तने की आंतरिक संरचना (anatomy of stem and root in hindi) एक बीज पत्री तने की आंतरिक संरचना

monocotyledonous root तने की आंतरिक संरचना (anatomy of stem and root in hindi) एक बीज पत्री तने की आंतरिक संरचना ?

प्ररोह तंत्र या स्तम्भ की उत्पत्ति प्रांकुर से होती है। प्ररोह तंत्र में तना या अक्ष और उसके पाशर्व उपांग जैसे पत्ती और पुष्प शामिल होते है। तना पर्व और पर्व संधियों में विभेदित होता है और प्रत्येक पर्व पर पाशर्व उपांग स्थित होते है।

तने के कुछ विशिष्ट बाह्य आकारिकी और आंतरिक या शारिरिका लक्षण निम्नलिखित प्रकार है –

A. बाह्य आकारिकी लक्षण :-

  1. तने का निर्माण सदैव कलिका से होता है।
  2. तना सामान्यतया ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्ती और धनात्मक प्रकाशानुवर्ती होता है।
  3. तने पर पर्व और पर्व सन्धियाँ पायी जाती है।
  4. पर्व सन्धियों पर पत्तियाँ और कलिकाएँ उत्पन्न होती है।
  5. तना प्राय: उधर्व सीधा होता है लेकिन यदा कदा भूमिगत , विसर्पी या लघुकृत होता है।
B. आंतरिक संरचना के लक्षण :-
  1. तने की सबसे बाहरी परत बाह्यत्वचा क्युटिकल द्वारा ढकी रहती है।
  2. बाह्यत्वचा पर उपस्थित रोम बहुकोशिक होते है।
  3. वल्कुट की सबसे आंतरिक परत अंत:त्वचा में प्राय: कैस्पेरी पट्टियाँ अनुपस्थित होती है। इस परत में स्टार्च कण बहुतायत से मिलते है , इसलिए इसे मंड आच्छद कहते है।
  4. तने में संवहन पूल प्राय: संयुक्त और सम्पाशर्विक होते है।
  5. जाइलम सदैव अन्त: आदिदारुक होता है।
  6. शाखाओं की उत्पत्ति बहिर्जात होती है।

तने की आंतरिक संरचना (anatomy of stem in hindi)

तने की आंतरिक संरचना तीन प्रकार के ऊतक तंत्रों से निर्मित होती है –
1. त्वचीय ऊतक तंत्र (dermal tissue system)
2. भरण अथवा मौलिक ऊतक तंत्र (ground or fundamental tissue system)
3. संवहन ऊतक तंत्र (vascular tissue system)
1. त्वचीय ऊतक तंत्र (dermal tissue system) : इसमें बाह्यत्वचा उपस्थित होती है जो कि तने की सबसे बाहरी सतह पर एक सुरक्षात्मक परत के रूप में पायी जाती है। बाह्य त्वचा की उत्पत्ति प्ररोह के अग्रस्थ विभाज्योतक की पृष्ठ स्तर त्वचाजन द्वारा होती है। वैसे त्वचीय ऊतक तंत्र में बाह्यत्वचा के अतिरिक्त अनेक विशिष्ट सहायक और उपयोगी संरचनाएँ पायी जाती है जो बाह्य वातावरण के सम्पर्क में आने पर विकसित होती है और पारिस्थितिकी अनुकूलन हेतु पौधे के लिए अत्यावश्यक होती है जैसे उपचर्म , मोम पर्त और रोम आदि। बाह्यत्वचा परत सजीव , ढोलकाकार अथवा आयताकार मृदुतकी कोशिकाओं द्वारा निर्मित होती है। यह कोशिकाएँ अधिकांशत: एक पंक्ति में व्यवस्थित होती है।
बाह्य त्वचा परत की कोशिकाओं में सामान्यतया समसूत्री विभाजन की क्षमता होती है। इनमें प्राथमिक और द्वितीयक वृद्धि के समय अपनत विभाजन होते है जिससे इसकी सतह में फैलाव होता है। द्वितीयक वृद्धि के कारण ऊतकों की संख्या निरंतर बढती रहती है जो सतही फैलाव की वजह से इस दौरान पड़ने वाले दबाव अथवा प्रतिबल का आसानी से सामना कर सकती है।
पर्ण की बाह्यत्वचा की तुलना में तने में रन्ध्र अपेक्षाकृत कम संख्या में पाए जाते है और यह भी केवल शाकीय तने में अथवा तने की कोमल शाखाओं में मिलते है। इस प्रकार हम यह कह सकते है कि यहाँ तने की आंतरिक संरचना में रन्ध्र अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण होते है। तने में उपस्थित रंध्र की वृक्काकार रक्षक कोशिकाओं में हरितलवक भी मौजूद हो सकता है। विभिन्न पौधों में तनों में बाह्यत्वचा परत के ऊपर पाए जाने वाले बहुकोशीय सरल या ग्रंथिल रोम चिरलग्न अथवा आशुपाती हो सकते है।

