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भीमबेटका किसके लिए प्रसिद्ध है , bhimbetka is famous for in hindi , भीमबेटका की गुफाएं कितने साल पुरानी मानी जाती है
जानें भीमबेटका किसके लिए प्रसिद्ध है , bhimbetka is famous for in hindi , भीमबेटका की गुफाएं कितने साल पुरानी मानी जाती है ?
भीमबेटका (22°56‘ उत्तर, 77°36‘ पूर्व)
मध्य प्रदेश में स्थित भीमबेटका, द. एशिया में प्रागैतिहासिक शैल चित्रकारी का सबसे समृद्ध संग्रह है तथा यहां भारत में शैल चित्रकारी का एकमात्र उदाहरण है। यहां कई गुफाएं हैं, जिसमें सुंदर चित्रकारी की गई है। इन गुफाओं की सम्पूर्ण आंतरिक दीवारें इन चित्रों से भरी पड़ी हैं, जिनकी संख्या 133 है। यह देश की शैल चित्रकारी का सबसे बड़ा खजाना है। भारत में शैल चित्रकला का इतिहास लगभग 10 हजार वर्ष प्राचीन है। प्राचीन स्थलों के पुरातात्विक उत्खननों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि भारत शैल चित्रकला को मान्यता एवं संरक्षण देने वाला विश्व का पहला देश है।
विन्ध्य पर्वत मालाओं के उत्तरी छोर से घिरा हुआ भीमबेटका भोपाल से लगभग 46 किमी. की दूरी पर स्थित है। घने जंगल एवं ऊबड़-खाबड़ मैदान से युक्त इस क्षेत्र में 600 से अधिक शैल गुफाएं हैं, जिनका उपयोग आदि मानव अपने निवास स्थान के लिए करते थे। भीमबेटका की गुफाओं में बने ये चित्र प्रागैतिहासिक मानव जीवन की विभिन्न क्रियाओं का सुंदर प्रतिदर्शन कराते हैं। इस प्रकार ये उस काल के मानव के संबंध में जानकारी प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी हैं। अधिकांश भित्ति चित्र सफेद एवं लाल रंग से बने हुए हैं किंतु यदाकदा हरे एवं पीले रंगों का प्रयोग भी किया गया है। इन चित्रों की विषयवस्तु तत्कालीन मानव की दैनिक क्रियाओं से संबंधित है। चित्रों का बारीकी से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि एक ही कैनवास का प्रयोग कई लोगों द्वारा अलग-अलग समय में किया गया।
वर्तमान में भीमबेटका की गुफाएं यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल सूची में दर्ज हैं।
भीटा (25.45° उत्तर, 81.85° पूर्व)
भीटा, यमुना नदी के दाहिने तट पर उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में स्थित है। यहां के पुरातात्विक उत्खनन से इस बात के प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि प्राचीन काल में यह स्थान व्यापारियों एवं कलाकारों का एक छोटा नगरीय स्थान था। यहां से 200 ईसा पूर्व से 200 ई. तक के समय के अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैं। अधिकांश सिक्के तांबे के बने हैं तथा कुषाण शासकों एवं उनके अधीनस्थ शासकों से संबंधित हैं। यद्यपि यहां से अभी तक गुप्त काल का कोई सिक्का प्राप्त नहीं हुआ है फिर भी यहां से गुप्तकाल की सीलें एवं टेराकोटा की वस्तुएं बड़ी मात्रा में प्राप्त की गई हैं। यहां से 13 सांचे प्राप्त हुए हैं, जिनमें से 5 हाथी दांत के बने हुए हैं। बड़ी संख्या में यहां से सीलों या मुहरों की प्राप्ति से यहां व्यापारिक निगमों या श्रेणियों के अस्तित्वमान होने का अनुमान है।
भीटा से प्राप्त स्थलों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक सीध में कई दुकानों का पाया जाना है, जिनके सामने एक लंबी गली है। अट्ठारहवीं शताब्दी (अनुमानित) के मंदिर के होने प्रमाण भी यहां के उत्खनन से प्राप्त हुए हैं।
भीतरगांव (26°12‘6 उत्तर, 80°16‘ पूर्व)
