फेबेसी कुल के पौधे के नाम वर्णन fabaceae in hindi family leguminosae लेग्युमिनोसी क्या है किसे कहते है

fabaceae in hindi family leguminosae फेबेसी कुल के पौधे के नाम वर्णन लेग्युमिनोसी क्या है किसे कहते है परिभाषा जनन अंग और लक्षण बताइए ?

कुल : लेग्युमिनोसी या फेबेसी (family leguminosae or fabaceae) 

वर्गीकृत स्थिति : बेन्थैम और हुकर के अनुसार –

प्रभाग – एन्जियोस्पर्मी

उपप्रभाग – डाइकोटीलिडनी

वर्ग – पोलीपेटेली

श्रृंखला – केलिसीफ्लोरी

गण – रोजेल्स

कुल – लेग्यूमिनोसी

कुल लेग्यूमीनोसी के प्रमुख लक्षण (salient features of leguminosae) :

  1. सदस्य विविध प्रकार का स्वभाव जैसे – शाक , झाड़ियाँ , आरोही अथवा वृक्ष प्रवृति प्रदर्शित करते है।
  2. ग्रंथिल जड़ें उपस्थित , मूल ग्रंथियों में नाइट्रोजन स्थिरीकृत करने वाले जीवाणु जैसे – राइजोबियम पाए जाते है।
  3. पर्ण एकांतर और अनुपर्णी , पर्णाधार प्राय: फूले हुए पल्वीनस युक्त जो नैश गति प्रदर्शित करते है।
  4. पुष्पक्रम प्राय: असीमाक्षी।
  5. जायांग एकअंडपी , एककोष्ठीय , बीजाण्डन्यास सीमान्त।
  6. फल , लेग्यूम अथवा फली दोनों सिवनियों से स्फुटनशील।

प्राप्ति स्थान और वितरण (occurrence and distribution )

यह आवृतबीजी पौधों का एक महत्वपूर्ण और तीसरा सबसे बड़ा कुल है , जिसमें लगभग 690 वंश और 17600 प्रजातियाँ सम्मिलित है। सामान्यतया इसे मटर कुल भी कहते है। इसके सदस्य आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भौगोलिक वितरण के अनुसार भी यह संसार के लगभग सभी भागों में पाया जाने वाला कुल है। हचिन्सन के अनुसार लेग्यूमिनोसी कुल की उत्पत्ति मेग्नोलियेल्स – डिलीनियेल्स – रोजेल्स , के विकासक्रम में हुई है।

बैंथम और हुकर ने कुल लेग्यूमिनोसी को तीन उपकुलों क्रमशः पैपिलियोनेटी , सिजलपिनोइडी और माइमोसोइडी में विभक्त किया है। जबकि आधुनिक पादप वर्गीकरण विज्ञानियों के अनुसार उपर्युक्त तीनों उपकुलों को अब कुलों के स्तर पर क्रमोन्नत कर दिया गया है और इनको क्रमशः पैपिलियोनेसी , सिजलपिनेसी और माइमोसेसी का नाम दिया गया है। उपकुल माइमोसोइडी और सिजलपिनोइडी मुख्यतः उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में जबकि पैपिलियोनेटी के सदस्य उष्णकटिबंधीय और शीतोष्ण प्रदेशों में पाए जाते है। बैंथम और हुकर के तीनों उपकुलों में अनेक विविधताएँ है जो कि निम्नलिखित प्रकार से है –

कुल लेग्यूमिनोसी के तीन उपकुलों का तुलनात्मक विवरण (comparative account of three subfamilies of leguminosae)

