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भारत की सिलिकॉन वैली किसे कहा जाता है , which is known as silicon valley of india in hindi city
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बंगलौर/बंगलुरू
(12°58‘ उत्तर, 77°34‘ पूर्व)
एक ब्रिटिश इतिहासकार जोसेफ माइकैंड के शब्दों में “प्रकृति की अनुपम खूबसूरती एवं मंत्रमुग्ध कर देने वाली छठा के लुत्फ को उठाना है तो बंगलौर को देखें।‘‘ कर्नाटक की राजधानी बंगलौर को कई उपनामों से अभिहीत किया जाता है। जैसे- ‘गार्डन सिटी‘, (बागों का शहर), ‘लेक सिटी‘ (झीलों का शहर), ब्लॉसम सिटी (खिलता शहर), ‘पेंशनर्स पैराडाइज‘ (वृद्धों का स्वग), सिलिकन वैली ऑफ इंडिया (भारत की सिलिकन घाटी) एवं भारत की सूचना प्रौद्योगिकी नगरी इत्यादि।
बंगलौर शहर की स्थापना 1537 ई. में कम्पेगौड़ा प्रथम ने की थी, जो विजयनगर साम्राज्य का एक जागीरदार था। बाद में बंगलौर कम्पेगौड़ा द्वितीय के अधीन आया फिर मराठों ने, फिर मुगलों एवं फिर मैसूर के वाडुयार शासकों ने इस पर कब्जा कर लिया। इसके उपरांत इस पर हैदर अली-टीपू ने अधिकार कर लिया एवं अंततोगत्वा 1831 में यह अंग्रेजों के हाथों में चला गया। 1881 में, महारानी विक्टोरिया ने मैसूर के शासकों की राजगद्दी बहाल कर दी। भारत की स्वतंत्रता के उपरांत यह शहर कर्नाटक में चला गया तथा उसकी राजधानी बन गया।
यहां कई ऐतिहासिक एवं आधुनिक स्थापत्य कृतियां हैं। इनमें कई मंदिर भी हैं, जैसे-सोमेश्वरी मंदिर, रंगनाथ स्वामी मंदिर, कुटुमालेश्वर मंदिर एवं गंगधारेश्वर मंदिर।
बंगलौर की कई प्रशासकीय इमारतें वैसी ही भव्य हैं, जैसी कि यहां की धार्मिक इमारतें। पर्यटकों के लिए आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र यहां का विधानसभा भवन है। यह भवन भारत की सबसे बड़ी व्यवस्थापिका इमारत है। इसके अतिरिक्त संग्रहालय, बंगलौर पैलेस, जवाहरलाल नेहरू तारामंडल इत्यादि भी यहां की अत्यंत सुंदर इमारतें हैं।
बानगढ़ (25°24‘ उत्तर, 88°31‘ पूर्व)
बानगढ़, पद्मा नदी के तट पर बांग्लादेश के दिनाजपुर जिले में स्थित है। प्राचीनकाल में इसे कोटिवर्ष एवं देवी कोटी के नाम से जाना जाता था। के.जी. गोस्वामी के निर्देशन में किए गए उत्खनन से यहां मौर्यकाल से लेकर प्राक् मध्यकाल तक के पांच स्तर प्राप्त किए गए हैं। सबसे निचले स्तर में एक गोलाकार सोखता गड्ढे का प्रमाण मिला है।
पाल युग का एक लघु एवं कमलाकार जलाशय भी यहां पाया गया है। बानगढ़ के उत्खनन में कई टेराकोटा की वस्तुएं-जैसे कि घर में पूजा हेतु घरों को सजाने हेतु तथा धार्मिक अनुष्ठान हेतु प्राप्त हुई हैं।
बारबरा/बराबर (25° उत्तर, 85° पूर्व)
बराबर बिहार के गया से 25 किमी. उत्तर में स्थित है तथा यह अशोक द्वारा निर्मित चार प्रस्तर गुफाओं के लिए प्रसिद्ध है। बाद में अशोक ने इन्हें आजीवक एवं गैर-बौद्ध सम्प्रदाय को दान दे दिया, जिन्हें अशोक के सहिष्णु शासनाधीन अपने धर्म का अनुपालन करने की अनुमति थी।
ये गुफाएं भारत की प्रारंभिक गुहा-स्थापत्य का सुंदर उदाहरण हैं तथा प्रारंभिक काल की काष्ठ स्थापत्य से अत्यधिक साम्यता प्रदर्शित करती हैं। व्हेल की पीठ के समान, क्वाट्र्ज खनिज के शैल एक जंगली तथा ऊबड़-खाबड़ स्थान में स्थित है। अभिलेख दर्शाते हैं कि अशोक के आदेश पर चार कक्षों की खुदाई, कटाई तथा पत्थर के कारीगरों द्वारा इसको तराशा गया, एक ऐसे स्थान के रूप में, जो सन्यासियों के लिए आश्रय स्थल हो।