कानपुर नगर से 60 किमी. की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम की ओर यह गांव बसा हुआ है, जो कि भारत में मंदिर शिल्पकला के उत्कृष्ट नमूनों में से एक है। यहां पर गुप्तकाल में निर्मित एक सुंदर मंदिर प्राप्त हुआ है। लगभग छठी शताब्दी में निर्मित यह मंदिर ईंटो से निर्मित है, जिसका निर्माण एक गोल चबूतरे पर किया गया था। यह मंदिर भगवान विष्णु से संबंधित है। इसका बाहरी भाग कलापूर्ण है। भारतीय मंदिरों में श्शिखरश् सर्वप्रथम इसी मंदिर में पाया गया है। बड़ी ईंटों को मिट्टी के गारे पर व्यवस्थित करके मंदिर का निर्माण किया गया है। यद्यपि मंदिर के अंदर के भाग में केवल गर्भगृह तथा द्वारमंडप हैं, बाहरी दीवारों पर ईंटों की नक्काशी तथा अलंकृत टेराकोटा के फलक हैं। गर्भगृह के ऊपर एक ऊपरी कक्ष भी था जिसे 18वीं शताब्दी में जला कर नष्ट कर दिया गया। मंदिर में चतुर्दिक मिट्टी की अनेक मूर्तियां रखी गई हैं, जो महाभारत, रामायण एवं पुराणों से संबंधित हैं।
यह मंदिर शिखर शैली या नागर शैली के मंदिरों के प्रारंभिक उदाहरणों में से एक है, तथा समतल छत वाले वर्गाकार तीर्थ-मंदिरों की प्रारंभिक गुप्त शैली से बेहद भिन्न है। कई टेराकोटा के फलक तथा वास्तुकला की सुंदरता हेतु बनाए गए भित्ति चित्र इस मंदिर की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। यह एक तथ्य है कि टेराकोटा की मूर्तियां मंदिर का एक अभिन्न अंग बनाती हैं। फलकों को मकरों (जल राक्षसों) द्वारा विनष्ट कर दिया गया तथा परनाले जैसे मुख शेष हैं। एल एल बाशम के अनुसार, यह शैली बौद्ध कलाकारों द्वारा विकसित शैली से पहले की है। जोकि तदनंतर दक्षिण-पूर्व एशिया के कई भागों तक पहुंची।
भगतराव (21°33‘ उत्तर, 72°45‘ पूर्व)
भगतराव एक सैंधव सभ्यताकालीन स्थल है, जिसका उत्खनन धौलावीरा के साथ स्वतंत्रयोत्तर काल में किया गया।
यह स्थल हड़प्पा सभ्यता के परवर्ती काल का प्रतिनिधित्व करता है। यह किम नदी के तट पर धौलावीरा से लगभग 500 किमी. की दूरी पर स्थित है। भगतराव, नर्मदा-ताप्ती घाटी में प्रवेश का एक आसान एवं अच्छा स्थल था। ऐसा अनुमान है कि बहुत से हड़प्पावासियों ने कच्छ की ओर प्रस्थान किया था तथा अंततः वे इसी क्षेत्र में बस गए थे।
कुछ इतिहासकार दायमाबाद के स्थान पर भगतराव को ही सिंधु घाटी सभ्यता की दक्षिणी सीमा मानते हैं।
भगवानपुरा (30° उत्तर, 76° पूर्व)
भगवानपुरा, हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित है। सरस्वती नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित इस सैंधव सभ्यता कालीन स्थल से इस सभ्यता के पतनोन्मुख काल के अवशेष मिले हैं। जे.पी. जोशी के निर्देशन में किए उत्खनन से यहां पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुएं पाई गई हैं, जिनमें तांबे की चूड़ियां, काली तथा सफेद रंग की चूड़ियां तथा कांच की मिट्टी के चित्रित काले रंग के मनके इत्यादि प्रमुख हैं। यहां के उत्खनन से परिवर्तित हड़प्पा काल के अवशेषों के साथ ही चित्रित धूसर मृदभाण्ड प्राप्त हुए हैं, जिससे अनुमान है कि इन दोनों सभ्यताओं के लोग यहां साथ-साथ निवास करते थे। यह समय संभवतः 1600-1000 ई.पू. के मध्य था। परवर्ती हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख प्रमाण एक कमरे के मकान हैं, जो मिट्टी तथा ईंटों के बने हैं। इसके आगे के काल में यहां के निवासी चित्रित धूसर मृदभाण्डों का प्रयोग करने लगे तथा बड़े आकार के आवास पुनः निर्मित होने लगे।
भगवानपुरा से 13 कमरों का एक विशाल आवास भी प्राप्त हुआ है, इसमें आंगन भी है। इस आवास की दीवारें मिट्टी से बनी थीं। यह या तो किसी बड़े संयुक्त परिवार का या ऋग्वैदिक कालीन किसी जनजातीय प्रमुख का आवास था। यहां से प्राप्त वस्तुओं में 1400 ई.पू. की विभिन्न रंगों की चूड़ियां तथा टेराकोटा की लघु मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। लेकिन यहां से लोहे या किसी अनाज के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं। इस प्रकार भगवानपुरा चित्रित धूसर मृदभाण्डों के पूर्व-लौहकरण (पीजीडब्ल्यू) संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता था।