 लक्षण  पैपिलियोनेटी (papilionatae)  सिजलपिनोइडी (caesalpinoidae)  माइमोसोइडी (mimosoidae)
 1. स्वभाव  अधिकतर शाक अथवा आरोही और कुछ क्षुप अथवा वृक्ष  अधिकांश क्षुप कुछ शाक अथवा वृक्ष  अधिकांश वृक्ष और कुछ शाक और क्षुप
 2. मूल मूसला मूलतंत्र , ग्रंथिल जड़ें मूसला जड़ तंत्र मूसला जड़ तंत्र
 3. पर्ण संयुक्त , एकपिच्छकी , विषम पिच्छाकार संयुक्त एक अथवा दो पिच्छकी , सम पिच्छाकार संयुक्त द्विपिच्छकी
 4. पुष्पक्रम असीमाक्षी असीमाक्षी असीम अथवा यौगिक असीमाक्ष ससीमाक्ष मुंडक अथवा शूकी
 5. पुष्प एकव्यास सममित अंशत: एक व्याससममित त्रिज्या सममित
 6. बाह्यदलपुंज बाह्यदल 5 , संयुक्त , विषम बाह्यदल अग्र बाह्यदल 5 , पृथक विषम बाह्यदल अग्र 4 अथवा 5 बाह्यदल संयुक्त बाह्यदली विषम बाह्यदल पश्च
 7. दलपुंज दल 5 , पृथकदलीय , पैपिलियोनेशस , विन्यास अवरोही कोरछादी अथवा वेक्सीलरी दल 5 , पृथकदलीय विन्यास आरोही कोरछादी दल 4 अथवा 5 , संयुक्त , विन्यास कोरस्पर्शी
 8. पुमंग पुंकेसर 10 , द्विसंघी पुंकेसर 10 , 5+5 , के दो चक्रों में , कुछ पुंकेसर बन्ध्य असंख्य पुंकेसर , पृथक पुंकेसरी , अनेक चक्रों में।
 9. जायांग एकअंडपी , अंडाशय उधर्ववर्ती , एककोष्ठीय , सीमांत बीजांडन्यास एकअंडपी , अंडाशय अर्ध अधोवर्ती , एककोष्ठीय , सीमांत बीजांडन्यास पैपिलियोनेटी के समान
 10. फल छोटा शिम्ब अथवा फली लम्बा शिम्ब लोमेन्टम
 11. पुष्पसूत्र      

चूँकि उपर्युक्त तीनों उपकुलों में पर्याप्त भिन्नताएँ पायी जाती है और आधुनिक अवधारणा के अनुसार इन तीनों को पृथक कुलों के रूप में क्रमोन्नत कर दिया गया है। अत: अध्ययन की सुविधा हेतु इन तीनों उपकुलों का पृथक पृथक अध्ययन करना ही उपयुक्त होगा।

(I) उपकुल पैपिलियोनेटी अथवा लोटोइडी (subfamily papilionatae or lotoideae)

प्राप्ति स्थान और वितरण (occurrence and distribution) : वस्तुतः इसका प्रचलित नाम मटर कुल है और ICBN के नियमों के अनुसार इसका नवीन नामकरण लोटोइडी किया गया है लेकिन बाद में इस कुल का नवीनतम नाम कुल पैपिलियोनेसी किया गया और पूर्ण कुल के रूप में इसे क्रमोन्नत कर दिया गया है। यह एक विश्वव्यापी उपकुल है , जिसमें 482 वंश और लगभग 12000 प्रजातियाँ सम्मिलित है। भारत में इसके लगभग 100 वंश और 750 प्रजातियाँ पायी जाती है।

कायिक लक्षणों का विस्तार (range of vegetative characters) :

स्वभाव और आवास : एकवर्षीय अथवा बहुवर्षीय शाक , जैसे – मेलिलोटस , मेडिकागो और लेथाइरस आदि , कुछ प्रतान आरोही जैसे पाइसम , क्षुप जैसे कैजेनस और क्रोटालेरिया जन्सिया और कुछ सदस्य वृक्ष है , जैसे – डलबरजिया सिस्सो आदि। अल्हागी एक विशिष्ट मरुदभिदीय पादप है।

मूल : मूसला जड़ , विभिन्न पौधों की द्वितीयक जड़ों पर ग्रन्थियाँ होती है। इन ग्रंथियों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु जैसे राइजोबियम सहजीवी रूप में पाए जाते है। ये जीवाणु वायुमण्डल की मुक्त नाइट्रोजन को विभिन्न यौगिकों जैसे नाइट्रेट अथवा नाइट्राइट में बदलकर भूमि की उर्वरा शक्ति को बढाते है। अत: इन जड़ों को ग्रंथिल मूल भी कहा जाता है।

स्तम्भ : उधर्व अथवा विसर्पी , बेलनाकार , शाखित , ठोस , प्राय: शाकीय अथवा कमजोर वल्लरी अथवा आरोही।

