चीनी क्रांति कब हुई , कारण और प्रभाव क्या हुए | चीन की क्रान्ति 1949 , 1911 , चीन में गृहयुद्ध कब शुरू हुआ

चीन में गृहयुद्ध कब शुरू हुआ ? चीनी क्रांति कब हुई , कारण और प्रभाव क्या हुए | चीन की क्रान्ति 1949 , 1911 ? chinese revolution of 1911 in hindi

चीनी क्रांति एवं विचारधारा संरचना

उद्देश्य
प्रस्तावना
चीनी क्रांति की पृष्ठभूमि
सुधार आन्दोलन
प्रतिक्रांतिकारी युआन शिकाई
मई का आन्दोलन
1917 की रूसी क्रांति का प्रभाव
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सी.सी.पी.)
प्रथम क्रांतिकारी गृहयुद्ध: सुनयातसेन द्वारा सी.पी.सी. से सहयोग
30 मई का आन्दोलन
च्यांग काई शेक का उदय
उत्तरी अभियान
सी.पी.सी. के खिलाफ च्यांग काई शेक की कार्यवाही
दूसरा क्रांतिकारी गृहयुद्ध: कम्युनिस्ट (लाल) सेना की स्थापना
शरदकालीन फसल की कटाई के समय का विद्रोह
ग्रामीण क्रांतिकारी आधार
जापानी आक्रमण
च्यांगकाई शेक द्वारा कम्युनिस्टों पर हमला
लम्बी यात्रा अभियान
जापान विराधी संयुक्त मोर्चा
जापान के विरोधी कुओभिन्टांग मोर्चे की असफलता
सी.पी.सी. के जापान विरोधी आधार क्षेत्र
मुक्त किये गए क्षेत्रों की समस्याएँ
जापान पर विजय
सी.पी.सी. का सातवाँ सम्मेलन
तीसरा (अंतिम) क्रांतिकारी गृह-युद्ध: द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद का चीन
च्यांग काई शेक की पराजय
मुक्त किये गये क्षेत्रों में भूमि सुधार के कार्यक्रम
लोकतांत्रिक संयुक्त मोर्चे को विस्तारीकरण
मुख्य भूमि की मुक्ति
चीन में जनवादी गणतंत्र की स्थापना
चीनी दर्शन में भौतिकवादी रुझान
चीन में मार्क्सवाद की आगमन
माओ की विचारधारा की उत्पत्ति
माओ-त्से-तंग के विचार
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में उन परिस्थितियों के विषय में चर्चा की गई है, जिनके फलस्वरूप चीन में क्रांति हुई तथा उसके सैद्धान्तिक आधार का निर्माण हुआ। इस विषय की जानकारी प्राप्त कर लेने के उपरान्त आपको निम्नलिखित बातों की जानकारी होनी चाहिए:

ऽ चीन के आधुनिक इतिहास का पता लगाने में,
ऽ यह समझने में कि साम्राज्यवादी शक्तियों ने किस प्रकार से चीन का शोषण किया,
ऽ 19वीं सदी में चीन में किसानों द्वारा लगातार किये गये विद्रोहों पर चर्चा करने में
ऽ चीन की जनता को जागृत करने में सुधार आन्दोलनों द्वारा किये गये योगदान का मूल्यांकन करने में,
ऽ चीनी क्रांति में सुन-यात-सैन के योगदान का मूल्यांकन करने में,
ऽ चीने क्रांति के कारणों का विश्लेषण करने में,
ऽ क्रांतिकारी गृह-युद्ध से पूर्व की गई कार्यवाहियों को समझने में,
ऽ जापान के विरूद्ध अवरोधक युद्ध में चियांग-काई-शेक की भूमिका पर टिप्पणी करने में,
ऽ क्रांति के सैद्धान्तिक संदर्भ की जानकारी प्राप्त करने में,
ऽ क्रांति के काल में माओ-जीडांग की विचारधारा को समझने में।

प्रस्तावना
हिमालय पर्वत के उत्तर में स्थित विस्तृत क्षेत्र चीन कहलाता है। विश्व की सबसे पुरानी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले इस देश का करीब 3600 वर्षों का इतिहास संकलित है। ऐतिहासिक विकास के लम्बे काल में चीन की जनता ने एक महान संस्कृति का निर्माण किया था एवं मानव जाति के ज्ञान और संस्कृति के समस्त क्षेत्रों में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। इसके प्रगतिकाल में यहाँ की भूमि पर अनेकों राज्यवंशों का शासन रहा था जिनमें माँन्चू राज्यवंश अंतिम था। उन्नीसवीं सदी के मध्य काल से करीब 100 वर्षों के काल में इस देश को अनेकों विदेशी आक्रमणों, बार-बार होने वाली आन्तरिक आर्थिक समस्याओं, प्रायः होने वाले विद्रोहों, लगातार होने वाले सुधार आन्दोलनों एवं दीर्घकालिक क्रान्तिकारी गृहयुद्धों का सामना करना पड़ा था, जिसके फलस्वरूप चीन में जनवादी गणतंत्र की स्थापना हुई थी।

इस इकाई में हम सर्वप्रथम विदेशी आक्रमणों एवं इस विषय पर चर्चा करेंगे कि उन्होने चीन को किस प्रकार तबाह किया था एवं किस प्रकार वहाँ की जनता को क्रोध उन्मुक्त किया था। उसके बाद हम उन आन्दोलनों का अध्ययन करेंगे जिनके फलस्वरूप मंच, राज्यवंश का पतन हुआ था। उसके बाद हम राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक दलों की शक्ति का मूल्यांकन करेंगे। उसके बाद हम कम्युनिस्टों के उत्थान पर ध्यान केन्द्रित करके क्रांन्तिकारी गृहयुद्धों से पूर्व की गई कार्यवाहियों का पता लगायेंगे। शेष में हम उन सिद्धान्तों का विश्लेषण करेंगे जिनके कारण यहाँ की जनता को क्रान्तिकारी गृहयुद्धों में भाग लेने हेतु प्रोत्साहन प्राप्त हुआ था ।

चीनी क्रान्ति की पृष्ठभूमि
लियाओडोन्ग प्रायद्वीप के उत्तरी भाग में से जूरचिड मूल के एक छोटे से राष्ट्र मंचू ने पीकिन्ग पर अपना अधिकार करके सन् 1644 में चीन के सिंहासन पर मंचू राज्यवंश की स्थापना की थी।

मंचू शासन काल करीब 268, वर्ष तक चला। इस काल. में विज्ञान एवं संस्कृति के क्षेत्रों में बहुत महान उपलब्धियाँ हुई थी। मंचुओं की अधीनता में चीन में काफी लम्बे काल तक शान्ति रही एवं आर्थिक रूप में काफी सम्पन्नता प्राप्त हुई। फिर भी उन्नीसवीं सदी के आरंम्भिक काल में विदेशी शक्तियों के आगमन के बाद से समस्याएं उत्पन्न होनी शुरू हो गयी थी। बार-बार के विदेशी आक्रमणों के साथ ही कृषि सम्बन्धी आर्थिक व्यवस्था में गतिहीनता आ जाने के कारण दीर्घकालीन आर्थिक रूपी समस्याएं उत्पन्न हो गई थी। क्रमानुगत रूप से अंकुश शासकों द्वारा राज्य अधिकार प्राप्त करने, राजमहलों के षड्यंत्रों, एवं सुधार आन्दोलनों के प्रति एक धनी विधवा सिक्सी के नेतृत्व में रूढ़िवादी दलों द्वारा की गई प्रतिकूल गतिविधियों के कारण परिस्थितियां और अधिक खराब हो गई थी।

सन् 1840 में हुए अफीम युद्ध से चीन में विदेशियों द्वारा अंतः प्रवेश की शुरुआत हुई थी। चीन के सीमान्त प्रदेशों में अंग्रेजों द्वारा अवैध रूप के अफीम के व्यापार को काफी लम्बे काल से किये जाने के मुद्दे पर चीन एवं ब्रिटेन के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में चीन की पराजय हुई थी और सन् 1841 में चीन को एक अपमानजनक संधि पर हस्ताक्षर कर के अपने पाँच बन्दरगाह ब्रिटेन के लिये व्यापार हेतु खोलने पड़े थे एवं होगकांग को अंग्रेजों के अधिकार में देने के पश्चात् एक बहुत बड़ी धनराशि हरजाने के रूप में देनी पड़ी थी। अंग्रेजों की सफलता को देखकर अन्य विदेशी ताकतों ने भी अधिकार प्राप्त करने हेतु अभियान शुरू कर दिये। सन् 1844 में यू.एस.ए. एवं फ्रांस ने चीन को । इस प्रकार के लाभ देने हेतु बाध्य कर दिया, जिस प्रकार के लाभ ब्रिटेन को प्रदान किये गये थे। इसके पश्चात् चीन में अंतः प्रवेश की छीना-झपटी में रूस एवं जापान भी सम्मिलित हो गये। एक । या दो असमान रूप की संधियों पर हस्ताक्षर कर देने के पश्चात् भी विदेशी ताकतों की अनुचित माँगों को समापन नहीं हुआ। चीन की धन सम्पन्नता को हड़पने हेतु उनकी छीना-झपटी का अभियान निरन्तर रूप से चलता रहा जिससे कभी-कभी चीन एवं विदेशी ताकतों (अकेले या सबको मिलाकर) के साथ युद्ध होने लगे।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम काल में यू.एस.ए. न मुक्त व्यापार की नीति का सुझाव दिया था जिसे अन्य बड़ी ताकतों ने तुरन्त स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार खुली व्यापार नीति के संदर्भ में चीन, बड़ी ताकतों के प्रभाव में आकर विभाजित हो गया था।