भाजा (18°43‘ उत्तर, 73°28‘ पूर्व)
भाजा, पूना के निकट स्थित है तथा बौद्ध चैत्य गृहों एवं गुहा विहारों के लिए प्रसिद्ध है। लोनवली के समीप 18 गुफाएं, बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा से संबंधित हैं और दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान उत्खनित की गई हैं।
भाजा की ये गुफाएं पश्चिम भारत में गुहा स्थापत्य का प्रारंभिक उदाहरण हैं तथा काष्ठ स्थापत्य से काफी साम्यता रखती हैं। भाजा के चैत्य से संबद्ध एक विहार भी है। इससे पत्थर को काटकर एक विशाल कक्ष का निर्माण किया गया है, जिसका उपयोग बौद्ध भिक्षु आवास के लिए करते थे।
गुफाओं के दो रिलीफ स्थापत्य भी उल्लेखनीय हैं-एक में किसी राजा को रथ की सवारी करते हुए दिखाया गया है, जिसे चार घोड़े खींच रहे हैं, जबकि दूसरे में एक युवराज हाथी पर बैठा हुआ है।
इन गुफाओं की विशेषता यह है कि सूर्य की किरणें इन गुफाओं के अंदर प्रवेश करती हैं। गुफाओं के दक्षिणी हिस्से में देवी-देवताओं की आकृतियां उकेरी गई हैं।
भरहुत (24.16° उत्तर, 80.51° पूर्व)
भरहुत मध्य भारत में इलाहाबाद के 150 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में संकीर्ण माहियर घाटी के मुख पर स्थित है। प्राचीन व्यापार मार्ग पश्चिमी तटीय क्षेत्र से पाटलिपुत्र की पूर्वी राजधानी उत्तरी श्रावस्ती का मार्ग भरहुत के द्वारा जोड़ता है। मौर्य शासक अशोक के समय में एक ईंटों से बना स्तूप जिसका व्यास 68 फीट था तथा प्लासटर से ढका हुआ था, का निर्माण भरहुत में किया गया था। शुंग के शासनकाल में, जो कि दूसरी शताब्दी ई.पू. सत्ता में था तथा 72 ई.पू. तक शासन किया, अत्यधिक अलंकृत पाषाण से बना बाड़ा लगवाया गया, जिसका व्यास 88 फुट था। बुद्ध का प्रदर्शन मानव रूप के साथ ही साथ सांकेतिक रूप में होना भरहुत कला की एक विशेषता है। भरहुत कला की एक और विशेषता यह है कि इसमें चित्रों के साथ कथा वर्णन भी मिलता है जिससे दृश्य को पहचानना तथा समझना आसान हो जाता है-यह अभ्यास कालान्तर में प्रयोग नहीं किया गया। यद्यपि चित्रों की संख्या इतनी अधिक है कि सामान्यतया इसमें भावाभिव्यक्ति की कमी रहती है। भरहुत कला मौर्यों की एक सरल कला के विकास को प्रकट करती है। अब मैदान में एक छिछले अवसाद के अलावा इस बौद्ध स्थल के विख्यात स्तूप संबंधी कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। ईंटें तथा बलुआ पत्थर के टुकड़े चारों ओर बिखरे पड़े हैं तथा बलुआ पत्थर से बना बाड़ा, स्तंभ तथा प्रवेश द्वार, जिन्होंने स्तंभ को घेरा हुआ था, को हटाया जा चुका है। इन कलाकृतियों में से अधिकतर को भारतीय संग्रहालय कोलकाता में प्रदर्शित किया गया है।
भटिंडा (30°13‘ उत्तर, 74°57‘ पूर्व)
सल्तनत काल में भटिंडा उत्तर-पश्चिम पंजाब का एक महत्वपूर्ण दुर्ग था। भारत में मंगोल आक्रमणों से प्रतिरक्षा के निमित्त इस दुर्ग का निर्माण कराया गया था। इसके साथ ही यह दुर्ग भारतीय शासकों के लिए मध्य एशिया एवं अफगानिस्तान में आक्रमण करने में भी द्वार का काम करता था। इस प्रकार इस दुर्ग का दोहरा महत्व था।
धीरे-धीरे इस दुर्ग के आसपास एक नगर बस गया, तथा इस दुर्ग के नाम के कारण उसका नाम भी भटिंडा पड़ गया। इस प्रकार इस नगर का ऐतिहासिक महत्व है। ऐसा माना जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण दूसरी सदी ई. में हिन्दू राजा दाब ने करवाया था। अतः भटिंडा शहर लगभग 1900 वर्ष प्राचीन है। इस प्रकार यह पंजाब के प्राचीनतम शहरों में से एक है। ‘भटिंडा‘ शब्द की उत्पत्ति के संबंध में भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं। यद्यपि इसे भाटी वंश के शासकों द्वारा जीतने के बाद ही भटिंडा कहा जाने लगा।
