बाल गंगाधर तिलक bal gangadhar tilak in hindi information for upsc wiki के राजनीतिक विचार

(bal gangadhar tilak in hindi) information for upsc wiki बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार क्या है ? विचारों का वर्णन करें ? राजनीतिक गुरु कौन थे पुस्तकें पुस्तक का नाम ? बाल गंगाधर तिलक को लोकमान्य की उपाधि किसने दी ?

बाल गंगाधर तिलक
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
तिलक: एक संक्षिप्त जीवन.परिचय
सामाजिक सुधार पर तिलक के विचार
विवादास्पद मुद्दे
तिलक का दृष्टिकोण
तिलक के आर्थिक विचार
आर्थिक मुद्दों पर तिलक के विचार
तिलक के राजनीतिक विचार
तिलक के राजनीतिक चिंतन की दार्शनिक बुनियाद
राष्ट्रवाद
अतिवाद: एक विचारधारा के रूप में
अतिवाद: कार्यवाही का कार्यक्रम
एक संक्षिप्त आंकलन
सारांश
शब्दावली
उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में प्रमुख राष्ट्रवादी बाल गंगाधर तिलक के सामाजिक और राजनीतिक चिंतन पर चर्चा की गयी है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप निम्न के बारे में चर्चा कर सकेंगेः
ऽ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में तिलक का योगदान,
ऽ सामाजिक सुधार पर उनके विचार,
ऽ आर्थिक मसलों पर उनके विचार, और
ऽ उनके राजनीतिक विचार और गतिविधियां।

प्रस्तावना
भारतीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, और तब से ही इस पर पश्चिमी पढ़े-लिखे भारतीयों का दबदबा रहा। कांग्रेस के शुरुआती सालों में उसे पश्चिमी राजनीतिक विचारों और व्यवहारों ने प्रभावित किया। उदारवाद कांग्रेस का निर्देशनकारी दर्शन रहा।

कांग्रेस के उदारवादी दर्शन के मुख्य सिद्धांत थेः
क) मानव की गरिमा में आस्था,
ख) व्यक्ति का स्वतंत्रता का अधिकार,
ग) सभी नस्ल, धर्म, भाषा और संस्कृति के स्त्री-पुरुषों की समानता।

व्यवहार में इन सिद्धांतों का यह अर्थ निकलता थाः
क) मनमाने शासन का विरोध,
ख) कानून का राज,
ग) कानून के आगे समानता,
घ) धर्म निरपेक्षता।

अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों की पहली पीढ़ी को ब्रिटिश ढंग के रहन-सहन से अपार लगाव था, उनकी न्याय और उचित व्यवहार की ब्रिटिश भावना में आस्था थी, और ब्रिटिश शासकों के प्रति उनमें स्नेह और कृतज्ञता का गहरा भाव था।

उनका विश्वास था कि सामान्य तौर पर अंग्रेजों के साथ संपर्क, विशेष तौर पर अंग्रेजी शिक्षा के साथ संपर्क, उन्हें स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र और मानवीय गरिमा के नये और मुक्तिकारी विचारों के संपर्क में लाने के लिये जिम्मेदार थे। अंग्रेजी हुकूमत को वे इस बात का श्रेय देते थे कि उन्होंने कानून और व्यवस्था कायम की और असरकारी प्रशासन को लागू किया।

युरोपीय उदारवादियों की तरह, 19वीं सदी के भारतीय कांग्रेसी नेता भी धीरे-धीरे होने वाली प्रगति में विश्वास करते थे। इस प्रगति की प्राप्ति शासकों की सहानुभूति और शुभेच्छा के माध्यम से होनी थी। इसलिये वे संवैधानिक तरीकों पर जोर देते थे।

राष्ट्रीय एकता उनकी चिंता का प्रमुख विषय था। वे राजनीतिक उद्देश्यों के लिये धार्मिक मतभेदों का लाभ उठाने के खिलाफ थे। वे राजनीति को धर्म से अलग रखने पर जोर देते थे। उनका दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष था।

पढ़े-लिखे भारतीयों की युवा पीढ़ी ने पहले वाली पीढ़ी के पूरे सोच को अस्वीकार कर दिया। काफी हद तक, इसके लिये बदली हुई परिस्थितियां जिम्मेदार थीं। उन्होंने स्वराज या देश के लिये स्वाधीनता के लक्ष्य की जगह एक और क्रांतिकारी सिद्धांत और व्यवहार को रखा। कांग्रेस के बुजुर्ग नेता युवा राष्ट्रवादियों के रवैये से स्तब्ध थे। उन्होंने उन्हें अतिवादी कहा और उनके दर्शन को ‘अतिवाद‘ बताया।

ये युवा राष्ट्रवादी ‘अतिवादी‘ अपने अधिकांश व्यवहारों और विश्वासों में पहले के उदारवादियों से भिन्न थे। इन अतिवादियों की अपने पूर्ववर्तियों की तरह अंग्रेजों की ग्य और उचित व्यवहार की भावना में आस्था नहीं थी। उनके तरीके भी उदारवादियों से भिन्न थे। पहले की पीढ़ी के नेताओं ने जिन तथाकथित संवैधानिक तरीकों और विकासशील रणनीति को अपनाया हुआ था, युवा पीढ़ी के राष्ट्रवादियों का उनमें विश्वास नहीं था। अतिवादी एक निडर और क्रांतिकारी रणनीति को कहीं अधिक पसंद करते थे। वे नेता अपने आंदोलनों के लिये समर्थन जुटाने और जन जागरण के लिये अक्सर पारंपरिक सांस्कृतिक व्यवहारों और परंपराओं का सहारा लेते थे।

इस तरह, युवा राष्ट्रवादी राष्ट्रीय आंदोलन को एक नयी दिशा और एक भिन्न दृष्टिकोण देने में कामयाब रहे। फिर भीए यह उल्लेख करना होगा कि समूचे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में आये बदलावों ने यह संभावना बना दी थी कि राष्ट्रवादियों की एक नयी और अलग किस्म की पीढ़ी उभरे और कामयाबी से काम करे।

लाब बाल पाल के नाम से जानी जाने वालीए लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल की तिकड़ी ने युवा राष्ट्रवादियों का नेतृत्व किया। इन तीनों ने ही भारत में राष्ट्रवादी सोच और आंदोलन के विकास में योगदान किया। यहां हम भारतीय राजनीतिक सोच और राष्ट्रीय आंदोलन में बाल गंगाधर तिलक के योगदान का अध्ययन करेंगे।

तिलक : एक संक्षिप्त जीवन-परिचय
बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण के रत्नागिरी जिले के मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। यह परिवार पवित्रता, विद्वता और प्राचीन परंपराओं और कर्मकांडों में लगन के लिये जाना जाता था। उनके पिता, गंगाधर पंत व्यवसाय से अध्यापक और संस्कृत के विद्वान थे। इस तरह बाल तिलक का पालन-पोषण रूढ़िवाद और परंपराओं के वातावरण में हुआ। इससे उनमें संस्कृति के प्रति लगाव और प्राचीन भारतीय सोच और संस्कृति के प्रति सम्मान का भाव बना। जब वह दस वर्ष के थे, उनके पिता का तबादला पुणे के लिये हो गया। इससे उन्हें उच्च शिक्षा का अवसर मिल गया। 1876 में ग्रेजुएशन करने के बजाय उन्होंने देश सेवा करने का निश्चय किया।

इस विश्वास के साथ कि देश-सेवा करने का सबसे अच्छा तरीका लोगों (या जनता) को शिक्षित करना थाए तिलक और उनके मित्र गोपाल गणेश अगरकर ने शिक्षा के लिये अपने जीवन को समर्पित कर देने का निश्चय किया।

उन्होंने 1876 में पुणे में न्यू इंगलिश स्कूल शुरू किया और स्कूल अध्यापकों के रूप में अपने कैरियर (या कार्य जीवन) की शुरुआत की। लेकिन तिलक को यह लगने लगा कि छोटे बच्चों को शिक्षित करना काफी नहीं था और बड़ी उम्र के लोगों को भी सामाजिकराजनीतिक यथार्थ से परिचित कराया जाना चाहिये, इसलिएए 1881 में उन्होंने दो साप्ताहिक शुरू किये-अंग्रेजी में श्मराठाश् और मराठी में ‘केसरी‘। 1885 में उन्होंने एक कॉलेज शुरू करने की गरज से दक्कन एजूकेशन सोसाइटी की स्थापना की। बाद में इस कॉलेज का नाम बम्बई के तत्कालीन राज्यपाल के नाम पर ‘फर्ग्युसन कॉलेज‘् रखा गया।

