वनों में कमी का प्रमुख कारण है | भारतीय वनों के नष्ट होने के प्रमुख कारण लिखिए What are the consequences of loss of forest cover

What are the consequences of loss of forest cover in hindi वनों में कमी का प्रमुख कारण है | भारतीय वनों के नष्ट होने के प्रमुख कारण लिखिए ?

पर्यावरणी परिणाम
देश के वनों की उपर्युक्त दशा के कारण निम्नलिखित पर्यावरण संबंधी विकृतियाँ पैदा हुईं:

 वृक्षारोपण में कमी
इस दुष्चक्र का पहला परिणाम वृक्षारोपण में कमी आना था, जो इस समय भारत में लगभग 9 प्रतिशत है। इसके कारण मिट्टी का बड़े पैमाने पर कटाव हुआ है। बड़े पत्तों वाले पेड़ों से मिट्टी को हवा, धूप और वर्षा से संरक्षण मिलता है। पेड़ों से जलस्तर को ठीक बनाए रखने के लिए जमीन में आवश्यक नमी भी बनी रहती है। रूस में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि वृक्षों के आवरण में अगर 10 प्रतिशत की कमी हो तो वर्षा में 4 प्रतिशत की कमी हो जाती है। वन क्षेत्र से 100 मीटर की दूरी पर स्थित भूभाग में मिट्टी के कटाव (ेवपस मतवेपवद) की दर प्रति हैक्टेयर 2.1 टन होती है। 300 मीटर की दूरी पर कटाव की दर 14.6 टन और 600 मीटर की दूरी पर यही दूरी 38.4 टन प्रति हैक्टेयर होती है। चंडीगढ़ के पास के पहाड़ों पर पेड़ों की कटाई के बाद मिट्टी में कटाव की वार्षिक दर 900 टन पाई गई थी (सी.एस.ई. 1987)।

बंगलौर के माधव गाडगिल के अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में हर साल लगभग 600 करोड़ टन मिट्टी बहकर चली जाती है। इसमें से 10 प्रतिशत मिट्टी समुद्र में चली जाती है। 69 प्रतिशत मिट्टी नदियों और बड़े बाँधों के जलाशयों में जमा हो जाती है। उदाहरणार्थ, ऐसा सोचा गया था कि बिहार के मैथॉन बाँध के प्रति 100 वर्ग मीटर क्षेत्र से 1.62 हैक्टेयर मीटर गाद (silt) निकलेगी। लेकिन बाद के पर्यवक्षण से मालूम हुआ कि गाद (silt) की यह मात्रा 13.10 हैक्टेयर मीटर है। ऐसी ही मान्यता थी कि निजाम सागर बाँध में 0.29 हैक्टेयर मीटर गाद निकलेगी, लेकिन वास्तव में यहाँ से 6.55 हैक्टेयर मीटर गाद निकली। सभी प्रमुख बाँधों के इसी तरह के आँकड़े प्रस्तुत किए जा सकते हैं। इसका स्वाभाविक परिणाम यह है कि उनका जीवनकाल घटकर आधे से भी कम रह जाता है। पानी वाले क्षेत्र में वनों की कटाई ओर मिट्टी के कटाव से नदियों में गाद के जमा होने को भी इसमें जोड़ा जा सकता है। पिछले बीस वर्षों में ब्रह्मपुत्र का जलस्तर 1.98 मीटर और गंगा का स्तर 5 मीटर से भी अधिक ऊपर उठ गया है।

बाढ़ और सूखा
मिट्टी में पानी को सोखने की क्षमता न होने, नदियों के तल के ऊपर उठने और बाँधों में गाद जमा होने के कारण नदियों में बाढ़ आती है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार, देश में बाढ़ प्रवण क्षेत्र 1960 में 190 लाख हैक्टेयर था, जो 1984 तक बढ़कर 590 लाख हैक्टेयर हो गया। 1960 में बाढ़ से प्रभावित लोगों की संख्या 52 लाख थी, जो 1970 में बढ़कर 154 लाख हो गई। सन् 1978 में 700 लाख योग बाढ़ से प्रभावित हुए। वर्ष 2002 में बाढ़ से प्रभावित होने वालों की 10 करोड़ संख्या रही। इसमें हमें बाढ़ द्वारा संचार व्यवस्था के भंग होने और उत्पादन न होने के कारण होने वाली हानि को भी जोड़ना चाहिए।

