नारीवादी आंदोलन क्या है | नारी आन्दोलन किसे कहते है , जनक कौन है अर्थ विशेषताएं Feminist movement in hindi

Feminist movement in hindi नारीवादी आंदोलन क्या है | नारी आन्दोलन किसे कहते है , जनक कौन है अर्थ विशेषताएं ?

प्रस्तावना
समसामयिक संदर्भ में महिला आन्दोलन, नवीन सामाजिक आन्दोलनों की राजनीति के नये प्रकार का हिस्सा है जो सार्वजनिक जीवन में जनता की सक्रिय भागीदारी का आधार बन गया है। नागरिक स्वतंत्रताओं, पर्यावरण, अभिज्ञान, जातिमूलक, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि मुद्दों के आधार पर संगठित यह आन्दोलन दलीय राजनीति से परे हट कर स्वयं को भागीदारी के स्वरूप में परिवर्तन करने में सफल हुए हैं। अब भागीदारी का स्वरूप प्रतिनिधित्व के पारम्परिक तरीकों से बदल कर प्रत्यक्ष सामूहिक कार्यवाही में परिणत हुआ है। दलीय प्रतिस्पर्धा पर आधारित प्रतिनिधित्व की पारम्परिक विधि लोकतंत्र की विस्तृत भागीदारी की माँग को पूरा करने में असमर्थ रही है। यह देखा गया है कि विश्व की सर्वाधिक संस्थागत लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी समाज के हाशिए पर खड़े लोग और शक्तिहीन तबके, शक्ति की व्यवस्था से बाहर ही रह जाते हैं। नवीन सामाजिक आन्दोलन हाशिए पर के इन्हीं लोगों की आवाज बुलन्द कर इन्हें वैकल्पिक राजनीतिक दर्जा प्रदान करते हैं। अपनी प्रकृति के कारण ही यह आन्दोलन विस्तृत क्षेत्र पाते हैं। जहाँ पारम्परिक राजनीति केवल राजनीतिक स्तर पर क्रियाशील होती है वहीं यह नवीन सामाजिक आन्दोलन सामाजिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों तक विस्तारित होते हैं। अतः इन नवीन सामाजिक आन्दोलनों में सार्वजनिक व निजी तथा राजनीतिक व गैर-राजनीतिक क्षेत्रों के बीच विभाजक रेखा नहीं होती। हाशिए पर के और समाज के शक्तिहीन तबकों के लिए (जैसे महिलाएँ) जिनकी शक्तिहीनता का मूल सामाजिक व सांस्कृतिक होता है, यह नवीन आन्दोलन विशिष्ट महत्व के हैं। यह इन्हें न केवल राजनीतिक व्यवस्था में प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए आधार प्रदान करते हैं वरन् उन सामाजिक व राजनीतिक मान्यताओं को चुनौती देने में उनकी मदद करते हैं जो उनके उत्पीड़न का आधार बनी हैं।

महिला आन्दोलनों के विश्व व्यापी और स्थानीय संदर्भ
आज के सन्दर्भ में महिला आन्दोलन सार्वभौमिक है क्योंकि यह भूमण्डल पर सर्वत्र महिलाओं द्वारा विरोध को अभिव्यक्त करता है। सभी महाद्वीपों में महिला होने के नाते अपने पर हुए अत्याचार के विरोध में महिलाएँ स्वयं को संगठित करती रही हैं। इस दृष्टिकोण से, बीसवीं शताब्दी के महिला आन्दोलन महिलाओं की चिंताओं को व्यक्त करते रहे हैं और इस कारण राज्य, राष्ट्र, जाति, समुदाय व संस्कृति की सीमाओं से परे एक समान मंच की आवश्यकता की ओर इंगित करते रहे हैं। महिला आन्दोलनों की सार्वभौमिक प्रकृति के बावजूद, ऐसे अनेक आन्दोलन स्थानीय संदर्भ में क्रियाशील रह कर उत्पीड़न की विशिष्ट दशाओं के प्रति महिलाओं की स्थानीय प्रतिक्रियाओं का बोध कराते रहे हैं। अतः विश्वव्यापी संदर्भ के होते हुए भी महिला आन्दोलन राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक दृष्टि से विभिन्नताओं का परिचय भी देते हैं।