बाद में, तिलक और अगरकर में मतभेद हो जाने के कारण तिलक ने सोसायटी से इस्तीफा दे दिया और दोनों साप्ताहिकों का स्वामित्व ले लिया। इन दो साप्ताहिकों का संपादन करते हुए बम्बई प्रेसीडेंसी के सामाजिक और राजनीतिक मामलों में सीधे-सीधे हिस्सेदारी का मौका मिला। केसरी में अपने लेखों के जरिये उन्होंने लोगों को उनके अधिकारों के प्रति सचेत करने का प्रयास किया। अपने लेखों में, तिलक अक्सर महाराष्ट्र की परंपरा और उसके इतिहास का आह्वान करते थे। इन लेखों के कारण वह अपने लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गये। लेकिन, इस कारण सरकार उनकी बैरी हो गयी उन्हें कई मौकों पर जेल की हवा खानी पड़ी।

तिलक को भारत का एक अग्रणी संस्कृत विद्वान माना जाता था। इससे वह तत्वमीमांसा (मेटाफिजिक्स), धर्म, खगोल शास्त्र और दूसरे संबद्ध क्षेत्रों से संबंधित साहित्य का अध्ययन कर सके। उनकी एक जानी-मानी कृति ‘‘ओरायन: स्टडीज इन दि एंटीक्विटीज ऑफ वेदाज’’ (‘वेदों की प्राचीनता का अध्ययन‘) है। इस किताब में उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि ऋग्वेद का लेखन ई.पू. 4500 में हुआ था। इस किताब से उन्हें प्राच्य (पूर्वी) विषयों के विद्वान के रूप में मान्यता मिली। उनकी दूसरी किताब ‘‘दि आर्कटिक होम ऑफ वेदाज’’ थी। इस किताब में उन्होंने खगोल शास्त्रीय और भौगोलिक आंकड़ों के आधार पर यह मत दिया कि आर्य मूल रूप से आर्कटिक क्षेत्र के निवासी थे। लेकिन, उनकी महानतम कृति ‘‘गीतारहस्य’’ थी। इसमें गीता के उपदेशों की दार्शनिक मीमांसा है। गीता की विवेचना करते हुए, तिलक ने इसके मूल संदेश के रूप में त्याग की जगह कर्मयोग पर जोर दिया।

एक क्रांतिकारी राष्ट्रीय जागरण के लिये, तिलक और उनके सहकर्मियों ने प्रसिद्ध चार-सूत्रीय कार्यवाही कार्यक्रम बनाया, जिसे कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने पसंद किया। सरकार चैकन्ना हो गयी और अधीर होकर उसने भयंकर दमनकारी तरीकों का सहारा लिया। अंत में, बनारस कांग्रेस के समय कार्यवाही कार्यक्रम को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। इसके बाद तिलक की गिरफ्तारी हो गयी, उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। अभियोग का आधार उनका एक लेख था, जो उन्होंने केसरी के लिये लिखा था। उन्हें छह महीने की कड़ी कैद की सजा सुनायी गयी और उन्हें निर्वासित कर मांडले भेज दिया गया। यहीं उन्होंने अपनी प्रसिद्ध किताब गीता रहस्य लिखी। जेल से छूट कर एक बार फिर उन्होंने स्वराज्य के विचार को लोकप्रिय बनाया। 2 अक्टूबर, 1920 को उनका निधन हो गया।

तिलक का यह विश्वास था कि दुनिया ईश्वर का क्षेत्र है और वास्तविक है। यह माया नहीं है। व्यक्ति को दुनिया में ही रहना और प्रयास करना है, यहीं उसे अपने कर्म करने हैं। इस तरह से, व्यक्ति आध्यात्मिक आजादी पायेगा और अपने साथी प्राणियों के कल्याण को बढ़ावा देगा। वेदांत दर्शन में विश्वास के बावजूद, तिलक सामान्य अर्थ में धर्म के महत्व को मानते थे। प्रतीकों के उपयोग और लोकप्रिय कर्मकांडों को वह इसलिए स्वीकार करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इनसे सामाजिक एकजुटता और एकता की भावना को बनाने में मदद मिलती है।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर नीचे दिये स्थान पर लिखें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तरों से कर लें।
1) उदारवाद के प्रमुख सिद्धात क्या हैं,
2) युवा राष्ट्रवादियों और वरिष्ठ (उदारवादी) नेताओं के बीच क्या मतभेद थे?

बोध प्रश्न 1 के उत्तर :
1. तिलक एक अवैयक्तिक ईश्वर और अद्वैतवाद में विश्वास करते थे। फिर भीए वह वैयक्तिक ईश्वर की अवधारणा और इससे जुड़े कर्मकांड के महत्व को मानते थे। उनका मानना था कि चिन्ह आम आदमी की समझ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और इसलिये वह उनके लिये मूर्तिपूजा और कर्मकांड को ठहराते थे।
2. धर्म में ईश्वर और आत्मा, उनका आपसी संबंध, मानव जीवन का उद्देश्य और उसे पूरा करने के तरीके और साधन शामिल हैं। इससे सामाजिक एकता और शांति में भी मदद मिलती है। हिंदू धर्म आदर्श धर्म की इन दोनों शर्तों को पूरा करता है, इसलिये वह इसे पसंद करते थे।

सामाजिक सुधार पर तिलक के विचार
सामाजिक सुधार पर तिलक के विचार रानाडे, मलबारी, गोखले, भंडारकर आदि समाज सुधारकों से भिन्न थे। जिन मुद्दों को लेकर मुख्य तौर पर विवाद था, उनकी संक्षिप्त व्याख्या करने से इस मसले पर तिलक के विचारों की पृष्ठभूमि मिल जायेगी।

 विवादास्पद मुद्दे
सामाजिक सुधार के जिन मुद्दों पर विवाद था, वे भिन्न थेः वर्ष 1888 में, पुणे के समाज सुधारकों ने स्कूलों और कॉलेजों में लड़के-लड़कियों के लिये सह-शिक्षा का प्रस्ताव रखा। तिलक ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। उनका तर्क यह था कि स्त्रियां अपना अधिकांश समय घर पर रह कर घरेलू कामकाज करते हुए बिताती हैः इसलिये उनके पाठ्यक्रम लड़कों के पाठ्यक्रम से भिन्न होने चाहिये। स्त्रियों के लिये अलग से स्कूल और कॉलेज होने चाहिये जिसमें उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा किया जाये।

वर्ष 1889 में, अमेरिका से लौटने के बाद, पंडिता रमाबाई ने विधवाओं के लिये पहले बम्बई और फिर पुणे में शारदा सदन चाल किया। यह विधवाओं के लिये एक किस्म का आवासीय स्कल था, जिसके लिये पैसों का प्रबंध अमेरिकी मिशनरी करते थे। लेकिन तिलक ने विदेशी स्रोतों से पैसा स्वीकार करने के लिये शारदा सदन की आलोचना की। शारदा सदन की सलाहकार परिषद् के सदस्यों, रानाडे और भंडारकर को विदेशी अभिकरणों से पैसा लेने में कुछ भी गलत दिखायी नहीं देता था। लेकिन तिलक की आलोचना और भी तीखी होती गयी और इसका परिणाम यह हुआ कि रानाडे और भंडारकर ने सलाहकार परिषद से इस्तीफा दे दिया, और इस तरह शारदा सदन को लेकर छिड़े विवाद का अंत हो गया। यह एक मिसाल है जिससे इस तथ्य का पता चलता है कि तिलक एक असरदार नेता थे। जिनकी राय को गंभीरता से लिया जाता था। दृढ़ धारणा की इसी शक्ति और साहस ने उन्हें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक अग्रणी नेता बना दिया।

विवाद का एक और मुद्दा था 1891 में (विवाह की) सहमति की आयु संबंधी विधेयक, और 1918 में एक ऐसे ही विधेयक को लाया जाना। इन विधेयकों का उद्देश्य लड़कियों के लिये विवाह की उम्र बढ़ाना था। यह इसलिये किया गया ताकि बाल विवाह की प्रथा को हतोत्साहित किया जा सके। लेकिन तिलक ने इन दोनों ही विधेयकों का इन आधारों पर विरोध किया कि अगर ये विधेयक पारित हो गये, तो यह एक विदेशी सरकार द्वारा भारतीयों के एक वर्ग के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप होगा।