पर्ण : पत्ती स्तम्भीय और शाखीय होती है। सवृन्त , एकान्तरित , अनुपर्णी , ट्राइफोलियम और मेडिकागो में अनुपर्ण संलग्न और केजेनस और सेसबानिया में स्वतंत्र पाशर्व अनुपर्ण पाए जाते है।

पर्णाधार फूला हुआ , कुछ सदस्यों में पत्ती हस्ताकार संयुक्त होती है , जैसे ट्राइफोलियम और मेलीलोट्स में लेकिन सामान्यतया पिच्छकी रूप से संयुक्त पायी जाती है। डेस्मोडियम गाइरेन्स में उपस्थित 2 छोटे पाशर्व पर्णक लगातार ऊपर तथा नीचे गति करते रहते है।

पाइसम और लेथाइरस ओडोरेटस में कुछ ऊपरी पर्णक प्रतानों में रूपान्तरित हो जाते है जबकि लैथाइरस अफाका में पूरी पर्ण ही प्रतान में रूपान्तरित हो जाती है। शिराविन्यास जालिकावत।

पुष्पीय लक्षणों का विस्तार (range of floral characters)

 पुष्पक्रम : इस उपकुल के सदस्यों में पुष्प आधारभूत रूप से असीमाक्षी पुष्पक्रम में व्यवस्थित होते है , कुछ विभिन्न व्यवस्थाक्रम निम्नलिखित प्रकार से है –

  1. असीमाक्षी असीम: मेलीलोटस एल्बा।
  2. ससीमाक्षों का असीम: टेफ्रोसिया में।
  3. एकल कक्षस्थ: लेथाइरस में।
  4. स्पाइक – यूरेरिया में।
  5. मुंडक – ट्राइफोलियम में।

पुष्प : पूर्ण , सहपत्री , सहपत्रिका युक्त सवृन्त , उभयलिंगी , एकव्यास सममित , अधोजायांगी अथवा परिजायांगी और पंचतयी। इस कुल के सभी पुष्प अन्मुनलीय परागण (स्वपरागण) अथवा बंदपुष्पी होते है।

बाह्यदलपुंज : बाह्यदल पत्र 5 , संयुक्त बाह्यदली , विषम बाह्यदल अग्र , विन्यास कोरस्पर्शी अथवा आरोही कोरछादी।

दलपुंज : दलपत्र 5 , पृथकदलीय , दलपुंज आकृति विशेष प्रकार की जिसे पैपिलियोनेशस दलपुंज अथवा तितली समान दलपुंज कहते है।

विन्यास अवरोही कोरछादी अथवा वेक्सीलरी प्रकार का। पाँच दलों में पश्च दल सबसे बड़ा बाहर होता है , इसे ध्वजक अथवा स्टैण्डर्ड अथवा वेक्सीलम कहते है। दो पाशर्व और छोटे पक्षक कहलाते है , जबकि दो सबसे छोटे अग्रदल आपस में जुड़कर संरचना नौतल अथवा कुकट बनाते है। लेस्पीडेजा में दल पूर्णतया अनुपस्थित होते है।

पुमंग : पुंकेसर 10 , द्विसंघी अर्थात 1+9 के दो गुच्छों में , एक पुंकेसर जो स्वतंत्र होता है , इसे छोड़कर शेष 9 पुंकेसर एक संघ बनाते है। मूंगफली और शीशम में केवल नौ (9) पुंकेसर पाए जाते है अर्थात इनमें एक पश्च पुंकेसर अनुपस्थित रहता है , इसलिए इनमें एकसंघी अवस्था पायी जाती है , क्रोटालेरिया और पोंगेमिया में दसों (10) पुंकेसर जुड़ें हुए रहकर एकसंघी अवस्था को निरुपित करते है जबकि सोफोरा में दस पुंकेसर पूर्णतया स्वतंत्र होते है। परागकोष द्विकोष्ठी , पृष्ठलग्न , अंतर्मुखी और लम्बवत रेखाछिद्रों द्वारा स्फुटित होते है।

जायांग : एकाण्डपी , एककोष्ठी , बीजांडविन्यास सीमान्त। वर्तिका सरल , एकल कुछ मुड़ी हुई और वर्तिकाग्र समुंड होता है। अंडाशय उच्च्वर्ती।

फल और बीज : फल शिम्ब अथवा लोमेन्टम जैसे मूंगफली में। मूंगफली में पुष्प निषेचन के बाद जमीन में घुस जाता है और फल का विकास जमीन की सतह के नीचे होता है। शीशम में फल अस्फुटनशील और पक्ष्मयुक्त होता है , पक्ष्म फलभित्ति से बनते है। बीज अभ्रूणपोषी होते है।