पृष्ठभूमि और इतिहास
महिला आन्दोलन मुख्य रूप से आधुनिक युग की देन । पूर्व-आधुनिक युग में महिलाओं के ै थ् ् अधिकारों ं हितों पर आधारित संलग्नता के तत्कालीन संदर्भ अविदित थे। पश्चिमी यूरोप व उतरी अमेरिका की विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियों ने पहले पहल महिला आन्दोलनों को जन्म दिया। प्रारंभ प,ि 1776 की अमेरिकी क्रान्ति व 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद महिलाओं द्वारा विरोध उभरने लगा था। यह इन आन्दोलनों के श्वेत पुरुष नेताओं के प्रयासों के विरोध के रूप में उभरा जो नये प्राप्त अधिकारों को पुरुषों तक सीमित रखना चाहते थे।

ओलिम्पी डी गूजे (Olympe de Gouges) उन आरंभिक महिला नेताओं में से थी जिसका शीश अलग कर दिया गया था क्योंकि वह पेरिस की कामकाजी महिलाओं को, मात्र पुरुषों को दिए गए अधिकारों से वंचित रखे जाने के विरोध में, संगठित कर रही थी। अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका ‘महिला अधिकार व स्त्री नागरिक‘ में उसने महिलाओं को सामाजिक व राजनीतिक अधिकार दिए जाने की माँग की थी। इसी संदर्भ में समान अधिकारों की माँग की गयी थी। 1868 में पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के संगठन ‘द इन्टरनेशनल असोसिएशन ऑफ विमैन‘ की स्थापना की गई थी। इसकी आंरभिक माँगों में समान अधिकार, शिक्षा, समान कार्य के लिए समान वेतन इत्यादि सम्मिलित थे।

उन्नीसवीं शताब्दी व बीसवीं शताब्दी के आरंभ में विश्व के अन्य कई भागों में लिंग पर आधारित असमानताओं के विरोध में महिलाएँ संगठित होने लगी थीं। इसकी आंरभिक माँगों में पारिवारिक अधिकारों की पैतृक व्यवस्था के विरोध स्वरूप परिवार व समाज से लिंग पर आधारित भेदभाव को दूर करने की माँग शामिल थी। जब यह आन्दोलन कानूनी सुधारों पर लक्ष्य साध रहे थे। इसी बीच उत्तरी अमेरिका व यूरोपीय देशों में मताधिकार के मुद्दे उठाए जाने लगे।

ऐतिहासिक तत्वों की विविधता
किसी एक परिस्थिति में नहीं वरन ऐतिहासिक तत्वों व दशाओं की विविधता से विश्व के विभिन्न भागों में महिलाओं की संगठित, सामूहिक क्रिया का जन्म हुआ। पश्चिमी यूरोप की ऐतिहासिक परिस्थिति के अतिरिक्त, अन्य देशों में उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, समाजवाद, आधुनिकीकरण इत्यादि की दशाओं से महिलाओं की प्रतिक्रिया सामने आने लगी। कई औपनिवेशिक राज्यों में, औपनिवेशिक शासकों के प्रभाव स्वरूप महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हुई जबकि अन्य कई राज्यों में उदारवादी संविधानवाद ने महिला अधिकारों के लिए आन्दोलनों को जन्म दिया। कई स्थानों में क्रान्तिकारी आन्दोलनों से महिलाओं की पृथकता ने महिलाओं द्वारा विरोध की कार्यवाही व संगठन का उदय किया। कई मामलों में राष्ट्रीय स्तर पर संगठित राजनीतिक आन्दोलनों से महिला आन्दोलन जुड़े रहे।

 

 चरण और उपागम
महिला आन्दोलन के विकास की दिशा में तीन प्रमुख चरण व तीन सुस्पष्ट पद्धतियाँ सामने आई हैं जिनका उद्देश्य स्त्रियों का उत्थान हैं।

प्रथम, आन्दोलन का आदर्शवादी व अव्यावहारिक चरण। इस अवधि में महिला आन्दोलन ने दो मुख्य बातों पर बल दियाः

1) महिलाओं की पुरुषों से बराबरी व
2) महिलाओं में बहनापा। इस चरण में दुनिया भर के महिला संगठनों में सर्वसम्मति तथा विश्व स्तर पर एकात्मकता पर जोर दिया गया।