ब्रिटेन एवं अन्य बड़ी ताकतों द्वारा चीन पर दबाव डालने के प्रति स्वरूप, चीन में अनेक आन्तरिक समस्याएं उत्पन्न हो गई थी। कृषि के क्षेत्र में गतिहीनता आ जाने के कारण एवं भूमि पर बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव के कारण किसानों का जीवनस्तर काफी नीचे गिर गया और उनके अन्दर दुखों के प्रति जागरुकता का और अधिक विकास हुआ। सन् 1846 से 1848 के काल में क्रमानुगत रूप में अपने वाली बाढ़ों एवं अकालों के कारण आर्थिक व्यवस्था और खराब हो गई, जिसके कारण प्रायरू छितरे रूप में स्थानीय उपद्रव होने शुरू हो गये। इन उपद्रवों ने मिलकर एक बहुत बड़े रूप के राष्ट्रीय विद्रोह का रूप धारण कर लिया था। जिसको इतिहास में टाईपिन्ग (महान क्रान्ति) विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह में सैनिकों के सशक्त जत्थों को विकसित किया गया, अनेक शहरों एवं कस्बों पर कब्जा कर लिया गया, अपनी स्वयं की सरकार की स्थापना की गई एवं सन् 1851 से देश के विशाल क्षेत्रों पर अपना शासन लागू कर दिया। विद्रोही ने विदेशियों एवं आन्तरिक शोषण करने वाले दलों दोनों पर हमले करना शुरू कर दिया। उन्होने स्वतंत्र होने की माँग की एवं राष्ट्रीय सम्पत्ति को आम जनता में वितरित करने का भी दावा किया।

उस समय शासन करने वाले मंचू राजा एवं विदेशी ताकतों के संयुक्त दलों ने मिलकर इस विद्रोह को कुचल दिया था। उनके नेताओं एवं समर्थकों के मध्य आन्तरिक रूप से तीव्र मतभेदों के कारण विद्रोहियों की सम्पन्नता में काफी गिरावट आ गई। फिर भी, टाईपिन्ग का आन्दोलन करीब एक दशक तक चलता रहा था और चीनी समाज में विद्रोही गतिविधियों हेतु उत्साह जागृत कर के अपनी छाप छोड़ गया था।

उन्नीसवीं सदी के आखिरी काल में चीन के अन्दर पश्चिम द्वारा हस्तक्षेप करने से देश के अनेक भागों में आधुनिक उद्योगों का विकास हुआ था। इसके फलस्वरूप एक छोटे से व्यापारी वर्ग एवं मजदर वर्ग का उदगमन हआ। इस वर्ग से, उदारवादी विचारों से प्रेरित होकर, एक बहुत बड़ी संख्या में सुधारकों के दल का विकास हुआ। उन्नीसवीं सदी का प्रतिभासम्पन्न समाज इन उदारवादी लोकतांत्रिक सिद्धान्तों से प्रभावित हुआ एवं पुरानी मृतप्रायरू आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में सुधार किये जाने की माँग करने लगा।

सुधार आन्दोलन
सुधारकों ने चीन को एक प्रभावशाली आधुनिक राज्य के रूप में परिवर्तित करने की मांग की। कुछ प्रतिभासम्पन्न नेताओं के एक वर्ग के प्रभाव के अन्तर्गत यहाँ के सम्राट ने अनेक प्रकार के सुधारों को। लागू करने की घोषणा की थी, जिनमें सरकारी व्यवस्था से लेकर विज्ञान के विकास इत्यादि से सम्बन्धित सभी विषय शामिल थे। सुधार आन्दोलन से रूढ़िवादी दल क्रोधित हो गये। एक धनी विधवा (डौवजर एम्प्रेस) जो इन दलों की अध्यक्ष थी, उसने इसके प्रतिकार स्वरूप सन् 1898 के सितम्बर माह में तख्ता पलटने का षड़यंत्र कर सम्राट को बन्दी बना लिया, सुधारों सम्बन्धी राज्य आज्ञाओं को रद्द कर दिया एवं सुधारकों को कारावास में बन्द करवा दिया। चूंकि सुधारों का काल केवल सौ दिनों का था, इसलिये इतिहास में इस आन्दोलन का सौ दिनों का सुधार आन्दोलन कहा जाता है।

सन् 1897-98 के सुधार आन्दोलन की विफलता, चीन में दमन करने वाली बड़ी ताकतों की ताकत एवं ईसाई पादरियों की ग्रामीण क्षेत्रों में धर्म परिवर्तन हेतु किये जाने वाली भूमिका ने चीनी जनता को क्रोध उन्मुक्त कर दिया। इस शताब्दी के अन्तिम क्षणों में यीहेटुआन आन्दोलन या बौक्स विद्रोह: के रूप में जनता का रोष भड़क उठा। कठोर दमन के बावजूद इस आन्दोलन ने शीघ्र ही राष्ट्र स्तर पर विदेशी विरोधी आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। इसके प्रतिस्वरूप विदेशी ताकतों ने गठबंधन कर के मंजू सेनाओं की सहायता से बौक्सर विद्रोह को कुचल दिया।

सन् 1901 में बौक्सर प्रोटोकेल नामक अपमानजनक संधि पर चीनियों को बाध्य होना पड़ा था। इस संधि पर हस्ताक्षर कर देने से मंचू सरकार का स्तर गिर कर सामाज्यवादियों के प्रतिनिधि (दलाल) के रूप में हो गया था। साम्राज्यवादियों द्वारा निरन्तर रूप से किये जाने वाले आक्रमणों एवं साम्राज्यवादियों से युद्ध करने हेतु मंचू राज्यवंश की उदासीनता ने मिल कर चीन में विद्रोह हेतु आदर्श परिस्थितियों का लाभ उठाया एवं विद्रोह की तैयारी करने हेतु अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। सन-यात-सैन (1866-1925) एक सिद्धान्तवादी एवं विद्रोही आन्दोलन के नेता के रूप में उभर कर आया। सन् 1894 में उस में चीनी पुनरुद्धार समाज की स्थापना की थी। उसके बाद क्रमानुगत रूप से उदारवादी लोकतांत्रिक सिद्धान्तों का प्रचार करने हेतु अनेक संगठनों का उद्गमन हुआ। इन संगठनों का मुख्य उद्देश्य मंचू राज्यवंश को उखाड़ फेंकना एवं एक लोकतांत्रीय व्यवस्था की सरकार को स्थापित करना था। सन-याल-सैन शीघ्र ही सब उदारवादियों का मिलन केन्द्र बन गया और सन् 1905 में उन सब ने मिलकर सुन-यात-सेन की अध्यक्षता में चीनी क्रान्तिकारी संघ की स्थापना की। इस संघ का उद्देश्य मंचू राज्यवंश को उखाड़ फेंकना, विदेशियों के चंगुल से चीन का पुनरुद्वार करवाना, गणतंत्र की स्थापना करना एवं भूमि पर समान स्वामित्व प्रदान करवाना था। संघ ने धीरे-धीरे अपनी संगठन सम्बन्धी गतिविधियों का विस्तार सारे चीन में कर लिया था एवं ष्पीपुल्स जनरलश्श् नामक अपने एक मुखपत्र की स्थापना की थी। इस पत्र के सर्वप्रथम सम्पादन में ही सुन-यात-सेन ने अपने मशहूर “जनता की तीन सिद्धान्तों’’ का विकास किया था – राष्ट्रवाद का नियम, लोकतंत्रवाद का नियम एवं जीवनयापन का नियम, जिनको मिलाकर बीसवीं सदी के प्रारंम्भिक दशकों में हुए चीन के विद्रोहों को सैद्धान्तिक रूपी मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ था। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु इसने अनेक सशस्त्र अभियानों का नेतृत्व किया था। प्रारंम्भिक स्तरों पर अनेकों प्रकार की रुकावटों एवं शासन करने वाले राज्यवंश द्वारा किये गये कठोर दमन के बावजूद संघ ने सन् 1911 में अनेक लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी। इन विजयों द्वारा प्रोत्साहित होकर अनेक प्रौन्त मंचू राज्यवंश के अधिकार से निकल गये। सन् 1911 के क्रिसमस सप्ताह में मुक्त किये गये प्रान्तों के नेतागण नानजिना में, एक अन्तरिम रूप की केन्द्रीय सरकार का गठन करने हेतु एकत्रित हुए। सुन-यात-सेन को नई सरकार का अध्यक्ष चुना गया था। सन् 1912 के नये वर्ष के अवसर पर शपथ ग्रहण करने के पश्चात डा. सुन-यात-सेनं ने चीन के लिये एक उदारवादी लोकतांत्रिक संविधान की घोषणा की थी।

मई का आन्दोलन
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में जर्मनी की करारी पराजय हुई थी। चीन समेत समस्त विजयी राज्यों द्वारा जनवरी सन् 1919 में पैरिस में एक शान्ति सम्मेलन का आयोजन किया गया था। चीन में विदेशी ताकतों के विशेष अधिकारों को समाप्त किये जाने की चीन की माँग को सम्मेलन द्वारा ठुकरा दिया गया था एवं जर्मनी को चीन में प्राप्त विशेष अधिकारों को स्थानान्तरित करके जापान को प्रदान कर दिया था। पैरिस सम्मेलन के इस निर्णय ने चीन की समस्त जनता को क्रोध उन्मुक्त कर दिया था। 4 मई सन् 1919 को हजारों की संख्या में चीनी विद्यार्थी थियानमान स्क्वायर में, इस शान्ति सम्मेलन के इस अन्यायपूर्ण निर्णय का विरोध करने हेत एकत्रित हुए। इस भीड़ ने चीन सरकार से वार्साय की संधि पर हस्ताक्षर करने को मना किया एवं उन चीनी नेताओं को उचित दण्ड प्रदान करने की माँग की, जिन्होंने जापान को समर्थन प्रदान किया था। सरकार ने दमन का सहारा लिया। अनेक विद्यार्थियों की हत्या कर दी गई एवं अनेकों को गिरफ्तार कर लिया गया। इन दमन कार्यवाहियों ने विद्यार्थी समुदाय के बाहर की जनता को क्रोधित कर दिया। इसके फलस्वरूप जो आन्दोलन मूल रूप से विद्यार्थियों का आन्दोलन था, उसने साम्राज्यवाद एवं चीनी युद्ध सामन्तों के विरुद्ध एक लोकतांत्रिक आन्दोलन को रूप ग्रहण कर लिया। इस आन्दोलन के दबाव के कारण चीनी सरकार पैरिस के शान्ति सम्मेलन से अलग हो गई एवं उसने वार्साय की संधि को. सहमति प्रदान । करने से इन्कार कर दिया। गिरफ्तार किये गये विद्यार्थियों को रिहा कर दिया गया। यह आन्दोलन, जो 4. मई के आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध है, वह चीनी समाज एवं वहाँ की संस्कृति पर अपनी गहरी छाप छोड़ गया है।