 तिलक का दृष्टिकोण
इस चरण पर एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है: क्या तिलक एक सामाजिक प्रतिक्रियावादी थे? सामाजिक सुधार के मसले पर तिलक के दृष्टिकोण का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आरोप पूरी तौर पर उचित नहीं है।

तिलक सामाजिक सुधार के विरोधी नहीं थे। वह इस बात से सहमत थे कि समय गुजरने के साथ सामाजिक संस्थाओं और प्रथाओं को बदलना चाहिये, और वे बदलती भी हैं। सच में तो, अपने तरीके से उन्होंने रुढ़िवादिता के खिलाफ संघर्ष भी छेड़ा। लेकिन, सामाजिक सुधार का उनका सिद्धांत उनके विरोधी उदारवादी सुधारकों से भिन्न था। वह सुव्यवस्थित, विकासशील और सहज सुधारों में विश्वास करते थे। वह ऐसे सुधारों पर जोर देते थे, जो क्रमिक हो और जिनकी प्रेरणा का स्रोत और जड़ें लोक-विरासत में हों। वह इस बात में विश्वास करते थे कि मानव समाज हर समय परिवर्तन की स्थिति में रहता है और केवल एक क्रमिक ढंग से ही उसमें बदलाव आ सकता है। कभी भी अतीत से अचानक और पूरी तौर पर टूटना नहीं होता। अगर अतीत के साथ नकली तरीके से अचानक और पूरी तरह टूटना हुआ, तो यह कभी स्वीकार्य नहीं होता। इससे समाज में अव्यवस्था बनती है। इसलिये, उदारवादी सुधारक जिस आमूल-चूल परिवर्तन की बात करते थे, तिलक उस विचार का समर्थन नहीं कर सके। वह चाहते थे कि सामाजिक सुधारों को धीरे-धीरे ही लाया जाये। तिलक ने सुधारकों को आगाह किया कि वे अतीत को पूरी तरह से खारिज न करें। उन्होंने सुधारकों से आग्रह किया कि वे हमारी परंपराओं को स्वीकार करने योग्य विशेषताओं को अपनायें (और उन्हें संजोकर रखें)।

इसके अलावा, तिलक ने सुधारकों के बिना सोचे-समझे पश्चिम की नकल करने का विरोध किया। तिलक इस विचार से कभी सहमत नहीं हो पाये कि पश्चिम की सभी बातें जरूरी तौर पर अच्छी हैं। तिलक खुले दिमाग के थे और वह पश्चिम की किसी भी अच्छी बात को स्वीकार करने को तैयार थे। मिसाल के तौर पर, राष्ट्रीय शिक्षा की अपनी योजना में उन्होंने पश्चिमी विज्ञानों और प्रौद्योगिकी को शामिल किया। राष्ट्रीय शिक्षा की उनकी योजना पश्चिमी और पूर्वी ज्ञान, परंपरा और संस्कृति की परंपराओं के सभी अच्छे तत्वों का बढ़िया मिश्रण था। यह तिलक के समाज सुधार के अपने नमूने की ठोस अभिव्यक्ति थी।

तिलक का मत यह था कि भारतीय समाज में व्याप्त अधिकांश बुराइयों का स्रोत विदेशी शासन था। इसलिये तिलक की दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण काम था, स्वराज की प्राप्ति जो केवल सामूहिक जन प्रयास से संभव थी। जहां तक तिलक का संबंध है, स्वराज की प्राप्ति का काम सामाजिक सुधारों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। वह यह मानते थे कि समाज सुधार के काम भारत को आजादी मिलने के बाद किये जा सकते थे।

अंतिम बात, तिलक विधान के जरिये सुधार लाने के विरोधी थे। वह उन सहज बदलावों के हामी थे जो समाज के अंदर से ही आये। तिलक यह विश्वास करते थे कि केवल ऐसे सुधार ही असरकारी होते हैं। इसके अलावा, वह इस बात के खिलाफ थे कि एक विदेशी सरकार को भारतीयों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप का मौका दिया जाये।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर नीचे दिये स्थान पर लिखें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तरों से कर लें।
1) तिलक का समाज सुधार का सिद्धांत क्या है?
2) तिलक सामाजिक सुधार के मसले को क्यों स्थगित करना चाहते थे?
3) तिलक विधान के जरिये सुधार के विचार के खिलाफ क्यों थे?

बोध प्रश्न 2 के उत्तर :
1. तिलक सामाजिक बदलाव की अनिवार्यता में विश्वास करते थे। मानव चेतना के विकास के साथ सामाजिक स्वरूपों में भी क्रमिक बदलाव आता है। इस तरह के बदलावों की मांग खुद समाज करता है। वह सहज रूप से इन बदलावों को स्वीकार कर लेता है। तिलक का सामाजिक बदलाव का सिद्धांत क्रांतिकारी और स्वाभाविकता पर आधारित था। वह बाहर से बनावटी तौर पर थोपे जाने वाले एकदम बदलावों से असहमत थे।
2. तिलक दो कारणों से सामाजिक सुधारों के मसले को स्थगित करना चाहते थे। पहले, इससे लोगों में फूट पड़ती थी, जबकि राष्ट्रीय उद्देश्य की मांग थी एकता। दूसरे, समाज सही समय पर स्वाभाविक रूप से बदल जाता है। इसमें जो समय लगना है, उसे कम करने का कोई भी प्रयास सामाजिक व्यवस्था को भंग करने वाला होता है।
3. तिलक विधानों के जरिये सामाजिक सुधारों के विचार का दो कारणों से विरोध करते थे। पहले, वह स्वाभाविक सुधारों में विश्वास करते थे। बनावटी ढंग से थोपे गये सुधार सामाजिक बनावट में गड़बड़ी पैदा करते हैं। दूसरे, उस समय इस तरह के मसलों पर विधान का मतलब था, हमारे सामाजिक-धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप को दावत देना, जिसने केवल समाजवाद को मजबूत किया और एक गलत परंपरा डाली थी।

तिलक के आर्थिक विचार
संस्कृति और धर्म तिलक के राष्ट्रवाद के मुख्य आधार थे। फिर भी, वह आर्थिक आधार पर भी अपने राष्ट्रवाद की वकालत करते थे।

तिलक दादा भाई नौरोजी के ‘आर्थिक विकास सिद्धांत‘ से सहमत थे और देश के संसाधनों का दोहन करने के लिये अंग्रेजी सरकार की आलोचना करते थे। उन्होंने लिखा कि भारत में विदेशी उद्यमों और निवेश ने संपन्नता का भ्रम पैदा किया हुआ है, जबकि सच्चाई कुछ और ही है। अंग्रेजी हुकूमत ने देश को कंगाल बना दिया था। अंग्रेजों की बिना सोची-समझी नीतियों ने स्वदेशी उद्योगों, व्यापार और कला को नष्ट कर दिया था। विदेशी शासकों ने यूरोपीय उत्पादों को तो भारत में आने की खुली छूट दे रखी है और भारतीय दस्तकारी आदि को मजबूरन उनके साथ गैर-बराबरी की होड़ करनी पड़ती थी।

लेकिन तिलक मानते थे कि एक विदेशी सरकार से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण देगी। तिलक ने ‘‘बहिष्कार’’ और ‘‘स्वदेशी’’ के जो राजनीतिक कार्यक्रम सामने रखे, उनका उद्देश्य स्वदेशी और स्वाधीन आर्थिक विकास को जन्म देना था। हम इन बिंदुओं पर बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे। यहां इतना कह देना काफी होगा कि बहिष्कार का मतलब था-विदेशी सामान का दृढ़ता से विरोध करना, और स्वदेशी का उद्देश्य स्वदेशी उत्पादन को समर्थन देना था।

बहरहाल, कृषि और उद्योग दोनों क्षेत्रों में मेहनतकश अवाम को आर्थिक न्याय देने के आसन्न मसलों पर तिलक के विचार हमेशा वाद-विवाद का विषय रहे हैं। उनके समय में जो मुद्दे उभर कर आये, उनमें से कुछ पर उनके विचार देकर इस बात को स्पष्ट किया जा सकता है।

8.4.1 आर्थिक मुद्दों पर तिलक के विचार
एक निडर और निर्भीक पत्रकार की हैसियत से, तिलक ने अपने समय में उभर कर वाले छोटे-बड़े सभी मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। अब हम संक्षेप में न मुद्दों और इनके बारे में तिलक के विचारों पर चर्चा करेंगे।

वर्ष 1879 में, सरकार ने कृषि राहत अधिनियम पारित किया जिसका उद्देश्य जमीदारों और महाजनों के शोषण के शिकार किसानों को अत्यधिक राहत देना था जिसकी उन्हें जरूरत थी।