इस चरण के बाद की अवधि में स्त्री पुरुष समानता की अपेक्षा स्त्री-पुरुष विभिन्नता पर बल दिया गया था। यह ऐसा चरण था जिसमें नारीत्व को गौरवान्वित किया गया था व नारी के अपने अनुभव को प्रश्रय दिया गया था। इस चरण में स्त्रियों की समस्याओं की एकसारता को समझ कर एक सांझे मंच से विरोध प्रदर्शन की आवश्यकता को प्रश्रय दिया गया था। नारी का उत्पीड़न पितृसत्तात्मक संरचनाओं की देन माना गया। 1970 के दशक में पश्चिमी नारी आन्दोलन की यही मुख्य विशेषताएँ रहीं। उस समय तीन मुख्य अवधारणाओं का विकास हुआ – पहला, ‘नारी‘ की अवधारणा। इसका निहितार्थ यह था कि स्त्री का शोषण उसके ‘स्त्रीत्व‘ की दशाओं से पनपता है। दूसरा, श्अनुभवश् की अवधारणा। इसका आशय, यह था कि सार्वभौमिक रूप से स्त्री श्स्त्रीत्वश् के कारण शोषण का शिकार होने का अनुभव प्राप्त करती है। तीसरा, ष्व्यक्तिगत राजनीति की अवधारणा जिसने सार्वजनिक व निजी के बीच के विभाजन के समाप्त करने पर जोर दिया। इसके माध्यम से महिला राजनीति ने सार्वजनिक तौर पर यह सिद्ध किया कि निजी या घरेलू क्षेत्र में नारी पर किस प्रकार शक्ति का प्रयोग किया जाता है। इस कारण स्त्री संगठनों ने राज्य के हस्तक्षेप द्वारा पारिवारिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन की माँग की। इस अवधि में महिलाओं के उत्थान की राजनीति का मुख्य आधार उत्पीड़न की सार्वभौमिक प्रकृति था, इसलिए इस अवधि में वर्ग, मूल, जाति या अन्य भेदभाव के बिना स्त्रियों की एकजुटता पर बल दिया गया।

समसामयिक काल महिला उत्थान की राजनीति का तीसरा चरण है। इस चरण की विशिष्टता स्त्रियों में बहुलवाद व अन्तर को समझना है। स्त्रियों की एकरूपता व उनके अनुभव की समानता की मान्यता को दक्षिण में व्यवस्थित तत्कालीन नारी आन्दोलन ने चुनौती दी है। समानता की अपेक्षा, राष्ट्रीयता, जाति, वर्ग व संस्कृति के आधार पर महिलाओं में परस्पर विभिन्नता पर जोर दिया गया है। इस विचारधारा का आशय यह है कि महिलाएँ एक समूह नहीं हैं और उनका शोषण श्नारीत्वश् की सार्वभौमिक दशा में निहित नहीं है। वास्तव में महिलाओं का उत्पीड़न विशिष्ट संदर्भयुक्त है। श्वेत महिलाओं द्वारा अनुभूत उत्पीड़न अश्वेत महिलाओं के उत्पीड़न के अनुभव से नितान्त भिन्न हो सकता है। एक वर्ग की स्त्रियों का उत्पीड़न दूसरे वर्ग की स्त्रियों के उत्पीड़न की प्रकृति से अलग हो सकता है। अतः ‘उत्पीड़न के स्थल‘ और ‘विरोध के स्थल‘ भिन्न भिन्न हो सकते

 महिला आन्दोलनों का संगठन – स्वायत्तता तथा लिंगीय विशिष्टता
तत्कालीन महिला आन्दोलन स्वायत प्रकृति के हैं। स्वायत्तता का तात्पर्य यह है कि महिलाएँ स्वयं को संगठित करती हैं, अपनी कार्यसूची तैयार करती हैं और अपनी कार्य शैली तय करती हैं। परम्परागत संगठनों के सोपान क्रमिक व आधिकारिक संरचनाओं की अपेक्षा यह संगठन मुख्यतः लघु रूप समूह थे जिनमें संरचनात्मक अभाव था वे परस्पर विचारों की बहुलता व विभिन्नता थी। इन संगठनों का किसी राजनीतिक दल या किसी सामाजिक आन्दोलन से सम्बन्ध नहीं था। इन संगठनों की राजनीति अनुपम इसी कारण थी कि इसने सोच समझ कर स्वयं को राजनीतिक दलों व अन्य संगठित समूहों से अलग कर लिया था।