सन् 1917 की क्रांति का प्रभाव
नवम्बर सन् 1917 में लेनिन के नेतृत्व में बालेशविकों ने सत्ता पर अपना अधिकार करके यथार्थ रूप में क्रॉन्तिकारी समाजवादी सरकार की स्थापना की थी। नवम्बर सन् 1917 की क्रांति की सफलता से पूर्व चीनी विचारधारा एवं वहाँ की राजनीति पर मार्क्सवाद का प्रभाव प्रायः न के बराबर था। क्राँति के पश्चात् वहाँ के प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं के ऊपर मार्क्सवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टि गोचर होने लगा था। उन्होंने जनता को क्रांतिकारी सिद्धान्तों से लैस करने हेतु लेनिन के मार्क्सवाद का विस्तृत रूप से प्रचार करने का कार्यभार सम्भाला। अनेक पत्र प्रकाशि शुरू हो गये। उनमें से माओ जीड़ांग द्वारा सम्पादित “जियान्गियाँन्ग रिवियू’’ एवं जाऊ-एन-लाई द्वारा सम्पादित “बुलेटिन ऑफ द आईएन्जिन स्टुडेन्टस फेडरेशन’’ महत्वपूर्ण हैं। देश के विभिन्न भागों में मार्क्सवादी विचारधारा पर अध्ययन करने वाले दल दिखाई देने लगे। पीकिन्ग में मार्क्सवादी के प्रमुख नेता के रूप में चैन डकिसन उभर कर आया। पीकिन्ग में मार्क्सवाद पर अध्ययन के एक केन्द्र की स्थापना की गई। माओ-जीडोंन्ग (माओ-तसे-तुंग) एवं जाऊ-एन-लाई ने जान्गसाला एवं टाईएन्जिन में क्रमानुसार न्यू पीपुल स्टडी सोसाइटी एवं अवेकिनिन्ग सोसाइटी की स्थापना की। साम्यवादियों के घोषणा-पत्र एवं कार्ल मार्क्स के अनेकों अन्य कार्यों का चीनी भाषा में रूपान्तर किया गया। एक अन्य प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति, पियेन्ग पाई ने ग्रामीण क्षेत्रों में साम्यवाद का प्रचार करने हेतु किसानों को संगठित करने के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया।

 चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सी.सी.पी.)
रूस में हुई क्रॉन्ति एवं 4 मई के आन्दोनल की विजय और चीन में अभर कर आये मजदूर वर्ग ने मिल कर चीन में साम्यवादी दल के विकास हेतु अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी थी। सन् 1920 में अनेक दलों के प्रतिनिधि शन्घाई में एकत्र हुए थे एवं जुलाई सन् 1921 में उन्होंने साम्यवादी दल का गठन किया था। चीन के साम्यवादियों का यह प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन था। शन्घाई में तैयार किये गये, दल के प्रथम संविधान में एक चुनी गई केन्द्रीय समिति का प्रावधान था। चैन डकसिन को दल के महासचिव के रूप में चुना गया। दल का दूसरा सम्मेलन जुलाई सन् 1922 में हुआ था जिसमें दल के कार्यक्रम को निर्धारित करके यह निर्णय लिया गया था कि दल का मुख्य प्रकार्य नागरिकों के मतभेदों का उन्मूलन करना, युद्ध सामन्तों को उखाड़ फेंकना एवं घरेलू शान्ति की स्थापना करना है, अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के दमनचक्र को समाप्त करके चीनी राष्ट्र को पूर्णरूप से स्वतंत्र बनाना है, एवं चीन को एक जुट बना कर सही माने में लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना करना है। इस सम्मेलन में नेतागणों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साम्यवाद की सदस्यता प्राप्त व हेतु आवेदन करने के भी आदेश दिये गये थे।

स्थापना के तुरन्त बाद से ही दल ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति ट्रेड यूनियनों के संगठन हेतु लगा दी थी। मजदूर वर्गों के आन्दोलनों का संचालन करने हेतु केन्द्र के रूप में चीनी ट्रेड यूनियन सचिवालय का गठन किया गया था। साम्यवादियों के नेतृत्व में सन् 1922 एवं 1923 के काल में मजदूरों ने अनेक बार हड़तालें की थी। हालाँकि वहाँ की सरकार ने इसका तीव्र विरोध किया एवं आन्दोलन को कुचल दिया। इससे यह आन्दोनल कुछ समय के लिये ढीला पड़ गया था।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) नीचे दिये गये स्थान को अपने उत्तर हेतु उपयोग कीजिये।
2) इस इकाई के अन्त में दिये गये उत्तर के साथ अपने उत्तर की जाँच-पड़ताल कीजिये।
1) वे क्या परिस्थितियाँ थी, जिनके कारण चीन के सम्यवादी दल का उद्गमन हुआ था?

बोध प्रश्न 1
1) औद्योगीकरण किये जाने के कारण मजदूर वर्ग का उद्गमन। 4 मई के आन्दोलन ने राजनीति में सुधार किया था। सन् 1917 की रूस की कॉन्ति ।

प्रथम क्रॉन्तिकारी गृहयुद्ध: सुन-यात-सैन द्वारा सी.पी.सी. से सहयोग
सन् 1911 की क्रांति की असफलता ने सुन-यात-सैन को, न्यासंगत कारणों से दृड़तापूर्वक लड़ने वाला व्यक्ति बना दिया था। सुन-यात-सैन, चीन एवं रूस के साम्यवादी नेतागणों का बहुत बड़ा प्रशंसक था। रूस की सलाह से उसने अपने दल का नाम बदल कर कुआमिन्टाँग रख दिया था एवं ‘‘लोकतंत्रवाद और राष्ट्रवादिता के सिद्धान्तों से अन्तरूशोषित विचारों के आधार पर एक अखंडित दल के रूप में उसका पुनर्गठन किया था। उसने साम्यवादियों के लिये अपने दल के दरवाजे खोल दिये थे। कुओमिन्टाँग शीघ्र ही मजदूरों, किसानों एवं अन्य प्रगतिशील और साम्राज्यवाद विरोधी चीनी जनता के वर्गों के एक लोकतांत्रिक संगठन के रूप में उभर कर आया।

जून सन् 1923 में चीन के साम्यवादी दल का तीसरा सम्मेलन हुआ था जिसमें कुआमिन्टाँग को सहयोग प्रदान करने एवं उसके साथ संगठन करने की नीति को समर्थन प्रदान किया गया था। कुआमिन्टाँग ने अपने प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन जनवरी सन् 1924 में किया था। इस सम्मेलन में साम्यवादियों को व्यक्तिगत रूप से दल के सदस्यों के रूप में सम्मिलित किये जाने को भी समर्थन प्रदान किया गया था। अब कुओमिन्टाँग की मुख्य नीतियाँ ‘‘रूस समर्थक, साम्यवादी दल समर्थन एवं किसानों ओर मजदूरों को सहायता प्रदान करने वाली’’ बन गई थी। रूस एवं चीनी साम्यवादी दल की सहायता से सुन-यात-सैन ने मई सन् 1924 में कुआमिन्टांग में हुआनाए सैनिक अकादमी की स्थापना की। इस अकादमी के राजनीतिक विभाग के संचालक के रूप में जाऊ-एन-लाई की नियुक्ति की गई और कुछ अन्य साम्यवादियों को निर्देशकों के रूप में सम्मिलित किया गया। चियांग-काई-शेक को इस अकादमी का संचालक बनाया गया। सुन-यात-सैन चीनी क्राँति का अग्रदूत बनाया गया था। रोग अवस्था में भी, उसने युद्ध सामन्तों को उन्मूलन करने एवं विदेशी ताकतों के साथ की गई असमान संन्धियों को समाप्त करने हेतु कार्यक्रम तैयार किया था। सन् 1925 के प्रारंम्भिक काल में सुन-यात-सैन का निधन हो गया था।

अपनी वसीयत में, उसने इस बात पर ध्यान दिलाया था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु एवं अन्य राष्ट्रों के साथ चीन को समानता दिलवाने हेतु ‘‘हमको अपनी जनता को पूर्ण रूप से जागृत करने की आवश्यकता है एवं विश्व के उन व्यक्तियों, के साथ एकजुट होकर इस संघर्ष में सम्मिलित होने की आवश्यकता है, जो चीन के साथ बराबरी के आधार पर व्यवहार करते हैं’’।

