वन संरक्षण अधिनियम और वन नीति क्या है | 1980 और 1988 कब लागू हुआ forest conservation act 1980 in hindi

forest conservation act 1980 in hindi वन संरक्षण अधिनियम और वन नीति क्या है | 1980 और 1988 कब लागू हुआ ?

वन संरक्षण अधिनियम और वन नीति
सन् 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनाया गया ताकि वन भूमि को गैर वन संबंधी उपयोग हेतु बदला न जा सके। सन् 1988 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया, जिसके अनुसार भारत सरकार से अनुमति लिए बिना किसी भी वन भूमि को किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयोग करने को संज्ञेय अपराध (cognisable ffoence) घोषित किया गया। इस प्रकार, यदि कोई वन अधिकारी भी वन भूमि को किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयोग करेगा तो उसे 15 दिन की कारागार की सजा हो सकती है। दूसरे, फलों तथा औषधि के लिए काम में आने वाली वनस्पतियों और अन्य वाणिज्यिक वृक्षों को वन-उत्पाद की कोटि से अलग रखा गया। इसका प्रयोजन उद्योग और वाणिज्य को वन संवर्धन कार्यक्रम के नाम पर वन भूभाग में वाणिज्यिक रोपण को रोकना था। लेकिन इतनी सदाशयता से इस कानून को बनाते समय नीति निर्माता वन-सामान्य की संस्कृति से पूरी तरह परिचित नहीं थे। स्थानीय जनता को अपने भरण-पोषण के लिए मुख्य रूप से फलों, चारे, जलाऊ लकड़ी और जड़ी-बूटियों की आवश्यकता होती थी। इस प्रकार, वन भूमि पर इन किस्मों के रोपण को रोकने से अधिनियम के द्वारा न केवल वाणिज्यिक हितों द्वारा वन उत्पादों के नियंत्रण पर रोक लगी, बल्कि स्थानीय वनवासी समुदायों के लोग भी वन उत्पादों से वंचित हो गए।

दिसंबर 1988 में एक नई वन नीति की घोषणा की गई। इसके दस्तावेज के आरंभ में पर्यावरण संबंधी, औद्योगिक और जन-सामान्य की आवश्यकताओं में संतुलन रखने पर बल दिया गया। इसमें यह भी कहा गया कि लोगों और वनों के बीच सहजीवी संबंध रहा है और वनों का संरक्षण लोगों की भागीदारी के बिना संभव नहीं है।

भारत में ईंधन की लकड़ी व चारे का उत्पादन सुनिश्चित करने और रेलमार्गों, उद्योगों व संचार के लिए इमारती लकड़ी की अधिकतम समर्थित उपज प्राप्त करने के लिए अनेक योजनाएँ चलाई गईं। वन जिनका विश्वयुद्धों के दौरान अति दोहन किया गया था, फिर से बसाए गए। द्वितीय व तृतीय पंचवर्षीय योजनाओं में लुगदीवाली लकड़ी के लिए वाणिज्यिक संयंत्र लगाए गए। अभयारण्यों व राष्ट्रीय पार्कों की संख्या अगले दो दशकों तक बढ़ा दी गई।

1988 की भारतीय राष्ट्रीय वन नीति ने परिरक्षण अभिविन्यास और वानिकी को एक मानवीय रूप प्रदान किया। इस नीति ने पारिस्थितिक संतुलन और पर्यावरणीय स्थिरता कायम रखने में वनों की रक्षात्मक भूमिका पर जोर दिया। राष्ट्रीय वन नीति को नियंत्रित करने वाले मूल उद्देश्य इस प्रकार सूचीबद्ध किए गए:

