antigen antibody reaction in hindi , प्रतिजन प्रतिरक्षी क्रियाएँ क्या होती है , अंतर सामान्य लक्षण

जानिये antigen antibody reaction in hindi , प्रतिजन प्रतिरक्षी क्रियाएँ क्या होती है , अंतर सामान्य लक्षण ?

प्रतिजन प्रतिरक्षी क्रियाएँ (Antigen-Antibody Reactions)

प्रतिजन-प्रतिरक्षी के बारे में पूर्व में बताया गया है। इनमें अन्तर भी स्पष्ट होते हैं-

प्रतिजन एवं प्रतिरक्षी एक दूसरे के साथ विशिष्टता के साथ संलग्न होते हैं। इनके मध्य होने वाली क्रिया का प्रेक्षण सम्भव है। प्रयोगशाला में इन क्रियाओं के अध्ययन द्वारा संक्रमण की पहचान – प्रतिजन व प्रतिरक्षियों की उपलब्धता, अति संवेदनशीलता जैसे कार्यों में सहायता मिली है। इन्हें सीरमीय परिक्षण (serological test) भी कहते हैं।

ये क्रियाएँ द्विदिशीय प्रकार की होती हैं। ये क्रियाएँ प्रतिजन के निर्धारक स्थल के एपीटोप (epitope) व प्रतिरक्षी के परिवर्तनशील क्षेत्र या स्थल पेराटोप (paratope) के मध्य होती हैं। इन क्रियाओं में हाइड्रोजन बन्ध, आयनिक बन्ध, जल विरागी अन्तः क्रियाएँ तथा वान्डरवाल अन्तः क्रियाएँ भाग लेती हैं। ये सभी क्रियाएँ एक लघुकाल में सम्पन्न होती हैं तथा प्रतिजन – प्रतिरक्षी के मध्य हुए दृढ़ संयोजन पर निर्भर करती हैं। ये क्रियाएँ जाति विशिष्टता रखती हैं।

प्रतिजन एवं प्रतिरक्षियों में अन्तर

क्र.

स.

 

प्रतिजन क्र.

स.

 

प्रतिरक्षियाँ
1. सामान्यतः बाह्य अणु होते हैं जो देह – में अभिक्रिया होते हैं। 1. ये जैव रासायनिक पदार्थ होते हैं जो देह में प्रतिजन से मुकाबला करने हेतु बनते हैं।

 

 

2. ये प्रतिरक्षियाँ बनाये जाने के कारण होते हैं।

 

2. इन पर परिवर्ती क्षेत्र होते हैं जो प्रतिजन से संलग्न होने हेतु पाये जाते हैं।
3. प्रतिजन या तो प्रोटीन होते हैं या बहुशर्कताएँ होते हैं अन्य पदार्थ इससे जुड़ सकते हैं।

 

3. प्रतिरक्षियाँ प्रोटीन प्रकृति की होती है।
4. मुक्त अणु या सूक्ष्मजीवी की सतह को ढ़कने वाले घटक होते हैं। 4. ये प्लाज्मा कोशिकाओं की सतह से निकलते हैं और प्लाज्मा के घटक बन जाते हैं।
5. ये रोग अथवा एलीर्जक अभिक्रिया उत्पन्न करते हैं।

 

5. ये रक्षात्मक, अगतिशीलता के कारक या प्रतिजन युक्त पदार्थ के विघटन का कारण होते हैं।.

 

 

