द्वंद्वात्मक क्या है | समाजशास्त्र में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विशेषताएं पद्धति मतलब अर्थ Dialectical in hindi

Dialectical in hindi द्वंद्वात्मक क्या है | समाजशास्त्र में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विशेषताएं पद्धति मतलब अर्थ ?

द्वंद्वात्मक नजरिया
कार्ल मार्क्स का ‘द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकतावाद‘ सामाजिक स्तरीकरण का एक और स्थापित सिद्धांत है। सामाजिक स्तरीकरण को समझने के लिए बुनियादी अवधारणाओं की खोज में वेबर ने जिस प्रकार ‘क्रम-व्यवस्था‘ की बुनियादी धारणा का प्रयोग किया है, उसी प्रकार कार्ल मार्क्स ने सामाजिक स्तरीकरण की अवधारणात्मक श्रेणियों के वर्गीकरण के लिए उत्पादन विधि‘ और ‘उत्पादन संबंधों, का प्रयोग किया है। उनके अनुसार उत्पादन की महत्वपूर्ण विधियां इस प्रकार हैंः आदिम, सामंती और पूंजीवादी। ये भेद श्रम-शक्ति के उपयोग की विधियों या उसकी प्रकृति तथा वस्तुओं के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली प्रौद्योगिकी के साधनों पर आधारित हैं। उत्पादन की आदिम विधि की विशेषता यह थी कि उसमें सामूहिक श्रम की विधि अपनाई जाती थी जिसमें आदिम औजार इस्तेमाल होते थे। इस तरह की उत्पादन विधि आदिम भोजन-संग्राही और शिकारी समुदायों में प्रचलित थी। जैसा कि हम कह चुके हैं सामाजिक स्तरीकरण की संस्थाओं का अभी इस चरण पर विकास नहीं हुआ होगा। इसके संस्थागत अंगों का विकास सामंतवाद के उदय के साथ हुआ। इस समय तक संपत्ति और उत्पादन के संसाधनों का संचय होने लगा था। इसके फलस्वरूप समाज में स्तरीकरण आरंभ हुआ जिसके शीर्ष पर सामंतवादी भूस्वामी विराजमान था। यह भू-स्वामी भूमि और उत्पादन के अन्य तमाम संसाधनों समेत अपनी रियासत या एस्टेट और उस पर आश्रित लोगों पर अधिकार रखता था जो वस्तुतः बहुत व्यापक था। कृषक, दास और व्यापारी और दस्तकारध्कारीगर समाज के अन्य स्तर थे जो इस पद्धति के हिस्सा थे। मगर ये सभी पूरी तरह से उत्पादन के साधनों और श्रमशक्ति पर निर्भर थे जो भूपति के अधिकार में रहते थे। दरअसल, इनमें से अधिकांश सामाजिक स्तर सामंतवादी भूपति की जागीर से जुड़े होते थे। सामंतवाद ने अपने विशिष्ट राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाएं विकसित की मगर इनमें से ज्यादातर आनुवंशिक विशेषाधिकारों और पैतृक-प्रभुत्व पर आधारित थीं। सामंत का उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण था जिससे उसके और अन्य सामाजिक स्तरों में एक ऐसा संबंध विकसित हुआ जिसका आधार स्थिति अनुबंधन और विशेषाधिकार थे।

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मार्क्स के अनुसार इस व्यवस्था में अंतर्द्वद्व और तनाव प्रकट या अप्रकट रूप से मौजूद थे। यह अंतर्द्वद्वात्मक संबंध उस समय मौजूद ‘झूठी चेतना‘ के कारण प्रकट रूप में नहीं था। उदाहरण के लिए सामंत और किसान के बीच के संबंध को किसान शोषणकारी समझने के बजाए उसे एक हितकारी संरक्षण के रूप में लेता था। एक दृष्टिकोण प्रक्रियाओं के बारे में भी विद्यमान है, जिनके माध्यम से संपत्ति सामाजिक स्तरों में स्थान का विभाजन करती है।