ऐसा प्रतीत होता है कि बाढ़ के साथ-साथ देश में सूखे में भी वृद्धि हो रही है। गत बीस वर्षों के दौरान देश में एक दशक में तीन या चार सूखे वाले साल रहे, जबकि 1920 से 1960 तक के चार दशकों में केवल चार सूखे वाले साल थे। विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सी.एस.ई. 1987) और भारतीय सामाजिक संस्थान् (फर्नाडिस 1987), नई दिल्ली जैसी संस्थाओं के अध्ययनों से पता चलता है कि जनजातीय क्षेत्रों में स्थित और भी खराब है, जहाँ कुछ वर्ष पूर्व घने जंगल थे। दक्षिणी राजस्थान, सौराष्ट्र और गुजरात के कच्छ क्षेत्र में तथा उड़ीसा के कालाहांडी जिले में, उत्तरी कर्नाटक के उत्तरी भागों और दक्षिणी तमिलनाडु में लगातार 6 से 8 वर्ष तक सूखे की स्थिति रही।

बाढ़ और सूखे की राहत पर होने वाले खर्च में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान देश ने प्रति वर्ष औसतन 5.64 करोड़ रुपये बाढ़-सूखा राहत पर खर्च किए। 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में यह राशि बढ़कर प्रति वर्ष लगभग 1200 करोड़ रुपये हो गई। इसमें वह राशि भी जोड़ी जा सकती है जो संचार प्रणाली और अन्य जन-सुविधाओं को बाढ़ से हुई क्षति को ठीक करने पर व्यय होती है। इस प्रकार, कुल व्यय होने वाली राशि बहुत अधिक हो जाती है। अन्यथा इसी राशि का उपयोग लोगों के विकास पर किया जा सकता है।

सोचिए और करिए 2
आपकी राय में वन के दुरुपयोग के सबसे महत्त्वपूर्ण पर्यावरण संबंधी परिणाम क्या हैं? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए वनों में वृक्षावरण के कम होने के विभिन्न परिणामों का पर्यवेक्षण कीजिए। इसके बारे में पुराने समाचार-पत्रों की कतरनों को पढ़िए और दूसरे स्रोतों से जानकारी इकट्ठी कीजिए। इस विषय पर आप अपने मित्रों से भी चर्चा करें और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के परामर्शदाता से परामर्श लें। फिर इस विषय पर आप 250 शब्दों की एक टिप्पणी लिखिए।

निर्वनीकरण (वनों की कटाई) और वर्षा
अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में बी.सी. विश्वास (1980) असम में एस. कालिता (1988) और एस.के. शर्मा (1981), मध्य प्रदेश में पी.सी. अग्रवाल (1976) और दक्षिण में वी.एम. मेहर होमजी (1988) के अध्ययनों से पता चलता है कि निर्वनीकरण और वर्षा में कमी के कारण में गहरा संबंध है। इस विषय में किसी निश्चित परिणाम पर पहुँचने से पहले और अधिक अध्ययनों की आवश्यकता है। हम में से अधिकांश लोगों को पेड़ों और वर्षा के बीच संबंध के बारे में सामान्य ज्ञान है। तकनीकी शब्दावली में इसे “जलीय चक्र‘‘ कहते हैं। वन मिट्टी को संरक्षित और दृढ़ करते हैं। वन क्षेत्र में वर्षा का जल स्वच्छ होता है ओर यह अपने साथ केवल 5 प्रतिशत तलछट ले जाता है, लेकिन जिन क्षेत्रों में वन काट दिए जाते हैं वहाँ वर्षा का पानी गंदला होता है और अपने साथ 60 प्रतिशत बहाकर ले जाता है।