स्त्रियों की स्वायत्तता का प्रश्न लिंग मुद्दों की विशिष्टता पर बल से भी जुड़ा था। अतः स्वायत्त महिलाओं के आन्दोलन लिंग अधीनता के विरुद्ध प्रतिबद्धता पर आधारित थे। वैचारिक तौर पर, स्त्री उत्पीड़न को पितृसत्तात्मक संरचनाओं से जोड़ा गया। अतः उन मुद्दों पर जोर दिया गया जो महिलाओं के लिंगीय हितों के इर्द गिर्द थे और जो पितृसत्तात्मक मूल्यों व संरचनाओं का विरोध करते थे।

स्वायत्त महिला आन्दोलन की इस राजनीति जिसमें लिंग विशिष्ट मुद्दों पर ही जोर दिया गया. है ने स्त्री सक्रियता व उससे जुड़े मुद्दों की प्रकृति के सम्बन्ध में विवाद को जन्म दिया है। यह तर्क दिया गया है कि महिला आन्दोलनों की सीमा रेखा न तो महिला संगठनों की स्वायत्त प्रकृति पर और न ही लिंग विशिष्ट हितों के आधार पर परिभाषित की जा सकती है। अतः राजनीति दलों में सक्रिय महिलाएँ महिला आन्दोलनों का उतना ही हिस्सा है जितना सामाजिक आन्दोलनों से जुड़ी वे महिलाएँ जो केवल लिंग विशिष्ट मुद्दों के आधार पर ही संगठित नहीं है। वास्तव में, स्त्रियों के लिंग हितों का प्रश्न सकल रूप में स्वयं विवादित है। यह तर्क भी दिया गया है कि केवल महिला लैंगिकता से जुड़े मुद्दे ही नहीं वरन् उनकी निर्धनता व आर्थिक अभाव से जुड़े सभी मुद्दे लिंग हितों में शामिल हैं। महिला आन्दोलन की राजनीति से जुड़े विभिन्न पहलू निम्नांकित हैं।

 लिंगीय विशिष्टता – दलीय राजनीति के लिए आशय
लिंगीय मुद्दों की विशिष्टता और स्वायत्तता के प्रश्न विशेष रूप से वामपंथी विचारधारा वाली सक्रिय महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं। तत्कालीन नारी आन्दोलनों को आरम्भ से ही इस प्रश्न का सामना करना पड़ा है कि क्या महिलाओं का समानता के लिए संघर्ष सकल रूप में नई समाजवादी व्यवस्था के लिए संघर्ष का हिस्सा है या महिलाओं को स्वतन्त्र रूप से विशिष्ट लिंगीय उत्पीड़न के विरुद्ध संगठित होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, महिलाओं के उत्पीड़न का आधार क्या है – वर्ग अथवा लिंग या दोनों। उग्र सक्रिय स्त्रियाँ जिन्होंने स्वायत्त स्त्री संगठनों की स्थापना की यह विश्वास करती थी कि स्त्रियाँ स्वयं में एक शोषित वर्ग हैं अतः वृहद राजनीतिक संगठनों का हिस्सा बनने की अपेक्षा उन्हें अपनी क्षमताओं का प्रयोग महिलाओं की विशिष्ट राजनीति के लिए करना चाहिए। दूसरी ओर, वामपंथी राजनीतिक दल यह मानते हैं कि समानता के लिए महिलाओं का संघर्ष पूर्ण रूप से नई समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के संघर्ष का हिस्सा होना चाहिए।

वामपंथी विचारधारा वाले संगठनों के अन्तर्द्वन्द्व के कारण विभिन्न देशों में समाजवादी-स्त्रीवादी संगठनों ने इस विषय पर मतैक्य स्थापित किया है कि स्त्रियों के उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष को लैंगिक व वर्गीय दोनों प्रश्नों से जोड़ कर संगठित करना होगा। इस विचारधारा के अनुसार महिलाओं के उत्पीड़न का कारण केवल पूँजीवादी संरचनाओं के साथ पितृसत्तात्मक संरचनाओं में भी निहित है। फलतः कई वामपंथी संगठनों ने अपनी कार्य सूची में लिंगीय- विशिष्ट मुद्दों को भी सम्मिलित किया है। इनमें से कई संगठनों की महिला शाखाएँ भी सक्रिय हुई हैं।