प्रतिजन – प्रतिरक्षी क्रियाएँ तीन पदों में सम्पन्न होती हैं। प्रथम पद के अन्तर्गत दोनों के मध्य अन्योन्य क्रिया (interaction) होती है। यह क्रिया तीव्र गति से निम्न ताप पर भी सम्भव है। इसमें भौतिक रसायन व ऊष्मागतिकी के नियमों का पालन किया जाता है। यह क्रिया उत्क्रमणीय (reversible) होती है। इन दोनों के अणुओं के मध्य आयनिक बन्ध, हाइड्रोजन बन्ध वान्डरवाल बल द्वारा दुर्बल बन्ध बनते हैं। यह क्रिया दिखाई नहीं देती किन्तु भौतिक, रासायनिक, रेडिओधर्मी आइसोटॉप्स या प्रतिदीप्तिशीलता रंजक (fluorescent dyes) के द्वारा जाँची जाती है। इसके बाद द्वितीय पर आरम्भ होता है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्रतिजन – प्रतिरक्षी क्रियाओं में यह दिखाई दे। यह अवक्षेपण, समूहन, कोशिका लयन, जीवित प्रतिजनों का नष्ट होना, चलनशील जीवों का उदासीकरण (neutralisation) एवं भक्षाणुनाशन (phagocytosis) की आरम्भिक तैयारी होना जैसी क्रियाओं के रूप में सम्पन्न होता है। तृतीय पद-श्रृंखलाबद्ध क्रियाओं के रूप में आरम्भ होता है। इसके अन्तर्गत हानिकारक प्रतिजन्स का उदासीकरण या नष्ट किया जाना अथवा ऊत्तक नष्ट किये जाने जैसी क्रियाएँ होती हैं। विभिन्न रोगाणुओं के प्रति एवं एलर्जिक पदार्थों के प्रति की जाने वाली तरल रोधकक्षमता की क्रियाएँ भी इसके अन्तर्गत सम्मिलित की जाती हैं।

प्रतिजन – प्रतिरक्षी क्रियाओं के सामान्य लक्षण (General features of antigen antibody reactions)

प्रतिजन प्रतिरक्षी क्रियाओं के सामान्य लक्षण निम्नलिखित प्रकार से वर्णित किये जा सकते हैं-

  1. यह क्रियाएँ अति विशिष्ट होती हैं अर्थात् एक विशिष्ट प्रतिजन इससे सम्बन्धित या समजात (homologous) प्रतिरक्षी के साथ ही संलग्न होता है। यद्यपि इस क्रिया में प्रतिरक्षी के समान होने के कारण कभी-कभी गलती भी हो सकती है।
  2. इन क्रियाओं में प्रतिजन के पूर्ण अणु भाग लेते हैं एवं इनके खण्ड नहीं बनते हैं। के किसी एक भाग या वाहक पर प्रतिजेनिक निर्धारक (antigenic determinant) उपस्थित होने पर पूरे अणु पर समूहन (agglutination) का प्रभाव देखा जाता है।
  3. प्रतिजन या प्रतिरक्षी का क्रिया के दौरान विकृतिकरण (denaturation) नहीं होता।
  4. प्रतिजन या प्रतिरक्षी में संयोजन (combination) सतही स्वरूप में होता है। संक्रमणीय कारकों के सतह पर ही प्रतिरक्षण योग्य कारक पाये जाते हैं अतः प्रतिरक्षी इनके प्रति संयोजन पर क्रिया आरम्भ करती है।
  5. यह संयोजन दृढ़ किन्तु उत्क्रमणीय होता है। अणुओं के मध्य संयोजन बनने वाले बन्धों जटिल की पर निर्भर करता है।
  6. प्रतिजन – प्रतिरक्षी क्रियाओं में भाग लेकर समूहन (agglutination) या अवक्षेपण (precipitation) की क्रिया दर्शाते हैं।
  7. प्रतिजन प्रतिरक्षी में संयोजन का अनुपात इन पर निर्भर करता है कि इनमें भाग लेने वाले अणुओं की संयोजकता क्या है। प्रतिजन प्रतिरक्षी बहुसंयोजकता (multivalent) वाले अणु होते हैं। प्रतिजन्स की संयोजकता सामान्यतः हजारों में होती है। प्रतिरक्षी सामान्यतः द्विसंयोजकता (bivalent) वाली संरचना होती है। IgM अणु पर 5-7 संयोजन शील स्थल हो सकते हैं।

प्रतिजन-प्रतिरक्षी अभिक्रियाओं को अध्ययन की दृष्टि से निम्नलिखित क्रियाओं में वर्गीकृत किया जाता है।

