features of indian constitution in hindi संविधान की विशेषताएं क्या क्या है लिखिए ? भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं बताइए ?
संविधान की विशेषताएं
भारत का सविधान अनेक दृष्टियो से एक अनूठा सविधान है। उसकी अनेक विशेषताए है, जो विश्व के अन्य सविधानो से अलग उसकी पहचान बनाती है।
संविधान का आकार
नितांत भौतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह अब तक किसी भी देश मे बना सबसे लबा सविधान है। यह एक बहुत ही व्यापक दस्तावेज है नथा इसमे अनेक ऐसे विषय सम्मिलित है जो औचित्य के विचार से साधारण विधान या प्रशासनिक कार्यवाही की विषयवस्तु हो सकते थे। ऐसा इसलिए हुआ कि भारत शासन अधिनियम, 1935 मूलतया एक कानून था और उसका उपयोग एक मॉडल तथा एक प्रारभिक कार्यकारी प्रारूप के रूप में किया गया और इसके काफी बड़े हिस्से सविधान में ज्यों-के-त्यों समाविष्ट कर लिए गए। इसके अलावा, सविधान निर्माता नही चाहते थे कि कोई ऐसे सशय, कठिनाइया और विवाद रह जाए जिनके निराकरण के लिए भविष्य मे विधान बनाना पड़े। सयुक्त राज्य अमरीका में सघीय संविधान के अलावा, प्रत्येक राज्य का अपना अलग संविधान है। इसके विपरीत, भारत के सविधानों मे न केवल सघ का बल्कि राज्यो का सविधान भी सम्मिलित है। भारत के आकार, इसकी जटिलताओ तथा विविधताओ के कारण भी देश के कतिपय क्षेत्रों अथवा जनता के वर्गों के लिए अनेक विशेष, अस्थायी, संक्रमणकालीन और विविध उपबध करना आवश्यक हो गया। संविधान मे प्रवर्तनीय अथवा न्यायालयो द्वारा लागू कराए जा सकने वाले मूल अधिकारो का एक व्यापक चार्टर ही समाविष्ट नहीं किया गया बल्कि इसमे उन सीमाओ का वर्णन भी किया गया जिनके अंतर्गत इनका सचालन होना चाहिए। इसके विपरीत, संयुक्त राज्य अमरीका में अधिकारो की सीमाए न्यायालय के निर्णयों के लिए छोड़ दी गई थीं। साथ ही, हमारे संविधान मे राज्य नीति के अनेक निदेशक तत्वों और नागरिकों के मूल कर्तव्यो का विवरण शामिल किया गया है। भले ही उन्हें न्यायालयों के द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता पर आशा की जाती है कि उनसे सभी को-राज्य, न्यायालय तथा नागरिको को-मार्गदर्शन मिलेगा।
़संविधान के प्रकार
लिखित अथवा अलिखित: संविधान अमरीकी सविधान की तरह लिखित या ब्रिटेन की तरह अलिखित तथा परपराओ और प्रथाओ पर आधारित हो सकते हैं। हमारा सविधान एक लिखित संविधान है, हालाकि परपराओ और प्रथाओ की विशेष भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता, बशर्ते वे सविधान के उपबधो के अनुरूप हों।
अनम्य अथवा नम्य: सशोधन की कठिन या सरल प्रक्रिया के आधार पर संविधानो को अनम्य अथवा नम्य कहा जा सकता है। सघीय सविधानों की संशोधन प्रक्रिया कठिन होती है, इसलिए उन्हे सामान्यतया अनम्य के रूप मे वर्गीकृत किया जाता है। हमारे सविधान को अनम्य तथा नम्य का मिश्रण कहा जा सकता है क्योंकि संविधान के कतिपय उपबंधो यथा अनुच्छेद 2, 3 तथा 4 और 169 का संशोधन साधारण विधान की तरह संसद के दोनो सदनो में साधारण बहुमत द्वारा किया जा सकता है। अन्य उपबंधों का सशोधन अनुच्छेद 368 के अधीन ससद के दोनो सदनों द्वारा प्रत्येक सदन में उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यो के दो तिहाई विशेष बहुमत और कुल सदस्यो के बहुमत द्वारा किया जा सकता है। केवल कुछ उपबधो के मामले मे, संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनो के विशेप बहमन के अतिरिक्त, आधे से अन्यून राज्यो के अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है। पिछले 45 वर्षों के दौरान हमारे संविधान में 78 बार सशोधन किए गए हैं। इसलिए यह तथ्य इस आरोप को झुठला देता है कि हमारा संविधान अनम्य है।
