स्वायत्तता का अर्थ क्या है हिंदी में | स्वायत्तता की परिभाषा किसे कहते है महत्व autonomy in hindi meaning

autonomy in hindi meaning स्वायत्तता का अर्थ क्या है हिंदी में | स्वायत्तता की परिभाषा किसे कहते है महत्व बताइए ?

स्वायत्तता परिभाषा : किसी दूसरे के हस्तक्षेप के बगैर व्यक्ति विशेष, संस्था, राज्य का देश के अधिकार क्षेत्र में विषयों और मामलों में स्वतंत्र निर्णय लेना।

स्वायत्तता तथा सहयोग की माँग
उपरोक्त किए गए विवरण से यह स्पष्ट है कि केन्द्र एवं राज्यों के बीच तनावों के कई क्षेत्र तथा मुद्दे हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं को आशा थी कि भारतीय संघवाद सहमति एवं सहयोग पर आधारित होगा। उन्होंने केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच शक्तियों के विभाजन को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया था और आशा की थी कि केन्द्र सरकार को प्रदान की गई। आपात शक्तियों का इस्तेमाल मुख्यतः राष्ट्रीय हित में होगा। दुर्भाग्यवश संविधान निर्माताओं की आशाएँ धूमिल हो गई और केन्द्र-राज्यों के रिश्ते सहयोग की अपेक्षा टकराव की राजनीति में विकसित हुए। प्रारम्भ से ही केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति का आरम्भ हुआ और केन्द्र में सरकारों के बदलने के बावजूद भी यही प्रवृत्ति जारी रही। राज्यों में वंचन की भावनाएँ विकसित होने लगी। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है कि जब तक केन्द्र तथा अधिकतर राज्यों में एक ही दल की सरकारें सत्ता में रहीं तब तक कोई समस्या उत्पन्न न हुई। लेकिन विभिन्न दलों की सरकारों के उद्भव, क्षेत्रीय दलों की सफलता, राजनीति में नए समूह एवं वर्गों के प्रवेश और आर्थिक-सामाजिक विकास तथा परिवर्तन से संबंधित जनता की अभिलाषाओं के पूरा न होने पर केवल प्रश्न उठाने की प्रक्रिया शुरू हुई अपित केन्द्रीय सरकारों के प्रभुत्व और हस्तक्षेप को चुनौती दी जाने लगी।

इसके परिणामस्वरूप बहुत से राज्यों तथा राजनीतिक दलों ने राज्यों को और अधिक शक्तियाँ एवं स्वायत्तता दिए जाने की माँग की। इसी के साथ सरकार को दोनों स्तरों पर तनाव के क्षेत्र समाप्त करने एवं सहयोग बढ़ाने के प्रयास भी होने लगे।

स्वायत्तता की माँग
1967 के चुनाओं में कांग्रेस के आठ राज्यों में सत्ता से हट जाने के तुरन्त बाद गैर-कांग्रेसी सरकारों ने केन्द्र-राज्य के रिश्तों के संदर्भ में संवैधानिक प्रावधानों की गिरती साख के विषय में प्रश्नों को उठाना शुरू कर दिया।

दूसरी ओर केन्द्र में शासन करने वाले दल ने खोयी हुई सत्ता को प्राप्त करने के लिए राज्यपाल के पद और धारा 356 की आपात व्यवस्थाओं का पुनः दुरुपयोग करना प्रारम्भ कर दिया। इसके कारणवश केन्द्रीय सरकार की कड़ी आलोचना की जाने लगी। वास्तव में 1967 से 1972 के बीच के वर्षों में भारतीय संघीय ढाँचे में महत्त्वपूर्ण तनाव देखा गया। कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को हटाकर सत्ता प्राप्त की। विशेषकर इन्हीं राजनीतिक पार्टियों ने कई स्तरों पर केन्द्र-राज्य संबंधों के प्रश्नों को उठाया।