बाह्यत्वचा के कार्य (functions of epidermis in plants)

(1) बाह्यत्वचा विशेषकर शाकीय तने में एक सुरक्षात्मक आवरण का कार्य करती है।
(2) शुष्क जलवायु में पाए जाने वाले मरुदभिदीय पौधों के तनों में मोम और उपचर्म परत की उपस्थिति के कारण वह पौधों को तापमान से बचाने का कार्य करती है और वाष्पोत्सर्जन की दर को भी नियंत्रित करती है।
(3) क्योंकि बाह्यत्वचा पर रन्ध्र उपस्थित होते है , अत: इनके द्वारा गैसीय विनिमय का कार्य भी किया जा सकता है।
(4) चूँकि बाह्यत्वचा पर विभिन्न प्रकार के रोम जैसे ग्रंथिल रोम अथवा दंश रोम आदि पाए जाते है अत: इनकी सहायता से यह पौधे के लिए विभिन्न उपयोगी कार्यो को संपन्न कर सकती है।
(5) कभी कभी आवश्यकता पड़ने पर बाह्य त्वचा परत की कोशिकाएँ विभाज्योतकी प्रकृति भी धारण कर सकती है जिसके कारण यह कागएधा के निर्माण अथवा तने में क्षतिग्रस्त स्थानों को सही करने का (घाव का भरना) कार्य भी करती है। कागएधा से कॉर्क और द्वितीयक वल्कुट का निर्माण होता है। लेकिन शाकीय वार्षिक तनो में कार्क केम्बियम नहीं बनता , यहाँ बाह्यत्वचा चिरस्थायी होती है।
(6) शाकीय तनों अथवा कोमल शाखाओं की बाह्यत्वचा परत में जब हरितलवक पाए जाते है तो यह प्रकाश संश्लेषण का कार्य करने में भी सक्षम होती है।

2. भरण ऊतक तंत्र (ground tissue system)