30 मई का आन्दोलन
कुआमिटांग के साथ गठन के पश्चात्, ट्रेड यूनियन आन्दोलन एवं किसानों के आन्दोलन ने साम्यवादी नेतृत्व के अधीन काफी प्रगति की। सन् 1925 में विदेशियों (जापान, ब्रिटेन इत्यादि) के स्वामित्व वाले कारखानों एवं कार्यस्थलों में हड़तालें हुई थी। हड़ताली मजदूरों को समर्थन प्रदान करने हेतु विद्यार्थीगण एवं अन्य जनता खुल कर सड़कों पर आ गये थे। व्यक्तियों को आतंकित करने के लिये ब्रिटिश पुलिस ने अनेक स्थानों पर गोली चलाई। पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने से 30 मई को हड़तालियों में से 11 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। इसके बाद से इस दिन को “पुलिस की गोली चलाये जाने से 11 हड़तालियों की मृत्यु वाले 30 मई के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद से इस दिवस को 30 मई के हत्याकान्ड के रूप में याद किया जाता है’’। विदेशी पुलिस के हस्तक्षेप ने इस आन्दोलन को ट्रेड यूनियन के आन्दोलन की जगह साम्राज्यवाद विरोधी राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप प्रदान कर दिया । था। इससे साम्यवादियों को विभिन्न स्थानों में अपने समर्थन के आधारों को संगठित करने में सहायता प्राप्त हुई थी। इस संगठन कार्य ने उत्तरी अभियान चालू करने की पृष्ठ-भूमि तैयार कर दी थी। इस काल में किसानों के आन्दोलन ने भी काफी प्रगति की थी। सी.पी.सी के नेतृत्व में चीन के अपने । भागों में किसान संगठनों का निर्माण किया गया। किसान संगठनों के सदस्यों की कुल संख्या दस लाख से ऊपर पहुँच गई अकेले गुआँगडोन्ग की. किसान सभा के सदस्यों की संख्या करीब 6,20,000 थी। गुआँगडोन्ग की सभा में एक आत्मरक्षक दस्ता भी था, जिसमें करीब 30,000 सैनिक थे। गुआँगडोना का शीघ्र ही एक सशस्त्र साम्यवादी आधार के रूप में उदय हुआ था।

साम्यवादियों ने शीघ्र ही गुआँगडोन्ग (कैन्टन) प्रान्त के युद्ध सामन्तों का सफाया कर दिया एवं सारे प्रान्त का एकीकरण करके, उसे राष्ट्रीय सरकार के अधीन कर लिया, जिसकी स्थापना 1 जुलाई सन् 1925 को गुआन्गजाऊ में की जा चुकी थी। हुआँगपू सैनिक अकादमी के विद्यार्थी सैनिकों की सहायता से राष्ट्रीय सरकार के सैनिक दस्तों का विकास किया। जाऊ-एन-लाई को सैना के राजनीतिक विभाग का संचालक नियुक्त किया गया। सेना की प्रत्येक इकाई में एक दल के प्रतिनिधि एवं राजनीतिक विभाग की व्यवस्था की गई। प्रत्येक सैनिक इकाई के राजनीतिक कार्य का संचालन करने हेतु दल के व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी।

 जापान विरोधी संयुक्त मोर्चा
सन् 1935 में जापान ने उत्तरी चीन एवं जापानी उपनिवेश के रूप में बदलने की नीति को सूत्रित किया था। जापान को ‘‘उत्तरी चीन को बेचे जाने की ‘‘कुआमीन्टाँन्ग की नीति के विरोध में पीकिन्ग के विद्यार्थीगण विद्रोह के लिये उठ खड़े हुए। सी.पी.सी के नेतृत्व वाले विद्यार्थियों ने अन्य मांगों के साथ-साथ साम्यवादियों के साथ तुरन्त युद्ध विराम किये जाने एवं विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध सम्पूर्ण एकता की माँग की। हजारों की संख्या में विद्यार्थियों ने प्रदर्शन किये एवं अपनी मांगों के समर्थन हेतु जनमत संगठित करने के लिये कारखानों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में गये। सी.पी.सी. ने भी महसूस करके यह निष्कर्ष निकाला कि इस समय. का चीनी राष्ट्र एवं जापानी साम्राज्यवाद के मध्य का विरोध भी प्रमुख विरोध था। इसलिये, इसने ऐसी सब शक्तियों के साथ एकजुट हो जाने का फैसला किया, जिनको एकजुट किया जा सकता था और जापानी आक्रमण के विरुद्ध एक राष्ट्रीय स्तर के संयुक्त मोर्चे की नीति को अपनाया।

जापानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध यह आन्दोलन चीन के अनेक भागों में जंगल की आग की तरह फैल गया। यहाँ तक कि कुआमिन्टॉन्ग की सेना के अन्तर्गत भी विरोधाभास होना शुरू हो गया। उत्तर-पूर्व एवं उत्तर-पश्चिम के क्षेत्रों में जिन सैनिक दलों को साम्यवादियों से लड़ने के लिये भेजा गया था, उन्होंने उनपर गोली चलाने से इन्कार कर दिया। चियाँन्ग-काई-शेक को साम्यवादियों के विरुद्ध सेना की बागडोर सम्भालने के लिये स्वयं जियान आना पड़ा। परन्तु 12 दिसम्बर 1936 को विद्रोह कर रही सेना ने उसको गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद सेना के सेनापतियों ने सारे चीन में समाचार भेजकर गृह-युद्ध समाप्त करने एवं जापान के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु सी.पी.सी के साथ संधि करने का निवेदन किया। इसी बीच सत्ता हथियाने की अपनी आकाँक्षा की पूर्ति करने हेतु ही यिगिन ने जापान से सहायता माँगी और सी.पी.सी. के विरुद्ध गृह-युद्ध जारी रखने का निश्चय किया। जियान के पूर्व में स्थित टोन्गआन पर हमला करने के लिये उसने अपने दलों को भेजा। इसी समय सी.पी.सी. ने चियाँग काई शेक के पास शान्ति बनाये रखने का प्रस्ताव भेजा था।

जापान ने जुलाई सन् 1937 में लगाऊगियाओ पर आक्रमण किया था। इस हमले को पराभूत कर दिया गया था परन्तु इस आक्रमण से चीन द्वारा जापान के विरुद्ध प्रतिरोधक युद्ध कि शुरुआत हो गई थी। सी.पी.सी. ने जनता से इस प्रतिरोधक युद्ध में सम्मिलित होने हेतु आग्रह किया। दल ने जाऊ-एवं-लाई को चियाँन्ग-काई-शेक, से बात करने के लिये भी भेजा, जो अभी भी जापान के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने में हिचकिचा रहा था। जापानी दलों ने शंघाई पर हमला कर दिया एवं नानजिंग के लिये खतरा उत्पन्न कर दिया। चियाँन्ग-काई-शेक ने भी अब अस्थिरता महसूस करना शुरू कर दिया था। पश्चिमी ताकतों ने भी खतरा महसूस करना शुरू कर दिया था। चियाँन्ग-काई-शेक की. कुओमिन्टाँना सरकार ने अब औपचारिक रूप से जापान के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने का निर्णय किया एवं संयुक्त रूप से प्रतिरोध करने हेतु सी.पी.सी. के साथ एक समझौते पर हस्तक्षर किये। समझौते की शर्तों के अनुसार किसान सेना का नाम बदल कर राष्ट्रीय क्रान्तिकारी सेना की आठवें मार्ग की। सेना रखा जाना था। उसके बाद छापामार दलों का पुनर्गठन करके उसे यी टिंग के सेनापतित्व के अधीन नई चैथी सेना का रूप दिया गया। कुओमिन्टाँन्ग द्वारा सी.पी.सी. को वैधानिक स्तर प्रदान किया गया एवं कुओमिन्टाँग एवं साम्यवादियों के मध्य सहयोग करने हेतु वचन-बद्धता की घोषणा की गई। इस प्रकार जापान विरोधी राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का औपचारिक रूप से अस्तित्व हुआ एवं सी.पी. सी. को अपने कार्यक्रम चलाने हेतु वैधता प्रदान हुई।

 जापान के विरुद्ध कुओमिन्टॉग मोर्चे की असफलता
कुओमिन्टाँग, शायद जापान का प्रतिरोध नहीं करना चाहता था। ऐसा प्रतीत होता था कि परिस्थितियों-वश उसको इस प्रतिरोध में शामिल होने के लिये बाध्य होना पड़ा था। इसके अन्दर अभी भी साम्यवादियों का भय व्याप्त था। जनता को एकत्रित करने में कुओमिन्टाँग को भय था कि कहीं साम्यवादी और अधिक लोकप्रिय न हो जाएं। जापान के आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिये इसने अपनी सम्पूर्ण सैनिक शक्ति का भी गठन नहीं किया था। अपनी शक्ति को बनाये रखने के लिये इसने दक्षिण पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम चीन में सेना की बड़ी टुकड़ियाँ भेजी थी। कुओमिन्टाँग की शायद यह इच्छा थी कि साम्यवादी संघर्ष करें एवं प्रक्रिया में उनका संहार हो जाय। परन्तु जो कुछ घटित हुआ, वह सर्वथा विपरित था। सन् 1937-38 में हुए सारे मुकाबलों में जापान द्वारा कुओमिन्टाँग के दलों को परास्त किया गया था। मार्च सन् 1938 तक जापान ने पीकिंग, टियान्जन, शंघाई, गुआँन्गजाऊ, बुहान एवं सारे उत्तरी चीन पर अपना अधिकार कर लिया था। कुओमिन्टाँग सरकार को बाध्य हो कर अपनी राजधानी का स्थानान्तरण सिचुआन प्रान्त के चैन्गिग शहर में करना पड़ा था। जापानी आक्रमणकारियों द्वारा चीन की बहुत भारी क्षति हुई थी। शहरों एवं कस्बों को बर्बाद कर दिया गया था, लाखों की संख्या में व्यक्तियों की हत्या कर दी गई थी एवं मकानों और व्यापार केन्द्रों को लूट कर जला दिया गया था। एक धारणा के अनुसार अकेले नानजिंग में करीब 30,000 व्यक्ति मारे गये थे और 1/3 मकानों को लूट कर जला दिया गया था।

