सावयवी एकता का अर्थ क्या है | सावयवी एकता की विशेषता सिद्धांत किसे कहते है Eternal unity in hindi

Eternal unity in hindi सावयवी एकता का अर्थ क्या है | सावयवी एकता की विशेषता सिद्धांत किसे कहते है ?

सावयवी एकात्मकता
जहाँ यांत्रिक एकात्मकता सरल समाजों की विशेषता है वहीं सावयवी एकात्मकता जटिल समाजों का लक्षण है।

दर्खाइम ने जटिल समाजों का अध्ययन किया। जटिलता का अर्थ है – कई प्रकार के व्यक्तियों का होना। बढ़ई, लुहार, नाई, प्रकाशक, डॉक्टर, वकील इत्यादि कई प्रकार के व्यक्ति होते हैं। इन सारी असमानताओं के बीच एकात्मकता कैसे हो? यह प्रश्न भिन्न प्रकार का है। यांत्रिक एकात्मकता समानता पर आधारित है। विभिन्नता पर आधारित एकात्मकता “सावयवी एकात्मकता‘‘ (वतहंदपब ेवसपकंतपजल) बताई गई है। अवयव का अर्थ शरीर व उसके अंगों से है। हमारे शरीर के अंग असमान हैं- हाथ, आँख, नाक में भिन्नता है। वस्तुओं को उठाना, देखना या वास लेना उनके अलग-अलग कार्य हैं। इसी प्रकार फेफड़े, पेट व दिल विभिन्न अंग (अवयव हैं)। इन सब के अलग होने पर भी संपूर्ण शरीर की अपनी ही एकात्मकता है। सभी अंग अपना-अपना काम करते हैं। ये काम अलग-अलग हैं, और इसी प्रकार शरीर की एकात्मकता इन विभिन्नताओं के बीच है। ऐसी तुलना करने पर इसे सावयवी एकात्मकता कहा गया है। अगर हम यह मान लें कि समाज भी एक अवयव (शरीर) की भाँति है, और विभिन्न प्रकार के व्यक्ति उसके अंग हैं, तब समाज की सावयवी एकात्मकता की कल्पना भी की जा सकती है। यह एकात्मकता विभिन्नता पर आधारित है और इससे व्यक्ति समझता है कि वह स्वयम् में पूर्ण नहीं है, पूर्णता तो समाज में है। इस पूर्णता का आधार श्रम-विभाजन और विभाजित कार्यों का समायोजन है।

दर्खाइम के अनुसार समाज में सावयवी एकात्मकता की अनिवार्य विशेषता श्रम विभाजन का होना है तथा इसने धीरे-धीरे सामाजिक समरूपता को कम कर दिया। व्यक्ति अब समाज के उन अवयवों पर आश्रित रहने लगा जिससे समाज की रचना हुई। समाज इस अर्थ में विभिन्न एवम् विशेष कार्यों की एक व्यवस्था है जो निश्चित परस्पर सम्बन्धों द्वारा जुड़ी है। इस मान्यता के अनुसार व्यक्तियों की विभिन्नता इस सीमा तक सम्भव है कि प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया का एक क्षेत्र होता है और व्यक्ति उस क्षेत्र तक सीमित रहता है, इस सब का फल व्यक्ति का स्वयं का व्यक्तित्व है। इस प्रकार यहाँ व्यक्ति विशेष की चेतना सामूहिक चेतना से अवश्य ही स्वतंत्र होती है। अतः यहाँ वे विशेष कार्य निश्चित किए जायें जिसे सामूहिक चेतना नियंत्रित न करती हो और समाज में जितनी ही ये क्रियाएँ अधिक होती हैं सामाजिक एकात्मकता उतनी ही दृढ़ होती है, यह सावयवी एकात्मकता का परिणाम है।

