arrhenius theory in hindi of acid and base , आरेनियस का सिद्धांत क्या है , ऑर्रेनियस का विद्युत अपघटनी आयनन का सिद्धान्त

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अध्याय 6 : अम्ल तथा क्षारक (Acids and Bases)

 परिचय (Introduction)

लैटिन (Latin) भाषा मे acidus का मतलब खट्टा होता है। इस आधार पर ऐसे खट्टे पदार्थों को अम्ल कहा गया है जिनमें तीखे स्वाद के अलावा अन्य विशिष्ट गुण भी पाये जाते हैं। ये अम्ल नीले लिटमस को लाल कर देते हैं तथा क्षारों (alkali) के प्रभाव को नष्ट कर सकते हैं। शीघ्र ही अम्लों से विपरीत विशिष्टताओं वाले पदार्थों को पहचान लिया गया। इन पदार्थों को क्षारक (bases) नाम दिया गया। बायल (Boyle) ने क्षारकों के गुण बताते हुए कहा कि ये तीखे स्वाद वाले वे पदार्थ हैं जो अम्लों को उदासीन तथा लाल लिटमस को नीला कर देते हैं ।

अम्ल-क्षारक सिद्धान्त (Acid-Base Theories)

अम्ल तथा क्षारकों की विशिष्टता समझाने के लिए बहुत से सिद्धान्तों का सुझाव दिया गया है। लेकिन इन तथाकथित सिद्धान्तों को निकटता से देखने पर पता चलता है कि ये सिद्धान्त न होकर अम्ल तथा क्षारकों की विभिन्न परिभाषाएँ मात्र हैं जिसके परिणामस्वरूप यह कहना कठिन हो जाता है कि कौन सा सिद्धान्त अन्य की अपेक्षा अधिक सफल है। वास्तव में किसी सिद्धान्त या परिभाषा की सफलता उस तन्त्र व माध्यम पर निर्भर करती है जिसमें हम अध्ययन करते हैं। उदाहरणार्थ, जलीय | विलयनों में आयनिक अभिक्रियाओं, निर्जलीय या गलित तन्त्रों (fused systems) में अभिक्रियाओं तथा अम्लों एवं क्षारकों की सामर्थ्य को मापने में अलग-अलग सिद्धान्त अधिक सफल रहे हैं। आगे हम विभिन्न | सिद्धान्तों का विवेचन करेंगे जिन्हें समय-समय पर अम्ल तथा क्षारकों के गुणों को समझाने के लिये सामने रखा गया है।

चिरप्रतिष्ठित सिद्धान्त (Classical theories)

रसायन शास्त्र के आरम्भ काल में अम्ल तथा क्षारकों को उनके स्वाद तथा लिटमस जैसे कुछ पादप वर्णकों (Plant pigments) के रंगों पर प्रभाव के आधार पर परिभाषित किया गया था। उदाहरण के लिए, उन पदार्थों को अम्ल की श्रेणी में रखा गया जिनका स्वाद खट्टा हो जो नीले लिटमस को लाल कर देते हों तथा जो जिंक, मैग्नीशियम इत्यादि क्रियाशील धातुओं के साथ अभिक्रिया कर हाइड्रोजन का निर्माण करते हों। ये क्षारकों के साथ अभिक्रिया कर लवण बनाते हैं। क्षारक उन पदार्थों को कहा गया जिनका स्वाद तीखा हो जो लाल लिटमस को नीला कर दें, जिनका साबुन जैसा फिसलन भरा स्पर्श हो तथा जो अम्लों से अभिक्रिया कर लवण का निर्माण करते हों ।