जन-सामान्य पर परिणाम
इससे पूर्व हमने लोगों के व्यवहार या संस्कृति में परिवर्तन के बारे में उल्लेख किया था। जिन लोगों ने वनों को पुनर्नवीकरण करने योग्य संसाधन माना और भावी पीढ़ी के लिए परिरक्षित करने के लिए उनका संतुलित ढंग से उपयोग किया, उन्होंने ही आज अपनी जीवन रक्षा के लिए उनको बरबाद करना शुरू कर दिया है। उनकी गरीबी और ऋणग्रस्तता ने उन्हें इस दुष्चक्र में ढकेल दिया है। उदाहरण के तौर पर, उड़ीसा में किए गए एक अध्ययन (फर्नाडिस, 1988) से पता चलता है कि लगभग 20 प्रतिशत जनजातीय लोगों ने निर्वनीकरण के कारण गरीबी की हालत में कर्ज लेकर न लौटा पाने की स्थिति में अपनी जमीन साहूकारों के नाम कर दी। आज उनका जीवन वनों के विनाश पर टिका है। संक्षेप में, हम कहें कि लोगों की गरीबी इसका महत्त्वपूर्ण परिणाम है। उनमें से बहुत से लोग झूम खेती में अपनी जमीन का अत्यधिक दोहन करते हैं। उन्हें जलाऊ लकड़ी को बेचकर, दिहाड़ी मजदूरी पर पेड़ों को काटकर वनों को नष्ट करना पड़ रहा है। अगले उप-भागों में हम वनों की वर्तमान स्थिति से लोगों पर होने वालों कुछ अन्य परिणामों के बारे में चर्चा करेंगे।
 प्रवसन और शोषण
उड़ीसा और मध्य प्रदेश की जनजातियों के पूर्व उद्धृत अध्ययन में हमने देखा कि गरीबी और ऋणग्रस्तता के कारण बंधुआ मजदूरों की संख्या में बेशुमार वृद्धि हुई है। इनमें से बहुत संख्या में लोग दूसरे राज्यों में बागान मजदूर, निर्माण कार्य मजदूर और सड़क मजदूर के तौर पर काम करने के लिए प्रवसन (उपहतंजपवद) करते हैं। प्रायः इन मजदूरों को अपने परिवार के पास लौटकर जाने नहीं दिया जाता या वे गरीबी के कारण जा नहीं पाते हैं। यही बात मणिपुर के प्रवासी मजदूरों, दिल्ली में 1982 के एशियाई खेलों के निर्माण कार्य में लगे मजदूरों और अन्यत्र कार्यरत मजदूरों के संबंध में किए गए अध्ययनों में पाई गई है। दिल्ली में हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चलता है कि गत दो दशकों में निर्वनीकरण और विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित हुए जनजातीय लोग और दूसरे वनवासी लोग बहुत बड़ी संख्या में शहरों की गंदी बस्तियों में आकर बस गए हैं। ये लोग केवल अकुशल मजदूर के रूप में काम कर सकते हैं, जहाँ इनका और भी अधिक शोषण होता है (फर्नाडिस 1990)।

 कुपोषण और बुरा स्वास्थ्य तथा समुदाय का विघटन
जनजातीय लोगों की शारीरिक दशा में गिरावट इसका एक अन्य परिणाम है। उड़ीसा के अलमास अली (1980) जैसे लोगों ने आकलन करके देखा कि हमें प्रतिदिन कम से कम औसतन 2400 कैलोरी की आवश्यकता होती है। इसकी तुलना में कोंड जैसी जनजाति के लोगों की खाने की औसतन दैनिक खपत लगभग 1700 कैलोरी होती है। यह कमी दूध, मांस, फलों और गिरी आदि चीजों की कमी में सबसे केंद्रित है। निर्वनीकरण से पहले ये चीजें वहाँ बहुतायत से पाई जाती थीं। इसके अभाव के कारण उनकी शारीरिक दशा बिगड़ जाती है। इसके अतिरिक्त, पारिस्थितिक अस्थिरीकरण के कारण उन्हें नई बीमारियाँ आ घेरती हैं तो दूषित वर्यावरण के प्रभाव से फैलती हैं। शताब्दियों से वे इलाज के लिए वनों में उगने वाली जड़ी-बूटियों पर निर्भर रहे हैं। निर्वनीकरण के कारण वे इन जड़ी-बूटियों से भी वंचित हो गए हैं। सामान्य इलाज के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी वहाँ से 10-15 किलोमीटर दूर शहरों में स्थित हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे तब तक इन स्वास्थ्य केंद्रों में नहीं जाते हैं, जब तक बीमारी गंभीर रूप न धारण कर ले (अग्रवाल तथा नारायण 1985)।