सावयवी एकात्मकता में सामूहिक चेतना के नए रूप
जिन समाजों में सावयवी एकात्मकता अधिक प्रभावशाली होती है उन समाजों की सामाजिक संरचना खण्डात्मक स्वरूपों के विपरीत गुण लिए होती है। इस प्रकार की सामाजिक संरचना में दूसरे विभिन्न अवयवों की विशिष्ट भूमिकाएँ होती हैं जो स्वयं भी विभिन्न भागों से बने होते हैं, तथा इन भागों में परस्पर आश्रितता तथा तारतम्यता एक केन्द्रीय अंग द्वारा नियंत्रित होती है तथा इस विशिष्ट अंग का प्रभाव अन्य सभी अंगों पर होता है। इस प्रकार के गुण के कारण खण्डों का विलयन पूर्णतः हो जाता है तथा व्यक्ति के सम्बन्ध अन्य क्षेत्रों से होने लगते हैं। सम्बन्धों की इन प्रक्रियाओं के आगे बढ़ने से सम्बन्धों का क्षेत्र भी बढ़ता है। अतःव्यक्ति का जीवन केन्द्र वहीं तक सीमित नहीं रहता जहाँ वह रहता है। खण्डों के इस विलयन की प्रक्रिया में बाजारों का विलयन भी सम्मिलित होता है जिससे एक बाजार (नगर) की धारणा अस्तित्व में आती है तथा यह सम्पूर्ण समाज को अपने में समा लेती है। समाज स्वयं ही एक बड़े बाजार में विलीन हो जाता है तथा यह बाजार सम्पूर्ण जनसंख्या को अपनी चार दीवारी के अन्दर कर लेता है। यहाँ व्यक्ति अधिक समय तक अपनी वंश-परम्परा के आधार पर जुड़े नहीं रहते अपितु इनकी समूहता विशिष्ट प्रकार की सामाजिक क्रियाओं पर होती है। व्यक्ति इन क्रियाओं व समूहों के प्रति निष्ठावान होते हैं। इस प्रकार की क्रियाओं व सम्बन्धों की प्रकृतियाँ अधिक समय तक व्यक्ति को उसकी जन्मभूमि तक ही सीमित नहीं रखती बल्कि इनका फैलाव उनके कार्य करने के स्थान तक भी हो जाता है।

संगठित सामाजिक संरचना का गुण इसकी अन्तर-निर्भरता की अधिक मात्रा है। उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या व श्रम विभाजन में प्रगति सामाजिक समूहों की एकात्मकता को निश्चित करती है। जैसे ही एक स्थान पर परिवर्तन होता है वह धीरे-धीरे दूसरे सिरों पर पहुँचा दिया जाता है। यहाँ पर राज्यों के हस्तक्षेप तथा वैधानिक चलनों की आवश्यकता होती है। अन्त में यह कहा जा सकता है कि संगठित सामाजिक संरचना में सापेक्षित रूप से उच्च आयतन तथा भौतिक तथा नैतिक घनत्व भी उच्च होता है। सामान्यतः अधिक विकास की मात्रा के कारण समाज का आयतन अधिक हो जाता है। परिणामतरू श्रम विभाजन भी बढ़ जाता है तथा मनुष्यों की प्रगतिशीलता के क्रम में जनसंख्या अधिक सघन होने लगती है। जैसे ही सामाजिक प्रथाएँ सावयवी एकात्मकता के अनुरूप होती हैं, श्रम विभाजन के वैधानिक नियम भी निर्धारित होने लगते हैं। ये नियम विभाजित कार्यों की प्रकृति व उनके सम्बन्धों को निश्चित करते हैं। इन कार्यों व सम्बन्धों की अवहेलना का निपटारा क्षति-पूरक उपायों से होता है। ऐसे कानून अथवा सहयोगात्मक कानून, सामाजिक मान्यताओं के साथ सावयवी एकात्मकता की आपात् स्थिति में एक संकेत की भाँति कार्य करते हैं। इसका निर्माण सिविल कानून, वाणिज्य कानून, संविदा कानून, प्रशासनिक कानून, तथा संवैधानिक कानूनों द्वारा होता है। इस प्रकार के कानूनों की उत्पत्ति पैनल दण्डात्मक कानूनों से हुई है जो साधारण समाजों में मिलते थे। यहाँ पैनल कानून व यांत्रिक एकात्मकता में जैसा परस्पर संबंध देखा गया था कुछ उस प्रकार ही सहयोगात्मक कानूनों की सीमा व सामाजिक जीवन बंधन, जो विभाजित श्रम से उत्पन्न हुए, उनमें भी है। कोई भी, तार्किकता द्वारा उन सभी परस्पर निर्भरता के सम्बन्धों को जो समान कार्यों द्वारा लोगों को जोड़कर प्रथाओं द्वारा नियंत्रित होते हैं, मानने से इनकार कर सकता है। इन सभी वैधानिक एवम् प्रथात्मक नियमों की आवश्यकता सावयवी एकात्मकता हेतु होती है। इस प्रकार की एकात्मकता के बने रहने के लिए आवश्यक है कि विभिन्न अवयव एक निश्चित प्रकार से सहयोग करें। यदि ये हर प्रकार से सहयोग नहीं करते तो कम से कम पूर्व निर्धारित परिस्थितियों के अनुसार अवश्य ही करते हैं। अतः मात्र अनुबन्ध ही पूर्णता का द्योतक नहीं है बल्कि इसके सुचारू रूप से पालन हेतु नियमों की जरूरत होती है, ये नियम भी उतने ही जटिल होते हैं जितना कि स्वयं जीवन ।