अट्टारहवीं शताब्दी में अम्लों की परिभाषा उनमें उपस्थित तत्वों के आधार पर दी जाने लगी। ऑक्सीजन की खोज (1775) के पश्चात् लाव्वाजिये (Lavoisier) ने देखा कि कुछ तत्वों, जैसे कार्बन, नाइट्रोजन, गंधक इत्यादि, को ऑक्सीजन में जलाने से प्राप्त पदार्थों के जलीय विलयनों में अम्लीय गुण विद्यमान होते हैं। इस आधार पर उसने कहा कि ऑक्सीजन अम्ल का एक आवश्यक अंग है। डे (Davy) ने देखा कि सभी ऑक्सीअम्लों में हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन दोनों पाये जाते हैं लेकिन अम्लों (HCI, H2 S इत्यादि) में हाइड्रोजन ही पाया जाता है। इस आधार पर 1810 में उन्होंने सुझाव दिव कि हाड्रोजन (ऑक्सीजन नहीं) अम्ल का आवश्यक अंग है, यद्यपि यह आवश्यक नहीं कि हाड्रोजन युक्त सभी पदार्थ अम्ल हों ।

आर्रेनियस का सिद्धान्त (Arrhenius theory)

रसायन शास्त्र के विकास की आरम्भिक अवस्था में अभिक्रियाओं के लिए जल को लगभग एकमात्र विलायक के रूप में काम में लिया जाता था। 1884 में आर्रेनियस ने विद्युत अपघट्यों (electrolytes) से बहुत से गुणों का अध्ययन किया तथा उनकी व्याख्या करने के लिए एक विद्युत अपघटनी (electrolytic) सिद्धान्त का सुझाव दिया जिसे ऑर्रेनियस का विद्युत अपघटनी आयनन का सिद्धान्त कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार जब किसी विद्युत अपघट्य को जल में घोला जाता है तो यह धनायनों व ऋणायन में वियोजित हो जाता है। किसी विद्युत अपघट्य (BA) के आयनों में वियोजन को आयनन (ionisation) कहते हैं जिसे निम्न प्रकारं प्रदर्शित किया जा सकता है।

आर्रेनियस ने अम्ल तथा क्षारकों के आचरण को समझाने के लिए उपर्युक्त सिद्धान्त का विस्तार | किया जो निम्न बातों पर आधारित थाः

(i) विशुद्ध अम्ल जैसे निर्जलीय सल्फ्यूरिक अम्ल, 100% ग्लेसियल ऐसीटिक अम्ल तथा शुरू हाइड्रोजन क्लोराइड विद्युत चालक नहीं हैं, यद्यपि इनके जलीय विलयन विद्युत चालक है। (ii) अम्ल माने जाने वाले पदार्थों में कम से कम एक हाइड्रोजन परमाणु अवश्य पाया जाता है। इस आधार पर आर्रेनियस ने सुझाव दिया कि एक अम्ल वह पदार्थ है जो जल में घोले जाने पर हाइड्रोजन आयन (H’) देता है। इस प्रकार HCI, H2SO4 तथा HNO3 अम्ल हैं क्योंकि ये जल में घुलने के पश्चात् H’ आयन देते हैं, यद्यपि परिशुद्ध अवस्था में इनमें H’ नहीं पाये जाते हैं। एक अम्ल को सामान्य रूप से HX द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। उपर्युक्त अम्ल निम्न प्रकार आयनित होते हैं।

उपर्युक्त पदार्थ जल में लगभग पूर्ण रूप से वियोजित होकर बहुत अधिक मात्रा में H+ आयन देते हैं। अतः इन्हें प्रबल अम्ल कहते हैं। इनमें अवियोजित अणु नगण्य होते हैं। कुछ ऐसे भी अम्ल है जिनके अणुओं का एक भाग ही आयनित होता है। ऐसे पदार्थ दुर्बल अम्ल कहे जाते हैं क्योंकि इनसे कम मात्रा में H+ आयन प्राप्त होते हैं। H3PO4 तथा CH3COOH इस प्रकार के उदाहरण हैं। चूंकि दुर्बल अम्लो में आयन तथा काफी अधिक मात्रा में अवियोजित अणु दोनों ही पाये जाते हैं, अर्थात वियोजन की मात्रा काफी कम होती है, अवियोजित अणुओं तथा आयनों के बीच एक साम्य स्थापित हो जाता है जिसे निम्न प्रकार प्रदर्शित किया जाता है