यहां की दो मुख्य गुफाएं सुदामा तथा लोमसा ऋषि के नाम से जानी जाती हैं। यद्यपि लोमसा एवं ऋषि गुफा अदिनांकित तथा अपूर्ण हैं, सुदामा गुफा से समानता के कारण इसे मौर्य काल का माना जाता है। इसकी मुख्य विशेषता इसका अलंकरण वाला अग्रभाग तथा लकड़ी की संरचना में गोलाकार चाप है। दरवाजे तथा छत के बीच नीचे की ओर हाथियों के चित्र वाला एक अर्ध-वृत्ताकार फलक है, तथा उसके ऊपर की ओर एक जालीदार पर्दा है। अग्रभाग को इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह अलंकरण की विस्तृत योजना का प्रारंभ प्रदर्शित करता है तथा यह अग्रभागों का विशेष अलंकरण दक्कन में चैत्यों के अलंकरण की विशेषता प्रदान करता है।
बारबेरिकम (24°51‘ उत्तर, 67° पूर्व)
बारबेरिकम सिंधु डेल्टा का महत्वपूर्ण पत्तन था, जहां बैक्ट्रिया से चीनी फर एवं सिल्क आता था तथा इन्हें यहां से पश्चिमी देशों को भेजा जाता था। प्रथम सदी ईस्वी में यह भारत की व्यापारिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था।
बरखेड़ा (22°56‘ उत्तर, 77°36‘ पूर्व)
बरखेड़ा, मध्य प्रदेश में भीमबेटका से 7 किमी. दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। यह दक्षिण एशिया का एक प्रमुख खुले स्थान वाला पाषाणयुगीन स्थल है। यह आखेटकों एवं संग्राहकों का एक महत्वपूर्ण स्थल भी था।
बड़ौदा (22°18‘ उत्तर, 73°12‘ पूर्व)
बड़ौदा को ‘बड़ोदरा‘ के नाम से भी जाना जाता है। बड़ौदा का अर्थ है- ‘बरगद का पेड़‘ । बड़ौदा वर्तमान गुजरात में स्थित है। अकबर ने विद्रोहों का दमन करने के लिए दो बार गुजरात का अभियान किया तथा अंततः बड़ौदा सहित गुजरात को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात बड़ौदा गायकवाड़ों के शासनाधीन हो गया।
गायकवाड़ शासकों ने बड़ौदा को अपनी राजधानी बनाया, जिन्होंने यहां एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। मध्यकाल में यह सूती वस्त्र उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र था तथा 17वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने व्यापारिक कारखाना प्रारंभ किया। यहां कई हिन्दू एवं जैन मंदिर भी हैं।
बड़ौदा को गुजरात की ‘गार्डन सिटीश् भी कहा जाता है। यहां कई खूबसूरत एवं भव्य महल, मंदिर, उद्यान एवं संग्रहालय हैं इसीलिए इसे गुजरात की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है। बड़ौदा शक्तिशाली राजवंशों की नगरी भी रही है।
महाराजा सियाजीराव गायकवाड़ द्वारा निर्मित लक्ष्मी मंदिर एवं लक्ष्मी विलास पैलेस बड़ौदा की सुंदर इमारतें हैं।
बनारस/वाराणसी (25.28° उत्तर, 82.96° पूर्व)
बनारस, जिसे वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है। गंगा नदी के पश्चिमी तट पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित है। बनारस विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक है तथा हिन्दू धर्म में इस नगरी का अत्यधिक सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व है।