सी.पी.सी. के जापान विरोधी आधार क्षेत्र
कुओमिन्टाँग की बार-बार की पराजयों से भी सी.पी.सी. द्वारा प्रतिरोधी युद्ध के लिये जनता को संगठित करने के कार्य में कमी नहीं आई थी। सी.पी.सी. के नेतृत्व में आठवें मार्ग की सेना हुआँन्गहू नदी पार कर के उत्तरी चीन के मोर्चे पर पहुँच गई। सी.पी.सी. के नेतृत्व में जापान के विरुद्ध चीनियों को पहली विजय सितम्बर सन् 1938 में प्राप्त हुई थी। इस विजय द्वारा सारे चीन में व्यक्तियों का मनोबल बढ़ गया था। इस विजय के पश्चात् छापामार युद्ध संघर्ष करने वाली आठवीं मार्ग की सेना ने उत्तरी चीन की जापान अधिकृत अनेक क्षेत्रों में जापान विरोधी आधार क्षेत्रों की स्थापना की। दक्षिण चीन में भी नई चैथी सेना द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में अपने आधार क्षेत्रों को स्थापित किया गया था। सन् 1938 के अन्तिम काल में उत्तर से आठवें मार्ग की सेना एवं दक्षिण से नई चैथी सेना ने चीन में स्थित करीब आधे जापानी सैनिक दलों को अपने जाल में फंसा लिया था। इस जापान विरोधी आधार क्षेत्रों में सी.पी.सी. ने असैनिक सरकारों को स्थापित किया था, जो लोकप्रिय माँगों पर गम्भीरता-पूर्वक विचार करती थी एवं किराये और सूद को कम करने जैसे सुधारों को लागू करती थी। इन सुधार-कार्यों द्वारा सी.पी.सी. की लोकप्रियता बढ़ी थी एवं जनता जापान के विरुद्ध प्रतिरोधक युद्ध में शामिल होने हेतु प्रेरित हुई थी। यानान, जहाँ पर सी.पी.सी. का मुख्यालय स्थित था, सारे देश में जापान विरोधी युद्ध के तंत्रिका केन्द्र के रूप में उभर कर आया था। सीधे एवं तेजी से लड़े जाने वाले युद्ध में अपने से अधिक श्रेष्ठ जापानी सैनिक दलों को पराजित करना बहुत

कठिन था। इस तथ्य को महसूस करते हुए सी.पी.सी. ने दीर्घकालिक छापामार युद्ध की नीति को अपनाया था। मई सन् 1938 में “दीर्घ कालिक युद्ध पर’’ नामक पुस्तिका में माओ ने बलपूर्वक कहा था कि चीन यदि इस युद्ध को दीर्घकाल तक चला कर इसे जनता के युद्ध का स्वरूप प्रदान करने की स्थिति में होगा तो अवश्य ही इस युद्ध में विजयी होगा। उसने लिखा था कि ‘‘सेना एवं जनता विजय की पृष्ठभूमि होते हैं’’ और ‘‘युद्ध लड़ने हेतु सबसे अच्छे साधन जन समूहों में पाये जाते हैं’’।

चीन के अन्तर्गत लाल श्आधार क्षेत्रों के विकास एवं दूसरे विश्व युद्ध के शुरू हो जाने से जापान ने ‘‘स्टिक एवं कैरट’’ की नई नीति को अपनाया। इस नीति को अपनाकर जापान ने कुओमिन्टाँग के एक गुट को अपने साथ मिला लिया, जिसने जापान के समर्थन द्वारा बाँन्ग जिन्गवाल की अध्यक्षता में नानजिंग में अपना शासन स्थापित किया था। चियाँन्ग-काई-शेक का गुट, हालाँकि एन्गलो-अमरीकन गुट के साथ था परन्तु जापान की अपेक्षा साम्यवादियों के साथ संघर्ष को अधिक महत्व प्रदान करता था। सन् 1939 से सन् 1943 के काल में चियाँन्ग-काई-शेक ने साम्यवादियों के ऊपर तीन बार हमला किया था। सी.पी.सी. ने इन सब हमलों को विफल कर दिया था। संयुक्त मोर्चे के प्रति. इसका रवैया एकता एवं संघर्ष करने का था। युद्धों को लड़ते समय इसने आत्म-रक्षा की नीति को अपनाया था: “जब तक हमारे ऊपर आक्रमण नहीं होगा तब तक हम आक्रमण नहीं करेंगे-यदि हमारे ऊपर आक्रमण किया गया तो हम निश्चित रूप से प्रति-आक्रमण करेंगे।’’

मुक्त किये गये क्षेत्रों की समस्याएँ
सन् 1941-42 के काल में जापान ने अपने अधिकतर सैनिक दलों को चीन में केन्द्रित कर रखा था। अपनी चीनी समर्थकों के साथ मिल कर जापानी सैनिक दलों ने लाल आधार क्षेत्रों के विरुद्ध “मौपिन्ग अप आपरेशन’’ चलाया था। इस समय पर चियाँन्ग-काई-शेक के नेतृत्व वाले कुओमिन्टाँग सैनिक दलों ने भी साम्यवादियों के विरुद्ध अपने हमलों के अभियान को तेज कर दिया था। इन हमलों द्वारा उत्पन्न हुई समस्याओं में उत्तर चीन में पड़े लगातार सूखे की स्थिति से और अधिक वृद्धि हो गई थी। कठिनाइयों का सामना कर उन पर विजय प्राप्त करने के लिये नेताओं सहित समस्त दल को संगठित किया गया। उन्होंने जीवन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु उत्पादन बढ़ाने में अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी थी। असाधारण रूप से कड़ी मेहनत किये जाने के पश्चात् मूल आवश्यकताओं की समस्या करीब-करीब सुलझा ली गई थी। इसी समय किसी प्रकार की विसामान्यता के विरुद्ध दल ने अन्तर दलीय सैद्धान्तिक संघर्ष छेड़ दिया था। दल के सदस्यों को मार्क्सवाद एवं लेनिनवाद का शिक्षण प्रदान करने हेतु कक्षाओं को खोला गया। दल को तीन शाखावादी संघर्ष में लगा देने से (साम्यवाद विरोधी दलों के साथ संघर्ष, सामानों को उत्पादन बढ़ाने का संघर्ष, एवं अन्तर-दलीय संघर्ष) लाल आधार क्षेत्रों की समस्याएँ सन् 1943 के प्रारंम्भ होने तक सुलझ गई थी।

जापान पर विजय
सन् 1944 में साम्यवादी नेतृत्व वाले मुक्त किये क्षेत्रों ने जापान के विरुद्ध जवाबी हमले करना शुरू कर दिए थे एवं काफी महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की थी। सन् 1945 के प्रारंम्भिक काल में और अधिक क्षेत्रों को मुक्त करवा लिया गया था एवं जनता के सैनिक दलों की संख्या में असाधारण रूप से वृद्धि हुई थी। एक धारणा के अनुसार, उस समय स्थायी सैनिकों की संख्या 9 लाख से भी अधिक थी एवं 20 लाख से अधिक व्यक्ति अस्थायी रूप के सैनिक थे। जापान के सैनिक दल ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर भाग खड़े हुए एवं मुक्त किये गये क्षेत्रों से घिरे हुए बड़े शहरों में उन्होने पनाह ली थी। जब दूसरा विश्व युद्ध शीघ्र ही समाप्त होने का था, तो चीन के उत्तर पूर्वी प्रान्तों में जापानी आक्रमणकारियों पर रूस ने हमला किया था जिससे जापान के ऊपर एक बड़े पैमाने पर हमला करने हेतु साम्यवादियों को और अधिक सहायता एवं प्रोत्साहन प्रदान हुआ था। इस समय तक जापान युद्ध हार चुका था और 2 सितम्बर सन् 1945 को उसने आत्म समर्पण की संधि पर हस्ताक्षर कर दिये थे। अन्त में, करीब आठ वर्ष तक कठिन संघर्ष करने के पश्चात चीन को जापान विरोधी युद्ध में विजय प्राप्त हुई थी।

सी.पी.सी. का सातवाँ सम्मेलन
सी.पी.सी. के सातवें सम्मेलन का आयोजन ऐसे समय पर किया गया था जब कुछ ही दिनों में जापान

का आयोजन यानान में 23 अप्रैल से 23 जून सन् 1945 तक हुआ। सारे देश में फैले हुए दल के सदस्यों की संख्या बढ़ कर बारह लाख से भी अधिक हो गई थी। सदस्यों द्वारा नियमित रूप से चुने गये 752 प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में भाग लिया था। इस सम्मेलन में जापानी आक्रमणकारियों को पराजित करने हेतु जनता का संगठन करने एवं एक नये चीन का निर्माण करने का निर्णय लिया गया था। एक नया संविधान तैयार किया गया था और माओ जीडांग की अध्यक्षता में एक नई केन्द्रीय समिति चुनी गई थी।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिये गये स्थान को उपयोग अपना उत्तर देने हेतु कीजिए।
2) अपने उत्तरों को इकाई के अंत में दिए उत्तरों से मिला लीजिए।
1) वे क्या परिस्थितियाँ थी जिनके कारण जापान विरोधी संयुक्त मोर्चे का गठन किया गया था?

