नागरिक धर्म क्या है | नागरिक धर्म की परिभाषा किसे कहते है मतलब अर्थ क्या होता है Civil Religion in hindi

Civil Religion in hindi in sociology meaning and definition ? नागरिक धर्म क्या है | नागरिक धर्म की परिभाषा किसे कहते है मतलब अर्थ क्या होता है ?

नागरिक धर्म की अवधारणा (The Concept of Civil Religion)
नागरिक धर्म क्या है? इस अवधारणा के अध्ययन की क्या आवश्यकता है? आइये सबसे पहले इस अवधारणा के अर्थ और परिभाषा से परिचित हो लें। ‘‘राजनीतिक राज्यों के इतिहास में नागरिक मूल्यों और परम्पराओं के प्रति धार्मिक या अधार्मिक समाज को नागरिक धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है।‘‘ (निसबेत, 1968,524-52)

राजनीतिक राज्य के नागरिक मूल्यों और परम्पराओं के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति कुछ खास त्योहारों, अनुष्ठानों, सिद्धान्तों और मताग्रहों के माध्यम से होती है जो अतीत के महान महापुरुषों और घटनाओं के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। इस प्रकार के महापुरुष जैसे स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक और राजनीतिक सुधारक और राष्ट्रपति इब्राहम लिंकन के समान प्रमुख राष्ट्रपति की अपने समाज के सामाजिक, राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसी प्रकार महत्वपूर्ण घटनाओं का भी अपने राज्य और समाज पर प्रभाव पड़ता है।

हम अपने स्वतंत्रता दिवस, 15 अगस्त समारोह का उदाहरण सामने रख सकते हैं जब हमारे प्रधानमंत्री हर वर्ष दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं। दूसरा उदाहरण प्रत्येक वर्ष, 26 जनवरी को सम्पन्न होने वाला गणतंत्र दिवस समारोह है। इस समारोह में भी एक प्रकार का अर्धधार्मिक पुट होता है। इसके द्वारा भारतीय नागरिकों में राष्ट्रीय और राजनीतिक पहचान का भाव गहरे रूप में उभरता है। यह हमारे महान नेताओं जैसे महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद और अन्य महापुरुषों के बलिदान की याद दिलाता हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था।

सभी कालों में और सभी समाजों में महापुरुषों का जन्मदिन और महान राजनीतिक घटनाओं का समारोह मनाते वक्त एक प्रकार का धार्मिक भाव पैदा हो जाता हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री इमाइल दुर्खाइम ने धर्म की जिस प्रकार व्याख्या की है उस अर्थ में यह भी एक प्रकार का धर्म है।

दुर्खाइम के अनुसार धर्म, प्रथाओं और विश्वासों की एक एकीकृत व्यवस्था है जो पवित्रता की वस्तुओं से जुड़ी है। कहने का तात्पर्य यह है कि इसका सम्बन्ध ऐसी वस्तुओं से है जो एक तरफ अलग से रख दी गई हैं। इसके साथ-साथ इसमें अतीत में विश्वास और प्रथाएं भी शामिल होती हैं जो समुदाय को नैतिक रूप से चर्च जैसे पूज्य स्थलों से जोड़ती हैं और लोग उसका सम्मान करते हैं। सभी समाजों में चर्च जैसी सामाजिक संस्था होती है जहाँ लोग पूजा करते हैंः केवल शहर और राष्ट्र बदल जाने से इनका नाम भर बदलता है। वह 18वीं शताब्दी के अन्त में फ्रांस में हुई फ्रांसीसी क्रांति का उदाहरण देता हैं। (निसबेत, 1968, 524-527)

कार्लटन जे.एच. हेज ने अपनी पुस्तक ‘‘ऐसेज आम नेशनलिज्मि‘‘ (1926) में लिखा है कि यदि हम मानव इतिहास का परीक्षण करें तो पायेंगे कि मनुष्य की अधिकांश गतिविधियाँ भावात्मक रूप से धार्मिक ही हैं। यह स्पष्ट है कि बहुत से लोगों के लिए राष्ट्रीयता प्रकारान्तर से धर्म का ही एक रूप है जो लोगों में गहरी और प्रबल भावुकता पैदा करने की शक्ति रखता है और जो धर्म की अनिवार्य प्रकृति होती है।