 महिला आन्दोलन तथा आन्दोलनों में महिलाएँ
कई लोगों का यह मानना है कि महिलाओं के आन्दोलनों को स्वायत्त और केवल लिंगीय हितों के प्रतिनिधित्व वाला मानना अपूर्ण होगा क्योंकि इस परिभाषा में वे गतिविधियाँ शामिल नहीं है जिनमें महिलाएँ सामूहिक हितों के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संलग्न होनी हैं चाहे वे स्त्रीवादी हों या नहीं। यद्यपि महिलाओं के लिंगीय हितों के उद्देश्य से चले आंदोलन स्त्रीवाद के विकास में सहायक होते हैं तथापि यह संपूर्ण नहीं होते और स्त्रियों की गतिशीलता का पूर्ण परिचय नहीं देते। इस संदर्भ में ‘आन्दोलन में महिलाएँ‘ अवधारणा का हवाला दिया जा सकता है। यह उक्ति विभिन्न प्रकार से महिलाओं की क्रियाशीलता का परिचय देती हैं जिसके अंतर्गत प्रत्यक्ष रूप से स्त्रियों के लिंगीय हितों का अनुसरण नहीं किया जाता परन्तु वह स्त्रियों की सक्रियता व एकजुटता का आधार अवश्य है। इनमें सामाजिक आंदोलनों, श्रम संगठनों, क्रांतिकारी व राष्ट्रवादी आंदोलनों की विविधता का उल्लेख किया जा सकता है।

‘आंदोलन में महिलाएँ‘ राजनीति स्त्रियों के मुद्दों की जटिलता तथा महिला आंदोलनों की प्रकृति व दिशा की ओर संकेत करती है। इस जटिलता से पीड़ित वर्गों, जिनका स्त्रियाँ एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, के संघर्ष और स्त्रियों की लिंग विशिष्ट हितों के लिए संघर्ष की क्रियाशीलता के यह रूप महिला आंदोलनों में वर्गीकृत नहीं किए जाते परन्तु फिर भी यह आधुनिक युग में स्त्री एकजुटता का कारण बने हैं। लिंगीय कार्यसूची के संदर्भ में यह समझना होगा कि ऐसे आंदोलन जिनमें स्त्रियाँ बड़ी संख्या में शामिल होती हैं, भागीदारी की किसी न किसी अवस्था में लिंग संवेदनशील हो जाते हैं। इस संवेदनशीलता के कारण इन आंदोलनों में स्त्रियाँ, स्त्री विशिष्ट माँगों की अभिव्यक्त कर नेतागणों पर दबाव डालने लगती हैं कि स्त्रियों और उनकी माँगों की पहचान की जाए। श्आंदोलन में महिलाओं की यह लिंगीय संवेदनशीलता राजनीति महिलाओं के आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

महिलाओं के व्यावहारिक हित बनाम सामरिक हितों में अंतर से जुड़े मुद्दे
जन आन्दोलन के भीतर लिंग संवेदनशीलता को लिंग विशिष्ट हित का अर्थ जानकर ही जाना जा सकता है। इस विवाद का केन्द्र बिंदु स्त्रियों के व्यावहारिक हित व सामरिक हित के संबंध में है। मौलीनैक्स (डवसलदमनेम) के अनुसार, स्त्रियों के व्यावहारिक हित वह हैं ष्जो लिंग आधारित श्रम विभाजन व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति के आधार पर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करें। सामरिक सुधारने के उद्देश्य से सामाजिक संबंधों में परिवर्तन का दावा करे और लिंग व्यवस्था व अंततः समाज में महिलाओं की स्थिति की स्थाई आधार पर पुनर्स्थापना करे। (मोलीनैक्स, पृ. 232) इस परिप्रेक्ष्य में दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति व उससे जुड़े उपाय स्त्रियों के विशिष्ट व्यावहारिक हित हैं, जबकि विशिष्ट रूप से लिंगीय हित माने जाने वाले हित जैसे उनकी लैंगिकता, प्रजनन स्वास्थ्य, प्रजनन पर उनके नियंत्रण से जुड़े मुद्दे उनके सामरिक हित माने जाते हैं। महिला आन्दोलनों के लिए व्यावहारिक हित उतने ही महत्वपूर्ण है जितने सामरिक हित। इस संदर्भ में लैटिन अमेरिका, भारतीय उप महाद्वीप, अफ्रीका व पूर्व एशियाई देशों में सामाजिक अन्याय के विरुद्ध और उपभोग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुए संघर्षों की ओर संकेत किया जा सकता है। 1970 व 1980 के दशकों में आर्थिक मंदी की दशाओं के चलते पेरू व केन्या जैसे देशों में महिलाओं की सक्रियता उनकी आधारभूत आवश्यकताओं के लिए प्रकट हुई थी न कि उनके विशिष्ट लिंगीय हितों के लिए।

बोध प्रश्न 3
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) स्वायत्त महिलाओं के आंदोलनों के क्या लक्षण हैं?
2) महिलाओं के आन्दोलन व आंदोलन में महिलाओं में क्या अन्तर है?
3) महिलाओं के व्यावहारिक हित व सामरिक हितों में क्या अंतर है?