ऽ संरक्षण और, जहाँ आवश्यक हो, उस पारिस्थितिक संतुलन को फिर कायम करके पर्यावरणीय स्थिरता कायम रखना जो देश के वनों के गंभीर निरूशेषीकरण द्वारा प्रतिकूलतः प्रभावित हुए हैं।
ऽ प्राणि व वनस्पति जगत् की विशाल विविधता वाले शेष बचे प्राकृतिक वनों की रक्षा करके देश की प्राकृतिक विरासत का परिरक्षण, ये दोनों जगत् ही देश की उल्लेखनीय जैव विविधता और जननिक संसाधनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ऽ मृदा व जल परिरक्षण के हित में नदियों, झीलों व जलाशयों के स्त्रवण क्षेत्रों में मृदा अपरदन व नग्नीकरण पर नियंत्रण रखना।
ऽ राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र में व तटीय इलाकों के साथ-साथ रेत के टीलों के विस्तार पर नियंत्रण रखना।
ऽ व्यापक वनीकरण व सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों, खासकर सभी नग्नीकृत, अपघर्षित व अनुत्पादन जमीनों पर, के माध्यम से देश में वनध्वृक्ष आवरण को वास्तविक रूप में बढ़ाना।
ऽ ग्रामीण व जनजातीय जनजातीय लोगों की ईंधन की लकड़ी, छोटे-छोटे वन उत्पाद व छोटी इमारती लकड़ी हेतु आवश्यकताएँ पूरी करना ।
ऽ अनिवार्य राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों की उत्पादकता को बढ़ाना।
ऽ वन उपज के फलोत्पादक उपयोगिता को बढ़ावा देना और लकड़ी के विकल्पों को बढ़ाना।
ऽ इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए महिलाओं की भागीदारी के साथ एक व्यापक जन-आंदोलन का निर्माण करना और विद्यमान वनों पर दबाव कम करना।
(बाला जी, 2001: 3-4)

तथापि, प्रस्तुत दस्तावेज में इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिन्हें हम राष्ट्रीय आवश्यकताएँ कहते हैं उन्हें लोगों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं से अधिक मान्यता दी जानी चाहिए। पिछले कई दशकों की परंपरा में राष्ट्रीय आवश्यकताओं और औद्योगिक आवश्यकताओं में कोई अंतर नहीं रहा है। इस प्रकार, एक ओर तो यह कहा गया है कि प्रत्येक निर्णय पर्यावरण के परिरक्षण को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए और दूसरी और इसमें लोगों की आवश्यकताओं से राष्ट्रीय आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी गई है। इस प्रकार, इसमें जनता की आवश्यकताओं को सबसे कम महत्त्व दिया गया है। इसके अतिरिक्त, उक्त दस्तावेज वनों पर लोगों की वास्तविक भागीदारी के बजाय सरकारी नियंत्रण के पक्ष में है। उदाहरण के तौर पर, राष्ट्रीय कृषि आयोग, 1976 की सिफारिशों के अनुसार लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए राज्य द्वारा संचालित भंडार (डिपो) स्थापित किये जाएँ। इस प्रकार इस दस्तावेज में सभी वर्गों की आवश्यकताओं को समान स्तर पर रखने का प्रयास हुआ है और वस्तुतः इससे पूर्ववर्ती दस्तावेजों की अपेक्षा इसमें लोगों की आवश्यकताओं को पहले से बहुत निचले स्तर पर रखा गया है।

वृक्षारोपण के विभिन्न प्रकार और जन-सामान्य की सहभागिता
कानूनी समाधानों के अतिरिक्त वनों से सम्बद्ध समस्याओं का एक और समाधान वृक्षारोपण के रूप में है। राष्ट्रीय कृषि आयोग, 1976 की सिफारिशों के आधार पर वन विभाग विभिन्न प्रकार के वनरोपण कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करता रहा है। इसमें भी विशेष ध्यान उत्पादन वानिकी पर रहा है जिसके द्वारा औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। सामाजिक वानिकी, मृदा संरक्षण, वायु संरक्षण आदि के लिए भी उपयोगी है। इनमें से कुछ विषयों पर नीचे चर्चा की जा रही है।