इस अधिनियम के प्रावधान नरम थे। इसमें भूमि के गिरवी रखे जाने पर और इस आधार पर इसके हस्तांतरण पर रोक लगायी गयी थी।

तिलक ने इस अधिनियम पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने महाजनों का पक्ष लिया और केसरी में अपने लेख में इस अधिनियम की आलोचना की। उनका तर्क यह था कि किसानों की दुर्दशा के लिये महाजनों को जिम्मेदार ठहराना गलत है। सच में तो, महाजन के पैसे ले कर ही किसान अपनी खेती चाल रख पाते हैं। इसके अलावा, महाजन खुद शहरी बैंकरों से कुछ कम ब्याज पर पैसे उधार लेते हैं। किसानों के कर्ज न चुकाने की स्थिति में, महाजन को ही परेशान होना पड़ता है। अधिनियम में किसानों को संरक्षण दिया गया, लेकिन महाजनों को असंरक्षित छोड़ दिया गया। इससे किसानों और महाजनों में शत्रुता बनती है। इसलिए, इस संबंध में सरकार की कार्यवाही अनुचित थी। इसलिये, इस कानून को या तो खत्म किया जाये या अविलम्ब वापस ले लिया जाये।

तिलक ने दो आधारों पर इन कानूनों का विरोध किया। एक ओर, उन्होंने नौकरी देने वालों (नियोक्ताओं) और नौकरी पाने वाले (कर्मचारियों) के बीच स्वतंत्र अनुबंध के सिद्धांत के आधार पर अपना तर्क रखा। उन्होंने कारखानों के मालिकों के अधिकारों की तुलना भारत में अंग्रेज बागान-मालिकों के अधिकारों से की। अंग्रेज बागान-मालिक जितने मजदूर चाहे रखने को आजाद थे औ अपनी सहूलियत के हिसाब से मेहनतनामा और काम की दूसरी शतें तय कर सकते थे। उन पर कोई कानुनी बधंन नहीं था। यह दोनों पक्षों के बीच स्वतंत्र अनुबंध था। तिलक यह भी चाहते थे कि सरकार कारखानों के मालिकों और उनके मजदूरों के बीच स्वतंत्र अनुबंध में हस्तक्षेप करने से बाज आये। इसके अलावा, उनका तर्क था कि भारत में अंग्रेज उद्यमियों के मुकाबले भारतीय उद्यमी पहले ही घाटे की स्थिति में थे, और उन्हें गैर-बराबरी की होड़ करनी पड़ती थी।

तिलक ने यह तीखी टिप्पणी की कि देखने में तो यह अधिनियम भारतीय मजदूरों के साथ अंग्रेजों की सहानुभूति की अभिव्यक्ति लगता है, लेकिन सच्चाई यह थी कि इससे अंग्रेजों का नवजात भारतीय उद्योग का गला घोंटने की इच्छा प्रकट होती है।

बहरहाल, मजे की बात यह है कि तिलक ने अंग्रेजों के स्वामित्व वाली कंपनियों के खिलाफ भारतीय मजदूरों की मांग का ही समर्थन किया। मिसाल के तौर पर, 1987 में, तिलक और उनके सहयोगियों ने ब्रिटिश इंडियन रेलवेज के मजदूरों की मांगों को जोरदार ढंग से सामने रखा और उन मांगों को न मानने के लिये इसकी आलोचना की।

ऊपर लिखी बातों से यह लगता है कि तिलक ने अंग्रेजी कंपनियों के खिलाफ तो मजदूरी का समर्थन किया, लेकिन भारतीय शोषकों के खिलाफ उनकी उचित मांगों का समर्थन करने से इंकार कर दिया।

वर्ष 1897 में, सरकार ने एक विधान बनाया जिसका उद्देश्य कोंकण क्षेत्र में जमींदारी प्रथा को नियंत्रित करना था। कोंकण क्षेत्र में, जमींदार, जिन्हें खोट कहा जाता था, बहुत अधिक शोषण करने वाले हो गये थे और इस अधिनियम के जरिये खोटों और उनके किरायेदार किसानों के बीच संबंध को नियंत्रित किया जाना था।

तिलक जो कि खुद एक खोट थे, इस प्रस्तावित विधान से नाराज हो गये, और उन्होंने इसकी आलोचना करते हुए केसरी में एक लेख माला लिखी। इस मुद्दे पर उनका तर्क यह था कि कोंकण में खोट किरायेदार संबंध सदियों पुरानी परंपराओं द्वारा निर्धारित थे। उन्होंने तर्क दिया कि सरकार का अधिकार माल-गजारी की मांग तक ही सीमित था। उसे सीमा नहीं तोड़नी चाहिये और मजदूरों के मेहनतनामे और सेवा-शर्तों को निश्चित करने का प्रयास नहीं करना चाहिये। तिलक ने इस ओर इशारा किया कि सरकार चाय बागानों के मामले में ऐसा नहीं कर रही थी औरए इसलिये उसे खोट-किरायेदार संबंध में भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर करें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तरों से कर लें।
1) तिलक के अनुसार भारतीय उद्योगए व्यापार और दस्तकारी में गिरावट के क्या कारण थे?
2) कारखाना विधान के विरोध में तिलक का क्या तर्क था?

बोध प्रश्न 3 के उत्तर :
1. तिलक के अनुसार भारतीय उद्योग में गिरावट का बुनियादी कारण था भारत के बाजारों में यूरोपीय उत्पादनों का बेरोक-टोक आने के कारण उन पर लादी गयी गैर-बराबरी की होड़।
2. तिलक ने कारखाना विधान के खिलाफ दो आधारों पर तर्क दिये थे। पहले, इससे काम करने वालों और मालिकों के बीच स्वतंत्र संपर्क में हस्तक्षेप होता था। दूसरे, गैर-बराबरी की विदेशी होड़ के नीचे से भारतीय उद्योग के लिये इससे और भी मुश्किलें खड़ी होती थीं। इससे केवल यूरोपीय उद्योग को मदद मिलती थी।

तिलक के राजनीतिक विचार
तिलक के चिंतन का मुख्य क्षेत्र राजनीति था। उनका मुख्य योगदान इसी क्षेत्र में मिलता है। कांग्रेस में नये किस्म के राजनीतिक सोच और व्यवहार का श्रेय तिलक और उनके सहयोगियों लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल को जाता है। उन्होंने अपने समय की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रकृति और राष्ट्रीय आंदोलनों के उद्देश्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन का विश्लेषण किया। इनका यह मानना था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन कांग्रेस में बदलना आवश्यक है। इसे सही तौर पर राष्ट्रीय और जनवादी बताते हुए इसके पुराने व्यवहार के तरीके छोड़ने थे। इसे और भी गतिशील हो कर अपने उद्देश्यों के लिये लड़ना था। अब हम उनके कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक विचारों पर चर्चा करेंगे।
तिलक के राजनीतिक चिंतन की दार्शनिक बुनियाद
तिलक का चिंतन मानसिक अय्याशी नहीं था और वह सिद्धांत रूप में कोई राजनीतिक दार्शनिक भी नहीं थे। वह एक व्यावहारिक राजनीतिक थे और उनका मुख्य काम भारत को राजनीतिक मुक्ति दिलाना था।

तिलक के राजनीतिक दर्शन की जड़ें भारतीय परंपरा में थीं, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उसमें किसी भी पश्चिमी सिद्धांत के लिये कोई जगह ही न हो। उनकी प्रेरणा के स्रोत भारत के प्राचीन आध्यात्मिक और दार्शनिक ग्रंथ थे। इस तरहए उन्होंने स्वराज की अपनी धार.ाा को एक आध्यात्मिक अर्थ दिया। उनकी दृष्टि में, स्वराज एक कानून और व्यवस्था की स्थिति भर नहीं था। यह एक सुखद जीवन कीए ऐशो-आराम की चीजें उपलब्ध कराने या जीवन की आवश्यकताएं उपलब्ध कराने वाली व्यवस्था से भी बढ़ कर था। उनके अनुसार, स्वराज पूर्ण स्वशासन था-राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक। इस तरह, स्वराज मात्र स्वशासन से भी बढ़कर कुछ और था: स्वशासन का तो मतलव होता था बिना अंग्रेजों से संपर्क लोड़े स्वशासन की एक राजनीतिक व्यवस्था। लेकिन स्वराज इससे भी आगे की स्थिति थी, उसमें व्यक्तियों का प्रबुद्ध आत्म-नियंत्रण भी आ जाता था, जिससे उन्हें निर्लिप्त या तटस्थ भाव से अपने कर्म करने की प्रेरणा मिले।