 महिला आंदोलनों की राजनीति – विविधता और अंतर
हितों, अभिव्यक्ति के रूपों और स्थलों की विविधता महिला आंदोलनों की विशेषता रही है। अतः महिला आंदोलनों को वर्गीकृत किया जाना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, शिक्षित मध्यवर्गीय महिलाओं के आंदोलन श्रमजीवी या खेतीहर महिलाओं के आंदोलनों से अपनी प्रकृति में भिन्न हो सकते हैं। इस संदर्भ में न केवल मुद्दों वरन् नीतियों में भी अंतर देखा जा सकता है। महिला आंदोलनों की राजनीति में बहुलता व विविधता के संदर्भ में ही महिला आंदोलन में एक सार्वभौमिक आधार के विचार को नकारा गया है। यह अनुभव किया गया है कि महिलाओं के अनुभव की सार्वभौमिकता को स्वीकार करना यूरोप केन्द्रित सिद्ध होगा। वैसे ही इस पक्षपात से केवल श्वेत मध्यवर्गीय महिलाओं की समस्याओं के संदर्भ में ही महिलाओं की चिंता को व्यक्त किया गया है। इसी कारण पश्चिमी रूढ़िवद्ध, अवधारणा भूमण्डलीय विकास कार्यक्रमों से जुड़ी है। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि दक्षिणी अर्थव्यवस्थाओं की जीविकोपार्जन कृषि में महिलाओं के योगदान की अवहेलना की गई है। इस कारण दक्षिण की सक्रिय महिलाएँ, स्त्रियों के मध्य अंतर को दृष्टिगत ने करने की पश्चिमी प्रवृति की निन्दा करती है। वह महिलाओं के अंतर को समझ कर महिला आंदोलनों को सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक व विशिष्ट समाजों के परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की पक्षधर हैं। विभेदों की पहचान से स्त्रियाँ अपने शोषण पर सशक्त प्रहार करने में समर्थ होती है।
 विशिष्ट व समक्षणिक (साथ-साथ) शोषण
यह समझना जरूरी है कि महिलाएँ कोई समरूप या अभिन्न ढेर नहीं है न ही अखण्डित श्रेणी हैं। वे विभिन्न सामाजिक आर्थिक परिवेशों से जुड़ी होती हैं जो वर्ग, मूल, जाति या समुदाय पर आधारित होते हैं और विभिन्न प्रकार से अधीनता व उत्पीड़न से ग्रस्त होती है। महिलाओं की अधीनता में लिंग का बड़ा हाथ होता है, तथापि उपरोक्त श्रेणियों की भूमिका कम नहीं होती। गेल ओमवैट (ळंपस व्उअमकज) का मानना है कि स्त्रियाँ कई श्रेणियों में निबद्ध होती हैं और उनका शोषण महिला होने के नाते व इन श्रेणियों के सदस्य होने के नाते दोनों कारणों से होता है। अतः उनका शोषण ‘विशिष्ट‘ भी है और ‘समक्षणिक‘ भी जैसे दलित स्त्री का शोषण उसकी दलित वास्तविकता की विशिष्टता से जुड़ा है और एक अश्वेत स्त्री का शोषण उसकी अश्वेत वास्तविकता का परिणाम है। पहले मामले में दलित स्त्री का समक्षणिक शोषण है श्दलितश् के नाते भी और श्महिलाश् के नाते भी और दूसरे मामले में भी स्त्री का समक्षणिक शोषण है श्अश्वेतश् व श्स्त्रीश् दोनों होने के कारण इसमें सार तत्व यह है कि दोनों का स्त्री होने के कारण शोषण होता है परन्तु दोनों के शोषण की प्रकृति उनकी विशिष्ट परिस्थिति श्दलितश् व श्अश्वेतश् में निहित है।