बोध प्रश्न 2 उत्तर 
1) प्रायः किये जाने वाले जापानी आक्रमणों एवं दमन ने सारे चीन में जापान विरोधी भावना उत्पन्न कर दी थी। जापान विरोधी संयुक्त मोर्चे का विकास करने के लिये सी.पी.सी. ने जापान विरोधी भावनाओं का लाभ उठाया था।
2) अ) शरद-कालीन फसल की कटाई के समय का युद्ध, सितम्बर 1927 कुआमिन्टाँग के सैनिक दलों के विरुद्ध लड़ा गया था। इस युद्ध में हुए अनुभवों द्वारा माओ-जी-डोग को ग्रामीण आधार क्षेत्रों को विकसित करने की अपनी अभिधारणा प्रस्तुत करने की प्रेरणा प्राप्त हुई थी।
ब) चियाँन्ग-काई-शेक द्वारा किये जाने वाले बार-बार के आक्रमणों ने सन् 1934.35 में, सी. पी.सी. एवं उसकी सेना को दक्षिण से उत्तर तक के 12500 कि.मी. लम्बी यात्रा करने हेतु विवश कर दिया था।

तीसरा (अन्तिम) क्रांतिकारी गृहयुद्ध: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का चीन
जापान के ऊपर विजय प्राप्त कर लेने के पश्चात् यह आशा की जाती थी कि चीन एक स्वतंत्र, लोकाताँत्रिक एवं आत्मनिर्भर देश बन जायेगा। परन्तु चीन का विकास करने हेतु किसी प्रकार के सुधार कार्यक्रमों को लागू किये बिना चियाँन्ग-काई-शेख सत्ता में बना रहना चाहता था। चीन, अभी भी एक अर्ध-सामन्ती एवं अर्ध-उपनिवेशी राज्य था। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् यू.एस.ए. का उद्गमन एक नवीन-उपनिवेशिक सत्ता के रूप में हुआ था। यू.एस.ए. की इच्छा चीन को एक यू.एस. समर्थक राज्य बनाने की थी, एवं चियाँग-काई-शेक पहले से ही यू.एस.ए. का विश्वास प्राप्त मित्र बन चुका था। परन्तु जापानियों के साथ लड़ते समय सी.पी.सी. द्वारा अनेक विशाल क्षेत्रों को मुक्त करा लिया गया था एवं एक विशाल सेना और जन समूहों के समर्थन से इन क्षेत्रों में जनता की सरकार स्थापित कर दी गयी थी। चियाँन्ग-काई-शेक चीन का अपरिवर्तनीय नेता बना रहना चाहता था। फिर भी, चियाँन्ग-काई-शेक यह समझ गया था कि साम्यवादियों का तुरन्त खात्मा करना उसके बस में नहीं था। इसलिए उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने हेतु सी.पी.सी. के साथ स्वयं शान्ति प्रस्ताव प्रस्तुत किया। शान्ति वार्ता 28 अगस्त सन् 1945 को शुरू हुई एवं करीब डेढ़ माह तक चलती रही। ‘‘डबल टैन्थ एग्रीमेन्ट’’ पर हस्तक्षर करने के साथ यह वार्ता समाप्त हुई थी, जिसमें यह घोषणा की गई थी कि “गृह युद्ध को हर हालत में बचाया जाना आवश्यक है एवं एक स्वतंत्र, मुक्त सम्पन्न एवं सक्षम रूप के नये चीन का निर्माण किया जाना चाहिये’’। शन्ति वार्ता द्वारा प्रदान किये गये समय ने कुओमिन्टाँग को अपनी शक्ति जुटाने में सहायता प्रदान की। अब, चियाँन्ग-काई-शेक ने, शान्ति समझौते पर कोई अमल किये बिना एक विशाल सेना द्वारा मुक्त किये क्षेत्रों पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। सी.पी.सी को कुओमिन्टाँग पर बहुत कम विश्वास था। यह स्वयं को, किसी भी प्रकार की संभाव्य टना के लिये, सदैव तत्पर बनाये रखती थी। इसकी सेना ने जवाबी हमला कर के चियाँन्ग-काई-शेक की सैना को भारी क्षति पहुँचाई। दस जनवरी सन् 1946 को चियाँनग-काई-शेक ने सी.पी.सी. के साथ फिर से एक युद्ध विराम के समझौते पर हस्ताक्षर किये परन्तु यह समझौता, चियाँन्ग-काई-शेक की सेना को मुक्त किये क्षेत्रों पर निरन्तर रूप से आक्रमण करने से रोकने में असमर्थ रहा था। मुक्त किये गये क्षेत्रों पर समय-समय पर काफी बड़े पैमाने पर हमले होते रहे थे। इस काल में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना हुई थी। सी.पी.सी. एवं अन्य लोकतांत्रिक दलों के तत्वावधान में चागिंग में एक राजनीतिक परामर्शात्मक सम्मेलन का आयोजन किया गया था। कुओमिन्टाँग के भेदियों ने सम्मेलन में भाग लेने आये हुए प्रतिनिधियों पर आक्रमण किया एवं कुछ लोकतांत्रिक नेताओं की हत्या भी कर दी। इन घटनाओं के बाद कुओमिन्टाँग की छटवीं केन्द्रीय संचालन समिति के दूसरे परिपूर्ण सत्र में चियाँग-काई-शेक ने, राजनीतिक परामर्शात्मक सम्मेलन में लिये गये निर्णयों को मानने से इन्कार कर दिया एवं सम्मेलन में पारित किये गये प्रस्तावों को फाड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। जून सन् 1946 में चियाँनग-काई-शेक ने एक पक्षीय रूप से युद्ध विराम के समझौते को भंग कर दिया एवं साम्यवादियों के विरुद्ध पूर्ण युद्ध की घोषणा कर दी।

26 जून सन् 1946 को कुओमिन्टाँग के सैनिक दलों ने मुक्त किये क्षेत्रों के सब मोर्चों पर आक्रमण करने हेतु चढ़ाई कर दी और इस प्रकार सी.पी.सी. के सैनिक दलों और कुओमिन्टाँग के मध्य सम्पूर्ण स्तर का युद्ध छिड़ गया।

मुक्त किये गये क्षेत्रों में भूमि सुधार के कार्यक्रम
सी.पी.सी. के नेतृत्व वाली सरकारों ने जापान विरोधी युद्ध के काल में, मुक्त किये गये क्षेत्रों में, किराया एवं सूद कम कर दिया था। मई सन् 1946 में सी.पी.सी. ने एक बोधशील भूमि सुधार नीति को सूत्रित किया एवं यथासम्भव शीघ्रतापूर्वक उसे लागू कर दिया। सितम्बर सन् 1947 में दल ने ‘‘चीन के ग्रामीण कानून की एक रूपरेखा’’ प्रकाशित की थी। इस कानून में भू-स्वामियों की भूमि को जब्त करके किसानों के मध्य वितरित करने की परिकल्पना की गई थी। इस कानून के अन्तर्गत यह निर्दिष्ट किया गया था कि भू-स्वामित्व का उन्मूलन किया जायेगा। ‘‘जमीन जोतने वाले कीश्श् के नारे को इस कानून में सम्मिलित किया गया था। भमि के ऊपर भ-स्वामियों के सारे अधिकरों का उन्मूलन कर दिया गया था एवं सामन्ती भू-स्वामियों की भूमि को जब्त करके, उसको ग्रामीण जनसंख्या के मध्य समान रूप से वितरित कर दिया गया था। भूमि सुधारों के कार्यक्रमों द्वारा, मुक्त किये गये क्षेत्रों के करीब एक करोड़ किसानों को भूमि प्राप्त हुई थी। ये किसान, अब पी.एल.ए. के लिये भर्ती के केन्द्र बन गये थे। इस प्रकार सी.पी.सी. ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपने समर्थन आधार को . और सशक्त कर लिया था।

लोकतांत्रिक संयुक्त मोर्चे का विस्तारीकरण
अक्टूबर सन् 1947 में पी.एल.ए. के सहयोग से सी.पी.सी. ने जनता से “चियाँन्ग-काई-शेक की सरकार का तख्ता पलटने एवं चीन को मुक्त करवाने’’ का आवाह्न किया था। सी.पी.सी. ने यह नारा लगाया था कि “मजदूरों, किसानों, सैनिकों, प्रतिभा सम्पन्न, समस्त शेषित वर्गों, जनता के समस्त संगठनों, लोकतांत्रिक दलों, अल्पसंख्यक-राष्ट्रवादियों, विदेशों में रहने वाले चीनियों एवं अन्य देश-प्रेमियों को एक सूत्रित करके राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का गठन कीजिये: निरंकुशतावादी चियाँन्ग-काई-शेक सरकार का तख्ता पलट दीजिये रू एवं एक मिली-जुली लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना कीजिये। दिसम्बर माह में सी.पी.सी. ने अपनी आर्थिक नीति घोषित कर दी थी जिसमें तीन मुख्य बातें प्रस्तावित की गई थी।

1) समान्ती भू-स्वामियों की भूमि जब्त करना एवं किसानों के बीच उसको पुनरू वितरित
करना,
2) चियाँन्ग-काई-शेक, संग-जिवीन, कोंन्ग-जियोंन्की एवं चेन लीफा की अध्यक्षता वाले चार परिवारों की एकाधिकारवादी पूँजी को जब्त करके नये लोकतांत्रिक राज्य को प्रदान करना, एवं
3) राष्ट्रीय मध्यवर्गीय व्यक्तियों के उद्योगों एवं व्यापार को सुरक्षा प्रदान करना। इस नीति को, सारे देश की जनता का सामूहिक रूप से समर्थन प्राप्त करने हेतु, सूत्रित किया गया था। अधिकाँश लोकतांत्रिक शक्तियों ने इस नीति से सहमति व्यक्त की एवं इन लोकतांत्रिक शक्तियों के सहयोग द्वारा सी.पी.सी. ने विस्तृत रूप के जनता के लोकतांत्रिक मोर्चों का गठन किया था।

मुख्य भूमि की मुक्ति
सन् 1947 के अन्त तक पी.एल.ए. द्वारा मुख्य संघर्ष स्थल को मुक्त किये गये क्षेत्रों से हटा कर कुआमिन्टाँग अधिकृत क्षेत्र के मुख्य स्थल पर ले जाया गया था। इसके अनेक शहरों को अपने अधिकार में ले लिया गया एवं शत्रु की प्रभावशाली शक्ति को काफी हद तक नष्ट कर दिया गया। सन् 1948 में पी.एल.ए. द्वारा तीन अभियानों का संचालन किया गया था, जिनके परिणामस्वरूप उत्तर पूर्वी चीन, उत्तर चीन का अधिकाँश भाग एवं पूर्वी और केन्द्रीय चीन का मुक्तिकरण हो गया था एवं चियाँन्ग-काई-शेक के सैनिक दलों का सफाया हो गया था।
1 जनवरी सन् 1949 को कुओमिन्टाँग ने शान्ति के लिये फिर से चीत्कार करना शुरू कर दिया। माओ ने शान्ति स्थापित करने हेतु आठ शर्तों को प्रस्तावित किया था, जिनमें अन्य के साथ युद्ध अपराधियों को दन्ड दिये जाने की शर्त शामिल थी। चियाँन्ग-काई-शेक ने राष्ट्रपति पद से अवकाश ले लिया, एवं उपराष्ट्रपति, ली.जोन्गिन ने सरकार की बागडोर सम्भाल ली थी। शान्ति वार्ता 1 अप्रैल को