प्ररूप के आधार पर
प्रश्न यह उठता है कि सावयवी एकात्मकता की परिस्थितियों में सामूहिक चेतना का रूप क्या होता है? सामूहिक चेतना के आयतन, तीव्रता एवं निश्चितता को ध्यान में रखते हुए दर्खाइम ने इसके प्ररूप के बारे में तर्क दिया है कि इसका आयतन स्थिर व छोटा होता है जबकि तीव्रता और निश्चितता अवश्य ही क्षीण होने लगती है सामूहिक चेतना विकसित समाजों का मात्र सीमित भाग है। औसतन रूप से सामूहिक चेतना की तीव्रता और निश्चितता की मात्रा विलुप्त होने लगती है, इस प्रकार जब श्रम विभाजन विकसित होने लगता है तो सामूहिक चेतना दुर्बल तथा अस्पष्ट होने लगती है। इसकी प्रवृत्ति कमजोर होने से व्यक्ति को समूह की दिशा में ले जाते हुए क्षीण प्रतीत होती है तथा आचरण के नियम अनिश्चित हो जाते हैं, इसलिए व्यक्ति को अपने बारे में चिन्तन-मनन के अधिक अवसर मिलते हैं तथा स्वतंत्रता के भी अधिक अवसर होते हैं।

विषय-वस्तु के आधार पर
सामूहिक चेतना के लक्षण सावयवी एकात्मकता के अन्तर्गत धीरे-धीरे धर्म-निरपेक्ष, मानवतावादी एवं तार्किक होने लगते हैं। ये सामूहिक उत्सुकता के मूल्यों को समाज से समाप्त अथवा क्षीण करने लगते हैं। वैज्ञानिक विचारों के कारण धर्म का संसार तीव्रता से सिकुड़ने लगा तथा कभी न कम होने वाला सामूहिक विश्वास व भावना जो धर्म के कारण दृढ़ थी उनका ह्रास सम्भव हुआ।

सामाजिक संगठन के अद्भुत गुण जो मनुष्य की रुचि से भी उत्कृष्ट थे बहुत तेजी से घटते जा रहे हैं।

दर्खाइम ने समूह चेतना के लक्षण विश्वास-व्यवस्था के रूप में देखे थे। आधुनिक समाजों में इसके उच्च मूल्य व्यक्ति को प्रतिष्ठा ही नहीं अपितु अवसर की समानता भी प्रदान करते हैं। इन तथ्यों की व्याख्या दर्खाइम ने एक अन्य कृति, प्रोफेशनल एथिक्स एण्ड सिविक मॉरल्स (च्तवमिेेपवदंस म्जीपबे ंदक ब्पअपब डवतंसे) में की है।

बोध प्रश्न 2
प) निम्नलिखित कथनों में जो सही हों उन पर (अ) निशान लगाइये ।
यांत्रिक एकात्मकता उन समाजों में मिलती है जिनमे
(अ) समूह समरूपता पर आधारित होते हैं तथा दण्डात्मक कानून का प्रचलन होता है।
(ब) समूह विभिन्नता पर आधारित होते हैं तथा दण्डात्मक कानून का प्रचलन होता है।
(स) समूह समानता पर आधारित होते हैं तथा क्षति-पूरक कानून का प्रचलन होता है।
(द) समूह असमानता पर आधारित होते हैं तथा क्षति-पूरक कानून का प्रचलन होता है।
पप) जो निम्नलिखित में सही हों उस पर (अ) निशान लागाइये।
दर्खाइम ने यांत्रिक तथा सावयवी एकात्मकता का विवेचन किस पुस्तक में किया है?
(अ) द सुइसाईड
(ब) द एलीमैंट्री फार्स ऑफ रिलिजस लाइफ
(स) द डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी
(द) द रूल्स ऑफ सोशियोलॉजिकल मैथड
पअ) निम्न में से जो सही है उसे खाली स्थान में भरकर कथन को पूरा कीजिए।
सावयवी एकात्मकता जिन समाजों में मिलती है उनकी सामाजिक संरचना ……………….. प्रकार की होती है।
(अ) सरल
(ब) जटिल
(स) मिश्रित
(द) काल्पनिक
अ) सावयवी एकात्मकता के स्वरूप की पाँच पंक्तियों में चर्चा कीजिये।