तिलक को लगता था कि भौतिकवाद मानव जीवन को नीचे गिराता है और वह मात्र पश स्तर का रह जाता है। तिलक चाहते थे कि लोग आत्मानुशासन और आत्म-प्रयासों के बल पर पाश्विक आनंद के स्तर से ऊपर उठे और अपनी इच्छाओं को दबाकर सच्चा आनंद प्राप्त करें। इसलिये, मानव जीवन परिपूर्णता की जो उनकी धारणा थी उसमें केवल अधिकारों का भोगना ही नहीं था, बल्कि निःस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करना भी शामिल था। मनुष्य की अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिये अधिकारों की आवश्यकता, मात्र पाशविक इच्छाओं की स्वार्थपूर्ण पूर्ति के लिये नहीं होती। मनुष्य के उसके अपने प्रति, अपने परिवार के प्रति, अपने नातेदारों के प्रति और अपने सह-जीवियों और देशवासियों के प्रति भी कर्तव्य होते हैं। उसे इन सबके नैतिक, आध्यात्मिक और भौतिक कल्याण के लिये काम करना होता है। यही उसका कर्तव्य है। फिर भीए यह सब तभी संभव हो सकता है जब स्त्री-पुरुष हर किस्म के प्रभुत्व और नियंत्रण से मुक्त हों।

इस स्वराज की प्राप्ति के लिये, तिलक संवैधानिक सरकार, कानून के राज, व्यक्तिगत आजादी, व्यक्ति की गरिमा आदि जैसी पश्चिम के उदारवादी संस्थानों और अवधार.ााओं को स्वीकार करते थे। इस तरह, तिलक के दर्शन में प्राचीन भारत की नैतिक मूल्य व्यवस्था और पश्चिम की उदारवादी संस्थाओं का मिश्रण था।

 राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद का बुनियादी संबंध किसी एक जन-समूह के भीतर एकजुटता और लगाव के बोध, और एकता की भावना से होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि तिलक एकजुटता और एकता की व्यक्तिनिष्ठ (आंतरिक) भावना को बढ़ावा देने और मजबूत करने में समान भाषा, समान क्षेत्र में आवास जैसे कुछ वस्तुनिष्ठ (बाहरी) कारकों के महत्व को भी स्वीकार करते थे।

तिलक के अनुसार, एक अवाम की मुख्य तौर पर उनकी विरासत से उठने वाली एक होने और एकजुटता की भावना राष्ट्रवाद की महत्वपूर्ण शक्ति होती है। एक समान विरासत का ज्ञान और उसमें गर्व की भावना से मनोवैज्ञानिक एकता बनती है। इसी भावना को अवाम में उभारने के लिये तिलक अपने भाषणों में शिवाजी और अकबर का हवाला देते थे। इसके अलावा, उन्हें लगता था कि एकजुट राजनीतिक कार्यवाही या व्यवहार के जरिये समान हित, समान नियति की भावना बनाकर राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत किया जा सकता है।

एकता का मनोवैज्ञानिक बंधन कभी-कभी निष्क्रिय भी हो सकता है। ऐसे में अवाम को जागृत करना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया में वास्तविक और मिथकीय, दोनों तरह के कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। तिलक का यह विश्वास था कि धर्म में क्योंकि । सशक्त भावनात्मक आकर्षण होता है, इसलिये राष्ट्रवाद की सोयी हुई या निष्क्रिय भावना को जगाने के लिये उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिये।

तिलक राष्ट्रवाद की भावना उभारने की प्रक्रिया में ऐतिहासिक और धार्मिक पर्योए ध्वजों और नारों के जबरदस्त महत्व को पहचानते थे। उन्होंने इस तरह के चिन्हों का बहुत असरकारी प्रयोग किया। उनका विश्वास था कि जन-कल्याण की बात आती है, तो ये कारक आर्थिक कारकों से कहीं अधिक असरकारी होते हैं। इस तरह, तिलक ने गणपति और शिवाजी पर्वों के रूप में चिन्हों के इस्तेमाल का प्रचार किया जो बाद में जबरदस्त भावनात्मक आकर्षण बन गये।

अतिवादः एक विचारधारा के रूप में
एक विचारधारा के रूप में अतिवाद उदारवादियों की विचारधारा से भिन्न था। इनमें से हरेक विचारधारा का आधार भी भिन्न था।

उदारवादी (नरमपंथी) इस भ्रम को पाले हुए थे कि अंग्रेजी राज भारत की भलाई के लिये है। उनका मानना था:
1. अंग्रेजों में न्याय और उचित व्यवहार की चरम भावना थी।
2. वे भारतीयों को जड़ता, पिछड़ेपन और बेतुकी परंपरा के बंधनों से छुटकारा दिलाने आये थे।
3. अंग्रेजी राज भारत की प्रगति की दैवीय योजना का एक अंग था, और
4. अंग्रेजी राज का बना रहना भारत के लिये लाभकारी था और इसलिये वे चाहते थे कि यह बना रहे।
उनकी इस मान्यताओं से जो निष्कर्ष निकलेए वे ये थेः
1. अपनी मांगें मनवाने के लिए अंग्रेजों के विवेक की दुहाई देना काफी था। दबाव की राजनीति की कोई आवश्यकता नहीं थी। संवैधानिक तरीकों का कड़ाई से पालन हो, ऐसा भी जरूरी था।
2. राजनीति एक धर्मनिरपेक्ष मामला है। धर्म और राजनीति को मिलाना अवांछित और अनावश्यक है।
3. हमें अपने उद्देश्य के लिये अंग्रेजों की सहानुभूति जीतनी और बनायी रखनी चाहिये। इसमें हमारा अपना हित है। इसके लिये, लक्ष्य और साधन दोनों की पवित्रता आवश्यक है। यह डर था कि गलत लक्ष्य और साधनों (के प्रयोग) से अंग्रेज हमारे बैरी हो जायेंगे और हमारे उद्देश्य को इससे नुकसान होगा। इसलिये उनका जोर इस बात पर रहा कि अंग्रेजों को अपने वायदों के प्रति ईमानदार रहते हुए उन्हें पूरा करना चाहिये। अंग्रेजों ने यह ऐलान किया था कि भारत की भलाई उनके मन में थी। इस संदर्भ में, नरमपंथी केवल वही मांग रहे थे जिसे मांगने का अधिकार अंग्रेजी साम्राज्य के नागरिकों को था। स्वतंत्रता और स्वाधीनता के स्वाभाविक अधिकार का तर्क वे नहीं रखते थे।

उपर्युक्त की तुलना में, हम दो भागों में अतिवाद की विचारधारा का संक्षेप में अध्ययन करेंगे: क) मान्यताएं और ख) तार्किक निष्कर्ष। तिलक ने इस विचारधारा के विकास में बहुत योगदान दिया।

क) मान्यताएं: अंग्रेजी राज का चरित्र-चित्रण
उदारवादियों के विपरीत, अतिवादियों में अंग्रेजी राज के उदार या जन-उपकारी होने के बारे में या उनकी न्याय और उचित व्यवहार की भावना को लेकर कोई भ्रम नहीं था। उनके लिये, अंग्रेज उतने अच्छे या बरे थे जितने कि और लोग। दूसरों की तुलना में अंग्रेजों को अधिक श्रेष्ठ और नेक गुणों से विभूषित करना निरर्थक था और किसी भी जगह के लोगों की तरह अंग्रेज भी स्वार्थ की भावना से प्रेरित थे। उन्होंने अपनी साम्राज्यवादी शक्ति का विस्तार भारत तक इसलिये किया था कि वे यहां के लोगों को गुलाम बना सकें और उनके संशाधनों का दोहन कर सकें, उनका भारतीयों को जड़ता और बेतुकी परंपरा से छुटकारा दिलाने का कोई जन-उपकारी उद्देश्य नहीं था। यह सब एक साम्राज्यवादी योजना थी और इसमें दैवीय कुछ भी नहीं था।

