सक्रिय खनिज लवण अवशोषण , active mineral salt absorption in hindi , साइटोक्रोम पंप सिद्धांत (Cytochrome pump Theory)

जाने सक्रिय खनिज लवण अवशोषण , active mineral salt absorption in hindi , साइटोक्रोम पंप सिद्धांत (Cytochrome pump Theory) ?

  1. सक्रिय खनिज लवण अवशोषण (Active mineral salt absorption)
  2. सक्रिय अवशोषण स्वप्रेरित (spontanceous) नहीं होता । .
  3. सक्रिय अवशोषण के दौरान साम्यावस्था स्थापित नहीं होती ।
  4. सक्रिय अवशोषण असमान ऑयन वितरण को बनाये रखता है।
  5. सक्रिय अवशोषण उपापचयी ऊर्जा प्रेरित बल (driving force) के कारण होता है।

सक्रिय खनिज लवण अवशोषण की क्रिया विधि (Mechanism of active mineral salt absorption ) : सक्रिय लवण अवशोषण के लिए अनेक अवधारणाएँ दी गई हैं उनमें से कोई भी सर्वमान्य नहीं है। अधिकांश अवधारणाओं के अनुसार वरणात्मक पारगम्य प्लाज्मा झिल्ली को पार करने के लिए उपयुक्त वाहक (carrier) के साथ लवण संयोजित हो जाता है तथा दूसरी ओर पहुंच कर विलग हो जाता है।

  1. जलरागी छिद्रों द्वारा (Through hydrophilic pores in membranes)

डेनियल (Daniélle, 1975) ने प्लाज्मा झिल्ली के लिए लिपिड प्रोटीन मोजेक मॉडल (lipid protein moscaic model) प्रस्तुत किया। उनके अनुसार इस झिल्ली में कुछ जलरागी छिद्र होते हैं जो कुछ प्रोटीन द्वारा घिरे रहते हैं। इन छिद्रों में से विभिन्न आयन प्लाज्मा झिल्ली से होकर कोशिका में प्रविष्ट हो सकते हैं। परन्तु इस मॉडल को ही मान्यता नहीं मिली।

  1. अवरोधक झिल्ली में सेतु प्रोटीन (Bridging proteins as channels in the membrane)

यह अवधारणा सिंगर (Singer, 1975) ने दी थी। इसके अनुसार कोशिका झिल्ली की कुछ संघटक (integral) प्रोटीन पुल अथवा योजक के समान झिल्ली के छोरों तक फैली होती है तथा गुहिका (channel) की भांति कार्य करती है जिसमें से होकर लवण कोशिका में पहुँचते हैं। इन चैनल के बाहरी छोर पर उपस्थित (extrinstic) प्रोटीन ऑयन के साथ संलग्न हो जाती हैं तथा फिर जलरागी छिद्र वाली संघटक प्रोटीन से जुड़ जाती है। प्रोटीन की संरचना में परिवर्तन के फलस्वरूप आयन भीतर की ओर मुक्त हो जाते हैं।

  1. वाहक संकल्पना (Carrier concept)

यह संकल्पना सर्वप्रथम वोन डेन होनर्ट (Van den Honert 1937) ने दी। लवणों अथवा आयनों को तीन अवरोध पार करने पड़ते हैं। मृदा में से बाहरी दिकस्थान तक आने में उपापचयी ऊर्जा का उपयोग नहीं होता तथा वे सरलता से विसरण एवं विनियम कर सकते हैं। यहां से आंतरिक दिक्स्थान (संभवत जीवद्रव्य) में पहुंचने के लिए उपापचयी ऊर्जा आवश्यकता होती है। बाहरी एवं भीतरी दिकस्थान के बीच का स्थान (अपारगम्य झिल्ली) आयनों के लिए अपारगम्य होता है।

होनर्ट के अनुसार आयन इस क्षेत्र को पार करने के लिए वाहकों की मदद लेते हैं। ये वाहक आयन के साथ संलग्न हो कर वाहक आयन सम्मिश्र बनाते हैं जो अपारगम्य क्षेत्र (प्लाज्मा झिल्ली) को पार कर अंदर की ओर पहुंचते हैं। ये सम्मिश्र सदा झिल्ली के बाहर की ओर बनते हैं तथा भीतर की ओर इस सम्मिश्र में से आयन विमुक्त हो जाते हैं। यहां से आयन बाहर नहीं जा सकते है।

