पर्वतों की उत्पत्ति कैसे हुई ? formation of mountains in hindi प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत एवं पर्वतों का निर्माण

formation of mountains in hindi पर्वतों की उत्पत्ति कैसे हुई ?

पर्वतों की उत्पत्ति
(Origin of Mountains)
भू-पृष्ठ पर विभिन्न प्रकार के पर्वत पाये जाते हैं। इनका निर्माण विभिन्न कालों में विभिन्न शक्तियों तथा प्रक्रियाओं के योग से हुआ है। इनके उत्पत्ति की मूल कारण रही है पटल विरूपाण (Diastrophic) शक्तियाँ। ज्वालामखी पर्वतों की उत्पत्ति ज्वालामुखी उद्गार से हुई है, परन्तु अन्य सभी पर्वतों की उत्पत्ति में भूगर्भिक शक्तियों का योगदान है। पृथ्वी पर सम्पीड़न (Compression) एवं तनावमूलक (Tensional) गतियाँ जब क्रियाशील होती हैं तब भू-पृष्ठ पर पर्वतों का निर्माण होता है। सभी विद्वान वलित पर्वतों की उत्पत्ति इन्हीं शक्तियों के क्रियाशील होने के फलस्वरूपा मानते हैं, यद्यपि इन शक्तियों के प्रभाव एवं क्रियाशीलता पर विद्वानों में कुछ मतभेद हैं। भू-पृष्ठ के समस्त वलित पर्वतों को उनकी आयु के आधार पर दो-भागों में रखा जा सकता है। टर्शयरी युग से पूर्व बने प्राचीन वलित पर्वत एवं टर्शयरी युग में बने नवीन वलित पर्वत। नवीन वलित पर्वतों की विशेषताओं के आधार पर ही पर्वतों की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पनायें एवं सिद्धांत प्रस्तुत किये गये हैं।
वलित पर्वतों की प्रमुख विशेषतायें निम्न हैंः-
1. ये अवसादी शैलों से बने हैं।
2. इन पर्वतों की आकृति चापाकार होती है।
3. प्रायः इनकी लम्बाई अधिक व चैड़ाई कम पायी जाती है।
4. इन पर्वतों की चट्टानों के मध्य समुद्री जीवाश्म मिलते हैं।
5. नवीन वलित पर्वत सतत् निर्माण प्रक्रियाँ में हैं, इसीलिये यहाँ भूकम्प के झटके आते रहते हैं। नवीन पर्वतों में अभी भी उत्थान हो रहा है।
उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर यह माना जाता है कि मोड़दार (वलित) पर्वतों का निर्माण लम्बे, सँकरे, उथले समुद्री भागों में हुआ है, जिन्हें विद्वानों ने भू-अभिनति (Geosy Cline) कहा।
वारसेस्टर के अनुसार “All great folded ranges stand on the sites of former geosynclines-“
भू-सन्नति: भू-सन्नति से तात्पर्य स्थल से घिरे ऐसे समुद्री क्षेत्र से है, जो उथले, लम्बे एवं सँकरे हैं तथा जिनमें निरन्तर अवसादों का निक्षेप होता रहता है। 1873 में डाना ने निरन्तर दीर्घ अवसादन से, निरन्तर अवतलन होने वाले पतले लम्बे समुद्री क्षेत्रों को भू-सन्नति कहा।
हृाग के अनुसार – सागर के लम्बे, सँकरे क्षेत्र जिनमें नियमित रूपा से अवसादों का निक्षेप होता रहता है, उसे भू-सन्नति कहते हैं।