ख) तार्किक निष्कर्ष उपर्युक्त मान्यताओं से जो तार्किक निष्कर्ष निकले, वे इस प्रकार थे: भौतिक लाभ का स्वार्थपूर्ण उद्देश्य क्योंकि अंग्रेजी राज की मुख्य प्रवृत्ति थी, इसलिये उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वह भारतीय मांगों और आकांक्षाओं के प्रति कोई सहानुभूति रवैया अपनायेंगे। अंग्रेजी सरकार ने भारत में भयंकरतम अकाल के दौरान भी इंग्लैंड को खाद्यान्न भेजना बंद नहीं किया। इससे क्या संकेत मिलता है बस यही कि उनके विवेक की दुहाई देना व्यर्थ था। अंग्रेज ऐसी कोई भी चीज नहीं देने वाले जिससे उनके हितों को तनिक भी नुकसान पहुँचता हो। इसलियेए अपनी मांगों के समर्थन में दबाव का इस्तेमाल जरूरी था। लाभों के लिये भीख मांगने या विनती करने से कुछ होना जाना नहीं था।

इस तरह, यह नयी विचारधारा लगभग हर मायने में पुरानी विचारधारा से भिन्न थी। आइये कुछ बिंदुओं पर विचार करें।
1) संवैधानिक बनाम दबाव की राजनीति
तिलक औपनिवेशिक भारत के संदर्भ में संवैधानिक तरीके के प्रभावी होने की बात को स्वीकार नहीं करते थे। इस मामले में उनके तीन पक्षीय तर्क थे।
पहले, वह यह मानते थे कि संवैधानिक तरीका केवल एक संवैधानिक सरकार के तहत ही सार्थक था। हमारा कोई संविधान नहीं था। एक साम्राज्यवादी अफसरशाही भारत पर राज कर रही थी। अंग्रेजी राज के तहत हमारे पास बस एक दंड संहिता थी, संविधान नहीं था। इसलिये, हमारे संवैधानिक तरीके अपनाने का कोई सवाल ही नहीं था। दूसरे, उनका तर्क था कि अंग्रेज तो क्योंकि अपने हितों का नुकसान करके कुछ भी देंगे नहीं, इसलिये हमें अपनी मांगों के समर्थन में विदेशी अफसरशाही पर दबाव डालने की जरूरत थी। ऐसा करने के लिये लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल करना होगा। उसके लिये उन्हें विश्वास में लेना जरूरी था। संवैधानिक तरीकों से कोई काम नहीं निकलता।

तीसरे, लोगों की भावनाओं को उभारने का एक तरीका यह था कि अपनी मांगों का आधार ‘स्वाभाविक अधिकारों’ के सिद्धांत को बनाया जाये। दूसरी ओर, संवैधानिक तरीका संविधान के तहत कानूनी अधिकारों के सिद्धांत की दुहाई देता था। तिलक को लगता था कि यह एक बेअसर और कमजोर रवैया था। जिसमें जन-उत्साह उभारने की क्षमता नहीं थी। उदारवादियों की याचना का आधार अंग्रेजों के वायदे और ब्रिटिश नागरिकों के रूप में हमारे अधिकार थे। इसके विपरीत, तिलक स्वराज की मांग एक ‘स्वाभाविक अधिकार‘ के रूप में करते थे, अंग्रेजों के आश्वासनों के आधार पर नहीं।

2) लक्ष्य और
उदारवादियों के अनुसार, लक्ष्यों की पवित्रता या शुद्धता उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी साधनों की पवित्रता। वे सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों आधारों पर साधन की पवित्रता को उचित ठहराते थे। सिद्धांत रूप में, वे मानते थे कि केवल नेक साधन अपनाने से अंग्रेज नाराज हो जायेंगे और हमारा काम बिगड़ जायेगा।

तिलक भी इस बात से इंकार नहीं करते थे कि साधनों की पवित्रता महत्वपूर्ण और वांछनीय है। लेकिन, वह यह भी मानते थे कि कुछ परिस्थितियों में इस नियम को तोड़ा भी जा सकता है। साधनों को परिस्थितियों के हिसाब से पर्याप्त और उपयुक्त होना चाहिये। हमें लक्ष्य को केवल इसलिये नहीं छोड़ देना चाहिये कि उसे उचित साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अगर परिस्थितियों की मांग हो तो, हमें वांछित लक्ष्य की प्राप्ति के लिये दूसरे या निम्नतर स्तर के साधनों का इस्तेमाल करने से हिचकिचाना नहीं चाहिये। अंत में इस प्रकार के साधन भी उचित ठहरेंगे। ऐसी परिस्थितियों में, हमें लक्ष्य की पवित्रता के बारे में तो दृढ होना चाहिये लेकिन साधनों को लेकर कोई बखेड़ा नहीं करना चाहिये। तिलक इस सिद्धांत के समर्थन में ‘गीता‘ और ‘महाभारत‘ जैसे प्राचीन भारतीय ग्रंथों और महाकाव्यों का हवाला देते थे।

3) धर्म और राजनीति
पश्चिम की परंपरा में, उदारवादी राजनीति को एक धर्म-निरपेक्ष मामला मानते थे और इसी रूप में इसके व्यवहार पर जोर देते थे। वे धर्म को राजनीति से अलग रखते थे।

तिलक का दृष्टिकोण इस मुद्दे पर भी बिल्कुल भिन्न था। इसमें संदेह नहीं कि वह सामान्य तौर पर राजनीति को धर्म से अलग रखने की वांछनीयता को स्वीकार करते थे, लेकिन सभी परिस्थितियों में नहीं। धर्म हमेशा एक सशक्त भावनात्मक आकर्षण रहा है, और तिलक मानते थे कि इस सशक्त भावनात्मक आकर्षण का इस्तेमाल राजनीति की सेवा में, विशेष तौर पर उस समय की भारतीय परिस्थितियों में, किया जा सकता था और किया भी जाना चाहिये था। तिलक के लिये, राष्ट्रीय आंदोलन का अंतिम लक्ष्य स्वराज था। इस आंदोलन में लोगों को शामिल करने के लियेए उन्होंने स्वराज के लक्ष्य की विवेचना धार्मिक अर्थों में की और इस बात पर जोर दिया कि स्वराज हमारी धार्मिक आवश्यकता है। वेदांत का धर्म और दर्शन प्रत्येक व्यक्ति की ससान आध्यात्मिक स्थिति और नियति पर जोर देता है। यह किसी भी किस्म के बंधन के विरुद्ध है और इसलिये, स्वराज न केवल राजनीतिक बल्कि स्वाभाविक और आध्यात्मिक आवश्यकता भी है।

तिलक का यह मानना था कि स्वराज प्रत्येक मनुष्य और समूह के लिये एक नैतिक और धार्मिक आवश्यकता है। अपनी नैतिक परिपूर्णता और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करने के लिये, मनुष्य को स्वतंत्रता प्राप्त करना जरूरी है। राजनीतिक स्वतंत्रता के बिना उच्चतर स्वतंत्रता असंभव है। इसलिये स्वराज हमारा धर्म है। इसे पाने की कोशिश करना हमारा कर्म-योग है।

व्यावहारिक रूप में, सामूहिक स्तर पर धार्मिक पर्यों का इस्तेमाल तिलक ने जन-उत्साह उभारने के लिये और जनसाधारण में साहस और आत्म-सम्मान की भावना बनाने के लिये किया।

अतिवाद: कार्यवाही का कार्यक्रम
अतिवाद दर्शन में कार्यवाही का एक निश्चित कार्यक्रम भी शामिल था। इस कार्यक्रम का लक्ष्य जन-उत्साह को उभारना और राष्ट्रीय आंदोलन में लोगों की भागेदारी को सुनिश्चित करना था। अतिवादी नेताओं का काम चार सूत्रीय था-लोगों को शिक्षित करना, उनमें आत्म-सम्मान और अपनी प्राचीन विरासत के प्रति गर्व का भाव पैदा करना, उन्हें एकता के सूत्र में बांधनाए और उन्हें अपनी खोयी स्वतंत्रता या स्वराज को फिर से पाने के लिये संघर्ष करने को तैयार करना।

राष्ट्रीय शिक्षा
भारत में जो पश्चिमी पद्धति की शिक्षा लागू की गयी थी, उसका ध्येय लोगों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना था, जिनका खून तो भारतीय हो, लेकिन जो बौद्धिकता और संस्कृति की दृष्टि से पश्चिम के अधिक निकट हो और जिनकी अटल निष्ठा अंग्रेजी राजगद्दी के प्रति हो। इस लक्ष्य की प्राप्ति में उसे काफी हद तक कामयाबी भी मिली थी।

स्पष्ट है राष्ट्रवादी इस शिक्षा पद्धति से असंतुष्ट थे। वे ऐसी शिक्षा चाहते थे जो लोगों में उनके अपने धर्म, संस्कृति और विरासत के प्रति सम्मान और लगाव की भावना भरे। इसलियेए उन्होंने एक अलग किस्म की शिक्षा की योजना बनायी जिसे उन्होंने ‘‘राष्ट्रीय शिक्षा’’ का नाम दिया।