प) सामाजिक वानिकी
सामाजिक वानिकी का संबंध लोगों की आवश्यकताओं से है। सामाजिक वानिकी को अधिक व्यवहारमूलक समस्या सुलझाने के साथ लोगों के विभिन्न समुदायों में विघटन की समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करना चाहिए। हमारे पास जो भी जानकारी उपलब्ध है उससे पता चलता है कि आज सामाजिक वानिकी ही वस्तुतः वाणिज्यिक और उत्पादन वानिकी बन गई है। वैसे – भी, कुल क्षेत्र के दो-तिहाई से अधिक क्षेत्र में उत्पादन वानिकी के अंतर्गत रोपण कार्य होता है। बाकी क्षेत्र में आर्थिक रोपण, शीघ्र बढ़ने वाली किस्मों के रोपण, उजड़े वनों के अनुसार और सामाजिक वानिकी की जाती है। इन वनरोपणों को मुख्य उद्देश्य लोगों की आवश्यकताओं की उपेक्षा करके शेष बचे क्षेत्र के 80 प्रतिशत क्षेत्र पर वाणिज्यिक किस्में रोपित की गई हैं। नई दिल्ली में, मई 1983 में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित सेमिनार में बोलते हुए तत्कालीन वनमहानिरीक्षक, भारत सरकार ने इस बात को स्वीकार किया। इन योजनाओं के तहत लगाई गई किस्मों में से 80 प्रतिशत वाणिज्यिक किस्में थीं और ये 80 प्रतिशत किस्में 20 प्रतिशत बड़े कृषकों को वितरित कर दी गईं (रॉय 1983)। दूसरे शब्दों में, न तो लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हुई और न ही असमानता में किसी प्रकार की कमी हुई।

यहाँ आपको यह जानकारी उपयुक्त लगेगी कि सामाजिक वानिकी का एक प्रकार है खेतों में वन लगाना। गुजरात में कृषि भूमि पर फार्म वानिकी के संदर्भ में किए गए अध्ययन के निष्कर्ष में जैन (1988: 4) ने बताया कि

यह बात स्पष्ट है कि सामान्यतः भारत में और विशेष रूप से गुजरात में ग्रामीण विकास में पूँजीवादी कृषि की प्रवृत्ति प्रमुख है। इस तथ्य से बचा नहीं जा सकता कि वन में वृक्षों की खेती अनिवार्य रूप से लाभ की दृष्टि से की जाती है। स्पष्टतया “पोलवुड‘‘ की खपत औद्योगिक और/ अथवा वाणिज्यिक उद्यमों से जुड़ी है। यही कारण है कि बड़े कृषक जिनके पास काफी पूँजी हो और जिनकी इमारती लकड़ी के बाजार में अच्छी पहुँच हो वह फार्म वानिकी को अपने खेत में सफलतापूर्वक अपना सकते हैं। दूसरी ओर, पूँजीगत संसाधनों और बाजार के बारे में आवश्यक जानकारी के अभाव में छोटे किसानों को वन में वृक्षों को उगाने और उनको बेचने में समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

इस परिप्रेक्ष्य में फार्म वानिकी के गैर-नकदी लाभ और पारिस्थितिक लाभ किसानों के लिए गौण हो जाते हैं। दूसरी ओर, वृक्षारोपण के वाणिज्यिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को एक बहाना मिल जाता है।