 पूंजीवाद का उदय
पूंजीवाद के उदय से सामाजिक विकास-क्रम में एक नए दौर की शुरुआत हुई। नूतन प्रौद्योगिकी के विकास और सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से चली ऐतिहासिक परिवर्तन की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया ने सामंतवाद को लुप्तप्राय बना दिया और इसकी जगह पूंजीवाद ने ले ली। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप इस समय तक वर्गीय ढांचा पूर्णतः उभर चुका था। वस्तुओं के उत्पादन में कारखाना विधि का विकास, कृषकों और मजदूरों का गांव से शहर की ओर भारी संख्या में पलायन, बाजार के विस्तारित उपयोग से पूंजी का संचय, जिसे परिवहन की नई प्रौद्योगकी ने संभव बनाया और यूरोपीय शक्तियों का औपनिवेशक विस्तार, इन सबने सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था को ही बदल डाला। सामाजिक स्तरीकरण की इस नई योजना में जिन मुख्य नए वर्गों का उदय हुआ वे थे पूंजीवादी उद्यमी और श्रमिक वर्ग । इसके साथ इन दोनों वर्गों के बीच एक नए किस्म का अति प्रतिद्वंद्वात्मक संबंध उपजा। इस प्रकार के प्रतिद्वंद्वात्मक संबंध के मूल में काम के समुचित घंटे, समुचित पारिश्रमिक, रोजगार और काम की बेहतर स्थितियां, इत्यादि मांगें थीं। मार्क्स के अनुसार संघर्ष की ये शक्तियां प्रतिद्वंद्विता को भी अप्रासांगिक बना कर उसकी जगह समाज में एक समाजवादी व्यवस्था स्थापित कर देती हैं। यह समाजवादी व्यवस्था पूंजी के निजी स्वामित्व और लाभ अर्जन के बिना सामूहिक उत्पादन पर आधारित होगी। किसान और श्रमिक वर्गों द्वारा क्रांति लाने के बाद अनेक देशों में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हुई जैसे सोवियत संघ, चीन, वियतनाम इत्यादि । मगर मार्क्स की मान्यता के उलट पूंजीवाद अभी तक अप्रासंगिक नहीं हो पाया है। हकीकत तो यह है कि पूंजीवाद में एक नया लचीलापन और ऊर्जा देखने में आ रही है। जबकि दूसरी ओर कई समाजवादी अर्थव्यवस्थाएं या तो कमजोर पड़ गई हैं या उनकी जगह पूंजीवादी व्यवस्था या संस्थाओं ने ले ली है।

मगर मार्क्सवादी सिद्धांत का सार सामाजिक स्तरों के निर्माण प्रक्रिया या इसके संरचनात्मक गठन में न होकर सामाजिक व्यवस्था की प्रकृति के इसके बुनियादी तर्क में निहित है। मार्क्स सामाजिक व्यवस्था को ऐतिहासिक भौतिकतावादी परिस्थितियों की उपज मानते हैं। उत्पादन विधियां और उत्पादन के संबंध उन स्थितियों को परिभाषित करते हैं और ये स्थितियां प्रौद्योगिकी में होने वाले नूतन परिवर्तनों को सुलझाने के प्रयासों के कारण निरंतर बदल रही हैं जो कि सार्वभौमिक हैं। इस प्रकार मार्क्स की धारणा के अनुसार सामाजिक व्यवस्था विभिन्न समूहों के बीच परस्पर संबंधों पर आधारित होती है और ये संबंध नैसर्गिक रूप से विरोधी होते हैं जिन्हें सामाजिक व्यवस्था या तंत्र को बदले बिना सुलझाया नहीं जा सकता है। जिस प्रक्रिया के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को पलटा जा सकता है उसे हम क्रांति कहते हैं जिसमें औद्योगिक मजदूर और किसान जैसे शोषित वर्ग पूंजीवादी वर्गों के खिलाफ वर्ग संघर्ष में साझा हिस्सा लेते हैं। इस सर्वहारा क्रांति के फलस्वरूप जो सामाजिक व्यवस्था यानी समाजवादी व्यवस्था की स्थापना होती है उसमें सामाजिक-आर्थिक असमानताओं पर आधारित प्रतिद्वंद्विता को जन्म देने वाले सामाजिक-स्तरों के लिए कोई जगह नहीं होती। मगर इसमें वर्ग या सामाजिक स्तरीकरण के बिना कार्य का सामाजिक विभाजन अवश्य होता है। इस प्रकार के सामाजिक स्तरों को श्अविरोधीश् कहा जाता है।