इन समुद्री क्षेत्रों की प्रमुख विशेषता यह होती है कि अवसादों के भार से इनकी तली में निरन्तर घसाव होता रहता है। इसके साथ ही इनका रूपा व आकार बदलता रहता है। अवसाद धीरे-धीरे दाब एवं भार से चट्टान का रूपा ले लेते हैं। नीचे के ठोस चट्टान की परत पर अवसादों का निक्षेप होता रहता है, इससे दबाव बढ़ता है व भू-सन्नति की तली में अवतलन होता रहता है। इस तरह यह कभी अवसादों से भरता नहीं है। भू-पृष्ठ पर सभी सागर भू-सन्नति नहीं होते हैं। होम्स के अनुसार – अधः स्तर में चलने वाली संवहन तरंगें ठोस धरातल के नीचे जब विपरीत दिशा में मुड़ जाती हैं, वह साथ में पदार्थ को अन्यत्र बहा ले जाती है जिससे उस ऊपर महासागरीय तली में निरंतर धंसाव होता रहता है। ऐसे क्षेत्रों में भू-सन्नति का विकास होता है जो पर्वत उत्पत्ति के क्षेत्र बन जाते हैं।
अनेक प्रमाणों के आधार पर भू-सन्नतियों को पर्वतों का पालना (Cradle of Mountains) कहा जाता है। भू-सन्नति में पर्वत निर्माण की तीन अवस्थायें मानी जाती हैंः-
प्रथम अवस्था – इसे भू-सन्नति अवस्था (Litho genesis) भी कहते हैं। इस समय भ-सन्नति का निर्माण व अवसादों का निक्षेप होता है।
द्वितीय अवस्था – इस अवस्था को पर्वत निर्माण (Orogenesis) अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में अवसादों के भार से पृथ्वी का सन्तुलन बिगड़ने लगता है, जिसे पुनः स्थापित करने के लिये आन्तरिक शक्तियाँ क्रियाशील हो जाती हैं। अतः भू-सन्नति के किनारे स्थित स्थलखण्ड में विस्थापन होता है, जिसे क्षैतिज दबाव पड़ने से भू-सन्नति के अवसादों में मोड़ पड़ जाते हैं एवं उनका उत्थान होने लगता है। इस भू-संचालन के स्वरूपा व कारणों पर विभिन्न विद्वान अलग-अलग मत रखते हैं।
तीसरी अवस्था – इसे विकास की अवस्था (Gliptogensis) भी कहा जाता है। भू-सन्नति के अवसादों में पड़े मोड़ों में बार-बार उत्थान होता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया बहुत लम्बी होती है व मंद गति से होती है, जिसका अनुभव हमें नहीं होता है। उत्थान के साथ बाह्य शक्तियाँ अपना कार्य प्रारंभ कर देती हैं। अपक्षय व अपरदन से पर्वतों में काट-छाँट प्रारंभ हो जाती है, जिससे उनका विभिन्न आकार प्राप्त होता है। अनाच्छादन से पर्वतों की ऊँचाई धीरे-धीरे कम होने लगती है। कहीं अधिक निक्षेप व कहीं अधिक अपरदन से समस्थितिक सन्तुलन (Isostatic adjustment) बिगड़ जाता है। पुनः आन्तरिक शक्तियों क्रियाशील हो जाती हैं, जिससे पर्वतों की ऊँचाई पुनः बढ़ने लगती है।
उपरोक्त समस्त प्रक्रिया हजारों-लाखों वर्षों तक चलती है. इसीलिये हमें कहीं अत्यधिक ऊचे नुकाल शिखर वाले पर्वत हिमालय, रॉकीज व आल्पस मिलते हैं. तो कहीं अरावली. वॉसेज, ओजाके, पारसना जैसे घर्षित पर्वत मिलते हैं, इसीलिये इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किये गये हा का भूसंचलन से उत्पन्न संकुचन के कारण पड़ी सिकुड़नों से पर्वतों का निर्माण हआ है। इस मत के आधार कोबर ने भू अभिनति सिद्धांत (Kober’s Geosynclinal Orogen theory) प्रस्तुत किया। जका का संकुचन सिद्धांत (Jfferey’s Thermal Contraction Theory) भी इसी संकुचन को आधार मानता है।