पप) सामाजिक वानिकी में जन-सामान्य की भागीदारी
सामाजिक वानिकी और इसके घटकों की योजना में गत कई वर्षों के दौरान वन विभाग या अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा लिए गए सभी निर्णयों में लोगों की भागीदारी बहुत सीमित रही है। प्रायः स्थानीय वनवासियों को दिहाड़ी मजदूरों की तरह इस्तेमाल किया जाता है। उनका निर्णय की प्रक्रिया में कोई योगदान नहीं होता। इसके अलावा, अधिकांश मामलों में वन-उत्पाद का लाभ भी नहीं पाते। यह बात इस कथन के विरुद्ध है इन कार्यक्रमों को जन-आंदोलन में बदल देना चाहिए। वस्तुतः इसी कथन के आधार पर 1 जून 1990 को भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय के सचिव ने सभी राज्यों के वन विभागों को एक परिपत्र भेजा था। उस परिपत्र में उनसे कहा गया था कि वे इस बात का ध्यान रखें कि वनरोपणं और पुनर्वनीकरण के संबंध में निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय लोगों को भी शामिल किया जाए। उसमें यह भी कहा गया था कि लोगों को वन जमीन पट्टे पर या किसी दूसरे तरीके से न दी जाए, लेकिन पूरी योजना वन विभाग और लोगों के बीच साझेदारी पर आधारित हो। इसमें कहा गया कि लोगों को किस्मों के चयन, कार्य व्यवस्था को सम्पन्न कराने और इनसे मिलने वाले लाभों के संबंध में निर्णय लेने में सम्मिलित किया जाए। इसके आधार पर बिहार, उड़ीसा और राजस्थान की सरकारों ने वनरोपण योजनाओं के संबंध में नए नियम बनाए हैं। कुछ अन्य राज्य भी इसी प्रकार के नियम बना रहे हैं। शिक्षा संस्थाओं के लिए भी जरूरी है कि वे वृक्षों की देखभाल तथा वृक्षारोपण को बढ़ावा दें। आगे दिए चित्र में जो छोटी-छोटी बातें दी गई हैं उन्हें सीखना कठिन नहीं है।

शायद आप सोचें कि वन विभाग की ओर से साझेदारी की भावना का होना अति आवश्यक है। ऐसी योजना में वन विभाग और स्थानीय लोगों के बीच साझेदारी आवश्यक है, परंतु विभाग के अधिकारियों तथा जन-सामान्य के बीच निकट सहयोग का अभाव रहा है। वन अधिकारी/ कर्मचारी अपने अधिकारों में किसी तरह की कमी को सहन करना नहीं चाहते और उनकी दृष्टि में जनता तो वनों की दुश्मन है। इसके विपरीत, वनवासियों को वन अधिकारियों पर विश्वास नहीं है और वे उन्हें शोषणकर्ता समझते है। इसके अलावा, जैसा कि हमने ऊपर बताया है, लोगों में वनों पर सकारात्मक निर्भरता धीरे-धीरे नकारात्मक निर्भरता में बदल चुकी है। इसने लोगों और वन अधिकारियों के बीच तनाव की स्थिति को और भी बढ़ाया है।

पप) स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका
हमें ऐसी मनोवृत्ति को बदलकर वनों के प्रति रचनात्मक मनोवृत्ति को फिर से पैदा करना होगा। इसके लिए वनरोपण योजनाओं में लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा। इस समय वन विभाग की अधिकांश योजनाएँ वाणिज्यिक प्रकार की हैं। लोगों को न तो इनसे खाद्य सामग्री मिलती है और न ही कोई आय ही होती है। इस कार्य में स्वैच्छिक संगठन उत्प्रेरक के रूप में काम कर सकते हैं। ऐसा करके वे लोगों में वनों के पुनरुत्पादन के प्रति निहित स्वार्थ पैदा करने में सहायक हो सकते हैं और वन विभाग उन्हें आवश्यक तकनीकी समर्थन प्रदान कर सकता है। जहाँ तक पेड़ों की सही किस्मों को लगाने का प्रश्न है, ये संगठन लोगों की वास्तविक जरूरतों से अपने आपको जोड़ सकते हैं। यह बात उड़ीसा के कोरापुट जिले की “बनभारती‘‘ में, गुजरात में रंगपुरा के हरिवल्लभ पारिख के आश्रम में, उत्तर प्रदेश के उत्तराखंड क्षेत्र के कई वर्गों में तथा अन्यत्र भी संगठनों की सफल योजनाओं में देखने को मिली है। ये संगठन ऐसी योजनाएँ चलाने का प्रयास कर रहे हैं जिनमें संपूर्ण पर्यावरणी पुनरुत्पादन के साथ लोगों की भागीदारी सम्मिलित हो। ऐसी योजनाओं को मुख्य रूप से कर्नाटक और महाराष्ट्र मे चलाने का प्रयास किया जा रहा है। इनमें से अधिकांश योजनाएँ सरकारी विभागों की तकनीकी सहायता से स्वैच्छिक संगठनों और लोगों द्वारा गठित समितियों द्वारा संचालित की जा रही हैं। राजस्थान में कई संगठन कुछ क्षेत्रों को सूखे के प्रभाव से मुक्त रखने के लिए पर्यावरण संबंधी पुनःप्रजनन की योजनाएँ चलाने का प्रयास कर रहे हैं।