ऐसा माना जाता है कि पहले वाहक अथवा वाहक पूर्वगामी (precursor) का सक्रियण ATP एवं फास्फोकाइनेज (Phosphokinase) एन्जाइम की मदद से होता है। संभवत इससे वाहक की संरचना में कुछ परिवर्तन होता है ताकि वह संबंधित आयन के साथ सम्मिश्र बना सकता है। वाहक आयन सम्मिश्र अवरोधक झिल्ली के दूसरी ओर पहुचंता है वहां फास्फटेज (Phosphatase) एन्जाइम की सहायता इस सम्मिश्र में से आयन अलग हो जाता है। निष्क्रिय वाहक अन्दर की ओर आयन के साथ संलग्न नहीं हो सकता ।

वाहक (carrier) + ATP  फास्फोकाईनेज’  → सक्रियित वाहक + ATP (activated carrier)

सक्रियित वाहक + आयन → वाहक-आयन सम्मिश्र

वाहक-आयन सम्मिश्र  फास्फटेज  निष्क्रिय वाहक + आयन

लिगेट एवं ऐपस्टीन (Ligget and Epstein, 1956) ने रेडियोधर्मी समस्थानिक आयनों (radioactive isotopic ions) का उपयोग किया एवं आयनों को सक्रिय अवशोषण को सिद्ध किया था यह भी बताया कि एक बार अन्दर पहुंचने के बाद आयन बाहर नहीं आ सकते ।

इनके द्वारा किये गये प्रयोग तथा कुछ विशिष्ट तथ्य वाहक संकल्पना का समर्थन करते हैं।

(i) समस्थानिक विनियम (Isotopic exchange)

लिगेट एवं ऐपस्टीन ने K2SO4 तथा CaSO4 के दो अलग विलयन लिए जिसमें K2SO4 में सल्फर लेबलित किया गया. था। जौ की जड़ों को कुछ निश्चित समय के लिए इसमें रखने के बाद उन्हें CaSO4 के विलयन में रखा गया। पहले कुछ देर रेडियो लेबलित S*O42– बाहरी विलयन में वापस आये । परन्तु उसके बाद काफी समय तक CaSO4 में रखने के बाद भी अन्दर स्थित S*O24– का बाहरी SO42– से विनियम नहीं हुआ। उन्होंने प्रयोग के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले ।

(a) बाहरी दिक्स्थान की उपस्थिति जहां से आयनों का मुक्त विसरण होता है।

(b) आंतरिक दिक्स्थान में आयनों का सक्रिय अवशोषण होता है।

(c) बाह्य एवं आंतरिक दिक्स्थान के मध्य अपारगम्य अवरोध होता है।

(d) एक बार आंतरिक दिक्स्थान में पहुंचने के बाद आयन बाहर नहीं आ सकतें।

(e) बाहरी दिक्स्थान से आंतरिक दिक्स्थान की ओर आयनों का गमन वाहकों के द्वारा होता है।

(ii) संतृप्ति प्रभाव (Saturtion effect)

प्रयोग द्वारा यह पाया गया कि जड़ के बाहर आयनों की सान्द्रता बढ़ाने पर भी अवशोषण की दर कुछ हद तक ही बढ़ती है। परन्तु इसके बाद अवशोषण की दर स्थिर हो जाती है। आयनों की सान्द्रता बढ़ाने पर भी अवशोषण दर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। संभवतः वाहक के सभी अणुओं के सक्रिय स्थल (active sites ) भरजाने के कारण सान्द्रता बढ़ाने पर आयनों के अवशोषण पर प्रभाव नहीं होता ।

(iii) विशिष्टता (Specificity)

जड़ के बाहर विलयन में विभिन्न आयन होते हैं परन्तु सभी आयनों का अवशोषण समान गति से नहीं होता। विभिन्न आयनों की अवशोषण गति भिन्न-भिन्न होती है तथा समय भी भिन्न हो सकता है। एपस्टीन एवं हेगन (Epstein and Hagen,1952) ने पाया कि एक समान आयनों जैसे K + एवं रुबिडियम (Ru*) का अवशोषण एक ही प्रकार के वाहकों से होता है परन्तु सोडियम एवं लिथीयम का अवशोषण इन से भिन्न वाहक के द्वारा होता है। विलयन में K+ की मात्रा बढ़ाने पर Ru+ का अवशोषण प्रभावित होता है परन्तु Na* या Li+ का अवशोषण प्रभावित नहीं होता है। अर्थात् वाहकों में विशेष आयनों के लिए विशिष्टता पाई जाती है।