अनेक विद्वानों ने आन्तरिक शक्तियों का कारण महाद्वीपों के प्रवाह से उत्पन्न क्षैतिज गति व दबाव से पर्वतों के निर्माण का कारण माना है। इस आधार पर वेगनर, जौली, होम्स तथा डेली प्रमुख हैं। वर्तमान में पर्वत निर्माण को प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत से वैज्ञानिक व प्रमाणिक रूपा से समझा जा सकता है। प्राचीन सभी सिद्धांत मत ऐतिहासिक महत्व रखते हैं।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत एवं पर्वतों का निर्माण
(Plate Tectonic Theory and Origin of Mountains)
पृथ्वी का ऊपरी आवरण प्लेट्स द्वारा बना है जो लगभग 100 कि.मी. मोटी है। ये स्थलमण्डल एवं दर्वलतामण्डल की 100 कि.मी. की कठोर एवं दृढ़ भू-खण्ड है। भू-पटल पर सात बड़ी व बीस छोटी प्लेट्स अभी तक चिन्हित की गयी हैं। ये सभी एक दूसरे से सटी हुई हैं व इनमें निरन्तर परिवर्तन होता है तथा इनमें गति उत्पन्न होती है। प्लेट्स का घूर्णन यूलर के ज्यामितीय सिद्धांत के आधार पर होता है। इसी आधार पर पर्वतों की उत्पत्ति की व्याख्या की जाती है।
प्लेट विवर्तन सिद्धांत के अनुसार पर्वतों का निर्माण दो अभिसारी प्लेटों की टक्कर होने से होता है। जब दो प्लेट्स एक दूसरे की तरफ गतिशील होती हैं तो उनके अभिसारी किनारे (Convergent Boundary) या विनाशी प्लेट सीमा के सहारे अवसादों में वलन पड़ने लगते हैं, क्योंकि परस्पर एक दूसरे की तरफ बढ़ने से सम्पीड़नात्मक बल (Compressive force) उत्पन्न होता है। निरन्तर निकट आने पर जो प्लेट अपेक्षाकृत भारी होती है वह नीचे दब जाती है व दूसरी उस पर चढ़ जाती है। दबी प्लेट का भाग जब गहराई में पहुँचता है तो अधिक ताप से पिघल जाता है तथा उसके आयतन में विस्तार होता है। फलस्वरूपा भू-पृष्ठ के वलित अवसाद ऊपर उठ जाते हैं। प्लेटों का टकराव (Collision) एवं अभिसरण (Subduction) तीन दशाओं में होता है, जिससे विभिन्न प्रकार के पर्वत बनते हैं।
(1) दो महासागरीय क्रस्ट वाली प्लेटें जब टकराती हैं तब एक प्लेट का सागरीय क्रस्ट नीचे दबता है। इस स्थिति में निचली प्लेट के अभिसरण से महासागरीय गर्त व ट्रेंच बनती है तथा ऊपरी प्लेट में संकुचन बल से वलन व भ्रंश पड़ते हैं, जिससे द्वीप तोरण व द्वीप चाप का निर्माण होता है तथा द्वीपों में पर्वतीय भू-रचना पायी जाती है। जैसे जापान ट्रेंच से लगे हुए जापान द्वीप समूह हैं तथा सभी द्वीपों में पर्वतीय धरातल है। इसी प्रकार क्यूराइल ट्रेंच के साथ क्यूराइल द्वीप समूह, मलाया, इण्डोनेशिया आदि द्वीप इसी प्रकार बने है।
(2) जब एक महासागरीय व दूसरी महाद्वीपीय प्लेट परस्पर एक दूसरे से टकराती हैं तब महासागरीय प्लेट अधिक घनत्व के कारण नीचे दब जाती है एवं महाद्वीपीय प्लेट मुड़ जाती है, इससे किनारों पर निक्षेपित अवसाद भी वलित हो जाते हैं और पर्वत का निमार्ण होता है। उत्तरी व दक्षिण अमेरिका के राॅकीज एवं पर्वतों का निमार्ण इसी प्रकार हुआ। महासागरीय प्लेट के अभिसरण से पीरू चिली ट्रंेच का निर्माण महाद्वीप का विस्थापन साथ-साथ होने के कारण यहाँ ट्रेंच का निर्माण नहीं हो सका।