(i) अवक्षेपण (Precipitation)-

जब विलयशील प्रतिजन अपने से सम्बन्धित प्रतिरक्षी से मिलता है एवं अन्य कारक तापक्रम, pH व विद्युत अपघट्य (electrolytes) जैसे NaCl आदर्श मात्रा में उपस्थित रहते हैं तो प्रतिजन प्रतिरक्षी जटिल अघुलनशील अवक्षेप बनाते हैं। यह अवक्षेप इन दोनों की मात्रा पर निर्भर करता है। कभी-कभी प्रतिजन-प्रतिरक्षी जटिल निलम्बित कणों (suspended particles) के रूप में होता है। इसे ऊर्णन (flocculation) कहते हैं। अवक्षेप बनने की क्रिया तरल माध्यम या जेल (gel) जैसे एगार (agar), एगरोज (agarose) में होती है। भाग लेने वाले प्रतिजन व प्रतिजन की मात्रा या प्रतिशत के आधार पर अवक्षेप की मात्रा व गुणवत्ता ( quality) निर्भर करती है। अलग-अलग परख नलियों में इनकी विभिन्न मात्राओं के मिलाने पर विभिन्न लक्षणों वाले अवक्षेप प्राप्त किये जा सकते हैं। मरेक ‘ (Marrack, 1934) के अनुसार अवक्षेप, भाग लेने वाले अणुओं के मध्य जालक ( lattice) के द्वारा बनाया जाता है एवं इन अणुओं की संयोजकता द्वारा प्रभावित होता है। चित्र 4.2A में प्रतिरक्षी की मात्रा, चित्र 4.2 B में प्रतिजन की मात्रा अधिक होने पर तथा चित्र 4.2C के बराबर होने पर जालक बनने की क्रिया को समझाया जा सकता है।

अवक्षेप क्रिया का उपयोग प्रतिजन के परीक्षण के लिये अथवा रोगी में संक्रमण की जाँच के. लिये किया जाता है। यह परीक्षण रक्त, वीर्य, भोजन विषाक्तता आदि के मामलों में भी किया जाने लगा है। विधि अनुप्रयोग (forensic application) से इसका महत्त्व और बढ़ गया है। यह परीक्षण स्लाइड (slide) पर, .टेस्ट ट्यूब में अवक्षेप बनने की क्रिया या मुद्रिका (ring) के बनने की क्रियां. द्वारा किया जाता है। प्रयोगशाला में जेल माध्यम में अवक्षेप बनाकर इस क्रिया को सरलता के साथ किया जाता है। तरल माध्यम की अपेक्षा जेल माध्यम में बना अवक्षेप स्थायी व स्पष्ट होता है। इसे (प्रतिरक्षा विसरण (immunodiffusion) कहते हैं। यह 1% एगार जेल माध्यम में किया जाता है। आजकल आधुनिक तकनीक द्वारा एलेक्ट्रोफोरेसिस (electrophoresis) की मदद से यह क्रिया तीव्र व अधिक स्पष्ट की जाने लगी है तथा इसका उपयोग अनेक कार्यों हेतु किया जाता है।

(ii) समूहन (Agglutination) –

जब कण स्वरूप का प्रतिजन – प्रतिरक्षी के साथ आदर्श तापक्रम pH व अपघट्यों की उपस्थिति में मिलता है तो ये कण गुच्छ या समूह बना लेते हैं। अवक्षेप की अपेक्षा यह क्रिया अधिक संवेदनशील होती है। यह क्रिया नेत्रों के द्वारा सूक्ष्मदर्शी से कोशिकाओं के मध्य स्पष्टतः देखी जा सकली है। चूँकि अधिकतर कोशिकाएँ विद्युत आवेश युक्त होती हैं अतः प्रतिरक्षी से मिलने पर समूहन का प्रदर्शन करती है।

रक्त समूह की जाँच हेतु इस क्रिया की सहायता लेते हैं। उदाहरण के तौर पर रक्त समूह A की लाल कणिकाओं को एन्टी A सीरम में स्लाइड पर रखने पर समूहन की क्रिया होती है जिसे सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखा जा सकता है। यह क्रिया जीवाणुओं के लिये भी की जाती है। विभिन्न रोगों की जाँच जैसे टाइफॉइड हेतु विडाल परीक्षण, ब्रुसेलोसिस हेतु ब्रुसेला परीक्षण एवं रिक्टिओसिस हेतु वेल फेलिक्स परीक्षण इसी आधार पर किया जाता है। यह परीक्षण परखनलियों में किये जाते हैं ।