संसाधनों के अभाव के कारण उन संसाधनों को प्राप्त करने के लिए होड़ लग जाती है। फलस्वरूप समुदाय में फूट पड़ती है और उसका विघटन होने लगता है। फलतः वनों से प्राप्त होने वाले उत्पादों के ‘‘न्यायसंगत‘‘ वितरण की व्यवस्था को लागू किया जाता है। इस तथाकथित ‘‘न्यायसंगत‘‘ वितरण व्यवस्था में बाहरी लोगों के अलावा जनजातीय एवं वनवासी लोगों में से ही कुछ अधिक सम्पन्न लोग अपने हिस्से से अधिक संसाधनों को प्राप्त करने में सफल हो जाते है। इससे जिन गरीब लोगों को थोड़े-बहुत संसाधन उपलब्ध थे, उन्हें उन संसाधनों से भी वंचित रहना पड़ता है (फर्नाडिस, मेनन तथा वीगा 1988: 226-27)।

 वन अधिकारियों से तनाव की स्थिति
संसाधनों की कमी के कारण गरीब लोगों को पेट भरने के लिए जलाऊ लकड़ी बेचकर गुजारा करना पड़ता है। इस कारण वन अधिकारियों और इन लोगों के बीच जो संबंध पहले ही खराब थे, वे और भी बिगड़ जाते हैं। फलतः वन अधिकारियों द्वारा गरीब लोगों के शोषण की प्रक्रिया शुरू होती है। वनवासियों के शोषण के बारे में जोशी (1983) ने लिखा है:

वनवासियों पर वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं जो उन्हें वन विभाग के निम्न स्तर के कर्मचारियों के सामने दया का पात्र बना देते हैं। निरक्षरता और आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण उनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। वन विभाग के अधिकारियों के उपेक्षा भाव का लाभ उठाकर वनरक्षक जैसे निम्न स्तर के कर्मचारी वन उत्पाद के समाहरण में स्थानीय लोगों का शोषण करते हैं। उदाहरणार्थ, आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में वनरक्षक गौण वन उत्पादों पर एक रुपये पर छह पैसा लेते हैं और कुछ अन्य क्षेत्रों में जनजातीय लोगों को बेगार करनी पड़ती है। हालाँकि सारे खंड (ब्लॉक) में विश्रामगृहों का जाल बिछा हुआ है, फिर भी वन राजिक और उच्च स्तर के अधिकारियों को अपने क्षेत्र का निरीक्षण करने के लिए भी समय नहीं मिलता। यह स्थिति किसी एक क्षेत्र की नहीं है, सभी जगह यही हाल है।