(3) जब दो महाद्वीपीय प्लेट एक दूसरे की तरफ गतिशील होती हैं तब मध्य में स्थित उथले साके निक्षेप बलित होकर पर्वत का रूपा ले लेते हैं। मेसाजोइक कल्प से पूर्व टीथिस सागर के उत्तर में योगिन प्लेट तथा दक्षिण में इण्डो अफ्रीकन प्लेट का विस्तार था। सेनोजोइक कल्प में प्लेटों के टकराव से टीभित -सन्नति के अवसाद वलित होकर अल्पाइन व हिमालय पर्वत श्रृंखला बने। वर्तमान समय में भी अफ्रीका उत्तर की ओर सरक रही है व यूरोपियन प्लेट दक्षिण की तरफ सरक रही है। इस कारण भू-मध्य सागर संकुचन हो रहा है तथा लाल सागर चैड़ा हो रहा है।
प्लेट विवर्तन सिद्धांत के आधार पर पर्वत निर्माण की चक्रीय प्रणाली का स्पष्टीकरण हो जाता है। अब तक पृथ्वी पर पर्वत निर्माण के चार युगों का पता लगाया जा चुका है। प्लेटों के चक्रीय गति के आधार यरी यग से पर्व के पर्वतों की उत्पत्ति भी स्पष्ट हो जाती है। इस सिद्धांत के अनसार पेजिया से पहले भी महाद्वीप थे जो पेल्योजोइक कल्प के अन्त में भ्रमण के कारण आपस में मिलकर पेजिया बन गये। इस भ्रमण के कारण प्राचीन पर्वतों का निर्माण हुआ।
पर्वतों का महत्व
भू-पृष्ठ पर पर्वत सबसे प्रमुख भू-आकृति है, जो मानव जीवन को अत्यधिक प्रभावित करती है। इनकी विशाल आकृति, ऊँची बनावट, तीव्र ढाल, संकीर्ण घाटियाँ हमेशा मानव को चुनौती देते रहते हैं। एक तरफ से सुरक्षित प्राकृतिक सीमा बनाते हैं व सुरक्षा प्रदान करते हैं तो वहीं परस्पर सम्पर्क, सांस्कृतिक व आर्थिक सहयोग में बाधक बन जाते हैं परन्तु फिर भी इनके अनेक लाभ हैं:-
(1) ऊँचे पर्वत उस क्षेत्र की जलवायु को बहुत प्रभावित करते हैं, गरम व ठण्डी हवाओं को रोककर जलवायु सम बनाते हैं, नम वायु को रोककर वर्षा करवाते हैं। हिमालय पर्वत उत्तरी साइबेरिया की ठंडी हवाओं से भारत को सुरक्षित रखता है तथा मानसूनी हवाओं को रोककर वर्षा करवाता है।
(2) पर्वतों से अनेक सतत्वाहिनी नदियाँ निकलती हैं जो उपजाऊ मैदानों की रचना करती है। जैसे हिमालय से गंगा-जमुना, अरकानयोमा से इरावदी, आल्पस से डेन्यूब आदि। ये नदियाँ जल विद्युत उत्पादन, यातायात के साधन व अन्य कई महत्वपूर्ण कार्यों में सहयोग करती हैं।
(3) पर्वतीय प्रदेश खनिज पदार्थों के भण्डार होते हैं। पर्वतीय ढालों पर वनस्पति व चारागाह मिलते हैं, जिससे कई वस्तुएँ प्राप्त होती हैं।
(5) पर्वतीय क्षेत्र अपनी स्वास्थ्यवर्धक एवं मनोरम जलवायु एवं आकर्षक दृश्यों से सबको मोहित करते हैं तथा यहाँ अनेक पर्यटक स्थलों का निर्माण हो जाता है।
(6) पर्वत विभिन्न देशों के मध्य प्राकृतिक सीमा बन जाते हैं व सुरक्षा प्रदान करते हैं। अतः पर्वतों का मानव के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।