शुरू हुई थी एवं 15 दिनों के वार्तालाप के पश्चात् आठों शर्तों के आधार पर शान्ति समझौते पर सहमति व्यक्त की गई थी। परन्तु ली.जोगिन ने समझौते को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। शान्ति हेतु आखिरी प्रयास का इस प्रकार अन्त हुआ था।

इसके बाद पी.एल.ए. के दस लाख सशक्त सैनिकों ने दक्षिण की तरफ बढ़ने के लिये याँनगजे नदी को पार करना शुरू कर दिया था। शीघ्र ही इसने कुओमिन्टाँग शासन के केन्द्रीय स्थल नानजिंन्ग पर अपना अधिकार कर लिया। इसने कुओमिन्टाँग के गढ़ों को एक-एक करके अपने अधिकार में ले लिया। थोड़े से काल में, तिब्बत्त, ताईवान एवं कुछ समुन्द्री किनारों के द्वीपों को छोड़ कर सारे चीन को मुक्त करा लिया गया था। इस प्रकार इस क्रॉन्ति का समापन, साम्यवादियों की विजय द्वारा हुआ था। 7 दिसम्बर सन् 1949 को चियाँन्ग-काई-शेक भाग कर ताईवान चला गया था।

चीन में जनवादी गणतंत्र की स्थापना
अन्तिम विजय के अवसर पर सी.पी.सी. द्वारा हैबई प्रान्त के एक गाँव में मार्च सन् 1949 में सातवीं केन्द्रीय समिति के दूसरे समग्र सत्र का आयोजन किया गया था। इस गोष्ठी में अन्तिम विजय की शीघ्रतापूर्वक उपलब्धि एवं युद्ध ग्रसित चीन के पुनः निर्माण किये जाने हेतु मूल नीतियों को निर्णय लिया गया था। इस सत्र के पश्चात् सी.पी.सी. एवं पी.एल.ए. के अपने मुख्यालयों का स्थानान्तरण बीजिंग में कर लिया था। लोकतांत्रिक दल एवं उनके अधिकारीगण भी बीजिंग पहुँच गये थे।

चीन की जनता की राजनीतिक परामर्शात्मक सम्मेलन ने उपने प्रथम समय सत्र का आयोजन 22 सितम्बर सन् 1949 को बीजिंग में किया था। अनेकों कुओमिन्टाँग विरोधी राजनीतिक शक्तियों सी.पी. सी. अल्पसंख्यक राष्ट्रिकताओं एवं विदेशों में रहने वाले चीनियों के 662 प्रतिनिधियों ने इस सत्र में भाग लिया था। इस सत्र ने चीन के सर्वोच्च राजनीतिक संस्थान, राष्ट्रीय पीपुल्स काँग्रेस के रूप में कार्य किया एवं प्राधिकरों का उपयोग किया। इस सम्मेलन में “चीनी जनता की राजनीतिक परामर्शात्मक सम्मेलन के सामान्य कार्यक्रम’’ को पारित किया गया। इस कार्यक्रम ने अंतरिम संविधान के रूप में कार्य किया। इसने मजदूरों एवं किसानों की बीच संधि के आधार पर मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता की लोकतांत्रिक तानाशाही के रूप में चीन के जनवादी गणतंत्र की स्थापना की थी। पी.आर.सी. की राजधानी के रूप में बीजिन्ग (पीकिन्ग) को चुना गया था। माओ को चुनाव द्वारा, जनता की केन्द्रीय सरकार का अध्यक्ष बनाया गया था एवं जाऊ-एन-लाई को चीन का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था।

1 अक्टूबर सन् 1949 को लाखों की संख्या में जनता उस समाराहों में भाग लेने हेतु ध्यानमान स्क्वायर बीजिंग में एकत्रित हुई थी जिसके द्वारा पी.आर.सी. की औपचारिक रूप से शुरुआत की गई थी। माओ जीडांग ने नये राज्य का उद्घाटन किया था, विश्व के एक चैथाई इन्सानों ने माओं जीडांग के साथ प्रत्युत्तर स्वरूप नारे लगाये थे एवं चीन ने एक नये युग में प्रवेश किया था।

पी.आर.सी. की घोषणा एक ऐसी घटना थी जिसने चीन के इतिहास में एक नये अध्याय को खोल दिया था। पूर्व में जापानी सैनिकवाद की पराजय, एवं यू.एस. द्वारा समर्थन प्राप्त कुओमिन्टाँग बलों से चीन के मुक्तीकरण के कारण चीनी क्रॉन्ति की विजय और भी सुगम हो गई थी।

बोद्य प्रश्न 3
टिप्पणी: क्) प्रत्येक प्रश्न के नीचे दिये गये स्थान का उपयोग अपने उत्तर हेतु कीजिए।
ख) अपने उत्तरों को इकाई के अंत में दिए उत्तरों से मिला लीजिए।
1) कुओमिन्टाँग की पराजय के कारणों को संक्षेप में बताइये।
2) निम्नलिखित का संक्षिप्त विवरण दीजिए:
1) मुक्त किये गये क्षेत्रों में भूमि सुधार ।
2) लोकतांत्रिक संयुक्त मोर्चा।
3) कुओमिन्टाँग के शान्ति प्रस्ताव पर सी.पी.सी. की प्रतिक्रिया।

बोध प्रश्न 3
1) सुन-यात-सेन द्वारा शुरू किये गये राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को सही दिशा प्रदान करने हेतु कुओमिन्टाँग द्वारा नेतृत्व प्रदान न कर पाने की असमर्थता ही मुख्य रूप से उसकी पराजय की उत्तरदायी थी। सनु-यात-सेन की योजना, कुआमिन्टाँग के झन्डे के अधीन एक साम्राज्यवाद विरोधी लोकतांत्रिक आधार को विकसित करने की थी परन्तु चियाँन्ग-काई-शेक ने इसका स्वरूप बदल कर इसको एक, साम्यवादविरोधी, रूढ़िवादी समर्थक एवं साम्राज्यवाद समर्थक राजनीतिक दल का रूप प्रदान कर दिया था। सी.पी.सी. ने इस कमजोरी का लाभ उठाया एवं

2) भू-स्वामियों की भूमि को जब्त करना एवं जब्त की गई भूमि को ग्रामीण किसानों के बीच वितरित करना। (के.एम.टी.) कुआमिन्टाँग द्वारा किये गये शान्ति प्रस्तावों के प्रति सी.पी.सी. ने सदैव साकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।

चीनी दर्शन में भैतिकवादी रूझान
चीनी क्रॉन्ति के सिद्धान्त का निष्कर्ष भौतिकवाद से हुआ था जो एक ऐसी दार्शनिक प्रवृति है जो आदर्शवाद के विपरीत होती है। चीन में भौतिकवाद की उत्पत्ति, चीनी दार्शनिक प्रणाली की निर्माणात्मक स्थिति के साथ की जा सकती है। ईसा के पूर्व (बी.सी.) की पाँचवी सदी से तीसरी सदी तक प्राचीन चीनी दर्शन प्रणाली का विकास निरन्तर रूप से होता रहा था। चीन के प्रमुख दार्शनिक मतवादों, ताओवाद, कन्फ्यूशीयस इत्यादि का उदय इसी काल में हुआ था। अनेकों प्राचीन चीनी विद्धानों ने धारणा एवं यथार्थता के बीच सम्बन्ध की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया था। मो. जी., जून जू एवं अन्य का मत था कि धारणाएं वस्तुपरक आभासों एवं वस्तुओं का प्रतिबिम्ब स्वरूप होती हैं। उसके बाद से दर्शन की भौतिकवादी प्रवृति में दर्शनशास्त्रियों की क्रमानुगत पीढ़ियाँ अभिवृद्धि करती रही थी। नवीन कन्फ्यूशीवाद के काल में दर्शनशास्त्रियों का एक ऐसा सशस्त्र वर्ग था जो भौतिकवाद के समर्थन में तर्क किया करता था। सत्रहवी एवं अठारहवीं सदियों में धारणा एवं यर्थाथता के बीच के सम्बन्ध का विवाद का और अधिक विकास हुआ था: ताई चैन ने इसका भौतिकवादी रूप से समाधान किया था। उन्नीसवीं सदी के मध्य काल में चीन में विदेशियों द्वारा बलपूर्वक प्रवेश करने पर, सामन्ती जमीदारों द्वारा शोषण किये जाने एवं विदेशियों के आक्रमणों के विरुद्ध चीनी जनता ने प्रतिक्रियास्वरूप शक्तिशाली किसान विद्रोह, एवं ताईपिन्ग आन्दोलन किये थे जिनमें समाज के सामाजिक रूप के पुनः निर्माण पर राम-राज्य के विचारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्नसवीं सदी के अन्तिम काल में पश्चिमी शिक्षण के परिणामस्वरूप उदावादी एवं समाजवादी विचारधारा का उद्गमन होना प्रारम्भ हो गया था। चीन में सामाजिक रूप की राजनीतिक एवं दार्शनिक विचारधारा एवं मार्क्सवाद का प्रचार होना 4 मई सन् 1919 को हुए आन्दोलन द्वारा हुई जागृति के फलस्वरूप शुरू हुआ था, जिसका आयोजन सन् 1917 में हुई रूस की क्रांन्ति से प्रभावित हो कर किया गया था।