सक्रिय अवशोषण के दौरान वाहक प्रोटीन कभी-कभी आयनों का एक साथ स्थानान्तरण भी करती है। यदि वह स्थानान्तरण एक ही दिशा में अर्थात् बाहर से अन्दर की ओर हो तो वह सह प्रवेश अथवा सिम्पोर्ट (symport) तथा दोनों एक दूसरे से विपरीत दिशा में हो तो प्रतिप्रवेश अथवा एंटीपोर्ट (anti port) कहलाता है।

  1. सायटोक्रोम पम्प सिद्धान्त (Cytochrome pump Theory)

लुण्डेगार्ध एवं बर्सस्ट्राम (Lundegardh and Burstrom. 1933) ने इस सिद्धान्त की परिकल्पना दी थी। उन्होनें श्वसन दर एवं ऋणायनों के अवशोषण में सीधा संबंध पाया। अधिक लवण सान्द्रता युक्त विलयन में रखने पर श्वसन दर बढ़ी पाई गई जिसे उन्होनें लवण प्रेरित श्वसन (salt induced respiration) कहा। कार्बन मोनोऑक्साइड तथा सायनाइन की उपस्थिति में श्वसन दर एवं ऋणायन अवशोषण दोनों ही कम पाये गये। अपने प्रयोगों के आधार पर उन्होंने परिकल्पना दी उसके अनुसार

(i) धनायनों एवं ऋणायनों का अवशोषण भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं द्वारा होता है।

(ii) ऋणायनों का अवशोषण धनायनों के अवशोषण पर निर्भर नहीं होता ।

(iii) कोशिका के बाहर से अन्दर की ओर ऑक्सीजन सान्द्रता प्रवणता होती है इसलिए कोशिका भित्ति में बाहर की ओर ऑक्सीकरण एवं अंदर की ओर अपचयन होता है।

(iv) ऋणायन का अवशोषण सायटोक्रोम तंत्र के माध्यम से होता है।

इस अवधारणा के अनुसार अवरोधक झिल्ली के बाहरी किनारे पर सायटोक्रोम का ऑक्सीकरण (Fe2+Fe3+) होता है तथा आन्तरिक किनारे पर इस का अपचयन (Fe3+ Fe2+) होता है।

झिल्ली की आंतरिक सतह पर डिहाइड्रोजिनेज एन्जाइम की क्रिया के फलस्वरूप इलैक्ट्रॉन एवं प्रोटॉन बनते है। इलेक्ट्रॉन सायटोक्रोम श्रृंखला के माध्यम से बाहर की ओर चला जाता है जो बाहर की ओर स्थित अंतस्थ (terminal) सायटोक्रोम को अपचयित करता है। इस का ऑक्सीकरण ऑक्सीजन द्वारा होता है। इस प्रकार मोचित 2 इलैक्ट्रॉन 2 H+ एवं ऑक्सीजन के एक परमाणु साथ सायुज्ज्ति होकर जल बनाते हैं।

इलेक्ट्रॉन H+ देने के पश्चात सायटोक्रोम A – ऋणायन ग्रहण कर लेते हैं जो अंदर की ओर गति करता जाता है तथा अंतिम सायटोक्रोम डिहाइड्रोजिनेज द्वारा उत्पादित इलैक्ट्रॉन से अपचयित हो जाता है तथा A – ऋणायन की मुक्ति हो जाती है। ऋणायन की अधिकता को संतुलित करने के लिए धनायनों का निष्क्रिय अवशोषण होता है।