परागण और प्रकीर्णन : मूंगफली और मटर में स्वपरागण होता है और अन्य में कीट परागण प्राय: मधुमक्खियों द्वारा होता है।

पुष्प सूत्र :

उपकुल पैपिलियोनेटी के विशिष्ट लक्षण (salient features of sub familiy papilionatae or lotoideae)

  1. स्वभाव – अधिकतर शाक , कुछ क्षुप अथवा वृक्ष और प्रतान आरोही।
  2. ग्रंथिल मूसला जड़ मूल ग्रंथियाँ उपस्थित।
  3. पत्ती अनुपर्णी , एकांतर , संयुक्त विषमपिच्छकी , पर्णाधार फूला हुआ।
  4. पुष्पक्रम असीमाक्षी असीम।
  5. पुष्प सहपत्री , एकव्यास सममित , द्विलिंगी , अधोजायांगी अथवा कुछ परिजायांगी।
  6. बाह्यदल पत्र 5 संयुक्त विषम बाह्यदल अग्र , कोरछादी।
  7. दलपत्र 5 पृथकदली , दलपुंज मटरकुलीय अथवा पैपिलीयोनेशस , विन्यास वेक्सीलरी और अवरोही कोरछादी।
  8. पुंकेसर 10 , द्विसंघी 1 + (9)
  9. जायांग एकअंडपी , बीजांडविन्यास सीमान्त।
  10. फल शिम्ब अथवा फली।

आर्थिक महत्व

आर्थिक रूप से इस कुल के सदस्य अत्यंत महत्वपूर्ण और मानवोपयोगी है। इस कुल के पौधों के बीजपत्रों से दालें प्राप्त होती है , जिनमें अत्यधिक मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है। दालों के अतिरिक्त सब्जियां , खाद्य तेल , औषधियाँ , इमारती काष्ठ और अन्य मानवोपयोगी वस्तुएँ इस कुल के पौधों से प्राप्त होती है। आर्थिक महत्व के विभिन्न सदस्यों को अग्र श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है –

  1. दालें:
  2. विग्ना मुंगो – उड़द।
  3. साइसर एरीटिनम – चना।
  4. केजेनस कजान – अरहर।
  5. विग्ना रेडिएटा – मुंग।
  6. विग्ना अन्गीक्यूलेटा – लोबिया।
  7. विग्ना एकोनिटीफोलियस – मोठ
  8. लैंस क्यूलिनैरिस – मसूर।
  9. फैसिओलस वलगेरिस – राजमा।
  10. ग्लाईसीन मेक्स – सोयाबीन।
  11. लेथाइरस सेटाइवस अथवा खेसारी दाल – इस दाल को खाने के पक्षाघात हो जाता है और इस रोग को लेथाइरिस्म कहते है।

अधिकांशत: प्रमुख दालें विग्ना अथवा फेसियोलस वंश से प्राप्त होती है। सोयाबीन में प्रोटीन की मात्रा सर्वाधिक होती है।

  1. सब्जियाँ:
  2. ट्राइगोनैला फीनम ग्रेईकम – मैथी।
  3. लैबलैब परपुरियस – सेम।
  4. सायमोप्सिस टेट्रागौनेलोबा – ग्वार।
  5. विसिया फैबा – बाकला।
  6. पाइसस सेटाइवम – मटर।
  7. फैसियोलस साइनेन्सिस – चंवला।
  8. फैसियोलस ल्यूनेटस – छोटा लोबिया।
  9. फैसियोलस वल्गैरिस – राजमा।