परिसंघीय अथवा एकात्मक: सविधानो को परिसघीय तथा एकात्मक में भी विभाजित किया जाता है। अमरीकी सविधान पहली श्रेणी का और ब्रिटेन का सविधान दूसरी श्रेणी का एक अत्युत्तम उदाहरण है। एकात्मक संविधान में सभी शक्तिया केंद्रीय सरकार मे निहित होती है और इकाइयों के प्राधिकारी उसके अधीन होते हैं तथा केंद्रीय सरकार के एजेटों के रूप में कार्य करते है और केंद्र द्वारा प्रत्यायोजित प्राधिकार का प्रयोग करते है। परिसघीय राज्य व्यवस्था मे सामान्यतया अनिवार्य है कि एक अनम्य, लिखित संविधान होय सविधान सर्वोच्च हो और इसके अतर्गत परिसघीय सरकार तथा इकाइयो की सरकारों के बीच शक्तियो का विशिष्ट रूप से विभाजन हो और दोनो अपने अपने क्षेत्रो में अपने निजी ढग से तथा स्वतंत्र रूप से शक्तियों का प्रयोग करे। वास्तव में, उत्तम श्रेणी के परिसंघ में, परिसघीय सरकार को केवल वही शक्तियां प्राप्त होती हैं जो उसे इकाइयों द्वारा समझौते के माध्यम से दी जाती हैं। इसके अलावा, अनिवार्य है कि यदि परिसंघ तथा राज्यों के बीच कोई विवाद हो तो उसके विवाचन के लिए एक स्वतंत्र उच्चतम न्यायालय हो।
भारत के संविधान का वर्णन विभिन्न प्रकार से किया गया है। इसे अर्धपरिसंघीय कहा गया है। इसे परिसंघीय किंतु प्रबल एकात्मक अथवा केंद्र-समर्थक भी कहा गया है। इसे संरचना मे परिसघीय किंतु भावना में एकात्मक, सामान्य स्थिति में परिसंघीय कित आपात स्थिति आदि के दौरान पूर्णतया एकात्मक रूप में परिवर्तित किया जा सकने वाला कहा गया है। असल मे, हमारे संविधान को परिसघीय या एकात्मक के किसी कठोर ढांचे में कसना कठिन है। इसमे दोनों की विशेषताएं हैं। इसे एकात्मक नहीं माना जा सकता क्योंकि, मिसाल के लिए, इसमे संघ तथा राज्यों के बीच कार्यपालक तथा विधायी शक्तियो के वितरण की व्यवस्था की गई है और राज्यो की शक्तियों अथवा संघ तथा राज्य के सबंधों को प्रभावित करने वाले प्रावधानों में राज्यों के अनुसमर्थन के बिना सशोधन नहीं किया जा सकता। इसे पूरी तरह से परिसघीय भी नहीं माना जा सकता क्योंकि अवशिष्ट शक्तियां सघ में निहित हैं। जैसा कि डा. अंबेडकर ने कहा था, अनम्यता तथा विधिवाद परिसघवाद की दो गंभीर कमजोरिया हैं। भारतीय प्रणाली इस दृष्टि से अनूठी है कि इसमे इकहरी भारतीय नागरिकता वाली दोहरी राज्य व्यवस्था रखी गई है, और वह समय और हालात की जरूरतो के अनुसार एकात्मक तथा परिसघीय दोनो ही हो सकती है। अनुच्छेद 249 के अधीन, सघ की ससद राज्य सूची का अतिक्रमण कर सकती है। अनुच्छेद 356 तथा 357 के अधीन, किसी राज्य में संवैधानिक तत्र की विफलता के आधार पर, उसकी सभी कार्यपालक तथा विधायी शक्तियो को सघ अपने हाथ मे ले सकता है और अनुच्छेद 352 से 354 के अधीन, सविधान को पूर्णरूपेण एकात्मक रूप दिया जा सकता है क्योंकि आपात स्थिति की उद्घोषणा के दौरान, सघ की कार्यपालक तथा विधायी शक्तियां राज्य सूची में सम्मिलित विषयो पर भी लागू हो जाती है। अंतत , अनुच्छेद 2, 3 और 4 के अधीन, सघ की ससद साधारण बहुमत से पारित साधारण कानून द्वारा नये राज्य बना सकती है और वर्तमान राज्यो के क्षेत्रो, उनकी सीमाओ या उनके नामों में परिवर्तन कर सकती है।