यह ऊतक तंत्र प्रारम्भिक अवस्थाओं में तने की मुख्य संरचना का निर्माण करता है। इसमें विभिन्न प्रकार के ऊतक जैसे वल्कुट और अन्त:त्वचा और रम्भीय क्षेत्र का परिरंभ , मज्जा और मज्जा रश्मियाँ सम्मिलित होती है। भरण ऊतक तंत्र में शामिल विभिन्न ऊतकों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है –
(i) अधोत्वचा (hypodermis) : यह ऊतक परत प्राय: बाह्यत्वचा के ठीक नीचे पायी जाती है। अधिकांश द्विबीजपत्री तनों , जैसे सूरजमुखी में अधोत्वचा का निर्माण जीवित गोलाकार अंतर कोशिकीय स्थानों से युक्त स्थूलकोणोतक की कोशिकाओं से होता है , कुछ पौधों जैसे केस्यूराइना के तने में खाँच वाले हिस्सों में अधोत्वचा हरित ऊतक के द्वारा निर्मित होती है लेकिन एकबीजी तनों जैसे मक्का में और द्विबीजपत्री पौधों में जैसे केस्यूराइना तने में उभार वाले स्थान पर अधोत्वचा का निर्माण मृत दृढोतक कोशिकाओं के द्वारा होता है।
अधिकांश संवहनी पौधों के तनों में अधोत्वचा की कोशिकाएं तने को यांत्रिक दृढ़ता प्रदान करने का कार्य करती है। यद्यपि पौधों में (हरित ऊत्तक की स्थिति में) इनके द्वारा प्रकाश संश्लेषण भी हो सकता है।
(ii) वल्कुट (cortex) : यह ऊतक अधोत्वचा के ठीक नीचे सजीव मृदुतकी पतली भित्ति वाली कोशिकाओं से निर्मित होती है जिनकी आकृति गोलाकार , अण्डाकार अथवा बहुकोणीय होती है। वल्कुट की कोशिकाओं के मध्य अंतरकोशिकीय स्थान उपस्थित या अनुपस्थित हो सकते है। अधिकांश जलीय पादप पौधे जैसे हाइड्रिला के तने में सुविकसित वायुस्थान अथवा वायुगुहिकायें अथवा वायुतक पाए जाते है जो पौधे को न केवल जल की सतह पर तैरने के लिए प्लावी क्षमता प्रदान करते है अपितु इनके द्वारा गैसीय विनिमय भी हो सकता है। मध्योदभिद और मरूदभिद पौधों में उपस्थित वल्कुट ऊतक में उपापचय के विभिन्न उत्पाद भी संगृहीत रहते है जैसे – म्यूसीलेज , स्टार्च रेजिन , टेनिन , गोंद , केल्शियम ओक्सेलेट के क्रिस्टल और लेटेक्स। कुछ ऐसे संवहनी मरुदभिद पौधों की प्रजातियों में जिनमें कि पत्तियां आशुपाती होती है अर्थात शीघ्र ही झड़ जाती है , जैसे केर , खीप और सेनिया आदि में जहाँ तनों की परिधीय भाग की वल्कुट कोशिकाएँ जो अधोत्वचा के ठीक नीचे पायी जाती है , उनमें हरितलवक काफी मात्रा में उपस्थित होता है और यह प्रकाश संश्लेषण कार्य करती है। वल्कुट का यह प्रकाश संश्लेषी क्षेत्र स्वांगीकरण क्षेत्र भी कहलाता है।
(iii) अंत:त्वचा (endodermis) : यह वल्कुट की सीमा रेखा का निर्धारण करने वाली अंतिम परत होती है। अधिकांश द्विबीजपत्री पौधों में देखा गया है कि अन्तश्त्वचा की कोशिकाओं में स्टार्च का संचय बहुत अधिक मात्रा में होता है। शिशु और तरुण तनों में तो यह प्रक्रिया अत्यंत सामान्य है। अत: ऐसी अवस्था में इन पौधों में अन्त:त्वचा को मंड आच्छाद भी कहा जाता है लेकिन कुछ पौधों में परिपक्व होने पर जब इस सतह की कोशिकाओं पर स्पष्ट रूप से कैस्पेरियन पट्टिकाओं का स्थूलन हो जाता है तो यह सुस्पष्ट रूप से अन्त:त्वचा परत में विभेदित हो जाती है। कुछ पौधों के तनों में यह भी देखा गया है कि यह परत न तो स्टार्च को संचित करती है तथा न ही इसकी कोशिकाओं में केस्पेरियन पट्टिकाओं का स्थूलन होता है। अत: ऐसी अवस्था में अन्त:त्वचा परत कुछ अस्पष्ट सी दिखाई पड़ती है और यहाँ वल्कुट की कोशिकाओं और संवहन क्षेत्र में पहचान करना मुश्किल हो जाता है। वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार ऐसी अस्पष्ट परत को अन्त:त्वचाभ कहा जाता है।