वह लिखता है कि मानव इतिहास इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य हमेशा से “धार्मिक समझ‘‘ के कारण ही अलग से पहचाना जाता है। दूसरे शब्दों में लोग अपने से बड़ी किसी काला टी शाला में पारचाना जाता है। हमारे पादों में लोग आते से नदी किसी रहस्यात्मक शक्ति में विश्वास रखते हैं और ये विश्वास उनके अन्दर एक सम्मान का भाव पैदा करता है और यह अक्सर बाहरी क्रियाकलापों और समारोहों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। (हेज, कार्लटन जे.एच. 1926ः 95)

धर्म की समझ के इस सन्दर्भ में, देशभक्ति और राष्ट्रीयता के भाव के रूप में, एक विशेष सामाजिक राजनीतिक समूह से जुड़े हुए भाव के सन्दर्भ में, हमें नागरिक धर्म की अवधारणा को समझना होगा । नागरिक धर्म उच्च तकनीक से युक्त विकसित आधुनिक समाज का अर्थ है। निसबेत का कहना है कि पश्चिम के आधुनिक राष्ट्रीय राज्य में नागरिक धर्म स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया है।

समकालीन युग में नागरिक धर्म का सर्वाधिक विशिष्ट रूप अमेरिकी समाज में पाया जाता है। आगे आने वाले अनुभागों में आप अमेरिका में व्याप्त नागरिक धर्म के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। आइये सबसे पहले हम नागरिक धर्म की प्रकृति और विकास को समझने का प्रयत्न करें।

 नागरिक धर्म की विशेषताएं (Characteristics of Civil Religion)
नागरिक धर्म की अवधारणा कोई नयी अवधारणा नहीं है। यह प्राचीन यूनान और रोम से लेकर मध्य युग तक और पश्चिमी यूरोप में पुनर्जागरण के दौरान कई समाजों में पाई जाती रही है। भूमध्य सागरीय संसार में प्राचीन पवित्र राज्य सिद्धान्त में नागरिक धर्म के तत्व पाये जाते थे अर्थात वहाँ राजा या सम्राट की पूजा भगवान के रूप में होती थी। यह कई समाजों की विशेषता रही है। ब्रिटिश पूर्व काल में हमारे समाजों में भी यह तत्व पाया जाता था।

ऐसा माना जाता था कि राजा को अपनी जनता पर शासन करने का अधिकार ईश्वर से मिला है। एक खास समय पर प्रत्येक वर्ष अनुष्ठानों और समारोहों के दौरान इस तथ्य पर बार-बार बल दिया जाता था। ‘‘राज्याभिषेक‘‘ या राजकुमार को सिंहासन पर बिठाने का धार्मिक समारोह राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों को एक साथ मिलाने का एक अच्छा उदाहरण है।

राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों को मिलाने का एक ऐसा ही उदाहरण दूसरे विश्वयुद्ध तक जापान के इतिहास में भी नजर आता है। 19वीं शताब्दी के इतिहासकार फुस्टेल डि कालेजेस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘द एंशिएंट सिटी‘‘ (1864) में प्राचीन यूनान और रोमन नगर राज्यों के नागरिक धर्मों का उल्लेख किया है। आप इस इकाई के अगले भाग में इस संबंध में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

जैसा कि हम पहले बता चुके हैं नागरिक धर्म या अर्धधर्म में कुछ नागरिक मूल्यों और परम्पराओं के प्रति समझाने का भाव होता है और इसकी झलक पश्चिम के आधुनिक राष्ट्रीय राज्यों में स्पष्ट रूप से मिलती है। निसबेत (1968) का मानना है कि यह एक प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक कारकों का परिणाम है। 16वीं और 17वीं शताब्दी के दौरान ईसाई धर्म के दो प्रमुख पंथों यूरोपीय प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिकों के बीच नाशमूलक संघर्ष चल रहा था। इसी काल के बाद ज्ञानोदय का काल आया।

18वीं शताब्दी के यूरोप को ज्ञानोदय काल के नाम से भी जाना जाता है जिसने फ्रांसीसी दार्शनिकों को भी प्रेरित किया। इसके बाद सामन्तवादी यूरोप की परम्परागत सोच में मूलभूत परिवर्तन आया (अधिक जानकारी के लिए ई.एस.ओ.-13 समाजशास्त्रीय चिंतन के खण्ड 1 की इकाई 1 में देखिए) इस काल में परम्परागत ईसाई धर्म और अन्य सभी प्रकार

लेकर एक शून्यभाव पैदा हो गया । इस समय तटस्थ ईश्वर में विश्वास पैदा करने के प्रयास किए गए। यह देववादी ईश्वर या प्रकृति का या प्रगति का ईश्वर था। यह ईसाई धर्म की परम्परागत अवधारणा का स्थान ग्रहण करने का एक प्रयास था, पर इसमें सफलता न मिल सकी।