यह अनूठा एकात्मक परिसंघीय मिश्रण किसलिए हुआ? इसका उत्तर भारत के संवैधानिक इतिहास में, देश के विशाल आकार मे और धर्म, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि पर आधारित उसकी मिश्रित विविधताओं के स्वरूप में खोजा जा सकता है। संविधान के प्रारूप को संविधान सभा की स्वीकृति के लिए पेश करते समय, प्रारूपण समिति के अध्यक्ष, डा अंबेडकर ने “फेडरेशन आफ स्टेट्स‘‘ (राज्य परिसघ) के बजाय “यूनियन आफ स्टेट्स‘‘ (राज्य संघ) पद का प्रयोग करने की सार्थकता को निम्नलिखित शब्दो मे स्पष्ट करने का प्रयास किया था:
प्रारूपण समिति इस बात को स्पष्ट कर देना चाहती थी कि हालांकि भारत को एक ‘फेडरेशन‘ (परिसंघ) का रूप लेना था, कितु फेडरेशन राज्यो द्वारा फेडरेशन मे शामिल होने के समझौते का परिणाम नहीं था और चूंकि फेडरेशन किसी समझौते का परिणाम नही, अत किसी भी राज्य को उससे अलग होने का अधिकार नहीं। फेडरेशन एक सघ है क्योकि वह अनश्वर है। हालाकि देश तथा जनता को प्रशासन की सुविधा के लिए विभिन्न राज्यो में विभाजित किया जा सकता है, कितु देश पूर्णतया एक अखड इकाई है, इसकी जनता एक अखड जनसमूह है, जो एक ही स्रोत से प्राप्त परमसत्ता के अधीन रहती है।
सविधान के मूल पाट मे कहीं भी ‘फेडरल‘ (परिसघात्मक) या ‘फेडरेशन‘ (परिसंघ) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। उच्चतम न्यायालय ने भारतीय सघ (यूनियन) का उल्लेख फेडरल (परिसघीय) ‘क्वामी-फेडरल (अर्धपरिसघीय)‘ या ‘द्विस्वभावी” के रूप में किया है जिसका अर्थ यह है कि यह कभी तो ‘परिमघीय‘ होता है और कभी ‘एकात्मक। (राजस्थान राज्य बनाम भारत सघ, ए आई आर 1977 एस सी 1361) (अध्याय 6, ‘मघ और उसका राज्य क्षेत्र‘ के अतर्गत भी देखिए)।
संसदीय तथा अध्यक्षीय प्रणाली
भारत एक गणराज्य है । उसका अध्यक्ष गष्ट्रपति होता है, उसी मे सभी कार्यपालक शक्तिया निहित होती है तथा उसी के नाम से इनका प्रयोग किया जाता है । वह सशस्त्र बनो का सर्वोच्च कमाडर भी होता है। किंतु यह मान्यता है कि अमरीकी राष्ट्रपति के विपरीत हमारा गष्ट्रपति कार्यपालिका का केवल नाममात्र का या संवैधानिक अध्यक्ष होता है। वह यथार्थ गजनीतिक कार्यपालिका वानी मत्रिपरिपट की सहायता तथा उसके परामर्श से ही कार्य करता है। मंत्री सामूहिक रूप से समट के सीधे जननिर्वाचित सदन अर्थात लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होते है। इस प्रकार, ब्रिटिश प्रतिरूप का अनुसरण करते हुए, भारत के संविधान में बुनियादी तौर पर, संघ तथा राज्य, दोनों स्तरों पर संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है जिसमें मंत्रिगण सीधे जननिर्वाचित सदन के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इसके विपरीत, अमरीकी राष्ट्रपतीय शासन-प्रणाली में शक्तियों का पृथक्करण होता है तथा राष्ट्रपति एक निश्चित कार्यकाल के लिए मुख्य कार्यपालक होता है और उसे प्रायः पदच्युत नहीं किया जा सकता। अमरीकी प्रणाली में, राष्ट्रपति आम नागरिकों में से