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कृत्रिम वर्गीकरण पद्धतियाँ (artificial system of classification in hindi) प्राकृतिक वर्गीकरण natural classification

(artificial system of classification in hindi) कृत्रिम वर्गीकरण पद्धतियाँ प्राकृतिक वर्गीकरण natural classification ?

प्रस्तावना : सुव्यवस्थित और क्रमबद्ध विधि के द्वारा पादप वर्गीकरण पद्धतियों के अध्ययन की शुरुआत प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों के द्वारा की गयी। आवृतबीजी पादप वर्गीकरण के इतिहास को दो प्रमुख विस्तृत काल खण्डों में विभेदित किया जा सकता है , ये निम्नलिखित प्रकार से है –

A. पूर्व डार्विनकालीन वर्गीकरण पद्धतियाँ (pre darwinian system of classification)

1. काल खण्ड प्रथम (period I) : स्वभाव अथवा प्रकृति पर आधारित वर्गीकरण।
थियोफ्रेस्टस (theophrastus , 370-285 BC) को वनस्पति विज्ञान का जनक माना जाता है। इन्होने इस काल में इन्क्वायरी इनटू द प्लान्ट्स (enquiry into the plants) “काजेज ऑफ प्लांट्स (causes of plants)” और इटियोलोजी ऑफ़ प्लान्ट्स (etiology of plants) आदि रचनाओं का सृजन किया।
उन्होंने पौधों को शाक , क्षूप और वृक्ष श्रेणियों में विभाजित किया था। प्रथम कालखण्ड को पुनः औषध ग्रंथो का काल , हस्ताक्षरों का सिद्धांत और विकसित वर्गिकी नामक उपखण्डों में बाँटा गया है। इस काल में एंड्रिया सिसलपिनों (andrea caesalpino 519-1603) जोन बाहिन (johann bouhin 1541-1631) , कैस्पर बाहिन और जॉन रे आदि प्रमुख वनस्पति शास्त्री थे। इस काल में मुख्यतः औषधीय महत्व के पौधों पर कार्य किया गया था।
2. काल खण्ड द्वितीय (period II) : पुष्पीय संरचनाओं , मुख्यतः पुन्केसरों की संख्या पर आधारित वर्गीकरण।
इस काल खण्ड को पौधों की पहचान और अभिर्निर्धारण हेतु प्रस्तावित वर्गीकरण पद्धतियों का काल कहा जा सकता है। इस काल में आधुनिक वर्गीकरण विज्ञान के जनक केरोलस लिनियस (carolus linnaeus) ने वर्गीकरण पद्धित प्रस्तुत की थी। यह एक कृत्रिम वर्गीकरण प्रणाली थी जिसमें विभिन्न पौधों की पहचान और वर्ग निर्धारण जनजांगो (मुख्यतः पुन्केसरों की संख्या) पर आधारित था।
3. काल खण्ड तृतीय (period III) : पौधों के आकारिकीय लक्षणों या बंधुता पर आधारित वर्गीकरण।
इस काल में विभिन्न वनस्पतिशास्त्रियों द्वारा ऐसी पादप वर्गीकरण पद्धतियों का गठन किया गया जो पूर्णतया पादप शरीर आकारिकी और संरचनाओं की परस्पर बन्धुता पर आधारित थी। इस काल खण्ड के कुछ प्रख्यात वनस्पतियों में जिन्होंने विस्तृत वर्गीकरण प्रस्तुत किये उनमें किये उनमें सम्मिलित है – जस्यु बन्धु , डि. केंडोले परिवार , बेन्थम और हुकर।

B. पश्च डार्विन कालीन वर्गीकरण पद्धतियाँ (post darwinian system of plant classification)

4. काल खण्ड चतुर्थ (period-iv) : पौधों की जातिवृतीय बन्धुता पर आधारित वर्गीकरण।
डार्विन के प्राकृतिक वरन सिद्धांत (theory of natural selection) की प्रस्तुति के पश्चात् वनस्पतिशास्त्रियों ने पादप वर्गीकरण के लिए जातिवृतीय आधार को सशक्त और सर्वमान्य मूलभूत सिद्धांत के रूप में ग्रहण किया। जातिवृतीय वर्गीकरण प्रणालियों के प्रणेता है – ए. डब्लू। आइकलर (1875) , एंग्लर और प्राटल (1887-1915) , हचिन्सन (1973) आदि।

पादप वर्गीकरण के प्रकार (types of plant classification)