इस योजना का लक्ष्य लोगों के मनों से निराशा और संदेह के भाव निकालकर आत्म-सम्मान का भाव भरना था। इसके लिये उनके सामने उनके अतीत की महानता की तस्वीर पेश की जानी थी। यह महसूस किया गया कि लोगों के सामने उनकी अपनी पिछली उपलब्धियों और गरिमाओं की तस्वीर पेश करके उन्हें उनकी वर्तमान पराजयवादी मानसिकता से बाहर निकाला जा सकता है। यह अपेक्षा थी कि इससे लोग उस महान भूमिका के लिये उपयुक्त बन जायेंगे, जो उन्हें भारत के गरिमामय भाग्य को आकार देने के लिये निभानी थी।

राष्ट्रीय शिक्षा की योजना के तहत, स्कूलों और कॉलेजों के संचालन और प्रबंध का काम विशिष्ट रूप से भारतीयों के हाथों में देना था। धर्मनिरपेक्ष शिक्षा अकेले पर्याप्त नहीं थी क्योंकि इससे एकांगी व्यक्तित्व का विकास होता था। धर्म का मानव व्यक्तित्व पर हितकर प्रभाव पड़ता है। इससे नैतिकता और साहस के गुणों का निर्माण होता है, लेकिन इसके साथ-साथ धर्मनिरपेक्ष और व्यावहारिक शिक्षा की उपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिये।

युवाओं को आज की दनिया में उनकी जिम्मेदारियां निभाने को तैयार करने के लिये यह जरूरी था। विदेशी भाषा के अध्ययन का बोझ युवकों की लगभग पूरी ऊर्जा को चाट जाता था। नयी योजना के तहत इस बोझ को हलका किया जाना था। नये पाठ्यक्रम में तकनीकी और औद्योगिकी शिक्षा को भी शामिल किया जाना था।

इस तरह, राष्ट्रीय शिक्षा योजना के तहत, पश्चिम के आधुनिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक ज्ञान को हमारी अपनी विरासत के सर्वोत्तम और संजोने योग्य तत्वों के ज्ञान के साथ मिश्रित किया जाना था।

बहिष्कार
अतिवादियों में विदेशी शासकों पर दबाव डालने के लिये जो कार्यवाही का कार्यक्रम बनाया, उसका एक दूसरा मोर्चा ‘‘बहिष्कार’’ का था। तिलक ने बहिष्कार के सिद्धांत का विकास करने और लोकप्रिय बनाने की दिशा में बहुत योगदान दिया।

आर्थिक शोषण अंग्रेजी साम्राज्यवाद का एक प्रमुख उद्देश्य था। उनकी मनमानी नीतियाँ भारतीय उद्योगों, दस्तकारियों, व्यापार और वाणिज्य की पूरी तरह से बर्बादी के लिये जिम्मेदार थीं। भारतीय अर्थव्यवस्था उन विदेशी सामानों से गैर-बराबरी की होड़ करने के लिये बाध्य थी जिनके भारत में आने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। अंग्रेज शासकों से यह अपेक्षा करना बेमानी (निरर्थक) था कि वे हमारे उद्योग और वाणिज्य की रक्षा करेंगे। इसका एकमात्र इलाज या स्वावलम्बन औरए इस स्वावलम्बन के हथियार या माध्यम थे, (बहिष्कार) और ‘‘स्वदेशी’’।

बहिष्कार का अर्थ होता था भारतीयों का विदेशी सामानों के इस्तेमाल करने का दृढ़ निश्चय। इसके अलावा, इसका अर्थ यह भी होता था कि भारतीय इस बात का दृढ़ निश्चय करें कि वे देश का प्रशासन चलाते रहने में विदेशी अफसरशाही की कोई मदद नहीं करेंगे। स्पष्ट है, यह एक नकारात्मक हथियार था। फिर भी, यह अपेक्षा थी कि इससे भारतीय राष्ट्रवाद के उद्देश्य को तीन तरह से मदद मिलेगी। पहले, यह साम्राज्यवादियों के एक प्रमुख उद्देश्य-शोषण पर प्रहार करेगा। दूसरे, इससे भारतीय जनता में यह दृढ़ निश्चय बनेगा कि वे राष्ट्र की भलाई के लिये अपने तात्कालिक हितों का बलिदान करें। इससे उनमें राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने में मदद मिलेगी और तीसरे, इससे भारतीय उद्योग, व्यापार और दस्तकारी को-भारतीय जीवन और अर्थव्यवस्था में अपनी जगह फिर से पाने और राष्ट्रवाद के प्रेरक प्रभाव में तेजी से विकास करने में मदद मिलेगी।

स्वदेशी
बहिष्कार एक नकारात्मक हथियार था तो, स्वदेशी उसका सकारात्मक अंग। स्वदेशी आंदोलन ने लोगों को यह उपदेश दिया कि वे स्वदेशी उत्पादनों का ही इस्तेमाल करें, चाहे वे अनगढ़ और महंगे ही क्यों न हों। इसमें शिक्षित भारतीयों से भी आग्रह किया गया कि नौकरशाही में नौकरी करने का आग्रह छोड़कर उत्पादन के क्षेत्र में घुसे। स्वदेशी आंदोलन में भारतीयों को उद्योग और वाणिज्य में प्रशिक्षित करने की योजना भी शामिल थी। स्पष्ट है, स्वदेशी आंदोलन की कामयाबी बहिष्कार की कामयाबी पर निर्भर थी। लोग विदेशी सामान का बहिष्कार करने का जितना निश्चय करेंगेए उतनी ही स्वदेशी सामान की मांग बढ़ेगी।

इस तरह, स्वदेशी एक सकारात्मक कार्यक्रम था जिसका ध्येय भारतीय उद्योग, व्यापार और दस्तकारी का फिर से निर्माण करके इसे खस्ता हालत से बचाना था। इसके अलावा, यह एक ऐसा सशक्त हथियार भी था जिससे देश पर प्रभुत्व के साम्राज्यवादी हितों को पंग किया जा सकता था।

निष्क्रिय प्रतिरोध
राष्ट्रवादियों का अंतिम किंत महत्वपूर्ण हथियार निष्क्रिय प्रतिरोध था। एक अर्थ में, यह बहिष्कार का ही विस्तार था। विदेशी उत्पादनों को इस्तेमाल न करने, और देश का प्रशासन चलाते रहने में विदेशी अफसरशाही की मदद न करने का दृढ़ निश्चय।

निष्क्रिय प्रतिरोध के तहत लोगों से एक कदम और आगे जाने का आग्रह किया गया। इसमें विदेशी अधिकारियों को कर और राजस्व न देने पर जोर दिया गया। इसमें लोगों को स्वराज्य या स्वशासन के लिये प्रशिक्षित करने का कार्यक्रम भी शामिल था। लोगों को यह प्रशिक्षण देने के लिये अंग्रेजी प्रशासनिक इकाइयों के समानांतर अपनी प्रशासनिक इकाइयां गठित करने का कार्यक्रम था। गांवों, तालुकों और जिलों में कचहरी, पुलिस आदि जैसी समानांतर संस्थाएं रखने की भी योजना थी।

इस तरह, निष्क्रिय प्रतिरोध एक क्रांतिकारी कार्यक्रम था। यह अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ एक मौन क्रांति के बराबर था। .