(iv) परिरंभ (pericycle) : एकबीजपत्रियों को छोड़कर अधिकांश संवहनी पौधों के तनों में रम्भ अथवा संवहन क्षेत्र की बाहरी परिसीमा पर द्वितीयक वृद्धि से पूर्व मृदुतकी कोशिकाओं अथवा दृढोतकी कोशिकाओं तंतुओं की एक निरंतर परत पायी जाती है। इस परत को परिरंभ कहा जाता है। अधिकांश तनों में परिरंभ की उत्पत्ति अंत:त्वचा के ठीक नीचे फ्लोयम की उत्पत्ति करने वाले विभाज्योतकी क्षेत्रों से होती है जैसे – पेलारगोनियम में लेकिन कुछ अन्य उदाहरणों में परिरंभ की उत्पत्ति अपोषवाही या फ्लोयम से बाहर होती है।
सर्वप्रथम परिरंभ शब्द का उपयोग संवहन ऊतक और वल्कुट के मध्य उपस्थित विशिष्ट कोशिकाओं की परत के लिए किया गया था ऐसी परत जिसकी कोशिकाओं की उत्पत्ति फ्लोयम से नहीं होती , अधिकांश द्विबीजपत्री पौधों के तनों में प्राय: फ्लोयम , वल्कुट के सम्पर्क में पाया जाता है लेकिन फ्लोयम की परिधि पर स्थित दो प्रकार की दृढोतकी रेशे वाली कोशिकाएँ अथवा तंतुवत कोशिकाएं पायी जाती है। यह है –
(1) फ्लोयम रेशे (bast fibres)
(2) अपोषवाही अथवा परिसंवहनी रेशे (non phloic fibres)
ये फ्लोयम ऊतक के बाहर उत्पन्न होते है। उपर्युक्त दोनों प्रकार के रेशों को बाह्य जाइलमी रेशे भी कहा जाता है।
जिन पौधों में मृदुतकी कोशिकाओं के द्वारा परिरंभ का निर्माण होता है उनमें परिरंभ परत में कोशिकाओं की एक अथवा बहुसंख्यक पंक्तियाँ पायी जाती है। इनकी मृदुतकी कोशिकाओं के मध्य अन्तर कोशिकीय स्थान नहीं पाए जाते है। यह एक निरंतर परत के रूप में जैसे कुकरबिटा में उपस्थित होती है। लेकिन कुछ अन्य पौधों में जैसे मेडीकागो और सूरजमुखी के तने में परिरंभ ऊतक केवल संवहन बंडलों के ऊपर ही पाए जाते है। सूरजमुखी में परिरंभ का निर्माण दो प्रकार की कोशिकाओं से होता है। संवहन बंडल के ऊपर यह दृढोतकी कोशिकाओं के द्वारा निर्मित होती है जबकि मज्जा रश्मियों के ऊपर यह मृदुतकी कोशिकाओं के रूप में पायी जाती है। इस प्रकार की परिरंभ को असतत परिरम्भ कहते है।
मज्जा (pith) : भरण ऊतक तंत्र का यह एक विशिष्ट ऊतक है जो कि तने के केन्द्रीय भाग में अर्थात रम्भ के मध्य क्षेत्र में पाया जाता है , एकबीजपत्रियो में मज्जा अनुपस्थित होती है , वहां मज्जा तथा वल्कुट के स्थान पर भरण ऊतक पाया जाता है। मज्जा में सजीव गोलाकार अथवा अण्डाकार मृदुतकी कोशिकाएं पायी जाती है जिनके मध्य अंतर कोशिकीय स्थान भी उपस्थिति होते है। कुछ पौधों जैसे ट्रिटिकम में मज्जा खोखली होती है जिसे मज्जा गुहिका कहते है।
कुछ उदाहरणों में यहाँ विशेष कोशिकाएं अथवा इडियोब्लास्ट भी पायी जाती है। इसके साथ ही विभिन्न प्रकार के क्रिस्टल , रेजिन , टेनिन , गोंद आदि भी मज्जा में मिल सकते है। द्वितीयक वृद्धि के बाद मज्जा का क्षेत्रफल या तो संकुचित हो जाता है या नष्ट हो जाती है। कुछ पौधों जैसे बोहराविया , मिराबिलिस आदि के तनों में मज्जा में संवहन बंडल भी पाए जाते है , इनको मज्जा बण्डल कहते है।
(vi) मज्जा रश्मियाँ (medullary rays) : दो संवहन बंडलों के मध्य उपस्थित मृदुतकी कोशिकाओं द्वारा निर्मित पट्टियाँ जो परिरंभ से लेकर मज्जा तक फैली होती है , मज्जा रश्मियाँ कहलाती है। यह भी भरण ऊतक क्षेत्र का एक घटक है।