सारांश
इकाई का सार नीचे तालिका के रूप में स्पष्ट किया जा रहा है। आशा है कि तालिका के माध्यम से यांत्रिक एकात्मकता तथा सावयवी एकात्मकताओं में अंतर याद रखने में आपको मदद मिलेगी। दोनों में अंतर का पहला आधार संरचनात्मक है। दूसरा आधार प्रतिमानों के प्रकार से निर्धारित होता है। तीसरा आधारा सामूहिक चेतना के लक्षणों अर्थात् प्ररूपों तथा विषय-वस्तु के अनुसार है।

क्रम यांत्रिक एकात्मकता सावयवी एकात्मकता
प) संरचना के आधार समानता पर आधारित होती है।

सर्वाधिक रूप से अविकसित समाजों में मिलती है।
खण्डात्मक प्रकार की होती है, पहले कुल पर आधारित बाद में क्षेत्रीय आधारों पर।
परस्पर आश्रिता की मात्रा कम, सामाजिक सम्बन्ध सापेक्षित रूप से दुर्बल
सापेक्षित रूप से जनसंख्या का कम आयतन।
सापेक्षित रूप से भौतिक व नैतिक घनत्व कम। श्रम विभाजन पर आधारित होती है।
सर्वाधिक रूप से अधिक विकसित समाजों में मिलती है।
जटल प्रकार की होती है (पहले बाजारों का विलयन और बाद में नगर की उत्पत्ति)।
परस्पर आश्रिता की मात्रा अधिक, सामाजिक सम्बन्ध सापेक्षित रूप से मजबूत।
सापेक्षिक रूप से जनसंख्या का अधिक आयतन।
सापेक्षिक रूप से भौतिक तथा नैतिक घनत्व अधिक।
पप) प्रतिमानों के प्रकार पर दण्डात्मक नियमों की मान्यताएँ
पीनल कानून का चलन क्षति-पूरक नियमों की मान्यताएँ।
सहयोगात्मक कानून का चलन
सिविल, वाणिज्य, संविद, प्रशासनिक तथा संवैधानिक
कानून।
पप) सामूहिक चेतना के लक्षण
(अ) प्ररूप

 

(ब) विषय-वस्तु
उच्च आयतन
उच्च तीव्रता
उच्च निश्चितता
पूर्ण रूपेण सामूहिक सत्ता

अधिक धार्मिक

मानव कल्याण से महान तथा वाद-विवाद से परे समाज से उच्च मूल्यों द्वारा संलग्न

प्रत्यक्ष एवं विशिष्ट
निम्न आयतन
निम्न तीव्रता
निम्न निश्चितता
व्यक्ति के आत्म प्रयास व विचार
के लिए अधिक अवसर।
धर्मनिरपेक्ष तथा मानवता पर
आधारित
मानव कल्याण से सम्बन्धित तथा वाद-विवाद हेतु स्वतंत्र व्यक्ति
की अस्मिता उच्च मूल्यों से
संलग्न, समान अवसर, कार्य
आचरण तथा सामाजिक न्याय
सैद्धांतिक एवं सामान्य