एन्टीग्लोबुलिन या कूम्ब परीक्षण (antiglobulin or Coombs test) कूम्ब नामक वैज्ञानिक द्वारा एन्टी-Rh प्रतिरक्षीज जो Rh – घनात्मक लाल रक्ताणुओं के साथ नमक के घोल में नहीं करती, जाँच हेतु उपयोग में लाया गया था।

कुम्ब ने लघु प्रतिरक्षी अणुओं को गहराई में स्थित कला की ओर प्रेषित किया तो एन्टीजेनिक डिटरमिनेन्टस में समूहन की क्रिया नहीं हुयी । (चित्र 4. 8 A ) क्योंकि एन्टीबॉडीज की Fab भुजाएँ इतनी छोटी थी कि वे लाल रक्ताणुओं पर डिटरमिनेन्टस से बन्धन नहीं बना सकती थी। इन प्रतिरक्षीज को अपूर्ण या ब्लाकिंग प्रतिरक्षीज कहा जाता है। Rh एन्टीजेनिक डिटरमिनेन्ट जो लाल रक्ताणुओं पर पाया जाता है इसका उत्तम उदाहरण है। एन्टी Rh प्रतिरक्षीज की उपस्थिति की जाँच हेतु जो लाल रक्ताणुओं पर संलग्न थी पर एक एन्टी ह्यूमन इम्यूनोग्लोबुलिन डाला गया जो अपूर्ण प्रतिरक्षीज को लक्षित किया गया था। इस द्वितीय प्रतिरक्षीज के सम्पर्क से समूहन की क्रिया हो गयी।

समूहन क्रियाओं का आनुप्रयोग अब अनेक प्रकार के परीक्षण हेतु किया जाता है, इनमें रेडियोधर्मी इम्यूनो जाँच, एलिसा ( ELISA ), वेस्टर्न बोल्ड परीक्षण शामिल हैं जो प्रतिजन की पहचान करने, हिपेटाइटिस B सतही प्रतिजन की उपस्थिति, एन्टीबॉडी की जाँच, रूबेला विषाणु, HIV I व 2, विषाणुओं, कवक, जीवाणुओं, आविष एवं हार्मोन की उपस्थिति का पता लगाने हेतु किया जाता है।

(iii) उदासीकरण (Neutralization)

कुछ विशिष्ट प्रतिरक्षी उदासीकारक प्रतिरक्षीयाँ कहलाती हैं। ये प्रतिरक्षी – प्रतिजन के विष केन्द्रों को ढ़कती है। यह उसकी विषैली प्रकृति को विषहीन प्रकृति में बदलता है। कुछ प्रतिरक्षी पदार्थ विषैले पदार्थ पर प्रतिविष पदार्थ की क्रिया द्वारा उदसीन करते हैं। जो विशिष्ट प्रतिजन जैसे वाइरस केप्सिड्स से क्रिया करती हैं एवं विषाणुओं को पोषक की कोशिकाओं पर संलग्न नहीं होने देती ।

इन्फ्लुएन्जा का विषाणु न्युट्राएमीनेडस प्रतिरक्षी द्वारा रोका जाता है । उदासीकारक प्रतिरक्षीज विषाणुओं का समूहन कर भक्षाणुनाशन क्रिया को प्रभावी बनाती हैं। ये आविष पदार्थों को निष्क्रिय करने का कार्य भी करती है। इस प्रकार की विशिष्ट प्रतिरक्षी प्रतिआविष (antitoxin) कहलाती हैं जो आविष (toxins) की प्रकृति में परिवर्तन ला देती है। ये परिवर्तन इनके सक्रिय बिन्दुओं को लेपित कर किये जाते हैं। प्रतिआविष आविष के आमाप में वृद्धि करने में भी सफल रहते हैं ताकि इनका भक्षण श्वेत रक्त कणिकाएँ आसानी से कर सकें। चित्र 4.8 में प्रतिरक्षी के क्रिया करने की कुछ विधियों को दर्शाया गया है।