 महिलाओं का अपेक्षाकृत अधिक सीमांतीकरण
यद्यपि सभी वनवासी लोगों को परेशानी उठानी पड़ती है, लेकिन उनकी स्त्रियों की स्थिति पुरुषों से भी कहीं बदतर हो जाती है (देखिए फर्नांडिस तथा मेनन 1987)। भोजन, चारे, पानी, जड़ी-बूटियों और खाद की आपूर्ति को सुनिश्चित करने की पारंपरिक भूमिका का दायित्व महिलाओं का रहा है। लेकिन धीरे-धीरे वनों और गाँव के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। पूर्वी मध्य प्रदेश और उड़ीसा में 1950 के दशक के आरंभ में गाँव से वनों की दूरी लगभग एक किलोमीटर थी। सन् 1980 के दशक के आरंभ में यह दूरी बढ़कर लगभग 7 किलोमीटर हो गई। गढ़वाल के हिमालय के क्षेत्र में यह दूरी 10 किलोमीटर से भी अधिक है। इसके कारण महिलाओं के काम की मात्रा में भी वृद्धि हुई है। जब वन गाँव के पास था तब बच्चे और बूढ़ी औरतें भी गृहिणी को वन ने फल, फूल, पत्ते और दूसरे वन-उत्पादों को एकत्र करने में मदद करते थे। गाँव से वन की दूरी बढ़ने के कारण बच्चे और बूढ़ी औरतें ऐसे किसी भी काम में उसकी सहायता करने में असमर्थ हैं। इसलिए गहिणी को प्रतिदिन वन-उत्पादों को एकत्र करने के लिए 5-10 किलोमीटर अतिरिक्त चलना पड़ता है। अन्य अधिक कामों के कारण यह अपेक्षाकृत कम वन उत्पाद इकट्ठा कर सकती है।

इसका स्वाभाविक परिणाम खाद्य सामग्री या खाने की कमी होता है। अधिकांश जनजातीय समूहों में सारा परिवार एक साथ बैठकर भोजन करता है। लेकिन खाने की उपलब्धता में कमी होने के कारण बहुत से जनजातीय समुदायों ने एक प्रकार की जातिगत प्रथा शुरू कर दी है, जिसके अनुसार स्त्रियाँ अपने पुरुष सदस्यों, लड़कों और लड़कियों को इसी क्रम से खिलाने के बाद अंत में स्वयं भोजन करती हैं। इसके परिणामस्वरूप प्रायः स्त्रियों को बहुत कम (या कभी-कभी बिना) खाने से गुजारा करना पड़ता है क्योंकि उसके लिए अधिक खाना प्रायः बचता ही नहीं है।

सोचिए और करिए 3
अपने सांस्कृतिक क्षेत्र में ध्यान से देखिए कि महिलाएँ कौन-कौन से क्रियाकलाप करती हैं और उनमें से कौन-कौन से क्रियाकलाप वन-उत्पाद से संबंधित हैं। उन सबका विवरण तैयार कीजिए। एक 250 शब्दों की संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए जिसमें महिलाओं की वन-उत्पादों तक पहुँच और उनके द्वारा इन संसाधनों के नियंत्रण और प्रबंध का विश्लेषण किया गया हो।

सूखे और अकाल के समय में स्थिति और भी खराब हो जाती है। पहले के वर्षों में कंद और मूल की मदद से समय निकल जाता था क्योंकि वन में कंद-मूल बहुतायत में मिल जाते थे। निर्वनीकरण के साथ सूखे वाले वर्षों की संख्या में वृद्धि हो गई और कंद-मूल आदि जो कि अकाल के दिनों का आहार थे, वे समाप्त हो गए। इसके कारण परस्पर एक-दूसरे की सहायता देने वाले समुदाय कमजोर हो गए। इसलिए कमी या अभाव के समय में गृहिणी को दूसरों से किसी तरह की सहायता भी नहीं मिलती (फर्नाडिस 1987: 433-35)।

संभावित समाधान
वनवासी या जनजातीय लोगों का जीवन वनों पर निर्भर है। वन संसाधन अब इन गरीब लोगों की पहुँच से बाहर हो गए हैं। हमें वन प्रबंध को इस दृष्टि से देखना होगा कि हम इन लोगों के हित में कुछ समाधान खोज सकें। आज इसके कानूनी समाधान खोजने के प्रयास हो रहे हैं। इस भाग में हमने पहले कानूनी समाधानों और वन संरक्षण अधिनियम तथा नई वन नीति की चर्चा की है। इसके बाद हमने विभिन्न प्रकार के वनरोपणों और उनमें लोगों की भागीदारी के बारे में विचार किया है।