शब्दावली
कुल (clan) क्लैन (clan) का हिन्दी शब्द कुल है। इसको कई वंशजों के ऐसे समूह के लिए प्रयोग करते हैं जिसके सदस्य अपने को किसी दूरस्थ अथवा काल्पित पूर्वज की संतान मानते हैं। आदिम समाजों में पूर्वज को दर्शाने वाले प्रतीक में पशु, पौधा अथवा प्राकृतिक शक्तियों के स्रोत शामिल हो सकते हैं । यह रक्त समूह होता है तथा इसके अन्दर विवाह नहीं होता है।
विश्वास ऐसे विचार व भावनाएं जो समाज में व्यक्तियों की क्रियाओं को संचालित करते हैं विश्वास कहलाते हैं।
प्रथा जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले सामाजिक मान्यता प्राप्त व्यवहार को प्रथा कहते हैं। इस व्यवहार का उल्लंघन, सामाजिक दबाव के कारण, सामाजिक रूप से अनुचित माना जाता है। प्रथाओं की शक्ति के सामने राज्य की शक्ति भी दुर्बल प्रतीत होती है।
वंश-परम्परा (lineage) रक्त मूलक, एकपक्षीय समूह को वंश-परम्परा कहते हैं। जिसके सदस्य रक्त द्वारा अपने पूर्वजों से जुड़े होते हैं। पूर्वजों से जुड़ी कड़ियाँ सदस्यों को ज्ञात होती हैं। प्रत्येक कड़ी का पूरा ज्ञान कुल में प्रायः नहीं होता।
सामूहिक चेतना किसी समाज के सदस्यों के बीच समान विश्वासों, मान्यताओं एवं भावनाओं की एक व्यवस्था की रचना को सामूहिक चेतना कहते हैं।
सामाजिक एकात्मकता किसी समूह की उस स्थिति को सामाजिक एकात्मकता कहते हैं जिसमें सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सहयोग, सद्भाव में सामूहिकता होती हो तथा जो सामाजिक संगठन को उसके स्थायित्व के माध्यम से दर्शाता हो। समाज का उक्त स्वरूप सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में बदलता रहता है। इसी कारण दर्खाइम ने दो प्रकार के समाजों में दो प्रकार की एकात्मकताओं को बताया है।
यांत्रिक एकात्मकता अविकसित समाजों में सरल सामाजिक संरचना के नाते समरूपता का लक्षण था। जिससे व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व सामूहिक व्यक्तित्व में विलय हो जाता था तथा वह प्रथाओं, धर्म के नियंत्रण से यंत्रवत कार्य करता था। इसी कारण ऐसी सामाजिक एकात्मकता को दर्खाइम ने यांत्रिक एकात्मकता कहा है।
सावयवी एकात्मकता विकसित समाजों में जटिल सामाजिक संरचना कार्य के अत्यधिक विभाजन से हुई, किन्तु विभाजिक कार्य की इस असमानता ने समाज के व्यक्तियों को आवश्यकताओं के संदर्भ में एक दूसरे पर आश्रित बना दिया। समाज में विद्यमान इन गुणों के कारण व्यक्ति को एक दूसरे से जुड़े रहने को दर्खाइम ने सावयवी एकात्मकता कहा है।
दण्डात्मक कानून इसका प्रयोग दर्खाइम ने यांत्रिक एकात्मकता को समझाने में किया है। इसका उद्देश्य सामूहिक चेतना अथवा सामूहिक इच्छा के विरुद्ध कार्यों को रोकना है।
क्षति-पूरक कानून इस कानून को दर्खाइम ने आधुनिक समाज की संरचनात्मक विशेषता को समझाने के लिए किया है तथा इसके द्वारा जिसे हानि हुई है उसकी क्षति-पूर्ति का अवसर दिया जाता है।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
बियेस्टेंड, राबर्ट, 1966. एमिल दर्खाइम वेडेन्फेल्ड निकोल्सनः लंदन
दर्खाइम, एमिल, 1893. द डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसाइटी. मैकमिलनः लंदन
ल्यूक्स, स्टीवन, 1973. एमिल दर्खाइमः हिज लाइफ एण्ड वर्क अलेन लेन, द पेंगुइन प्रैसः लंदन
स्मैल्सर, नील जे., 1976. द सोशियोलॉजी ऑफ इकोनोमिक लाइफ. प्रेन्टिस हाल आफ इंडिया प्राइवेट लिमिटेडरू नई दिल्ली

 बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 2
प) (अ)
पप) (स)
पपप) (ब)
पअ) विकसित समाजों में कार्य के अत्यधिक विभाजन से सामाजिक संरचना जटिल हो गयी। कार्यों में विभाजन की विभिन्नताओं ने आवश्यकताओं के संदर्भ में व्यक्तियों को एक दूसरे पर आश्रित कर दिया। समाज में विद्यमान इन गुणों द्वारा व्यक्ति के एक दूसरे से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े होने को दर्खाइम ने सावयवी एकात्मकता कहा है।

संदर्भ ग्रंथ सूची
(अ)
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रेक्स, जॉन, 1961. की प्राब्लम्स् इन सोशियोलॉजिकल थ्यरी. रटलेज एण्ड केगन पॉलः लंदन
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स्मिथ, ऐडम, 1921. इनक्वायरी इन टू द नेचर एण्ड काजिज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशन्स. वाल्यूम. प्, प्प् बेल एण्ड सन्सः लंदन
(ब) हिंदी में उपलब्ध पुस्तकें
दर्खाइम, एमिल, 1982. समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम. (अनुवादक) हरिश्चन्द्र उप्रेती, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमीः जयपुर क्रमांकः 516
चैहान, ब्रजराज. 1994. समाज विज्ञान के प्रेरक स्रोतः वेबर, मार्क्स, दुर्कहैम. ए.सी. ब्रदसर्ः उदयपुर
श्रीवास्तव, सुरेन्द्र कुमार, समाज विज्ञान के मूल विचारक. उत्तरप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमीः लखनऊ, क्रमांकः 541
वर्मा, ओकप्रकाश, 1983-84. दर्खाइम एक अध्ययन. विवेक प्रकाशनः दिल्ली