इस सिद्धान्त के विरुद्ध कुछ वैज्ञानिकों ने आपत्तियाँ दर्ज की हैं-

  1. उन के द्वारा बताई गई क्रियाविधि लवण प्रेरित अवशोषण में उपापचयी ऊर्जा की आवश्यकता का स्पष्टीकरण नहीं देती।
  2. कोशिका भित्ति में सायटोक्रोम की उपस्थिति नहीं पाई गई है।
  3. ऋणायन के साथ-साथ धनायन से भी श्वसन दर बढ़ जाती है ।
  4. इस सिद्धान्त से वरणात्मक अवशोषण की व्याख्या नहीं होती ।
  5. राबर्टसन एवं साथियों (Robertson et al. 1957) ने देखा कि 2,4-डाइनाइट्रोफीनोल आक्सीकारी फास्फोरिलीकरण (oxidative phosphorylation) एवं लवण अवशोषण को संदमित करता है परन्तु श्वसन क्रिया को बढ़ाता है इससे ATP उत्पादन एवं लवण अवशोषण में संबंध प्रतीत होता है।
  6. इस के सिद्धान्त के अनुसार ऋणायनों के स्थानान्तरण के लिए केवल सायटोक्रोम ही वाहक हैं अतः विभिन्न ऋणायनों के साथ जुड़ने के लिए प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए जो वास्तव में नहीं देखी जाती है।
  7. लेसिथीन वाहक के रूप में ( Lecithin as carrier)

बेनेट-क्लार्क (Bennet – Clark, 1956) ने सुझाया कि आयनों के सक्रिय अवशोषण में फास्फोलिपिड की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उनके अनुसार लेसिथीन (Lecithin) नामक एक फास्फेटाइड (phosphatide ) संलग्न प्रोटीन आयन वाहक हो सकती है। उस वाहक प्रोटीन की उभयधर्मी ( amphoteric) प्रकृति (ऋणात्मक एवं धनात्मक दोनों आवेशों मुक्त) के कारण धनायन एवं ऋणानयन दोनों इससे सायुज्जित हो सकते हैं। इसमें लैसिथीन नामक फास्फेलिपिडका संश्लेषण प्लाज्मा झिल्ली की बाहरी सतह पर होता है। संश्लेषण के दौरान यह बाहरी सतह पर आयन के साथ जुड़कर लेसिथीन – आयन सम्मिश्र (lecithin-ion complex) बनाते हैं। संश्लेषण के दौरान ATP की आवश्यकता होती है। झिल्ली की भीतरी सतह पर सिथीन का जल अपघटन होने के साथ ही आयन भी मुक्त हो जाते हैं। यह चक्र फास्फेटाइड चक्र कहलाता है।

  1. ATP ऐज पम्प अथवा वैद्युत रासायनिक परिकल्पना ( ATP ase pump or E Pump)

यह परिकल्पना पीटर मिशेल (Peter Mitchell, 1968) ने दी। इसके अनुसार आयनों का संचालन कोशिका झिल्ली की बाहरी एवं भीतरी सतह तक वैद्युतरासायनिक प्रवणता के कारण होता है। इस में ATP एज अथवा ATP फास्फोहाइड्रोलेज (ATPase of ATP phosphohydrolase) नामक एन्जाइम महत्वपूर्ण है।

ATP ase एन्जाइम कोशिका झिल्ली एवं अन्य जैविक झिल्लियों में होता है तथा स्थानांतरण के लिए होता है। प्रत्येक ATP के जलअपघटन से 7.6 Kcal ऊर्जा विमुक्त होती है जो मुख्यतः प्रोटॉन के स्थानान्तरण में उपयोगी होती है। ATP एज ATP का जलअपघटन करके ADP एवं Pi बनाता है साथ ही जल के अपघटन से Ht एवं OH- बनते हैं। झिल्ली के बाहरी किनारे पर H+ आयन बाहर निकल जाते हैं तथा OH- अन्दर की ओर स्थानांतरित हो जाते हैं। इससे झिल्ली में प्रोटॉन प्रवणता अथवा pH प्रवणता विकसित हो जाती है। H+ आयनों के बदले धनायनों का स्थानान्तरण छिद्रों द्वारा होता है। इसे वैद्युत परासरण भी कहते हैं।

कभी-कभी एक प्रकार ATP ऐज स्वयं ही K+ आयन के प्रत्यक्ष अवशोषण को प्रेरित कर सकते हैं अथवा Na+K+ विनियम पम्प को प्रेरित कर सकते हैं। K+ आयन बाहर से ATP ऐज के साथ संलग्न हो जाता है तथा भीतर पहुंचता है। इस दौरान ATP का जल अपघटन होता है तथा यह ऊर्जा स्थानांतरण में उपयोग होती है। Na+ / K+ विनियम पम्प में यह विकर K+ को अंदर स्थानांतरित करता है तथा बदले में Na+ को बाहर ले जाते हैं।