हालाँकि इस तटस्थ ईश्वर के स्थान पर पितृ (चंजतपम) की अवधारणा अधिक प्रभावकारी सिद्ध हुई थी। यह शब्द फ्रांसीसी दार्शनिकों का गढ़ था। इसके जरिए राजनीतिक राज्य की नयी अवधारणा सामने आई। इन दार्शनिकों के लिए राज्य पितृसत्तामक था अर्थात अपने नागरिकों के प्रति राज्य का व्यवहार एक पिता के समान था । अनेक शताब्दियों तक राज्य एक संचालक के रूप में माना जाता था जो युद्ध के मौकों पर और कर लगाने के समय अग्रणी का काम करता था।

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रूसो, जीन जेक्स (1712-1778) का जन्म जेनेवा में हुआ था। उसने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा फ्रांस में बिताया था पर वह हमेशा अपनी पितृभूमि को याद करता था। वह अपने नाम के आगे ‘‘जेनेवा का नागरिक उपनाम लगाया करता था। बचपन में ही वह अपनी माँ खो चुका था। उसके जन्म के तुरंत बाद ही उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी। उसने अपने पिता आइजाक रूसो से शिक्षाग्रहण की थी। आइजाक रूसो एक कुशल घड़ीसाज था। पर वह बहुत जल्दी गुस्से में आ जाता था। उसने अपने पुत्र की बचपन में ही उसके पढ़ने की आदत को भांप लिया था।

तेरह वर्ष की आयु में रूसो को अपना जन्म स्थान छोड़ना पड़ा और तुरीनं जाना पड़ा जहाँ वह बिना कुछ समझे-बुझे रोमन कैथोलिक बन गया। उसने अपने जीवन के अन्तिम समय में लिखा था ष्मैं कैथोलिक बन गया पर रहा हमेशा ईसाई हीष् । तूरीन में रूसो ने कब्र खोदने का व्यवसाय छोड़कर नया व्यवसाय प्राप्त करने की कोशिश की। 1729 में सेवोय में एक माइन डि वारेन्स नामक व्यक्ति ने उसे शरण दी और उसकी सहायता की। यह लेखक के जीवन का एक निर्णायक काल था।

अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट‘‘ और अपने अन्य लेखों में उसने बताया है कि वह सामाजिक जीवन की जरूरतों से सताया हुआ व्यक्ति है। सामाजिक संबंधों के कारण मनुष्य में एक प्रकार की निर्भरता और दब्बूपन आ जाता है। इस निर्भरता से उत्पन्न होने वाले झगड़ों और दुश्मनियों के खतरे से वह वाकिफ था। समाज लोगों को नजदीक लाता है पर वस्तुतः लोगों को एक दूसरे का दुश्मन ही बनाता है। इसी सदमे में उसने एक प्रसिद्ध उक्ति लिखी थी ‘‘मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन हर जगह वह अपने को जंजीरों से जकड़ा पाता हैष्। अपनी इस उक्ति के कारण रूसो आज तक अमर है।

जिस समय फ्रांस के बुद्धिजीवी और अन्य यूरोपीय देशों के विद्वान समाज के प्रत्येक विचार और अवधारणाओं पर प्रश्न चिहन लगा रहे थे उस समय रूसो का जीवन अशांति के दौर से गुजर रहा था। उसने खूब लिखा और कुछ समय के लिए उसे एक संगीतकार के रूप में जाना गया। 2. जुलाई, 1778 अरमेननविले में अचानक उसकी मृत्यु हो गई। वह सामाजिक विज्ञान का प्रणेता और यहाँ तक कि संस्थापक भी था । इमाइल दुर्खाइम ने कहा है कि ‘‘रूसो ने कुछ समय पहले ही यह सिद्ध कर दिया था कि अगर मनुष्य के जीवन से समाज को हटा दिया जाए तो वह मात्र जीव रह जायेगा, जिसके पास ज्यादा अनुभव और बुद्धि नहीं रहेगी। रूसो का मानना था कि पशुता स्तर से ऊपर उठने के लिए मनुष्य को प्राकृतिक स्थिति को अवश्य त्यागना होगा। (डेरेथ, राबँट 1968, पृष्ठ 563-570) इंटरनेशनल