III. तेल :

  1. ऐरेकिस हाइपोजिया: मूंगफली के बीजों में लगभग 45 से 50% तक तेल होता है जो खाना पकाने , वनस्पति घी बनाने और साबुन बनाने और अन्य कामों में आता है और इसकी खली पशुओं को खिलाई जाती है।
  2. ग्लाइसीन मेक्स: सोयाबीन – इसका तेल भी खाना बनाने के काम आता है। इसके अलावा इससे पेंट , छपाई की स्याही और कीटनाशी पदार्थ भी बनाये जाते है। इसके बीजों से तेल निकालने के बाद भी , बचे अवशेष में 32 से 42% तक प्रोटीन होता है जो कि सोया बड़ी के नाम से सब्जी और अन्य खाद्य पदार्थो में प्रयुक्त होता है।
  3. पोंगेमिया पिन्नेटा: करंज – इसके बीजों से प्राप्त तेल साबुन और स्नेहन के लिए काम में लिया जाता है। इसमें कुछ कीटनाशी गुण भी पाए जाते है।
  4. चारा:
  5. मेडिकागो सेटाइवा – रिजका।
  6. मेलिलोटस पारवीफ्लोरा – मुरैला।
  7. ट्राइफोलियम रेपेन्स और ट्राइफोलियम इन्कार्नेटम और ऐसी ही अन्य प्रजातियों से बरसीम चारा प्राप्त होता है।
  8. विग्ना एकोनिटीफोलिया – मोठ प्राय: बैलों को खिलाया जाता है।
  9. इसके अतिरिक्त ग्वार (सायेमोप्सिस टेट्रागोनोलोबस) से प्राप्त “ग्वार गम” भी पशु आहार के रूप में प्रयुक्त होता है और लोबिया (विग्ना अन्गुईकुलेटा) भी पशुचारे में काम आता है।
  10. रेशा:
  11. क्रोटालेरिया जुन्सिया – सन के बास्ट फ्लोयम रेशों से जाल , रस्सी और बोरियाँ बनाई जाती है। इसके अतिरिक्त इसे हरी खाद के तौर पर खेती में काम लेते है।
  12. सेस्बानिया सेस्बेन – जयन्ती के तने से प्राप्त रेशों की रस्सी बनाई जाती है।
  13. सेस्बानिया बाइस्पाइनोसा – ढेंचा अथवा हेम्प भी अत्यन्त उपयोगी रेशा है।
  14. ब्यूटिया मोनोस्पर्मा – खांखरा अथवा ढाक अथवा पलाश या टेसू की जड़ों से प्राप्त रेशों से खात बुनते है।
  15. रंग:
  16. इंडिगोफेरा टिंक्टोरिया अथवा नील – इस पौधे की पत्तियों से नील प्राप्त होती है। फूल आने से कुछ समय पहले ही पौधों को काटकर पानी में भिगो देते है , जिससे पीला घोल बन जाता है। घोल को हिलाने पर ऑक्सीकृत हो जाता है तथा नीले रंग का अवक्षेप बन जाता है। इसी से नील बनती है।
  17. ब्यूटिया मोनोस्पर्मा : ढाक अथवा टेसू पुष्प के दलपुंज से नारंगी लाल रंग मिलता है। पर्णपाती वनों के इस जाने पहचाने वृक्ष को फ्लेम ऑफ़ फारेस्ट कहते है और इससे प्राप्त होने वाले गोंद के कारण इसे bengal kino (ruby coloured gum) पादप भी कहते है।
  18. एस्ट्रेगेलस गम्मिफर – इसमें “गम ट्रेगकेन्थ” ; अथवा गोंद प्राप्त होता है जो मिठाई बनाने वस्त्रोद्योग और सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग में प्रयुक्त होता है।
  19. टेरोकार्पस सेन्टेलिनस – लाल चन्दन अथवा रक्त चंदन – इस वृक्ष की अंत: काष्ठ से लाल रंग प्राप्त होता है।

VII. इमारती काष्ठ :

  1. शीशम – dalbergia sisso
  2. इंडियन रोजवुड – काली शीशम।
  3. लाल चन्दन अथवा रक्त चन्दन।
  4. बीजा साल अथवा इंडियन किनो।
  5. अफ्रीकन ब्लैक वुड।