बनारस का प्राचीनतम उल्लेख बौद्ध धर्म के ग्रंथों एवं महाभारत में प्राप्त होता है। वाराणसी पालि भाषा के बानारासी का रूपांतरण है एवं इसी से इसका नाम ‘बनारस‘ पड़ा। वामन पुराण के अनुसार, अत्यंत प्राचीन समय में एक आदि पुरुष के शरीर से वरुणा एवं आसी नदियों का उदभव हुआ। इन नदियों के मध्य स्थित भूमि को तीर्थयात्रा के लिए अत्यंत पवित्र माना गया। बनारस का एक नाम ‘काशी‘ भी है, जिसका अर्थ है- ‘आध्यात्मिक प्रकाश की नगरी‘।
जैन धर्म के अनुयायी वाराणसी को अपने तीन तीर्थंकरों की जन्मस्थली मानते हैं। ये तीर्थंकर हैं-सुपाश्र्व (7वें), श्रयौस (11) एवं पाश्र्वनाथ (23वें)। -वाराणसी, शिक्षा, कला, दस्तकारी एवं संगीत की समृद्ध परंपरा हेतु भी प्रसिद्ध है। वाराणसी सिल्क उत्पादन का भी एक प्रसिद्ध केंद्र है। वाराणसी की सिल्क साड़ियां एवं अन्य सामान पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं।
प्रसिद्ध बौद्ध स्थल सारनाथ, यहां से मात्र 10 किमी. की दूरी पर स्थित है। सारनाथ में ही बुद्ध ने अपना पहला धर्माेपदेश दिया था, जिसे बौद्ध धर्म में ‘धर्मचक्र प्रवर्तन‘ के नाम से जाना जाता है। वाराणसी अपने घाटों के लिए भी प्रसिद्ध है। दशोश्वमेध घाट एवं मणिकर्णिका घाट यहां के प्रसिद्ध घाट हैं।
बनवाली (29°32 उत्तर, 75°17‘ पूर्व)
बनवाली एक सैंधव सभ्यताकालीन स्थल है, जो आधुनिक हरियाणा के हिसार जिले में या विलुप्त सरस्वती के सूखे तल में स्थित है। आर.एस. बिष्ट के निर्देशन में किए गए उत्खनन से यहां सैधव सभ्यता के तीन स्तर प्राप्त हुए हैं-हड़प्पा पूर्व, हड़प्पा एवं परवर्ती हड़प्पा। इन तीन स्तरों के कारण यह कालीबंगा से साम्यता रखता है। सबसे पहले चरण में बस्ती को मिट्टी की ईंटों के साथ 3: 2: 1 के अनुपात में मजबूत किया गया था, इसके बाद के चरण में ईंटों के उपयोग का अनुपात 4: 2: 1 था। बनवाली में भी शहर को दो मुख्य भागों-ऊंचे स्थान पर दुर्ग और निचला शहर, जिन्हें एक बड़ी दीवार से पृथक् किया गया था-में विभाजित शहर सहित हड़प्पा जैसा शहर नियोजन था। ऊंचे स्तर के दुर्ग तथा निचले स्तर के नगर, दोनों को एक ही दीवार से घेरा गया है। नगर हड़प्पा जैसे जाल व्यवस्था में है। जिसमें सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती हैं। यहां पर उत्कृष्टता से बनाई गई नालियों के साक्ष्य भी हैं, हालांकि मोहनजोदड़ो की तुलना में सड़कों की व्यवस्था बेतरतीब है।
बनवाली से प्राप्त सामग्रियों में सर्वाधिक उल्लेखनीय मिट्टी का बना एक हल है। इसके अतिरिक्त यहां के उत्खनन से मृदभाण्ड, ठप्पे, मुहरें, चूड़ियां, कीमती पत्थर इत्यादि भी पाए गए हैं। बनवाली से मिलने वाले वस्तुओं के अवशेष तथा अनाज विविधता दर्शाते हैं।
उत्तर सैंधव काल में मकानों का निर्माण ईंटों की जगह मिट्टी या कीचड़ एवं भूसी के मिश्रण से किया जाने लगा था। हड़प्पा काल की उत्तम विशेषताएं इस काल में कम ही दिखाई देती हैं।
बनवासी/वैजयन्ती
(14.53° उत्तर, 75° पूर्व)
कर्नाटक के सिमोगा जिले में स्थित बनवासी को ‘वैजयन्ती‘ के नाम से भी जाना जाता था। यह कंदबों की राजधानी थी। कदंब शासकों को 8वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन ने पराजित कर दिया था।
श्रीलंकाई इतिवृत्तियों के अनुसार दक्षिण भारत में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अशोक द्वारा जो मिशन रक्षित के नेतृत्व में भेजा गया था, वह बनवासी भी गया था।
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