राजनीतिक दर्शन सम्बन्धी अपनी पुस्तक ‘‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट‘‘ (1762) लिखते समय रूसो के मन में पितृ की धारणा मौजूद थी। उसके विचारों ने अनेक फ्रांसीसी क्रान्तिकारियों, जिसमें रॉबेसपियेर भी शामिल था, को भी प्रभावित किया। रूसो ने लोगों को प्रतिष्ठित किया और उसने इसे ‘‘आम इच्छा‘‘ के रूप में व्याख्यायित किया । अपनी इसी पुस्तक में उसने पहली बार ‘‘नागरिक धर्म‘‘ की अवधारणा की चर्चा की।

रूसो के अनुसार सब लोगों में धार्मिक जरूरत छिपी हुई है। उसका मानना था कि आदर्श राज्य में मौजूद सभी धर्मों में से खासकर ईसाई धर्म अपर्याप्त है। अतः उसने एक व्यवस्थित ‘‘नागरिक धर्म‘‘ की परिकल्पना की ‘‘जिसमें सभी नियम शासक द्वारा बनाये जाते थे‘‘ दूसरे शब्दों में इस धर्म के नियमों का निर्धारण राजनीतिक अध्यक्ष द्वारा किया जाता था और जैसा कि रूसो कहता है ये नियम एक प्रकार के सामाजिक भाव हैं जिनके बिना मनुष्य अच्छा नागरिक या विश्वासपात्र व्यक्ति नहीं बन सकता है। (निसबेत 1968: 524)

रूसो ने नागरिक धर्म की अवधारणा को बहुत गंभीरता से लिया था क्योंकि उसने इसके अन्तर्गत इसे न मानने वालों के लिए दंड का प्रावधान भी किया था। इन दंडों के अन्तर्गत समाज से बहिष्कार और यहाँ तक की मृत्युदंड का भी प्रावधान था। दंड का अधिकारी वह होता था जिसने पहले नागरिक धर्म को स्वीकार किया हो और फिर इसके नियमों का उल्लंघन किया हो।

1793-94 के बीच जब फाँसीसी क्रान्ति अपनी चरम सीमा पर थी, तब नागरिक धर्म की स्थापना की गई। इसका नेतृत्व रॉबेसपियेर ने किया और सरकारी तौर पर इसे सर्वोच्च सत्ता के धर्म के रूप में जाना गया। इस धर्म ने खुद क्रान्ति की पूजा की जिसका पश्चिम के लाखों लोगों के मन पर प्रभाव जमा हुआ था। इसमें एक राजनीतिक राज्य और खासकर आस्था और अनुष्ठान के सत के रूप में क्रांतिकारी राज्य था। (निसबेत, 1968ः524)।

कार्यकलाप 1
अभी आपने नागरिक धर्म की अवधारणा, प्रकृति और विकास की जानकारी प्राप्त की। अपने अनुभव के आधार पर आपके अपने समाज में व्याप्त नागरिक धर्म के बारे में दो पृष्ठों में लिखिए।
अपने उत्तर का मिलान अपने अध्ययन क्षेत्र के अन्य सहपाठियों से कीजिए।

19वीं शतब्दी के दौरान राजनीतिक पटल से नागरिक धर्म का विचार लुप्त होने लगा। हालाँकि सी.जे.एच. हेरर का मानना है कि इस दौरान राष्ट्रीयता की भावना या धर्म कायम रहा। उसका मानना है कि 19वीं-20वीं शताब्दी के बारे में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस दौरान राष्ट्रीयता के धार्मिक पक्ष ने शाश्वत रूप ले लिया।

हेज का मानना है कि परम्परागत ईसाई धर्म और नये राष्ट्रीय या नागरिक धर्म के बीच एक समानान्तर रेखा खिंची है। राष्ट्रीय राज्य को इस नागरिक धर्म का ‘‘भगवान‘‘ माना जाता है जिसका जन्म खुद यूरोप में नेपोलियन युद्धों के दौरान हुआ। इसी युद्ध के दौरान नेपोलियन ने यूरोप के सभी हिस्सों में फ्रांसीसी क्रांति के राष्ट्रवादी नारों का प्रचार किया।

रॉबर्ट निसबेत (1968) के अनुसार 19वीं शताब्दी के यूरोप और संयुक्त राष्ट्र में उभरने वाली राष्ट्रवाद की भावना में एक प्रकार का धार्मिक उत्साह था। पर यह प्राचीन और मध्ययुगीन समाजों के नागरिक धर्म से भिन्न था। वह जर्मन दार्शनिक हेगल का उदाहरण देता है जिसने राष्ट्रीय राज्य अर्थात अपने राज्य पर्शिया को पृथ्वी पर भगवान का अवतार माना है। हेगल के इस व्यक्तिगत विचार से यूरोप और अमेरिका के राष्ट्रवादी सहमत नहीं हो सकते हैं पर अपने देश के मामले में अधिकांश राष्ट्रवादी इसे ईश्वर की देन ही मानते हैं।

