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बेरीगाजा बंदरगाह का यूनानी नाम क्या था , barygaza port in hindi बेरीगाजा प्राचीन भारत के कौन से बंदरगाह का यूनानी नाम था
barygaza port in hindi बेरीगाजा बंदरगाह का यूनानी नाम क्या था बेरीगाजा प्राचीन भारत के कौन से बंदरगाह का यूनानी नाम था ?
बेरीगाजा/भृगुकच्छ (21.71° उत्तर, 72.77° पूर्व)
नर्मदा के तट पर स्थित प्राचीन भारत का यह एक महत्वपूर्ण पत्तन एवं वाणिज्यिक केंद्र है, जो गुजरात में स्थित है। पेरिप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी एवं टॉलेमी के विवरणों के अनुसार, भारूकच्छ/भृगुकच्छ बेरीगाजा बंदरगाह नर्मदा के मुहाने पर आधुनिक भड़ौच जिले में स्थित था। पेरिप्लस (प्रथम शताब्दी ईस्वी) में इस बंदरगाह से होने वाली विभिन्न मदों का आयात एवं निर्यात का विवरण दिया गया है। इसमें प्राप्त विवरण के अनुसार, यहां से निर्यात के लिए विभिन्न प्रकार का सामान न केवल पैठन एवं टेर से आता था, बल्कि यह उत्तर में उज्जैन तथा काबुल एवं कश्मीर तक से लाया जाता था। बौद्ध धर्म के जातक ग्रंथों के अनुसार, यहां से सुवर्णद्वीप (दक्षिण-पूर्व एशिया) से व्यापारिक वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था।
बेरीगाजा नाम ऐसे उच्चस्तरीय स्थान की सूचना देता है जो पश्चिमी विश्व के साथ व्यापार हेतु अपनी महत्वपूर्ण स्थिति का लाभ उठाता है। यह बंदरगाह प्राचीन भारत में समुद्री व्यापार का एक अत्यंत प्रमुख केंद्र था तथा भारत की व्यापारिक समृद्धि में इसका महत्वपूर्ण योगदान था। महाभारत के अनुसार, इसका संबंध ऋषि भृगु से था। इनके शिष्य यहां आकर बस गए, तभी से इस स्थान को भृगू कच्छ के नाम से जाना जाने लगा।
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, यह शक साम्राज्य की राजधानी था तथा शक शासक यहीं से अपने साम्राज्य में शासन करते थे।
आगे चलकर यह अरबों का मुख्यालय बन गया तथा पुलकेशियन द्वितीय से पराजित होने से पहले तक वे इस स्थान का प्रयोग दक्षिण, पश्चिम जाने में एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में करते थे।
बसोहली/बसोली/बशोली (32.50° उत्तर, 75.82° पूर्व)
बसोहली या बसोली अथवा बशोली-जैसाकि इसे विभिन्न रूप से कहा एवं लिखा गया है- जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में एक शहर है, जो रावी नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है, यह कहा जाता है कि राजा भूपत पाल ने 1635 में इसे स्थापित किया था। अतीत में, यह शहर अपने शानदार महलों के लिए जाना जाता था, हालांकि, अब यह खंडहर अवस्था में है। आज इसे व्यापक रूप से इसके साथ जुड़ी लघु चित्रकला शैली के लिए जाना जाता है। बसोहली चित्रों को पहाड़ी चित्रों का पहला संप्रदाय माना जाता है, जो अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य तक कांगड़ा चित्रकला संप्रदाय के रूप में बहुत अधिक विकसित हुआ था। यद्यपि चित्रकला के इस स्कूल का नाम छोटे से स्वतंत्र राज्य बसोहली (इस शैली का मुख्य केंद्र) से लिया जाता है, परंतु ये चित्र पूरे क्षेत्र में पाए जाते हैं।