कुछ विशिष्ट प्रतिरक्षी विषाणुओं, आविष पदार्थों एवं एन्जाइम्स के जैविक प्रभावों को उदासीन बना सकती है। जीवाणुओं, विषाणुओं एवं इनके द्वारा स्त्रावित आविष पदार्थों के परीक्षण हेतु प्रतिरक्षी युक्त सीरम द्वारा जाँच की जाती है। इस प्रकार डिफ्थीरिया, टेटनस के रोगाणुओं की जाँच की जाती है। प्राणियों में इस जाँच को इस प्रकार करते हैं। इनकी देह में आविष (toxin) प्रतिआविष (antitoxin) मिश्रण को प्रवेशित (inject ) कराते हैं तथा वह कम से कम मात्रा ज्ञात करते हैं जो रोगी में बीमारी को रोकने में सक्षम होती है। कुछ रोगों की जाँच त्वचा की सतह पर तो कुछ की डार्मिस के भीतर की जाती है। एक सामान्य प्रतिरक्षी जैवविष एन्टीस्ट्रेप्टालेलाइसिन – 0 (antistreptolysin- 0) है जिसके कारण टैट्नस रोग से बचाव होता है। यह टेटवेक (tetvac ) अर्थात् टेट्स के टीके लगाये जाने के बाद विकसित होता है।

(iv) ऑप्सिनेशन (Opsination)

कुछ प्रतिरक्षीयों जिन्हें आप्सोनिन्स (opsonins) कहते हैं भक्षाणुनशन क्रिया को उद्दीप्त करती हैं। ये इस क्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्रतिरक्षी के fab खण्ड पर प्रतिजन के संलग्न होने तुरन्त बाद fc खण्ड फेगोसाइट में प्रवेश कर जाता है इसके लिये फेगोसाइट पर एक ग्राही स्थल) होता है चित्र 4.4E। इसे एक उदाहरण द्वारा समझाया जा सकता है। सामान्यतः सूक्ष्मजीव भक्षाणुशण का प्रतिरोध करते हैं किन्तु प्रतिरक्षी जीवाणु के सम्पुट के M- प्रोटीन से क्रिया करती है अत: अतिशीघ्र भक्षाणुशण की क्रिया सम्पन्न हो जाती है। स्ट्रप्टोकॉकस निमोनिए जीवाणु पर प्रतिरक्षी इसी प्रकार क्रिया करती है।

(v) पूरक तंत्र (Complement system)

मानव सीरम में कारकों का विशिष्ट तंत्र पाया जाता है। यह तंत्र प्रतिरक्षी क्रियाओं द्वारा सक्रिय होकर अनेक जैविक कार्यों का निष्पादन करता है। 19 वीं सदी के अन्तः में अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रतिरक्षीज, जीवाणु नाशक, जीवाणुलयन एवं रक्त लयन जैसी क्रियाओं को आरम्भ करने के लिये ताप स्थिर (heat labile) कारक या पूकर (complement) की आवश्यकता पड़ती है। बोर्डे एवं जेन्यू (Bodet and Gengou) ने 1901 में पूरक स्थिरीकरण परीक्षण (complement fixation test) की खोज की जिसमें रक्त के मिलाने पर संवेदी सीरमीय क्रिया होती है। इस परीक्षण का व्यापक उपयोग है सिफलिस रोग का परीक्षण इसी के द्वारा किया जाता है।