पपप) महिलाओं की सहभागिता
इन योजनाओं की एक आवश्यक बात इनमें महिलाओं का शामिल होना है। यह अनुभव चिपको तथा अन्यत्र ऐसे संगठनों द्वारा चलाई गई योजनाओं में दिखाई दिया (दखिए जैन 1984)। परंतु, इन लोगों के और स्वैच्छिक संगठनों के कार्यक्रम में सबसे बड़ी कमी यह पाई जाती है कि वे आसानी से महिलाओं की भूमिका को समाज के अनिवार्य अंग के रूप में नहीं समझ पाते। प्रायः समाज में सभी निर्णय केवल पुरुषों के द्वारा लिए जाते हैं या कभी-कभी स्वैच्छिक अभिकरणों द्वारा अपने निर्णय लोगों पर लाद दिए जाते हैं। फिर भी, पुरुषों के बजाय महिलाएँ शताब्दियों से पर्यावरण के परिरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती रही है और पर्यावरण के खराब होने का प्रभाव भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर अधिक पड़ता है। इसलिए जिस समुदाय का विनाश हो चुका है उस समुदाय के पुनर्निर्माण के लिए और वास्तविक दीर्घकालीन पर्यावरणी संतुलन को कायम करने के लिए महिलाओं की भागीदारी अनिवार्य है।

सोचिए और करिए 4
अपने क्षेत्र में वृक्षावरण की स्थिति का पता लगाइए और इसको सुधारने के लिए संभव उपायों के बारे में जानकारी दीजिए जिनमें आपकी भागीदारी हो सकती है।

संक्षेप में, हमारा यह निष्कर्ष है कि पर्यावरण के सुधार के किसी भी कार्यक्रम में लोगों की जरूरतों, औद्योगिक अपेक्षाओं और पारिस्थितिक संतुलन को ध्यान में रखना होगा। यह कार्य व्यक्तिगत रूप में नहीं, सामुदायिक रूप में करना होगा और टूटे हुए समुदायों को फिर से जोड़ना होगा। इस प्रक्रिया में हमें कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देना होगा। यह बात ऐसे समुदायों के संबंध में है जिन्हें सबसे अधिक कष्ट उठाना पड़ा है। यहाँ उदाहरण के तौर पर जनजातियों और अन्य वनवासियों को लिया जा सकता है। उनमें भी महिलाओं की भूमिका को विशेष महत्त्व देना होगा।

बोध प्रश्न 3
1) वनों के संबंध में हाल ही के कानूनी उपायों का वर्णन लगभग सात पंक्तियों में कीजिए।
2) 1980 के दशक में तैयार किए गए वन विधेयक की कौन-सी बात महत्त्वपूर्ण थी? चार पंक्तियों में उत्तर लिखिए।

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 3
1) वनों के संबंध में हाल ही में किए गए कानूनी उपाय निम्नलिखित हैं:
क) किसी भी वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए परिवर्तित करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
ख) भारत सरकार की अनुमति के बिना किसी भी वन भूमि को किसी और प्रयोजन के लिए उपयोग करने को संज्ञेय अपराध घोषित कर दिया गया।
ग) वनरोपण कार्यक्रम जन-आंदोलन बन जाना चाहिए।
घ) लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सामाजिक वानिकी को लागू किया जाएगा।

2) सन् 1980 में बनाए गए नए वन विधेयक ने वन उत्पादों को फिर से परिभाषित करके कई अन्य चीजों को वन उत्पादों की सूची में शामिल करके वनों के संरक्षण की कोशिश की। इस विधेयक ने वन अधिकारियों को वन अधिनियम का उल्लंघन करने वाले वास्तविक या संदिग्ध अपराधियों को पकड़ने और सजा देने के अतिरिक्त अधिकार दे दिए। इसमें इन अपराधों के लिए सजा में वृद्धि भी की गई।