चित्रकला की बसोहली शैली में प्राथमिक रंगों का भरपूर उपयोग और सत्रहवीं तथा अट्ठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रचलित एक स्टाइलिश चेहरे का उपयोग विशेष रूप से हुआ है। बसोहली चित्रकला का प्रथम उल्लेख 1918-19 की भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की वार्षिक रिपोर्ट, जो 1921 में प्रकाशित हुई थी, में हुआ था। इसके अनुसार बसोहली स्कूल का उद्भव पूर्व-मुगल काल का हो सकता है।
बेसीन (19.47° उत्तर, 72.8° पूर्व)
बेसीन मुंबई के समीप महाराष्ट्र में स्थित है। गुजरात के शासक बहादुरशाह ने पहले इसे अपनी साम्राज्य सीमा में सम्मिलित कर लिया फिर 1534 में पुर्तगालियों को सौंप दिया।
बेसीन का द्वीप गुजरात के सुलतान बहादुर शाह द्वारा पुर्तगाल को दिया गया तथा उसके बदले में उन्हें हुमायूं द्वारा होने वाले आक्रमण के भय से मुक्ति मिली। पुर्तगालियों के अधीन, यह एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक एवं व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। तथा पुर्तगालियों के लिए राजस्व प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। 1739 में, मराठा सरदार चिमनाजी अप्पा ने इसे पुर्तगालियों से छीन लिया तथा इस प्रकार यह पेशवाओं के अधीन हो गया। बेसीन बाजीराव प्प्, पूना के मराठा पेशवा, तथा ब्रिटिश के बीच 31 दिसम्बर 1802 की संधि के कारण भी प्रसिद्ध है।
मराठों के अधीन भी यह महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बना रहा। बम्बई की अंग्रेजी सरकार की प्रारंभ से ही बेसीन पर नजर थी तथा 1774 में प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के उपरांत उन्होंने मराठों से इसकी मांग प्रारंभ कर दी।
पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 1802 में बेसीन में ही अंग्रेजों के साथ सहायक संधि की। 1818 में अंतिम आंग्ल-मराठा युद्ध के उपरांत बेसीन अंग्रेजों के अधीन आ गया तथा ब्रिटिश साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया। यह संधि द्वितीय मराठा युद्ध (1803-05), मराठों तथा ब्रिटिश के बीच, का कारण भी बनी तथा तीन अन्य मराठा शक्तियों की पराजय का भी। सालसीट के साथ बेसीन बम्बई के लिए सामरिक महत्व का एक महत्वपूर्ण स्थान था।
बयाना (26.9° उत्तर, 77.28° पूर्व)
बयाना, राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित है। प्राचीन काल में इसका नाम ‘बाणपुर‘ था। 1196 ई. में मु. गौरी ने इस पर अधिकार कर लिया किंतु बाद में यह अफगानों के अधिकार में चला गया। बाबर ने इसे अफगानी प्रभुत्व से मुक्त कर दिया। उत्तरवर्ती मुगलकाल में यह भरतपुर के शासकों के अधीन जाट राज्य बन गया। आगरा, जो कि मुगल शासकों की राजधानी के रूप में विकसित हुआ, पहले बयाना में ही था।
बयाना कृषि एवं नील की खेती का एक प्रसिद्ध केंद्र था। सरफेज यहां का एक प्रसिद्ध उत्पाद था, इसके उत्पादन के कारण बयाना मध्यकाल से लेकर ब्रिटिश काल तक प्रसिद्ध रहा।
बेदसा (18°44‘ उत्तर, 73°31‘ पूर्व)
बेदसा पूना जिले में स्थित है। यह प्रथम सदी ई.पू. की बौद्ध गुफाओं एवं चैत्यों के लिए प्रसिद्ध है। बेदसा की गुफाओं में, भाजा की गुफाओं की तुलना में कुछ उन्नत कला के दर्शन होते हैं। क्योंकि इसमें लकड़ी के प्रयोग तथा अग्रभाग के अलंकरण के लिए अधिक प्रयत्न की परंपरा से क्रमिक स्वतंत्रता दिखाई देती है।