प्राचीन और आधुनिक वर्गीकरण पद्धतियों को प्रमुख रूप से तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है –
1. कृत्रिम पद्धतियाँ (artificial system of classification)
2. प्राकृतिक पद्धतियाँ (natural system of classification)
3. जातीवृतीय पद्धतियाँ (phylogenetic system of classification)
1. कृत्रिम पद्धतियाँ (artificial system of classification) : सन 1830 ईस्वी की अवधि तक प्रस्तुत पादप वर्गीकरण की पद्धतियों को इस श्रेणी में रखा जाता है। इन वर्गीकरण पद्धतियों का विकास सुविधा की दृष्टि से किया गया था। वर्तमान समय में इनका उपयोग नहीं किया जाता है और न ही इन्हें मान्यता प्राप्त है। वर्गीकरण के प्रारम्भिक काल में पौधों के बारे में अल्प जानकारियाँ उपलब्ध थी , अत: ये पद्धतियाँ किसी एक या कुछ लक्षणों पर ही आधारित थी। उदाहरण के लिए औषध ग्रन्थ लेखकों द्वारा प्रतिपादित वर्गीकरण पद्धतियाँ पादपों के स्वभाव और उनके औषधीय महत्व पर आधारित थी। इसी प्रकार लीनियस की पद्धति पुष्पी लक्षणों मुख्यतः पुन्केसरों की संख्या पर आधारित थी। इस श्रेणी में सम्मिलित प्रमुख पद्धतियां है –
थियोफ्रेस्टस (370-285 B.C.) , प्लिनी (23-75 A.D.) , डायोस्कोरिड्स (128 A.D.) , बाहिन (1560-1624) , जॉन रे (1628-1705 A.D.) , केरोलस लीनियस (1707-1778)
2. प्राकृतिक पद्धतियाँ (natural system of classification) : प्राकृतिक पद्धतियों का गठन प्रमुख रूप से 1830 ईस्वी से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक “डार्विन के विकासवाद” सिद्धांत के प्रतिपादन से पूर्व हुआ है। प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धतियाँ पादपों के प्राकृतिक सम्बन्धों पर आधारित है , जिसमें पादपों के विभिन्न अंगों के आकारिकी लक्षणों को सम्मिलित किया जाता है। पादप पहचान की दृष्टि से यह पद्धतियाँ महत्वपूर्ण है क्योंकि इनमें प्रयुक्त पादप लक्षणों का अध्ययन और अवलोकन सुगम होता है। इन पद्धतियों में पादपों के उन लक्षणों का विशेष महत्व होता है जो प्राकृतिक परिस्थितियों में स्थायी रूप से उत्पन्न होते है। प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धतियों में प्रमुख है – डी. जस्यु बन्धु (1686-1779) , डी. केंडोले (1778-184) , जॉन लिंडले (1799-1865) , बैंथम और हुकर (1862-1883) |
3. जातीवृतीय पद्धतियाँ (phylogenetic system of classification) : चार्ल्स डार्विन (1859) द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त प्राकृतिक चयन द्वारा जातियों का उद्भव के पश्चात् विकसित वर्गीकरण पद्धतियाँ जातिवृतीय पद्धतियाँ कहलाती है। इस सिद्धान्त के प्रति समकालीन जीव विज्ञानियों द्वारा आम सहमती प्रकट करने से वर्गिकीवेताओं को वर्गीकरण के लिए एक सशक्त और सर्वमान्य आधार प्राप्त हुआ , जिसे जातिवृतीय आधार कहते है। किसी भी जाति के उत्पत्ति काल से वर्तमान समय तक के उद्विकासीय इतिहास को उस जाति का जातिवृत इतिहास कहते है। इसके अंतर्गत यह जानकारी प्राप्त की जाती है कि विशिष्ट जाति की उत्पत्ति किस काल में हुई और वर्तमान संरचनात्मक लक्षण प्राप्त करने तक क्या क्या परिवर्तन हुए। इस सन्दर्भ में वनस्पति विज्ञान की विभिन्न शाखाओं जैसे पुरावनस्पति विज्ञान , परागाणुविज्ञान , तुलनात्मक आकारिकी , पुष्पीय शरीर और कोशिकी आदि से उपलब्ध जानकारी के आधार पर जानकारी जुटाई जाती है। जातिवृतीय वर्गीकरण पद्धतियों में प्रमुख है – एंगलर और प्रेंटल (1887-1899) , हचिन्सन (1887-1915) , तख्ताजन (1954) , चार्ल्स एडवर्ड बैस्से ( 1894-1915)
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