सामाजिक स्तरीकरणः अभिप्राय और नजरिया
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
सामाजिक विकास क्रम की प्रक्रिया
संयोजी सिद्धांत
सामाजिक स्थिति
संपदा
सत्ताधिकार
भारत में जाति और वर्ग
जाति और सामाजिक स्तरीकरण
जाति का जनसंख्यात्मक विश्लेषण
सामाजिक गतिशीलता
क्रम-परंपरा के सिद्धांत
भारतीय समाज का ढांचा
स्थिति का सार
मार्क्सवादी विधि और धारणाएं
सेवा प्रधान अर्थव्यवस्था
अवधारणा और सिद्धांत संबंधी कुछ मुद्दे
वेबर का नजरिया
द्वंद्वात्मक नजरिया
पूंजीवाद का उदय
डाहरेंडॉर्फ और कोलर
प्रकार्यवादी सिद्धांत
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ लेने के बाद आपः
ऽ समाजों और सामाजिक स्तरीकरण की विकासात्मक प्रक्रियाओं की रूपरेखा बता सकेंगे,
ऽ सामाजिक स्तरीकरण के संयोजी सिद्धांतों, स्थिति, संपदा और सत्ताधिकार का विवेचन कर सकेंगे,
ऽ भारत में जाति और वर्ग के रूप में विद्यमान सामाजिक स्तरीकरण के बारे में बता सकेंगे,
ऽ सामाजिक स्तरीकरण से जुड़ी अवधारणाओं और सिद्धांतों के स्पष्ट कर सकेंगे, और
ऽ सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक परिवर्तन पर रोशनी डाल सकेंगे।

प्रस्तावना
सामाजिक स्तरीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके जरिए समाज के समूहों और सामाजिक श्रेणियों को एक दूसरे से ऊंचे या निम्न दर्जे में रखा जाता है। यह प्रतिष्ठा, विशेषाधिकारों, संपदा और सत्ताधिकार की कसौटी पर उनकी सापेक्षिक स्थिति को देखकर तय किया जाता है। सामाजिक-स्तरों में पाए जाने वाले प्रदत्त या नैसर्गिक गुणों और उनके द्वारा अर्जित किये जाने वाले गुणों को हम अलग-अलग श्रेणी में रख सकते हैं। इस प्रकार प्रदत्त और उपलब्धि, ये दो प्रकार के पैमाने ही प्रायः सभी समाजों में विद्यमान सामाजिक स्तरीकरण के निर्धारकों के रूप में काम करने वाले मानकीय सिद्धांतों को परिभाषित करते हैं।

सामाजिक स्तरीकरण एक ऐतिहासिक प्रक्रिया भी है। एक सामाजिक संस्था के रूप में इसका उदय सामाजिक क्रमविकास और सामाजिक विकास के एक निश्चित स्तर पर हुआ। आखेटक और भोजन संग्राहक समाज में भी सामाजिक विभेदन के अपने-अपने स्तर थे। उदाहरण के लिए कुशल शिकारी या शामन को निजी गुणों या प्रवीणताओं के कारण ऊंचा दर्जा हासिल था क्योंकि समाज उन्हें रहस्यमय या दैवीय मानता था। इसी प्रकार समाज के सदस्यों की उम्र या उनके लिंग के रूप में भी यह विभेदन रहता था। मगर उत्पादन प्रौद्योगिकी के अल्पविकसित रहने और इन समाजों की अनिश्चित और खानाबदोश प्रकृति के कारण इनकी जनसंख्या पर अंकुश लगा रहा। इसलिए इनका सामाजिक ढांचा बहुत सरल था। इसमें लोगों के बीच संप्रेषण के लिए प्रारंभिक प्रवीणता (यानी सीमित भाषायी शब्द ज्ञान), सरल प्रौद्योगिकी, आरंभिक स्वरूप में विश्वास व्यवस्थाएं और सामाजिक नियंत्रण के नियम विद्यमान थे। ऐसे समाजों ने जरूरत से ज्यादा आर्थिक उत्पादन नहीं किया और इनमें किसी भी सदस्य के लिए संपदा का संचय कर पाना संभव नहीं था। इस तरह के सरल समाजों में सामाजिक विभेदन जरूर था मगर उनमें सामाजिक स्तरीकरण एक संस्था के रूप में विद्यमान नहीं था।

बोध प्रश्न 2
1) भारत में जाति और वर्ग के बारे में पांच पंक्तियां लिखिए।
2) सही और गलत बताइए।
प) सामाजिक स्तरीकरण के विश्लेषण के लिए वेबर ने द्वंद्वात्मक सिद्वांत अपनाया था।
पप) निम्न जाति स्थिति का मतलब जाति क्रम परंपरा में निम्न स्थान है।
पपप) वर्ग एक हित-समूह है जबकि जाति एक समुदाय ।

बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) जाति स्थिति सारश् को दर्शाती है। अगर यह आनुष्ठानिक क्रम-परंपरा में निम्न दर्जे पर हो तो, इसका आर्थिक-राजनीतिक और सामाजिक दर्जा भी प्रायः निम्न रहेगा। परिभाषा के अनुसार जाति एक संवश्त समूह है, जो प्रदत्त होती है। दूसरी ओर वर्ग एक विवश्त समूह है जिसकी सदस्यता उपलब्धि की कसौटी पर आधारित रहती है। इस प्रकार जाति समुदाय आधारित होती है तो वर्ग स्थिति समूह का परिचायक है।

2) प) गलत
पप) सही

सारांश
ऊपर दिए गए विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज के अंदर सामाजिक स्तरीकरण प्रौद्योगिकी में परिवर्तनों, कृर्षि के आधुनिकीकरण, औद्योगिक और उद्यमशीलता में विकास, समाज के कमजोर वर्गों के सशक्तीकरण और जन संचार माध्यमों में आई क्रांति के फलस्वरूप परिवर्तनों से गुजर रहा है। अनूसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के लाभ के लिए लागू सकारात्मक भेदभाव की नीति ने भी समाज के इन कमजोर वर्गों में सामाजिक गतिशीलता को भारी बढ़ावा दिया है। अध्ययनों से पता चलता है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए संविधान में आरक्षण का जो प्रावधान किया गया उस नीति का इन वर्गों को लाभ हुआ है और इनमें से एक बड़ा हिस्सा मध्यमवर्ग के रूप में उभरा है। लेकिन इस नीति ने जिस सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है वह अभी तक इन लोगों में भारी निरक्षरता, कुपोषण और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के चलते काफी सीमित है। सकारात्मक भेदभाव के जरिए सामाजिक गतिशीलता काफी हद तक संबंधित समूहों के शिक्षा के स्तर पर निर्भर करता है। दूसरी वजह से आरक्षण नीति सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया में एक निर्णायक घटक का काम करने के बजाए सिर्फ पूरक का काम कर रही है। लिहाजा, समाज के इन वर्गों में निरक्षरता को दूर करने की प्रक्रिया को तेज करने की दिशा में कारगर कदम उठाने की जरूरत है।

सामाजिक गतिशीलता के मामले में अन्य पिछड़ी जातियां कमोबेश बेहतर स्थिति में हैं। ये जातियां साधारणतया कृषक हैं और इनके पास भू-संसाधन हैं जो अधिकांश अनुसूचित जातियों और जनजातियों के पास नहीं हैं। हरित क्रांति में इन पिछड़ी जातियों का बड़ा हाथ रहा है और इससे इन्हें लाभ भी हुआ है। देश के अधिकांश भागों में अब ये ग्रामीण मध्यम वर्ग रूप में उभरी हैं और अर्थव्यवस्था (कृषि) के क्षेत्र और राजनीति सत्ताधिकार में इन्हें बेहतर दर्जा मिल गया है। आरक्षण के जरिए प्रौद्योगिकी, व्यवसायिक और प्रबंधन पदों और केन्द्रीय लोक सेवाओं में प्रवेश पाने से इनका सामाजिक दर्जा बढ़ा है, जिनसे अभी तक इन्हें अपेक्षतया वंचित रखा गया था। इससे भारत में पिछड़े वर्ग के आंदोलन और इस श्रेणी के साथ-साथ अनुसूचित जातियोंध्जनजातियों या दलितों में भी संजातीयकरण को नया आवेग मिला है।

सामाजिक, ढांचे और स्तरीकरण की प्रणाली में बदलाव की एक और प्रक्रिया का पता भारत में व्यवयायिक और उद्यमी वर्गों में वृद्धि के संकेतकों और अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र में उठते चढ़ाव को देखकर चलता है। जैसा कि हमने पीछे कहा है भारत में मध्यम वर्ग की संख्या मोटे तौर पर देश की जनसंख्या का एक तिहाई 35 करोड़ होने का अनुमान है। यह बहुत बड़ी संख्या है जिसका संबंध औद्योगिक-शहरी और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्रों से हैं। इस क्षेत्र में बदलाव की प्रक्रिया अभी शुरू ही हुई है और आर्थिक उदारीकरण की नीति इस प्रक्रिया को एक नई गति दे सकती है। मगर गुणात्मक दृष्टि से ग्रामीण और शहरी भारत का वर्गीय ढांचा परिवर्तन की इन शक्तियों के प्रत्युत्तर में निरंतर उनके अनुरूप ढलने और उनमें जा मिलने में जुटा हुआ है जिनका सामना उसे पाश्चात्य संस्कृति और सामाजिक संस्थाओं और मूल्यों के प्रभाव में बढ़ते पैमाने पर करना पड़ रहा है।