 कानूनी समाधान
वन क्षेत्र में निरंतर घटते हुए वृक्षारोपण की समस्या से निपटने के लिए कानूनी समाधान के बारे में विचार किया गया है। वनों के कम होने के साथ विभिन्न क्षेत्रों में प्रतियोगिता बढ़ रही है और राज्यों पर इस बात का दबाव डाला जा रहा है कि वे इस संसाधन पर से सबसे कमजोर वर्गों की पहुँच को समाप्त कर दें। इस दबाव का पहला संकेत राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में मिला। इस आयोग का गठन 1971 में हुआ था और इसने अपनी रिपोर्ट 1976 में पेश की। इस रिपोर्ट का खंड-9 वनों से संबंधित है। इसमें आयोग ने निरंतर घटते हुए वृक्षारोपण का उल्लेख करते हुए कहा है कि, ष्हमें मौजूदा वनों के संरक्षण के लिए प्रभावी उपाय करने होंगे। आयोग की दृष्टि में वनवासी लोग ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। ग्रामीण लोगों को वन उत्पाद की मुफ्त आपूर्ति और उनके अधिकारों तथा विशेषाधिकारों के कारण ही वनों का विनाश हुआ है इसलिए इस प्रक्रिया को उलटना होगा‘‘ (एन.सी.ए. 1976: 354-355)। इस विषय में आयोग की सिफारिश थी कि 7 करोड़ हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 4.8 करोड़ हैक्टेयर वन क्षेत्र को औद्योगिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अलग रख देना चाहिए। आयोग ने यह भी

सिफारिश की कि स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए राजकीय भंडार स्थापित किए जाएँ तथा वन क्षेत्र में रहने वालों की वन उत्पादों तक सीधी पहुँच को रोका जाए। इस चरण के अनुसरण के लिए विभिन्न समितियाँ गठित की गईं। आइए, हम इनके बारे में और अधिक विस्तार से चर्चा करें:

प) इस रिपोर्ट के आधार पर 1980 में एक नए वन विधेयक का मसौदा तैयार किया गया। इसने निम्न उपायों द्वारा वन संरक्षण का प्रयास किया:
ऽ वन उत्पादों को फिर से परिभाषित करके एम.ए.पी. (गौण वन उत्पाद) श्रेणी में वन-उत्पादों में कई और उत्पाद भी शामिल करना
ऽ वन अधिकारियों को वन अधिनियम का उल्लंघन करने वाले वास्तविक या संदिग्ध अपराधियों को पकड़ने और सजा देने की अतिरिक्त शक्तियाँ प्रदान करना
ऽ इन अपराधों के लिए सजा में वृद्धि करना।

इस विधेयक को संसद में पेश करने का जनता ने विरोध किया और इसे दुबारा संसद में पेश नहीं किया गया। वनों और जनजातीय लोगों के बीच संबंधों के अध्ययन के लिए कई समितियाँ बनाई गईं। पहली समिति के अध्यक्ष बी.के. रॉय बर्मन थे। इस समिति का गठन 1981 में गृह मंत्रालय द्वारा किया गया था (उस समय गृह मंत्रालय ही जनजाति विकास के काम को देख रहा था)। इस समिति ने निर्वनीकरण के विस्तार को समझने के बाद जनजातीय जीवन में वनों के महत्त्व पर बल दिया और इस समझ के परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन वन संबंधी कानून का पुनरीक्षण किया। समिति ने इस विषय में निम्नलिखित सिफारिशें की:

ऽ वन नीति और वनों की व्यवस्था की पद्धति को इस प्रकार निर्देशित किया जाए कि वह वनों को पुनर्नवीकरण योग्य संसाधन में बदल दे।
ऽ जनजातीय व्यक्ति, स्थानीय जनजातीय समुदाय और राष्ट्रीय हित हमारी वन नीति के तीन सिरे होने चाहिए।
ऽ यह नीति पारिस्थितिक सुरक्षा की आवश्यकताओं, ग्रामीण जनता की आहार, ईंधन, चारे, रेशों और दूसरी घरेलू आवश्यकताओं तथा कुटीर उद्योग, लघु उद्योग, मध्यम एवं भारी उद्योगों की आवश्यकताओं और रक्षा तथा संचार के क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करे।