पूरक (complement) एक अकेला पदार्थ नहीं है, बल्कि यह नौ (9) प्रकार के प्रोटीन के अंश से बना जटिल है। इन्हें C से C तक तक नाम दिये हैं। अंश C तीन प्रोटीन उपइकाईयों के बना होता है। इस प्रकार 11 प्रोटीन अशों से मिलकर पूरक का निर्माण होता है। अलग-अलग जातियों के प्राणियों में C घटक अलग-अलग अनुपात में पाये जाते हैं किन्तु ये एक जाति से दूसरी जाति में आदान-प्रदान के बाद भी सक्रिय बने रहते हैं। मनुष्य में पूरक घटक सीरम ग्लोबुलिन्स का लगभग ‘10% भाग बनाते हैं। यह उच्च ताप पर विकृत हो जाते हैं। देह के बाहर सामान्य तापक्रम पर रखने ‘पर धीरे-धीरे इनमें विकृति उत्पन्न हो जाती है। रक्त सीरम को 56°C पर 30 मिनट तक रखने के बाद ये घटक निष्क्रिय हो जाते हैं। पूरक घटक देह में सक्रिय अवस्था में पाये जाते हैं किन्तु प्रतिजन – प्रतिरक्षी अभिक्रिया आरम्भ होने पर ये विशिष्ट श्रृंखलाबद्ध अवस्थाओं में क्रिया करते हैं। इस दौरान अनेक जैविक रूप से सक्रिय उपोत्पाद (byproduct) बनते हैं जो रक्षात्मक क्रियाओं को बढ़ाने हैं एवं शोध क्रिया को प्रोत्साहित करते हैं। रक्त कणिकाओं की पारगम्यता, पेशियों में संकुचन, श्वेत रक्त कणिकाओं में रासायनिक अनुचलन, विषाणुओं का उदासीकरण, आविषालु पदार्थों का निष्क्रिय किया जाना एवं मास्ट कोशिकाओं से हिस्टामीन का मुक्त होना जैसे क्रियाओं का आरम्भन करते हैं।

इन क्रियाओं के श्रृंखलाबद्ध चरण के रूप में बढ़ते जाने वाले के कारण जीवाणुओं विशेषतः ग्रैम ऋणात्मक जीवाणु एवं कवक के विरुद्ध यह तंत्र अधिक उपयोगी रहता है। ये इनकी देह भित्ति में परिवर्तन उत्पन्न कर लाइसोजाइम हेतु सुग्राही बना देते हैं। एक पूरक मेक्रोफेज कोशिकाओं से लाइसोजाइम मुक्ति हेतु क्रिया करता है। इस प्रकार जीवाणु की देह भित्ति विघटित हो जाती है। इस प्रकार C से C1 तक के विभिन्न घटक अलग-अलग कार्य करते हुए अन्तिम पद तक पहुँचते हैं।

(vi) भक्षाणुनाशन (Phagocytosis)

मेक्रोफेज (macrophages) कोशिकाएँ (लासिका ग्रन्थियों एवं प्लीहा (lymph nodes and spleen) में बनती है। ये रक्त के साथ देह के विभिन्न भागों में चक्कर लगाती रहती हैं। देह में. प्रतिजन के प्रवेश करने के कुछ मिनटों के बाद इनमें सक्रियता देखी जाती है। मेक्रोफेज कोशिकाएँ

प्रतिजन के निकट आती है। इसकी कोशिका कला प्रतिजन के सम्पर्क में आती हैं तथा प्रतिजन को “घेरते हुए एक आशय जैसी रचना बना लेती है। इस प्रकार कुछ ही मिनटों में प्रतिजन पूरा का पूरा कोशिका के भीतर पिनोसिटिक आंशय (pinocytic vesicle) के रूप में निगल लिया जाता हैं। (चित्र 4.12) मेक्रोफेज कोशिका अन्तग्रहित पदार्थ का पाचन करती है। इसके लिए इसके कोशिकाद्रव्य में उपस्थित प्राथमिक लाइसोसोम (protolysosomes ) आशय के साथ संलग्र हो जाते हैं। लाइसोसोम में भरा लयनकारी पदार्थ जो अनेक एन्जाइम्स रखता है पाचन में सहायता करता है। प्राथमिक लाइसोसोम के साथ संलग्र पाइनोसाइटिक आशय फेगोलाइसोसोम्स (phagolysosomes) कहलाते हैं। पाचन के उपरान्त ये पदार्थ अनेक छोटे-छोटे कणों में विभक्त हो जाते हैं जो अलग-अलग अणुभार के होते हैं। ये बाहर निकलते हैं इसके लिये पाइनोसाइटोसिस जैसी किन्तु विपरित दिशा में क्रिया होती है। कुछ लोगों का मानना है इस विधि से प्रतिरक्षी का निर्माण होता है। जबकि कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि इस प्रकार प्रतिजेनिक RNA का निर्माण होता है। इस प्रकार पचित अंश का कुछ भाग जो कोशिकाद्रव्य में अवशोषित हो जाता है तथा कुछ अपाच्य भाग देह से बाहर निष्कासित भी किया जा सकता है।