बेदसा में, प्रथम बार हमें ऐसे चैत्य निर्माण के प्रमाण प्राप्त होते हैं, जो आगे के चैत्य स्थापत्य के लिए अनुकरणीय बने। ये चैत्य समानांतर रूप में दो बराबर मंजिलों में विभक्त थेः निचली मंजिल चतुर्भुजाकार प्रवेश द्वार था जो चाप से घिरा हुआ था जबकि ऊपरी मंजिल में बड़ी चाप की खिड़की थी जो, अश्वाकार थी। इसे ‘चैत्य खिड़की‘ के नाम से जाना जाता था। चैत्य के प्रमुख हाल (बड़े कमरे) के सामने छज्जा था, जिसे चार स्तंभ आधार प्रदान करते थे। इन स्तंभों में मानव एवं विभिन्न पशुओं की आकृतियां उकेरी गई थीं।
इन चित्रों की स्थिति यद्यपि परिलक्षित होती है किंतु अब ये काफी जीर्ण-क्षीर्ण हो चुकी हैं। चैत्य हॉल के समीप गुहा विहार बने हुए हैं, जहां भिक्षु निवास करते थे। मठवासी हॉल, यद्यपि, आकार में अर्धवृत्ताकार है तथा सामान्य चैकोर या आयत से भिन्न है।
बेलूर (13.16° उत्तर, 75.85° पूर्व)
बेलूर यगासी नदी के तट पर कर्नाटक के हासन जिले में स्थित है। यह क्षेत्र मालनद क्षेत्र है तथा यहीं बाबाबुदां की प्रसिद्ध पहाड़ियां पाईं जाती हैं। यह होयसल शासक विष्णुवर्धन (1108-1142 ई.) द्वारा बनवाए गए विष्णु नारायण या केशव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। विष्णुवर्धन ने यह मंदिर 1116 में तालकाड में चोलों पर विजय की स्मृति में बनवाया था। विष्णुवर्धन जो श्विट्टिगश् नाम से भी जाना जाता था, उसने प्रसिद्ध वैष्णव संत रामानुज के प्रभाव में आकर जैन धर्म त्याग दिया तथा वैष्णव धर्म का अनुयायी बन गया। अपने धर्मांतरण के उपलक्ष्य में उसने प्रसिद्ध चिन्नकेशव मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर पारम्परिक होयसल वास्तुकला का एक सुंदर नमूना है जिसमें हाथीदांत के कारीगर की या सुनार की तकनीक को पत्थर पर प्रयोग किया जाता है।
बेलूर मंदिर की सबसे मुख्य विशेषता उच्च धरातलीय तारारूपी सतह है, जिस पर भड़कीले फलक वाले भवन बनाए गए हैं। उत्तम मूर्तियां बाहरी दीवार को चित्रवल्लरी द्वारा पूर्णतः ढक देती हैं, जोकि अन्य होयसल मंदिरों में नहीं पाई जाती। दीवारों में 650 हाथी (प्रत्येक दूसरे से भिन्न) बने हुए हैं तथा प्रवेश द्वार पर द्वारपालों के चित्र प्रसिद्ध वास्तुकार जकन्ना हजारी के निर्देशन में निर्मित ये मंदिर होयसल राजवंश की सुंदर स्थापत्य शैली को अभिव्यक्त करते हैं।
बरार
बरार दक्षिण के बहमनी साम्राज्य का एक भाग था। प्रारंभ में यह बहमनी साम्राज्य के धुर उत्तरी हिस्से में सम्मिलित था।
बरार महाराष्ट्र में स्थित है। दक्कन में बहमनी साम्राज्य के प्रशाखा में से एक बरार साम्राज्य से अलग होने वाला पहला राज्य था। 1484 ई. में फतुल्ला, गोविलगढ़ के गवर्नर ने महमूद बहमनी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, तथा इमाम शाही राजवंश की स्थापना की क्योंकि उसने इमाद उल मुल्क की पदवी धारण की थी। उसकी राजधानी एलिचपुर थी।
बाद में अहमदनगर ने बरार पर अधिकार कर लिया। मुगलकाल में, बरार को दक्षिण का एक सूबा बना दिया गया। मुगल साम्राज्य के टूटने पर यह हैदराबाद के निजाम के पास चला गया। 1853 ई. में यह ब्रिटिश साम्राज्य के नियंत्रण में आ गया तथा प्रशासनिक रूप से 1948 में इसका प्रदेश के तौर पर उन्मूलन कर दिया गया।