भटिंडा के किले का निर्माण लाहौर के किले के साथ ही प्रसिद्ध ब्राह्मण लालियाशाही वंश द्वारा कराया गया था। क्योंकि ये दोनों ही नगर इस वंश की जुड़वा राजधानियां थीं। दिल्ली सल्तनत के आक्रमण के पश्चात् यह इल्तुतमिश के अधीन आ गया। भटिंडा का किला रजिया सुल्तान के शासनकाल की दृष्टि से अत्यधिक महत्व रखता है। इसके बाद यह मुगलों के अधिकार में आ गया तथा मुगल वंश के पतनोपरांत इस पर पटियाला के महाराजा का अधिकार हो गया।
भटिंडा का यह महत्वपूर्ण किला आज भी ज्यों का त्यों खड़ा हुआ है तथा अपने ऐतिहासिक महत्व की याद दिलाता है।
भटकल (13.96° उत्तर, 74.56° पूर्व)
भटकल एक छोटा नगर है, जो कर्नाटक में अरब सागर के पश्चिमी तट हाइवे पर स्थित है। ऐतिहासिक दृष्टि से भटकल एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था तथा विजयनगर साम्राज्य के दिनों में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था।
सारस्वतों (जिन्हें कोंकणीयों के नाम से भी जाना जाता है) ने तटीय व्यापार को भरपूर प्रोत्साहन दिया तथा कला एवं निर्माण कार्यों में अकूत संपदा व्यय की। सातुप्पा नायक ने तिरुमाला मंदिर का निर्माण कराया। यहां व्यापारियों द्वारा भी कई मंदिर बनवाए गए, जिनमें केटप्पा नारायण मंदिर, आदिक नारायन मंदिर एवं लक्ष्मी नारायण मंदिर प्रमुख हैं।
1546 ई. में निर्मित केटप्पा नारायण मंदिर दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला शैली का एक सुंदर नमूना है। यहां के अधिकांश मंदिर कठोर ग्रेनाइट चट्टानों से बने हैं तथा उन पर तांबे या लोहे का पत्र चढ़ाया गया है।
विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय (1509-1530 ई.) की अनुमति से पुर्तगालियों ने यहां एक दुर्ग का निर्माण भी कराया था।
भटनेर (29.58° उत्तर, 74.32° पूर्व)
भटनेर, राजस्थान में हनुमानगढ़ के समीप स्थित है। 12-13वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान यह जैसलमेर के भाटियों के अधीन था तथा यह अपने लंबे एवं विशाल किले के लिए प्रसिद्ध था।
भटनेर, जो कि वास्तव में राजस्थान में स्थित है, अविभाजित पंजाब की सामरिक जरूरतों के अनुसार ज्यादा महत्वपूर्ण था। 1399 में यहां अपने भारतीय अभियान के क्रम में तैमूर ने भयंकर आक्रमण किया। फिर मिर्जा कामरान ने इसे बल द्वारा जीत लिया। बाद में यह किला उस समय अंग्रेजों के अधिकार में चला गया, जब 1800 ई. में जार्ज थामस ने इस पर अधिकार कर लिया।
यद्यपि वर्तमान समय में यहां पर इस दुर्ग एवं स्थान के अवशेष ही दिखाई देते हैं जिससे हम प्राचीन समय में इस स्थान का महत्व जान सकते हैं।
भट्टीप्रोलू (16.10° उत्तर, 80.78° पूर्व)
भट्टीप्रोलू, आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में स्थित है तथा एक प्रसिद्ध बौद्ध स्थल है। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित एक ‘महास्तूपश् है। यह स्तूप मजबूत ईंटों से निर्मित है तथा इसके गुम्बद का व्यास लगभग 40 मीटर है। उत्खनन में स्तूप के केंद्रीय कक्ष के समीप तीन प्रस्तर के पात्र प्राप्त हुए हैं। एक पात्र में काले पत्थर की शवाधान पत्रिका, तांबे के मनके, मोती एवं विभिन्न प्रकार के आभूषण भरे हुए हैं। जबकि एक अन्य में हरितमणि से निर्मित एक क्रिस्टल टोकरी है, जिसमें अस्थियों के तीन टुकड़े एवं आभूषण भरे हुए हैं।
भट्टीप्रोलु दक्कन एवं तमिलनाडु के मध्य के व्यापारिक मार्ग का एक प्रमुख स्थल था तथा इस क्षेत्र में कई अन्य बौद्ध स्थापत्य रचनाएं होने का अनुमान है। यहां पाए गए स्तूप इस क्षेत्र के व्यापारियों की बौद्ध धर्म में गहरी आस्था को परिलक्षित करते हैं। हाल के उत्खनन में यहां से एक बौद्ध मठ के होने के प्रमाण भी पाए गए हैं।
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