VIII. औषधियाँ :

  1. ग्लाइसिराइजा ग्लैब्रा : मुलैठी – इसकी मृदुकाष्ठ से मुलैठी अथवा लिकोरिस नामक औषधि प्राप्त होती है जो गले की खराश और खाँसी के उपचार में प्रयुक्त होती है।
  2. ऐब्रस प्रिकाटोरियस : चिरमू अथवा गांजा अथवा रत्ती – इस वल्लरी की पत्तियों से बनाई गयी मरहम ल्यूकोडर्मा के उपचार में प्रभावी औषधि है। इसके बीजों को सुनार सोना , चाँदी तौलने के लिए काम में लेते है। प्रत्येक बीज का वजन 1.75 ग्रेन होता है। इसे केकड़े की आँख वाला पौधा भी कहते है।
  3. टेरोकार्पस मार्सूपियम अथवा बीजा साल – इसकी लकड़ी को 10 से 12 घंटे पानी में डाल देते है। इस पानी को पीने से मधुमेह में लाभ होता है।
  4. डोलीकोस बाइफ्लोरस : कुलती – इसके बीजों का क्वाथ श्वेत प्रदर रोग में उपयोगी होता है।
  5. सजावटी पौधे:
  6. लेथाइरस ओडोरेटस।
  7. एरिथ्रिना इंडिका – परिजात।
  8. सेस्बानिया ग्रैंडीफ्लोरा – अगस्त्य।
  9. क्लाइटोरिया टरनेटा – अपराजिता अथवा गोकरनी।
  10. डेस्मोरियम गाइरेन्स।
  11. कीटनाशी:
  12. डेरिस पिन्नेटा और डेरिस इलिप्टिका की जड़ कृमिनाशी के रूप में प्रयुक्त होती है।
  13. टेफ्रोसिया वोगेलाई नामक पौधे से रोटेनटोन नामक कीटनाशी प्राप्त होता है।

उपकुल पैपिलियोनोटी के प्रारूपिक पादप का वानस्पतिक वर्णन (botanical description of typical plant from papilionatae)

पाइसम सेटाइवम लिन (pisum sativum linn) :

स्थानीय नाम – मटर , फूल मटर।

प्रकृति और आवास – एकवर्षीय आरोही शाक , प्राय: उगाया जाता है।

जड़ : शाखित मूसला जड़ , जीवाणु ग्रंथियों युक्त।

स्तम्भ : शाकीय , वायवीय , दुर्बल , पर्णक प्रतान आरोही , शाखित और रोमिल कोणीय , पक्ष्मीय और खोखला।

पर्ण : स्तम्भिक और शाकीय , अनुपर्णी , अनुपर्ण बड़े पर्ण समान , अंडाकार नीचे उपह्रदयाकार और अनियमित दन्तुर , पर्ण एकान्तरित , संयुक्त , एकपिच्छकी और विषम पिच्छकी , ऊपरी 2-3 पर्णक प्रतानों में रूपान्तरित , पर्णक सम्मुख , अवृन्त , अंडाकार , अरोमिल , शिराविन्यास एकशिरीय जालिकावत , पर्णक अंडाकार और अच्छिन्नकोर निशिताग्र।

पुष्पक्रम : सरल असीमाक्ष।

पुष्प : पूर्ण , द्विलिंगी , सहपत्री , सवृंत , पंचतयी , अनियमित , एकव्यास सममित , परिजायांगी , चक्रिक , तितल्याकार और लाल , सफ़ेद , गुलाबी आदि रंगों में।

बाह्यदल पुंज : बाह्यदल – 5 , संयुक्त बाह्यदली , हरे , विषम बाह्यदल अग्रस्थ , विन्यास कोरस्पर्शी।

दलपुंज : दलपत्र – 5 , (1 + 2 + (2) के क्रम में) पृथकदलीय और मटरकुलीय अथवा पैपिलियोनेशस जिसमें एक पश्च बड़ा दल ध्वज , दो पाशर्वदल पक्ष और अग्र दो छोटे नौकाकार दल नौतल कहलाते है। नौतल द्वारा जायांग और पुंकेसर ढके रहते है , विन्यास अवरोही कोरछादी अथवा वैक्सीलेरी।

पुमंग : पुंकेसर 10 , (1 + (9) के क्रम में) द्विसंघी , 9 पुंकेसरों के पुंतन्तु संयुक्त होकर एक सामूहिक नली बनाते है और अंडाशय को घेरे रहते है , जबकि पश्च स्थित दसवाँ पुंकेसर पृथक रहता है। परागकोष द्विकोष्ठी , आधारलग्न , अंतर्मुखी।

जायांग : एकअंडपी , अंडाशय अर्ध उच्चवर्ती , एककोष्ठीय , बीजांडविन्यास सीमांत , अंडाशय अनुप्रस्थ स्थित , वर्तिका लम्बी , वक्रित और चपटी , वर्तिकाग्र चपटा और सरल और रोमिल।

फल : शिम्ब अथवा फली।

पुष्पसूत्र :