1969 में तमिलनाडू सरकार ने केन्द्र-राज्य संबंधों के प्रश्न की जाँच-पड़ताल करने हेतु राजामन्नार समिति की नियुक्ति की। इस समिति ने अपनी रपट 1971 में पेश की। इस समिति की महत्त्वपूर्ण सिफारिशें थीं कि संविधान की सातवीं सूची को पुनर्व्यवस्थित किया जाएय राज्यों को अवशिष्ट शक्तियाँ हस्तांतरित की जाएँय धारा 249 को समाप्त, वित्तीय आयोग तथा योजना आयोग में संशोधन और धारा 356 पर पुनर्विचार किया जाए।

दिसम्बर 1977 में पश्चिम बंगाल की वाम पंथ सरकार ने केन्द्र-राज्य संबंधों पर एक स्मरण-पत्र प्रकाशित किया। इस स्मरण-पत्र में जोर देकर कहा गया कि भारत में जाति, धर्म, भाषा तथा संस्कृति के आधार पर भिन्नताएँ विद्यमान हैं और ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय एकता को प्राप्त करने के लिए जागरूक स्वैच्छिक प्रयासों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और विखण्डनशील प्रवृत्तियों को रोकने के लिए शक्तियों का विकेन्द्रीकरण आवश्यक है। स्मरण-पत्र में माँग की गई कि संविधान की प्रस्तावना में केन्द्र‘ शब्द के स्थान के स्थान पर ‘संघ‘ का उल्लेखं किया जाना चाहिए। इसने यह भी सुझाया कि धाराओं 356, 357 और 360 को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। इस स्मरण-पत्र के अनुसार नए राज्यों के गठन और उनकी सीमाओं तथा क्षेत्रों एवं राज्यों के नामों में परिवर्तन करने के लिए अनिवार्य रूप से प्रभावित राज्य की स्वीकृति ली जानी चाहिए।

1978 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को इसके संशोधित रूप में जारी किया यद्यपि इसको 1973 में मौलिक रूप में पारित किया गया था। इस प्रस्ताव के अनुसार केन्द्र की शक्तियाँ केवल रक्षा, विदेश नीति, संचार, रेलवे एवं मुद्रा तक सीमित होनी चाहिए और सम्पूर्ण अवशिष्ट शक्तियाँ राज्यों में निहित हों। 1980 के दशक में क्षेत्रीय राजनीति दलों के महत्त्वपूर्ण हो जाने के कारण राज्य स्वायत्तता की माँग को और प्रखर तरीके से उठाया जाने लगा। क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय दलों ने अलग-अलग तथा सामूहिक रूप में केन्द्र द्वारा राज्यों की शक्तियों का अधिग्रहण करने के विरुद्ध केन्द्र सरकार की कड़ी आलोचना की। इनका कहना था कि शक्तियों के केन्द्रीयकरण और संविधान को विकृत करने की प्रक्रिया राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। शक्तियों के विकेन्द्रीकरण और राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करने के समर्थकों द्वारा सामान्यतः यह तर्क दिया जाता है कि राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने तथा राष्ट्रीय एकीकरण को सुदृढ़ करने वाली प्रक्रियाओं के हेतु देश में विद्यमान बहुस्तरीय भिन्नताओं को स्वीकृत किया जाना चाहिए और क्षेत्रीय स्तर पर विद्यमान इन भिन्नताओं के वास्तविक तथा तर्कसंगत समाधान के लिए स्थानीय पहल तथा स्थानीय क्षमताओं का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यदि इन भिन्नताओं को हल करने का प्रयास केन्द्र द्वारा नियंत्रण करने की दृष्टि से किया जाता है तब इस व्यवस्था में और अधिक तनाव उत्पन्न होगा।

परन्तु कुछ लोगों का मानना है कि भारत की अखण्डता एवं एकता के लिए मजबूत केन्द्र की आवश्यकता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि मजबूत केन्द्र तथा शक्तियों का केन्द्रीयकरण दोनों अलग-अलग हैं। भारत तथा विश्व के अन्य भागों में घटनाक्रम से साबित हो चुका है कि केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया ने विखण्डन की प्रक्रिया को और अधिक गतिशील ही किया है जबकि विकेन्द्रीकरण के कारण जनता की अभिलाषाएँ एवं आकांक्षाओं को और अधिक उद्देश्यपूर्ण एवं अर्थपूर्ण तरीके से पूरा किए जाने की प्रबल सम्भावनाएँ बनी रहती हैं । सम्पूर्ण विश्व में विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रबल है। भारत में भी विभिन्न समितियों एवं आयोगों की रपटें तथा अध्ययन इस प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हैं।