अपने मंत्री चुनता है और मंत्री विधानमंडल के सदस्य नहीं होते, जबकि संसदीय प्रणाली मे मत्री संसद से लिए जाते हैं तथा वे इसका अंग बने रहते है और वे लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होते है। कहा जा सकता है कि संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका के उत्तरदायित्व की संकल्पना पर अधिक बल दिया जाता है जबकि राष्ट्रपतीय प्रणाली में स्पष्टतया कार्यपालिका के स्थायित्व को अधिक महत्व दिया जाता है।‘‘
किंतु यह कहना गलत होगा कि हमने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को पूर्णरूपेण अपना लिया है। दोनों में अनेक मूलभूत अंतर तथा भिन्नताएं हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन का संविधान एकात्मक है, जबकि हमारा अधिकांशतया संघीय है। वहा वशानुगत राजा वाला राजतंत्र है जबकि हमारा देश निर्वाचित राष्ट्रपति वाला गणराज्य है। ब्रिटेन के विपरीत, हमारा संविधान एक लिखित संविधान है। इसलिए हमारी संसद प्रभुत्व संपन्न नहीं है तथा इसके द्वारा पारित विधान का न्यायिक पुनरीक्षण हो सकता है। हमारे संविधान में वाद योग्य ऐसे मूल अधिकारो का एक घोषणापत्र सम्मिलित है, जो न्यायालयो द्वारा न केवल कार्यपालिका के बल्कि विधायिका के खिलाफ भी लागू किए जा सकते है। ब्रिटेन की स्थिति इसके विपरीत है।
हमारे देश में ससदीय प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रपतीय प्रणाली को अपनाने की वाछनीयता अथवा अवाछनीयता के संबंध में कुछ बहस चलती रही है। कितु सविधान निर्माताओ ने संसदीय प्रणाली को तरजीह दी क्योकि उन्हें इसके सचालन का कुछ अनुभव था और सुस्थापित संस्थाओं को जारी रखने के अनेक लाभ थे। जिम्मेदार सरकार के लिए तथा निरंकुश कार्यपालक प्राधिकार के खिलाफ एक लंबे संघर्ष के बाद, स्वभावतया उन्हें ऐसी नियतकालिक कार्यपालिका पसंद नहीं थी जिसे हटाया न जा सके। उनका विश्वास था कि अत्यधिक बहुवादी समाज वाले भारत जैसे विशाल तथा विविधता से भरपूर देश के लिए, जहां विभिन्न प्रकार के प्रभाव काम करते हैं, सभी हितों को संजोने तथा संयुक्त भारत के निर्माण के लिए संसदीय प्रणाली सर्वाधिक अनुकूल होगी।
संसदीय प्रभुत्व बनाम न्यायिक सर्वोच्चता
ब्रिटिश ससदीय प्रणाली में ससद सर्वोच्च तथा प्रभुत्व संपन्न है। इसकी शक्तियों पर, कम-से-कम सिद्धांत रूप में, कोई रोक नहीं है, क्योंकि वहां पर कोई लिखित सविधान नहीं है और न्यायपालिका को विधान का न्यायिक पुनरीक्षण करने का कोई अधिकार नहीं है।
अमरीकी प्रणाली में, उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च है क्योंकि उसे न्यायिक पुनरीक्षण तथा संविधान के निर्वचन की शक्ति प्राप्त है।
भारत में, संविधान ने मध्य मार्ग अपनाया है। उसने ब्रिटिश संसद की प्रभुता और अमरीकी न्यायिक सर्वोच्चता के बीच समझौता किया है। चूंकि हमारा संविधान एक लिखित संविधान है तथा उसमें प्रत्येक अग की शक्तियों तथा उसके कार्यों की परिभाषा की गई है तथा सीमा निर्धारित की गई है इसलिए किसी भी अंग के यहां तक कि संसद के भी-प्रभुत्व संपन्न होने का कोई प्रश्न नहीं है। संसद तथा उच्चतम न्यायालय, दोनों अपने अपने क्षेत्रों में सर्वोच्च हैं। जहां कि उच्चतम न्यायालय संसद द्वारा पारित किसी कानून को संविधान का उल्लंघन करने वाला बताकर संसद के अधिकार से बाहर, अवैध और अमान्य घोषित कर सकता है, ससद कतिपय प्रतिबधों के अधीन रहते हुए संविधान के अधिकाश भागो मे सशोधन कर सकती है।