चीन में मार्क्सवाद का आगमन
हालाँकि प्रतिभा सम्पन्न चीनी जन-समुदाय, सदी बदलने के समय से, मार्क्सवाद को अस्पष्ट रूप से जानते थे परन्तु उसके सैद्धान्तिक आकर्षण तक पहुँचने में असमर्थ रहे थे। चीन का प्रतिभा सम्पन्न जन-समुदाय समाजवाद या सामाजिक क्रान्ति से, रूस में हुई क्रान्ति से बीस वर्ष पूर्व, परिचित थे। “सामाजिक नीति’’, समाज एवं अराजकतावाद की जुड़वाँ प्रवृतियों द्वारा विचारशीलता को और अधिक प्रेरणा प्राप्त हुई थी। पहले का ग्रहण सुन-यात-सेन के कुओमिन्टाँग (गुआमिन्टाँना द्वारा एवं सन् 1911 में चीन की समाजवादी दल के संस्थापक जियाँन्गकाँघू द्वारा किया गया था। उनके समाजवाद में “सरकारी निरीक्षण में शान्तिपूर्ण एवं समानतावादी सामाजिक विकास की उपलब्धि हेतु पूँजीवाद को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया था। रूस में सन् 1917 में हुई क्रान्ति के अवसर पर समानतावाद, चीन में समाजवाद के सबसे अधिक लोकप्रिय स्वरूप में, उभर कर भी आया था। फिर भी स्वतंत्र रूप से अलग से किये सांस्कृतिक एवं प्रचार सम्बन्धी कार्यों के अलावा समानतावादियों ने किसी प्रकार की कोई संगठित गतिविधि नहीं की थी। सन् 1919 के चार मई के आन्दोलन के तुरन्त बाद, अनेकों सुधारवादी विद्यार्थी बहनों की गतिविधियों एवं कार्यवाही करने हेतु किसी ठोस कार्यक्रम की कमी होने के कारण भी सुधारवाद प्रतिभासम्मन्न जनसमुदाय काफी निराश हो गया था।

विशेषतौर से पहले विश्व युद्ध के काल में एतं उसके बाद हुए औद्योगीकरण के विस्तारीकरण के
शहरों में पूंजी एवं मजदूरों के उद्गमन हुआ था, रूस की कॉन्ति ने, उनको बदलाव लाने एक उदाहरण प्रस्तुत किया था। लेनिन दास लाई गई रूस कान्ति नेता को मार्क्सवाद की क्रॉन्तिकारी शक्ति के प्रति मार्क्सवाद का अध्ययन करने हेतु प्रेरणा प्रदान की थी। समानतावाद एवं मार्क्सवाद रहित समाजवाद की धीरे-धीरे अवनति होनी शुरू हो गई। सन् 1922 तक चीन में साम्यवादी होने का मतलब माक्र्सवाद एवं मार्क्सवादी दल के राजनीतिक घोषणा-पत्र को स्वीकार करना माना जाने लगा था। चीन के सुधारवादियों में सैद्धान्तिक रूप के बदलाव आने के फलस्वरूप चीन के साम्यवादी दल के झंडे के अधीन हुए साम्यवादी आन्दोलन की नींव पड़ी थी।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: क) प्रत्येक प्रश्न की नीचे दिये गये स्थान का उपयोग अपना उत्तर देने हेतु कीजिए।
ख) अपने उत्तरों को इकाई के अंत में दिए उत्तरों से मिला लीजिए।
1) चीनी क्रान्ति के सिद्धान्तों के क्या आधार थे?
2) मार्क्सवाद के प्रति माओ जीडांग द्वारा दिये गये मुख्य योगदानों पर चर्चा कीजिये।

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 4
1) अ) चीन के दर्शन शास्त्र की भौतिकवादी परम्परा।
ब) मार्क्सवादी-लेनिनवाद ।
स) सी.पी.सी. द्वारा किये गये अनुभव।
अ) सामाजिक क्रान्ति में किसान वर्ग का महत्व।
ब) नया लोकतंत्र।
स) ज्ञान के लिये भौतिकवादी धारणा।
द) प्रतिवादों का विघटन करने की पद्धति।
ध) कॉन्तिकारी कार्यकर्ताओं के लिये नियम एवं अनुशासन ।

सारांश
क्रान्ति तब होती है जब कोई समाज वस्तुपरक एवं व्यक्तिपरक, दोनों रूपों में सुधारवादी परिवर्तन हेतु तैयार होता है। वस्तुपरक परिस्थितियों आर्थिक एवं राजनीतिक संकटकालीन अवस्थाओं एवं किसी समाज में सामाजिक रूप की क्राँन्ति की सम्भावनाओं द्वारा उत्पन्न होती है। किसी सामाजिक रूप की क्राँन्ति की विजय सुनिश्चित करने हेतु केवल वस्तुपरक परिस्थितियों का आस्तित्व होना काफी नहीं होता। वस्तुपरक परिस्थितियों के साथ व्यक्तिपरक कारणों का होना भी आवश्यक होता है, जो दुख भोगने वाले जन-समूहों की स्वार्थरहित रूप और बहादुरी से संघर्ष करने की तत्परता द्वारा उत्पन्न होता है एवं एक ऐसे दल का होना आवश्यक होता है, जो सामाजिक रूप की रणनीतियों एवं कुशल निर्देशन प्रदान कर सके। क्रान्ति के पूर्व के करीब सौ वर्षों के काल तक चीन एक अर्ध-उपनिवेशिक एवं अर्ध-सामन्ती देश के रूप में रहा था, जिनके योगदान स्वरूप वहाँ के समाज में सामाजिक स्तर का आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया था। चीन के साम्यवादी दल ने जनता को नेतृत्व, सामरिक रणनीति, एवं कुशल निर्देशन प्रदान करके, इस अवसर का लाभ उठाते हुए क्रॉन्ति का आवाह्न किया था।

विदेशियों का अंतरूप्रवेश केवल आर्थिक रूप के शोषण तक ही सीमित नहीं था। इसने सांस्कृतिक एवं प्रजात्मक रूप के प्रभाव क्षेत्रों में भी अंतरू प्रवेश कर लिया था। विज्ञान, टैकनोलौजी एवं सरकार की प्रणाली के क्षेत्रों में यूरोप के विकसित देशों द्वारा उपलब्ध की गई प्रगति के बारे में चीन के । प्रतिभा सम्पन्न जन समुदाय को जानकारी प्राप्त हो गई थी। प्रतिभा सम्पन्न जन समुदाय ने तुरन्त ही अपने पड़ोसी देश जापान के अनुरूप पश्चिमी रूपरेखा पर चीन का पुनर्निमाण करने की माँग करना शुरू कर दिया था। परन्तु शासक वर्ग में शामिल मंचू राजाओं, दरबार के कर्मचारियों, सामन्ती भू-स्वामियों एवं अन्य परम्परागत रूप के रूढ़िवादी तत्वों ने मिलकर उभरते हुए सुधार आन्दोलनों का दमन कर दिया था। हालाँकि लोकतांत्रिक राष्ट्रवादियों ने सन् 1911 में मंचू शासन का समापन कर दिया था, परन्तु वे रूढ़िवादी प्रतिक्रियाशील तत्वों के जाल में फंस गये थे, जो अपनी सत्ता एवं सुविधाओं को बनाये रखने हेतु विदेशी ताकतों से भी सहायतार्थ निवेदन करने में नहीं चूके थे। रूसी साम्यवादियों द्वारा बताये मार्ग पर चलते हुए, चीन के सुधारवादियों ने चीनी साम्यवादी दल की स्थापनी की। चीनी साम्यवादी दल ने, विदेशी ताकतों एवं आंतरिक प्रतिक्रियावादी दलों से संघर्ष करने हेतु जनता को संगठित किया एवं युद्ध रणनीति को सूचित किया था। क्रॉन्ति की विजय को सुनिश्चित करने के लिये इसको एक दीर्घकालिक गृहयुद्ध में संघर्षरत होना पड़ा था।

 शब्दावली
दिव्य राज्य: स्वर्ग-राज्य। प्राचीन काल में चीन निवासी अपनी भूमि को स्वर्ग-राज्य कहते थे।
कॉन्ति: समाज के स्वरूप में एक सुधारवादी बदलाव लाना, एक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से दूसरी सामाजिक अवस्था में परिवर्तन करने की माँग करना, प्राचीन व्यवस्था को प्रगतिशील व्यवस्था में परिवर्तन करने की माँग करना ।
युद्ध समान्त: बीसवीं सदी के प्रारंम्भिक दशकों में स्वायत्त शक्तिशाली सैनिक नेताओं ने चीन की
शक्तिशाली सेना के सेनानियों के नियंत्रण में
गोरो का शासन: साम्यवादी सत्ता विरोधी सरकार। चियाँन्ग-काई-शेक की सरकार को गोरों का शासन कहा जाता था।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
1) आरिफ डरलिकय 1992: चीन के साम्यवाद के स्रोत, आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रकाशन
केन्द्र।
2) लूसिन बिआँन्कोय 1971: चीनी क्रॉन्ति के स्रोत 1915-1949 स्टेन्डफोर्ड विश्वविद्यालय
प्रकाशन केन्द्र।
3) रेन्ज शूरमानय 1972: साम्यवादी चीन में सिद्धान्त एवं संगठन, केलीफोर्निया विश्वविद्यालय प्रकाशन केन्द्र ।
4) चून-टू-शेहय 1962: चीन का साम्यवादी आन्दोलन, 1937-1949 हूवर संस्थान, स्टेन्डफोर्ड।
5) ज्योर्ज एफ बोटतरय 1979: राष्ट्रवादी चीन का एक संक्षिप्त इतिहास 1919-1949य न्यू योर्क, प्रटमान्स।
6) ए. डोक बारनेटय 1963: साम्यवादियों द्वारा सत्ता पर अधिकार ग्रहण करते समय का चीन, न्यू योर्कय प्रेगर।