सहयोग की दिशा में किए गए कार्य
1967 के चुनावों के तुरंत बाद ही केन्द्र-राज्यों के रिश्तों में तनाव के बिन्दु उत्पन्न होने लगे। इससे संबंधित पक्षों का शैक्षिक एवं सामाजिक अध्ययन भी प्रारम्भ हो गया और तनाव कम करने एवं सहयोग प्राप्त करने हेतु नीतिगत सुझाव एवं प्रयास किए जाने लगे। व्यापक आलोचना के कारण केन्द्रीय सरकार ने भी इस मामले की जाँच-पड़ताल शुरू की। इसका प्रारम्भ करते हुए प्रशासनिक सुधार आयोग (1967 में नियुक्त किया गया) से कहा गया कि वह केन्द्र-राज्य के प्रशासनिक रिश्तों का भी अध्ययन करे। आयोग ने अपनी सिफारिशों में कहा कि राज्यों को अधिकतम प्रशासनिक शक्तियाँ प्रदान की जाएँ। इसने मत अभिव्यक्त करते हुए कहा कि केन्द्रीकृत योजना राज्यों की नीतियों तथा कार्यक्रमों के लिए कार्य करने में उनकी स्वतंत्रता में बहुत अधिक हस्तक्षेप करने की और प्रदत्त है। आयोग ने राज्यपाल के पद हेतु भी कुछ सिफारिशें की और संविधान की धारा 263 के अंतर्गत अन्तर-राज्य परिषद् गठित करने की आवश्यकता का सुझाव भी दिया।

परन्तु इस आयोग की सिफारिशें लागू न की जा सकी और केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया जारी रही। 1971-72 में कांग्रेस के अधिकतर राज्यों में पुनः वापस सत्ता में आ जाने से केन्द्र के नियंत्रण को थोपे जाने की प्रक्रिया ने नवीन ऊँचाइयों को प्राप्त किया। यह कहा जाने लगा कि राज्यों का दर्जा गरिमा प्राप्त नगरपालिकाओं के समरूप हो गया। मुख्यमन्त्रियों को केन्द्र की ओर से थोपा जाने लगा । उनको अपने साथियों का चुनाव करने की कोई आजादी प्राप्त न थी। गैर-कांग्रेस शासित राज्यों की केन्द्र द्वारा पार्टी तथा सरकार दोनों के स्तर पर आलोचना जारी थी।

जनता पार्टी के संक्षिप्त शासन के दौरान (1977-79) यद्यपि केन्द्रीय सरकार मौखिक रूप से विकेन्द्रीकरण की नीति के प्रति प्रतिबद्ध थी किन्तु उनको भी अपने तरीके से चलने दिया जाता। तब वे भी केन्द्रीयकृत शासन का अनुसरण करते। विशेषकर 1980 के दशक में संघवाद का प्रश्न राष्ट्रीय एजेण्डे के रूप में ज्वलंत रूप से उभरकर सामने आया। जब केन्द्र तथा राज्यों के मध्य राजनीतिक चुनौतियों ने नवीन प्रकार के आयामों तथा तनावों का रूप ग्रहण कर लिया तब स्थिति को किसी भी प्रकार से सामान्य करना आवश्यक हो गया। भारत सरकार ने 24 मार्च, 1983 को केन्द्र-राज्यों के बीच विद्यमान कार्य पद्धति का निरीक्षण तथा पुनर्विचार करने और सभी क्षेत्रों में शक्तियों के कार्य करने तथा उत्तरदायित्वों के संदर्भ में उचित परिवर्तनों एवं उपायों का सुझाव देने हेतु एक आयोग का गठन किया। इस आयोग का अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर. एस. सरकारिया को नियुक्त किया गया जिससे इसको केन्द्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग के नाम से जाना गया।