वयस्क मताधिकार
डा. अबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि ‘ससदीय प्रणाली से हमारा अभिपाय‘ ‘एक व्यक्ति, एक वोट‘ से है। संविधान निर्माताओं ने निष्ठापूर्वक कार्य करते हुए सार्वत्रिक वयस्क ‘मताधिकार‘ की पद्धति को अपनाने का निर्णय किया, जिसमे प्रत्येक वयस्क भारतीय को बिना किसी भेदभाव के मतदान के समान अधिकार तुरत प्राप्त हों। अधिकाश भारतीय जनता गरीब तथा अनपढ़ थी। इस संदर्भ मे यह निर्णय विशेष रूप से उल्लेखनीय था। पश्चिम के समुन्नत लोकतत्रों में भी मताधिकार धीरे धीरे ही दिया गया था।
मूल अधिकारों का घोषणा-पत्र
हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के नेताओं की सबसे बड़ी बुनियादी मांग यह थी कि लोगो को स्वतंत्रता, समानता आदि के कुछ मूलभूत मानव अधिकार मिलें। अल्पसंख्यकों की समस्याओं ने संविधान के मूलपाठ में ही कतिपय वाद-योग्य अथवा न्यायालयों द्वारा लागू कराए जा सकने वाले मूल अधिकारों की औपचारिक घोषणा किए जाने की जरूरत पर बल दिया। मौटे तौर पर, संविधान के भाग-प्प्प् मे जो मूल अधिकार शमिल किए गए हैं, वे राज्य के विरुद्ध व्यक्ति के ऐसे अधिकार हैं जिनका अतिक्रमण नहीं हो सकता। मिसाल के लिए, किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करने वाले कानून या कार्यपालक कार्य को उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है। यदि ये कानून अथवा कार्यपालक कार्य संविधान मे ही बताए गए किन्हीं प्रतिबंधों के अंतर्गत न आते हो तो इन्हें असवैधानिक तथा अमान्य ठहराया जा सकता है। इस प्रकार, मूल अधिकारों के प्रवर्तन का तंत्र तथा उसकी क्रियाविधि भी संविधान में निर्धारित है। अमरीकी संविधान मे, मूल अधिकारों को निरपेक्ष शब्दों में अभिव्यक्त किया गया था। किंतु किसी व्यक्ति के कोई निरपेक्ष अधिकार नहीं हो सकते क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार कम-से-कम अन्य व्यक्तियों के उसी प्रकार के अधिकारों द्वारा सीमित होते हैं। अमरीकी उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों पर वैध प्रतिबंधों का पता लगाना पड़ा तथा उनकी पहचान करनी पड़ी। किंतु हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रतिबधों को संबंधित उपबंधों मे ही शामिल करने का निर्णय किया। इस प्रकार, हमारा संविधान एक ओर व्यक्ति के अधिकारों और दूसरी ओर समाज के हितो तथा राज्य की सुरक्षा की जरूरतों के बीच एक संतुलन प्रस्तुत करता है।
निदेशक तत्व
आयरलैंड के दृष्टात से प्रेरित होकर तैयार किए गए राज्य नीति के निदेशक तत्व हमारे सविधान की एक अनूठी विशेषता है। लोगो के अधिकाश सामाजिक-आर्थिक अधिकार इस शीर्ष के अतर्गत सम्मिलित किए गए है। हालांकि कहा जाता है कि इन्हें न्यायालय मे लागू नही किया जा सकता, फिर भी इन तत्वों से देश के शासन के लिए मार्गदर्शन की आशा की जाती है। वे सविधान निर्माताओ द्वारा राज्यो के समक्ष रखे गए आदर्शो के रूप मे है और राज्य के सभी अगों को उनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। न केवल विधानमडलो की बल्कि न्यायालयो की नजर में भी निदेशक तत्वों की प्रासंगिकता तथा महत्ता बराबर बढती गई है।