वनों के संरक्षण और पुनर्प्रजनन में लोगों की भागीदारी का सुझाव दिया और कहा कि अकेले वन विभाग इस संसाधन का पुनर्नवीकरण नहीं कर सकता।

पप) योजना आयोग ने 1980 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग विकास समिति गठित की। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट जून, 1981 में प्रस्तुत की। समिति ने जनजातीय समुदायों और ग्रामीण आबादी को पर्याप्त आहार प्रदान करने में वन-उत्पाद के महत्त्व को स्वीकार किया। इस समिति ने बिचैलियों की शोषणपूर्ण भूमिका को और राज्य की राजस्वोन्मुखता को भी पहचाना, जो स्थानीय लोगों के हितों के विरुद्ध हैं। इसमें यह भी कहा गया कि वन उत्पाद के वाणिज्यीकरण का उद्देश्य जनजातीय और अन्य वनवासी लोगों को अधिक से अधिक लाभ पहुँचाना होना चाहिए। समिति ने यह अनुभव किया कि यदि जनजातीय लोगों में ऐसा निहित स्वार्थ पैदा कर दिया जाए तो वे वनों के संरक्षण में सहायक होंगे। लेकिन समिति ने जनजातीय समुदाय को वन संरक्षण के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया बल्कि उसने केवल कुछ व्यक्ति-विशेषों के साथ संपर्क स्थापित करने का सुझाव दिया। व्यावहारिक अर्थ में तो समुदाय की उपेक्षा कर केवल कुछ व्यक्तियों से संपर्क करने से तो केवल समुदाय का विघटन ही होगा और वह विघटन वन संरक्षण के वास्तविक स्त्रोत को ही खत्म कर देगा। इसके कारण उनमें जो कमजोर वर्ग के लोग हैं, वे वन-उत्पाद से वंचित रह जाएंगे। इसका प्रमुख दृष्टिकोण भी वही था जो राष्ट्रीय कृषि आयोग का था। आयोग के अनुसार, ये लोग स्वयं ही वनों के विनाशकर्ता हैं। इसलिए उसने यह सिफारिश की कि वन भूभाग और वन-उत्पाद पर जनजातीय समुदायों के अधिकारों को पर्याप्त रूप से सीमित कर दिया जाए।

पपप) अंततः, अक्टूबर 1981 में कृषि मंत्रालय ने भारत के वन क्षेत्रों में अधिकारों और रियायतों के पुनरीक्षण के लिए एक समिति गठित की। मध्य प्रदेश सरकार के भूतपूर्व मुख्य सचिव श्री एम.एस. चैधरी इस समिति के अध्यक्ष थे। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1984 में प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट के आरंभ में यह कहा गया था कि यद्यपि 1952 की राष्ट्रीय वन नीति में यह सिफारिश की गई थी कि जनजातीय समुदायों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की अपेक्षा राष्ट्रीय हितों को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए, “लेकिन इस नीति को पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं किया गया‘‘। समिति ने निर्वनीकरण का विश्लेषण करते हुए औद्योगिक कच्चे माल के लिए बड़े पैमाने पर वनों का सफाया करने का कोई उल्लेख नहीं किया। उसने केवल वनवासी लोगों पर और अधिक प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया। इसमें आगे कहा गया कि वह वनवासियों का दायित्व है कि वे वनों का संरक्षण करें और उनकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति 4.8 करोड़ हैक्टेयर घटिया सामाजिक वन क्षेत्रों से की जाए। इसके साथ ही, यह भी सिफारिश की गई कि सामाजिक वानिकी के लिए निर्धारित निधियों का कुछ अंश उत्पादन वानिकी में लगा दिया जाए (जो कि औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए हो)।