एक संक्षिप्त आंकलन
एक राजनीतिक नेता के रूप में तिलक विवाद और गलतफहमियों का शिकार रहे। उन्हें आमतौर पर एक अदम्य उपद्रवी, सामाजिक प्रतिक्रियावाद का समर्थक, पुरातनपंथ का दत और एक सांप्रदायिक माना जाता है जिसका काम हिंदू-मुस्लिम तनाव भड़काना था। लेकिन सच्चाई कुछ और ही थी।

वह सामाजिक सुधारों के विरोधी नहीं थे। इसके विपरीत, वह मानव चेतना की प्रगति और ज्ञानादेय के साथ सुधारों की अनिवार्यता में विश्वास करते थे। उनका विरोध जो उन ऊलजुलूल, बेलिहाज और एकदम किये जाने वाले बदलावों से था, जिनकी वकालत पश्चिमी प्रभाव के सुधारक करते थे।

एक ओर तिलक और उनके सहयोगियों के बीच कटु और लंबे विवाद ने, और दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बुजुर्ग उदारवादी नेताओं ने, अंततः उस संगठन को तोड़ दिया और 1907 में उसके दो टुकड़े हो गये। इससे कभी-कभी उनकी छवि एक विवादास्पद व्यक्ति की हो गयी जिसका काम संस्थाओं को तोड़ना था। लेकिन सच्चाई यह थी कि तिलक एक प्रखर राष्ट्रवादी थे और ऐसी किसी भी चीज को स्वीकार नहीं कर सकते थे, जो उन्हें स्वराज के अंतिम लक्ष्य से दूर ले जाये। उनके विरोधियों की उम्र या प्रतिष्ठा उन्हें खामोश नहीं कर सकती थी। वह तभी खामोश होते थे जब उनके सामने कोई आश्वस्त करने वाला तर्क रखा जाये। उन्हें उदारवादी युक्तियों को चालू रखने में क्योंकि कोई औचित्य दिखायी नहीं देता था, इसलिए वह इसके खिलाफ लड़े और वह सुनिश्चित किया गया कि कांग्रेस सही तरीके अपनाये।

तिलक के बारे में एक और व्यापक गलतफहमी यह है कि तिलक सांप्रदायिक थे और हिंदू-मुस्लिम तनावों को भड़काते थे। लेकिन सच्चाई यह है कि उन्होंने हिंदू-मुस्लिम दंगों के दौरान हिंदुओं को बचाया तो, लेकिन उन्हें शांति बनाये रखने की सलाह भी दी। उन्होंने हिंदुओं को जो मदद दी उसका उद्देश्य हिंदुओं के बीच जान.माल की रक्षा करना था। अंग्रेजी शासकों ने इन दोनों संप्रदायों के बीच फूट डाली और मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़काया। तिलक अंग्रेजों की चाल का विरोध करना चाहते थे। मुसलमानों पर केवल मुसलमान होने के कारण हमला करना कभी उनकी योजना या मंशा नहीं रही।

तिलक 1907 के बाद, एक व्यापक दृष्टि वाले नेता के रूप में परिपक्व हो चुके थे। उसके बाद से उनमें भारतीय समाज के बहुधर्मीय चरित्र और राष्ट्रीय निर्माण में सांप्रदायिक सद्भाव के महत्व की ऊंच-नीच की और अच्छी समझ दिखायी दी। यह उनकी पट्ता और दृढ़ प्रयासों का ही परि.ााम था कि 1917 में लखनऊ समझौते के जरिये हिंदू-मुस्लिम समझौता संभव हो सका।

हालांकि, हिंदू धर्म और राष्ट्रवाद का तिलक के चिंतन से घनिष्ठ संबंध था, फिर भी उन्हें सांप्रदायिक कहना उचित नहीं होगा। वह इस बात के लिये उत्सुक थे कि हिंदू एक हो जाय, लेकिन वह यह भी चाहते थे कि यह एकता अनन्य (या, दसरों को काट कर) न हो। भारत जैसे अनेक धर्मों वाले समाज में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों को वैध स्थान प्राप्त था। जैसा कि हम बता चुके हैं, तिलक का दृष्टिकोण राजनीतिक मसलों के प्रति यथार्थवादी था और वह राजनीतिक लाभ के लिये धर्म के दुरुपयोग के खिलाफ थे। वह इस बात के भी खिलाफ थे कि अल्पसंख्यकों को राजनीतिक और दूसरी रियायतें दे कर उन्हें तुष्ट किया जाये, क्योंकि, ऐसी हालत में, अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यक ही बने रहना चाहेंगे और एक समय आयेगा कि उनके पास इतनी शक्ति हो जायेगी कि वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में रुकावट डाल सकें। संप्रदायों को आपसी धार्मिक और आध्यात्मिक समझ की बुनियाद पर एकजुट होना चाहिये। भारत जैसे राष्ट्र में, जहां लोग अलग-अलग धर्मों को मानते हैं, यह सबसे महत्वपूर्ण बात है।

तिलक (नरमपंथियों की तुलना में) एक अतिवादी थे। वह राष्ट्रीय आंदोलन में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका देखते थे, लेकिन समाज को बांटने के लिये इसके दुरुपयोग के खिलाफ थे।

वह सामाजिक सुधारों के खिलाफ नहीं थे, लेकिन सुधार के उन तरीकों के खिलाफ थे जिनकी वकालत पश्चिमी प्रभाव के सुधारक करते थे। हालांकि, उनके राजनीतिक दर्शन की जड़ें भारतीय परंपराओं में थी, फिर भी वे आधुनिकीकरण के खिलाफ नहीं थे। उन्होंने भारतीय स्थिति में पश्चिम की सबसे अच्छी विचारधाराओं और संस्थाओं को अपनाया। वह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को सही रास्ते पर लाये और इसे मजबूती देने के लिये उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा, बहिष्कार, स्वदेशी और निष्क्रिय प्रतिरोध के चार पत्रीय कार्यक्रम को जनप्रिय बनाया।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर नीचे दिये स्थान पर लिखें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिये गये उत्तरों से कर लें।
1) तिलक स्वराज और स्वाधीनता में क्या भेद करते थे?
2) तिलक राष्ट्रीय आंदोलन में चिन्हों के इस्तेमाल को किस तरह उचित ठहराते थे?
3) ‘‘बहिष्कार’’ से राष्ट्रीय आंदोलन में किस तरह मदद मिलने की अपेक्षा की जाती थी?
4) राष्ट्रीय शिक्षा के लक्ष्य क्या

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 4
1. तिलक के अनुसार स्वराज और स्वाधीनता में थोड़ी सी अलग किस्म की व्यवस्थाएं शामिल थीं। स्वराज का मतलब होता था, अंग्रेजी संपर्क को तोड़े बिना स्वराज्य या स्वशासन। स्वाधीनता का अर्थ होता था, अंग्रेजी संपर्क को पूरी तौर पर तोड़ कर स्वशासन।
2. राष्ट्रवाद से आशय एकता के एक मनोवैज्ञानिक बंधन से है। तिलक के अनुसारए चिन्ह इस बंधन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दूसरे, चिन्ह मनुष्यों को अपने स्वयं से ऊपर उठने और अपने से ऊंची और नेक राष्ट जैसी किसी वस्त के साथ अपनी अस्मिता स्थापित करने के लिए मनोवैज्ञानिक स्तर पर तैयार करते हैं।
3. बहिष्कार का अर्थ होता था, विदेशी सामान और विदेशी प्रशासन से दूर रहना। इससे दो तरीकों से राष्ट्रीय आंदोलन में मदद देने की अपेक्षा की जाती थी। पहले, यह अंग्रेजी राज की बुनियाद पर प्रहार करके उसे पंगु बनायेगा। दूसरे, यह भारतीयों को बलिदान और कठिनाइयों के लिये तैयार करेगा और राष्ट्रवाद का भाव बनाने में मदद करेगा।
4. राष्ट्रीय शिक्षा के दो लक्ष्य थेः 1) लोगों के मनों में आत्म.सम्मान और हमारी अपनी विरासत के प्रति गर्व का भाव भरनाए और 2) उन्हें वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक ज्ञान देना।

शब्दावली
अतियाद: राजनीति में अति (अति वाम या अति दक्षिण) पंथी होने की स्थिति।
उवारवाद: वह राजनीतिक दर्शन जो व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक किस्म के शासन, राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं में क्रमिक सुधार की वकालत करता है।
नरमपंथी: राजनीति में हिसक या अतिवादी तरीकों का विरोध कर संयम को स्थान देने वाला व्यक्ति। चिरंतन या शाश्वत: हमेशा बना रहने वालाए जिसका कोई आदि.अत न हो।
उपयोगी पुस्तकें
थ्योनेर एल. शे, 1956 ‘‘द लिगेसी ऑफ लोकमान्यः द पालिटिकल फिलासफी ऑफ बाल गंगाधर तिलक’’, (ऑक्सफोर्ड प्रेस, मुम्बई)
डी.वी. तहमनकर, 1956. लोकमान्य तिलक: (फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट ऐंड मेकर ऑफ माडर्न इंडिया) (जान मरे पब्लिशर्स, लंदन)
रिचर्ड ऐ. कैशमैन. 1975. मिथ ऑफ लोकमान्य तिलक ऐंड मास पालिटिक्स इन महाराष्ट्र (लंदन)
आर्नल्ड एच. बिशप (संपा.) 1983, ‘‘थिंकर्स ऑफ इंडियन रिनैसा (नई दिल्ली)
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