भरण ऊतक तंत्र के कार्य (function of ground tissue system)

  1. इसका मुख्य कार्य भोज्य पदार्थो और विभिन्न उपापचय उत्पादों का संचय करने का होता है।
  2. अधोत्वचा या परिरंभ में यांत्रिक ऊतकों स्थूल कोणोतक और दृढोतक की उपस्थिति के कारण यह पौधे को यांत्रिक दृढ़ता भी प्रदान करता है।
  3. वल्कुट में हरितलवक की उपस्थिति के कारण प्रकाश संश्लेषण का कार्य भी कर सकते है।
  4. वायु गुहाओं या वायुतक के कारण जलीय पौधों में प्लावी क्षमता होती है।
  5. द्वितीयक वृद्धि के समय संवहन केम्बियम और कॉर्क कैम्बियम के निर्माण के द्वारा यह द्वितीयक वृद्धि में योगदान देता है।
3. संवहन ऊतक तंत्र (vascular tissue system) : यह ऊतक तंत्र प्राय: वल्कुट और मज्जा के बीच में एक सिलिंडर के रूप में पाया जाता है। संवहन ऊतक तंत्र की एक इकाई को संवहन बंडल कहते है। एकबीजपत्रियों में संवहन ऊतक सिलिंडर के रूप में नहीं मिलता क्योंकि इनमें मज्जा अनुपस्थित होती है। अत: यहाँ संवहन बंडल भरण ऊतक में बिखरे हुए पाए जाते है। अनेक वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार तने की आंतरिक संरचना में अन्तश्त्वचा के बाद उपस्थित सभी ऊतकों अर्थात परिरंभ + संवहन बंडल + मज्जा + मज्जा रश्मियाँ (यदि उपस्थित हो) को मिलाकर संयुक्त रूप में रम्भ कहते है। लेकिन एकबीजपत्री तनों में इसके आधार पर रम्भ को व्याख्या नहीं की जा सकती क्योंकि यहाँ अन्तश्त्वचा परिरंभ , मज्जा और मज्जा रश्मियाँ जैसी संरचनाएं नहीं पायी जाती केवल भरण ऊतक होता है जिसमें बिखरे हुए संवहन बंडल विद्यमान होते है।
संवहन ऊतक तंत्र का निर्माण शीर्ष में उपस्थित प्राकएधा से होता है। इस प्रक्रिया में प्राकएधा से निर्मित अपकेन्द्री (केंद्र की तरफ) कोशिकाएं प्राथमिक जाइलम और अभिकेन्द्री (परिधि की तरफ) कोशिकाएं प्राथमिक फ्लोयम बनाती है। प्राकएधा की कुछ कोशिकाएँ संवहन ऊतक अर्थात प्राथमिक जाइलम और फ्लोयम में विभेदित नहीं होती अपितु संवहन बंडल में उपस्थित फ्लोयम और जाइलम ऊतकों के मध्य अवशिष्ट विभाज्योतक के रूप में उपस्थित रहती है। यह विभाज्योतक एधा ऊतक को निरुपित करता है। प्राथमिक फ्लोयम और जाइलम के मध्य उपस्थित इस प्रकार के केम्बियम ऊतक का अंत: पूलिय एधा कहते है।
जिन संवहनी बंडलों में इस प्रकार का कैम्बियम पाया जाता है , उनको वर्धी संवहन बंडल कहते है। इस प्रकार के केम्बियम आगे चलकर तने में द्वितीयक वृद्धि के लिए उत्तरदायी होता है लेकिन एकबीजपत्री तनों में प्राकएधा की सभी कोशिकाएं जाइलम और फ्लोयम में विभेदित हो जाती है। इसके संवहन बंडलों में अन्त:पूलिय कैम्बियम नहीं पाया जाता है। अत: ऐसे संवहनी बंडलों को बंद अथवा आवर्धि संवहन बंडल कहते है। यही कारण है कि कुछ अपवादों को छोड़कर एकबीजपत्री तनों में द्वितीयक वृद्धि नहीं पायी जाती है।
तनों के संवहन बंडल में फ्लोयम परिधि की ओर जाइलम मध्य भाग की ओर एक साथ और एक ही तल में ऊपर नीचे पाए जाते है। इस प्रकार के संवहन बंडल को संयुक्त और सम्पाशर्वी कहते है लेकिन कुछ द्विबीजपत्री कुलों और पौधों जैसे कुकुरबिटा में फ्लोयम ऊतक जाइलम के दोनों ओर पाया जाता है। ऐसे संवहन बंडल को उभयपाशर्वी अथवा उभयपोषवाही बंडल कहते है।