नागरिकता
संविधान निर्मानाओ ने एक एकीकृत भारतीय बंधुत्व तथा एक अखंड राष्ट्र का निर्माण करने के अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, सघीय सरचना होने के बावजूद केवल इकहरी नागरिकता का उपवध रखा। अमरीका के विपरीत, संघ तथा राज्यों के लिए कोई पृथक नागरिकता नहीं रखी गई है और समूचे देः ये सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के एक-से अधिकार प्राप्त कराए गए हैं, केवल कश्मीर, जनजातीय क्षेत्रों आदि को छोड़कर जहा कुछ विशेष संरक्षण प्रदान किए गए है।
मूल कर्तव्य
संविधान के 42वें संशोधन के द्वारा, अन्य बातों के साथ साथ,‘मूल कर्तव्य‘ शीर्षक के अंतर्गत सविधान में एक नया भाग जोड़ा गया। इसमें भारत के सभी नागरिकों के लिए दस कर्तव्यों की एक संहिता निर्धारित की गई है। वस्तुतया कोई भी अधिकार तदनुरूप कर्तव्य के बिना व्यवहार्य नही हो सकता तथा राज्य की ओर नागरिकों के राजनीतिक दायित्वों के प्रति सम्मान के बिना नागरिकों के अधिकारों का कोई अर्थ नहीं है। यह दुर्भाग्य की ही बात है कि नागरिकों के मूल कर्तव्यों की संहिता को हमने अभी तक वह महत्व नहीं दिया है जो इसे मिलना चाहिए।
स्वतंत्र न्यायपालिका
भारत के संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। उसे न्यायिक पुनरीक्षण की शक्तिया प्रदान की गई है। उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय एक ही एकीकृत न्यायिक सरचना के अग हैं और उसका अधिकार क्षेत्र सभी विधियो यानी सघ, राज्य, सिविल, दांडिक या संवैधानिक विधियों पर होता है। अमरीका की तरह, हमारे देश मे पृथक सघीय तथा राज्य न्यायालय प्रणालियां नहीं है। सपूर्ण न्यायपालिका न्यायालयों का श्रेणीबद्ध सगठन है। वह न केवल व्यक्तिगत अधिकारी तथा स्वतत्रताओ के अभिरक्षक के रूप मे विवादो तथा कृत्यो का न्यायनिर्णयन करता है बल्कि उससे अपेक्षा की जा सकती है कि वह समय समय पर संविधान का निर्वचन करे तथा संविधान के संदर्भ में किसी विधान की वैधता का निर्धारण करने के लिए, उसका पुनरीक्षण करे। उच्चतम न्यायालय का निर्णय देश की सर्वोपरि विधि होता है। उच्चतम न्यायालय राज्यो के बीच अथवा संघ तथा राज्यो के बीच अधिकार क्षेत्र तथा शक्तियों के वितरण के सबंध में उत्पन्न विवादों के विवाचक का कार्य भी करता है।
निष्कर्ष
भारत का संविधान एक सर्वाधिक व्यापक दस्तावेज है। यह अनेक दृष्टियों से अनूठा है। इसे किसी खास साचे-ढांचे या मॉडल में फिट नहीं किया जा सकता। यह अनम्य तथा नम्य, परिसंघीय तथा एकात्मक, और अध्यक्षीय तथा ससदीय रूपों का सम्मिश्रण है। इसमें प्रयास किया गया है कि एक ओर व्यक्तियों के मूल अधिकारों और दूसरी ओर जनता के सामाजिक आर्थिक हितों तथा राज्य की सुरक्षा के बीच संतुलन बना रहे। इसके अलावा, यह ससदीय प्रभुत्व तथा न्यायिक सर्वोच्चता के सिद्धांतों के बीच एक मध्य मार्ग प्रस्तुत करता है।
जहां द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनाए गए अनेक देशों के संविधान लुढ़क गए तथा लुप्त हो गए, वहां हमारे संविधान ने अनेक संकटों का सफलतापूर्वक सामना किया है और वह जीवित रहा है। यह बात स्वयंमेव उसकी सुनम्यता, सक्रियता और संवृद्धि की संभाव्यता का प्रमाण है।