रतिलोमनों के आनुवंशिक परिणाम (Genetic consequence of inversions ) — क्योंकि परिकेन्द्री प्रतिलोमन के फलस्वरूप बनने वाले दो अर्धसूत्रों (chromatids ) में द्विगुणन व हीनताएँ पायी जाती हैं अतः जिन युग्मकों में ये गुणसूत्र उपस्थित होंगे वे प्रकार्यक (Functional) नहीं होते हैं तथा उनमें पर्याप्त युग्मकी ( gametic) व युग्मनजी (zygotic) घातकता (Lethality) मिलती है। पौधों में पर्याप्त परागबन्ध्यता (Pollen sterility) पायी जाती है। इसके अतिरिक्त क्योंकि एकल जीन विनिमय के उत्पाद प्रकार्यक नहीं होते हैं, अत: संतति में द्वि जीन विनिमय (double crossover ) ही प्राप्त होते हैं, जिससे दो जीनों के बीच पुनर्योजन की मात्रा काफी घट जाती है। इसलिए प्रतिलोमन जीन विनिमय दमनकारी (crossover suppresors) कहे जाते हैं ।