इस सिद्धान्त के अनुसार क्षारक वे पदार्थ हैं जो जल में विलेय होकर हाइड्रॉक्सिल आन (OH) देते हैं। इन्हें MOH द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। वियोजन की सीमा के आधार पर इन्हें भी प्रबल तथा दुर्बल क्षारकों में विभजित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, NaOH तथा KOH जिनका लगभग पूर्ण वियोजन हो जाता है प्रबल क्षारक तथा NH4 OH जिसका वियोजन काफी कम होता है, एक दुर्बल क्षारक है :

अम्ल क्षारक के मध्य अभिक्रिया को उदासीनीकरण (neutralisation) अभिक्रिया कहते हैं। एक उदासीनीकरण अभिक्रिया निम्न प्रकार प्रदर्शित की जा सकती है :

HX + MOH→ MX + H2O

चूंकि जल में अम्ल, क्षारक तथा इनकी अभिक्रिया से निर्मित लवण वियोजित होकर आयन देते हैं, इन अणुओं के स्थान पर आयन लिखने पर उपर दी गयी आभिक्रिया निम्न प्रकार लिखी जा सकती है :

H+ + X + M+ + OH → M+ +X+ H2O

अर्थात्,

H+ + OH →H2

इस प्रकार, आर्रेनियस सिद्धान्त के अनुसार उदासीनीकरण अभिक्रिया मात्र H+ तथा OH- आयनों द्वारा संयुक्त होकर जल अणु बनाने की अभिक्रिया है।

दोष – इस सिद्धान्त के निम्नलिखित दोष हैं :

(i) आर्रेनियस सिद्धान्त के अनुसार किसी पदार्थ का जलीय विलयन ही अम्लीय या क्षारकीय होगा तथा अन्य विलायकों में उनके ये गुण समाप्त हो जायेंगे। इस प्रकार, HCl तथा NaOH बेंजीन, ईथर आदि विलायकों में अम्ल व क्षारक की भांति व्यवहार नहीं करने चाहिए।

(ii) कई पदार्थ जल में H’ आयन नहीं देने के कारण अम्लों की श्रेणी में नहीं आयेंगे। लेकिन ये पदार्थ अन्य विलायकों में अम्ल की भाँति व्यवहार करते हैं। उदाहरण के लिए, NH4 NO3 द्रव अमोनिया में अम्लीय है, यद्यपि जल में यह H+ आयन नहीं देता है।

(iii) कुछ लवण, जैसे ऐलुमिनियम क्लोराइड, अम्लीय आचरण करते हैं। इन हाइड्रोजन रहित पदार्थों के अम्लीय आचरण की इस सिद्धान्त द्वारा व्याख्या नहीं की जा सकती ।

(iv) हाइड्रोजन आयन इलेक्ट्रॉनविहीन बहुत छोटा धनायन है जिस पर धनावेश घनत्व इतना अधिक पाया जायेगा कि स्वतन्त्र H+ आयन का अस्तित्व असम्भव प्रतीत होता है क्योंकि यह H2O के ऋणावेशित ऑक्सीजन के साथ आसानी से स्थायी बंध बना लेगा ।

वास्तव में, अम्ल से प्राप्त H+ आयन का जल में स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता है क्योंकि यह आयन H2 O अणु में संयुक्त होकर H3 O+ आयन बनाता है। इस प्रकार, संशोधित आर्रेनियस सिद्धान्त के अनुसार अम्ल वे पदार्थ हैं जो जल में घुलकर H2 O+ (हाइड्रोनियम आयन) आयन देते हैं स्पष्ट है कि उदासीनीकरण अभिक्रिया हाइड्रोनियम तथा OH आयनों के मध्य की अभिक्रिया है :