राष्ट्रवाद के उदय के साथ-साथ सैन्यवाद और प्रजातिवाद का भी उदय हुआ। इनके आपस में मिल जाने से इस दौरान कई जनविद्रोह और प्रतिक्रियाएं घटित हुई। मानव इतिहास में इस प्रकार की घटना केवल यूरोप में 16वीं और 17वीं शताब्दी में हुए धार्मिक युद्धों में ही देखने को मिलती हैं। निसबेत का मानना है कि बहुत संभव है कि प्रथम विश्वयुद्ध यूरोप के इसी राष्ट्रवादी धार्मिक चेतना का परिणाम हो।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब नाजी राष्ट्रवाद का उदय हुआ और यहूदियों के ऊपर आक्रमण होने लगे तब लोगों के मन में अति राष्ट्रवाद के प्रति घृणा और डर का भाव पैदा हुआ। आज हम देखते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जिस प्रकार का राष्ट्रवाद और नागरिक धर्म मौजूद था आज समूचे प्रजातांत्रिक विश्व में उसका पतन हो गया है। फिर भी आज हम राष्ट्र के मामले में धार्मिकता से मिली जुली संवेदनाओं की अभिव्यक्ति यत्र तत्र देख सकते हैं।

अगले अनुभाग में हम विभिन्न समाजों में पाये जाने वाले नागरिक धर्मों के प्रकारों की चर्चा करेंगे। इस चर्चा के दौरान हम अमेरिकी समाज पर विशेष बल देंगे।

बोध प्रश्न 1
प) नागरिक धर्म की अवधारणा को लगभग आठ पंक्तियों में परिभाषित कीजिए।
पप) नागरिक धर्म पर आधारित रूसो के विचारों को लगभग दस पंक्तियों में व्यक्त कीजिए।
पपप) सर्वोच्च सत्ता का धर्म क्या है? लगभग आठ पंक्तियों में उत्तर दीजिए।

बोध प्रश्न 1
प) किसी राष्ट्र के हाल के राजनीतिक इतिहास में पाये जाने वाले नागरिक मूल्यों और परम्पराओं के प्रति आभासी धार्मिक सम्मान के भाव को नागरिक धर्म कहते हैं। इस सम्मान की प्रकृति, धार्मिक या अर्द्ध धार्मिक होती है और यह राष्ट्र की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं या महान राजनीतिक नेताओं के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए आयोजित समारोहों और अनुष्ठानों के रूप में व्यक्त होता है।

पप) राजनीतिक दर्शन से सम्बद्ध अपनी रचना ‘‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट‘‘ (1762) में सबसे पहले फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने, नागरिक धर्म की अवधारणा का प्रयोग किया था। उसने इस पुस्तक में एक अध्याय का यही शीर्षक रखा था। वह ‘पितृ‘ की अवधारणा से प्रभावित था। यह अवधारणा फ्रांसीसी दार्शनिकों द्वारा विकसित की गई थी जिनके अनुसार राजनीतिक राज्य अपने नागरिकों के प्रति पितृभाव रखता है। रूसो ने मनुष्य की धार्मिकता की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए नागरिक धर्म की अवधारणा विकसित की। उसका मानना था कि ईसाई धर्म इस आवश्यकता की सही ढंग से पूर्ति नहीं कर पा रहा है। अतः नागरिक धर्म में राजनीतिक नेता इस धर्म के घटकों का निर्धारण करेगा, सही उत्तर था । इन घटकों में सामाजिक संवेदनाओं का बड़ा महत्व होता है जिनके अभाव में एक व्यक्ति अच्छा नागरिक या निष्ठावान सेवक नहीं हो सकता।

पपप) सर्वोच्च सत्ता के धर्म ने खुद फ्रांसीसी क्रांति की आराधना की । फ्रांसीसी क्रांति जब अपने उत्कर्ष पर थी (1793-1794) तब नागरिक धर्म का उदय हुआ। एक महान फ्रांसीसी क्रांतिकारी रॉबेसपियेर ने इसकी शुरुआत की और सरकारी तौर पर यह सर्वोच्च सत्ता के धर्म के रूप में जाना जाने लगा। राजनीतिक राज्य खासकर क्रांतिकारी राज्य में इसका विश्वास था और इसी प्रकार के विश्वास और अनुष्ठान इससे जुड़े थे।