भंजन विभव की परिभाषा क्या है ? , नी-विभव या अंतक विभव , अग्र , पश्च वक्र forward and reverse bias characteristics of diode

forward and reverse bias characteristics of diode , भंजन विभव की परिभाषा क्या है ? , नी-विभव या अंतक विभव , अग्र , पश्च वक्र :-
किसी भी P-N संधि डायोड के लिए निम्न दो प्रकार के अभिलाक्ष्णिक वक्र प्राप्त होते है :-
1. अग्र अभिलाक्ष्णिक वक्र
2. पश्च अभिलाक्ष्णिक वक्र
1. अग्र अभिलाक्ष्णिक वक्र : किसी भी डायोड के लिए उसके दोनों सिरों के बिच लगाये गए अग्र वोल्टता तथा उससे प्रवाहित अग्र धारा के बीच खिंचा गया ग्राफ ही डायोड के लिए अग्र अभिलाक्ष्णिक वक्र कहलाता है।
इस अभिलाक्ष्णिक वक्र को प्राप्त करने के लिए निम्न परिपथ के अनुसार डायोड को जोड़ा जाता है।
अग्र बायस की अवस्था में किसी भी P-N संधि डायोड के लिए उसका अग्र अभिलाक्ष्णिक वक्र निम्न प्रकार से प्राप्त होता है –
जब डायोड के दोनों सिरों के बीच अग्र वोल्टता शून्य होती है तब संधि पर उत्पन्न रोधिका विभव के कारण अग्र धारा भी शून्य प्रवाहित होती है। अग्र वोल्टता को बढ़ाकर अल्प मान का करने पर संधि के रोधिका विभव में कुछ कमी होती है जिससे बहुत अल्प मान की अग्र धारा प्रवाहित होती है। जब अग्र वोल्टता का मान बढ़ाकर संधि के रोधिका विभव V0 के बराबर किया जाता है तब अवक्षय परत की चौड़ाई घटकर शून्य हो जाती है इस वोल्टता के पश्चात् अग्र वोल्टता को थोडा सा भी बढाने पर अग्र धारा में तेजी से वृद्धि होने लगती है।
किसी भी डायोड के लिए अग्र वोल्टता का वह न्यूनतम मान जिसके पश्चात् धारा में तेजी से वृद्धि होने लगती है , इसी अग्र वोल्टता को नी-विभव या अंतक विभव कहा जाता है।
इसका मान डायोड की संधि के लिए रोधिका विभव के बराबर होता है। यदि डायोड सिलिकन अर्द्धचालक से बना हो तब उसके लिए अन्तक विभव लगभग 0.7 V जबकि जर्मेनियम (Ge) से बने डायोड के लिए अंतक विभव 0.3 V होता है।

2. पश्च अभिलाक्षणिक वक्र

किसी भी डायोड के लिए इसके दोनों सिरों के बीच लगाये गए पश्च वोल्टता तथा उससे प्रवाहित पश्च धारा के बीच खिंचा गया ग्राफ ही डायोड के लिए पश्च अभिलाक्ष्णिक वक्र कहलाता है।
डायोड को पश्च बायस करने पर उसका पश्च अभिलाक्ष्णिक वक्र निम्न प्रकार से प्राप्त होता है –
जब पश्च वोल्टता का मान शून्य होता है तब डायोड से प्रवाहित पश्च धारा भी शून्य होती है।
पश्च वोल्टता को अल्प मान का बढाने पर पश्च धारा में कुछ वृद्धि होती है तथा यह पश्च धारा नियत हो जाती है। इस वोल्टता को ओर अधिक बढाने पर यह पश्च धारा लगभग नियत बनी रहती है। पश्च धारा के मान में वृद्धि नहीं होती है।
पश्च धारा के इसी नियत मान को पश्च संतृप्त धारा कहा जाता है।
पश्च वोल्टता को बढाते बढाते एक निश्चित मान VBr के पश्चात् बढाने पर संधि के दोनों ओर बढ़ने वाली अवक्षय परत भंजित हो जाती है। अवक्षय परत के भंजित होने पर संधि पर अत्यधिक तेजी से धारा का मान बढने लगता है।
इस निश्चित विभव (VBr) को डायोड के लिए भंजन विभव नाम दिया जाता है।
नोट : किसी भी डायोड के लिए पश्च वोल्टता का वह न्यूनतम निश्चित मान जिससे पहले पश्च धारा नियत बनी रहती है तथा उसके पश्चात् पश्च वोल्टता को थोडा सा भी बढाने पर धारा में तेजी से वृद्धि होने लगती है , इसी पश्च वोल्टता को डायोड के लिए भंजन विभव कहा जाता है।
किसी भी p-n संधि डायोड का सम्पूर्ण अभिलाक्षणिक वक्र निम्न ग्राफ के द्वारा दर्शाया जाता है –
कोई भी P-N संधि डायोड अग्र बायसीत करने पर p भाग से n भाग की ओर धारा का चालन प्रदर्शित करता है , परन्तु उसे पश्च बायसित करने पर वह धारा का चालन नहीं करता है इसलिए डायोड एक दैशिक युक्ति होती है।
कोई भी p-n संधि डायोड अरेखीय प्रकार की युक्ति होती है क्योंकि इसके लिए वोल्टता एवं धारा के बीच का ग्राफ प्रतिरोधो की तरह सरल रेखीय प्राप्त नहीं होता है।

डायोड के लिए गतिक प्रतिरोध

कोई भी p-n संधि डायोड एक अरेखिय युक्ति होती है , इसलिए डायोडो के लिए स्थैतिक प्रतिरोधो की जगह उनके गतिक प्रतिरोध के मान ज्ञात किये जाते है।
किसी भी डायोड के लिए गतिक प्रतिरोध निम्न दो प्रकार के होते है –
1. अग्र गतिक प्रतिरोध : किसी भी डायोड के लिए अग्र वोल्टता में परिवर्तन ΔVf तथा उससे सम्बंधित अग्र धारा में परिवर्तन ΔIf का अनुपात ही डायोड के लिए अग्र गतिक प्रतिरोध कहलाता है।
rf
= ΔVf/ΔIf
मात्रक = ओम
कुछ 100 ओम तक।