बरार के दक्षिणतम क्षेत्र सामान्यतया पूर्णा नदी बेसिन के समृद्ध कपास क्षेत्रों की अपेक्षा कम विकसित हैं।
बरार में विभिन्न इमारतें एवं स्थापत्य हैं, जो दक्षिण भारतीय शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से ग्वालीगढ़, एलिचपुर एवं मल्कापुर की मस्जिदें सबसे महत्वपूर्ण हैं। एलिचपुर की हौजा कटोरा (जिसके एलिचपुर में भग्नावशेष बाकी रह गए हैं।) दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली का एक सुंदर नमूना है।
बेसनगर/विदिशा/भिलसा
(23.52° उत्तर, 72.81° पूर्व)
मध्य प्रदेश का विदिशा या भिलसा जिला ही प्राचीन बेसनगर था, जो वर्तमान में भोपाल से 45 किमी. उत्तर-पश्चिम में स्थित है। प्राचीन साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार, यह दसहरना शासन व्यवस्था की राजधानी था। यह सांची से 10 किमी. दूर बेतवा एवं व्यास नदियों के मध्य स्थित था। छठी तथा पांचवीं शताब्दी ई.पू. विदिशा नगर की गणना प्रचीन भारत के प्रसिद्ध नगरों में होती थी। शुंग, नाग, सातवाहन एवं गुप्त सभी के शासनकाल में विदिशा संस्कृति एवं व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा।
इससे पहले मौर्य शासक अशोक यहीं का राज्यपाल रह चुका था। इस नगर का उल्लेख कालिदास के मेघदूत एवं वाल्मीकीकृत रामायण में भी प्राप्त होता है। यह शुंग साम्राज्य की राजधानी था। पुराणों में इसे तीर्थ कहा गया है। यह नगर पाटलिपुत्र से उज्जैन जाने वाले मार्ग पर स्थित था। बौद्ध स्तूप के अन्य अनेकों अवशेष, सामान्यतया भिलाना टॉप के नाम से जाने जाते हैं तथा तीसरी शताब्दी ई.पू. तथा पहली ईस्वी के बीच के भी यहां पर पाये जाते हैं। बेसनगर पाटलिपुत्र से पश्चिमी भारत के बंदरगाहों तथा दक्षिणापथ के मार्ग पर स्थित है। छठी शताब्दी के बाद तीन शताब्दियों तक परित्यक्त, इस स्थान को मुस्लिमों द्वारा पुनः भिलसा नाम दिया गया, जिन्होंने बीज-मण्डल (अब ध्वस्त), एक मस्जिद जिसे एक हिंदू मंदिर के अवशेषों से बनाया गया, का निर्माण किया। गुप्त साम्राज्य के गुफा मंदिरों के अवशेष भी यहां प्राप्त हुए हैं। भिलसा पर अंतिम रूप से अंग्रेजों के नियंत्रण से पूर्व, इस पर मालवा सुल्तानों, मुगलों एवं सिंधिया राजवंशों का आधिपत्य रहा।
विदिशा उत्तर भारत में हाथी दांत की नक्काशी से बनी वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध था। सांची के स्तूपों के तोरण द्वारों में भी यहां की नक्काशी शैली के दर्शन प्राप्त होते हैं।
विदिशा से पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। यहां के प्राचीन अवशेषों में हेलियोडोरस का गरुड़-स्तंभ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। हेलियोडोरस यवन शासक एन्टियालफीड्स का राजदूत था एवं शुंगवंशीय शासक भागभद्र के विदिशा स्थित दरबार में था। उसने यहां एक गरुड़-स्तंभ स्थापित करवाया तथा भागवत धर्म ग्रहण कर लिया। पाषाण निर्मित स्तंभ कला की दृष्टि से यह स्तंभ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह स्तंभ मध्यप्रदेश में भागवत धर्म के लोकप्रिय होने का प्रमाण है। यह ब्राह्मण धर्म से संबंधित पहला प्रस्तर स्मारक है। वर्ष 1956 में विदिशा का पुनः नामकरण किया गया और आज यह एक कृषि व्यापार केंद्र है।
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