हिमालय का निर्माण कैसे हुआ , हिमालय पर्वत की उत्पत्ति और विकास , संरचनात्मक स्वरूप Origin and Evolution of the Himalaya

Origin and Evolution of the Himalaya in hindi हिमालय का निर्माण कैसे हुआ , हिमालय पर्वत की उत्पत्ति और विकास , संरचनात्मक स्वरूप ? 

हिमालय का संरचनात्मक स्वरूप
(STRUCTURAL FEATURE OF THE HIMALAYA)
भारत के उत्तर पूर्व में फैले विशाल नवीन मोड़दार पर्वत को हिमालय का नाम दिया गया हैं।
साधारणस्वरूप से पश्चिम में सिंध नदी से पूर्व में ब्रहापुत्र नदी तक विस्तृत इस चापाकार पर्वत की लम्बाई 2400 किलोमीटर और चैड़ाई 240 से 320 किलोमीटर पायी जाती है।
यह मुख्य हिमालय तीन समांतर पर्वत श्रृंखलाओं से बना है, दक्षिण से उत्तर ये श्रृंखलाएँ हैं – शिवालिक, लघु हिमालय और महान हिमालय।
हिमालय को विश्व का युवा पर्वत कहते हैं क्योंकि भूगर्भिक काल के हिसाब से विश्व का नवीनतम् पर्वत है, जिसका निर्माण कोई 2 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है। इसकी दक्षिणी शाखा, शिवालिक तो मात्र 20 लाख वर्ष पूर्व निर्मित मानी जाती है और वर्तमान समय में भूहलचलों की वजह से आज भी इसमें निर्माण प्रक्रिया बलती रहती है।

हिमालय पर्वत की उत्पत्ति और विकास
(Origin and Evolution of the Himalaya)

हिमालय पर्वत की उत्पत्ति से संबंधित अनेक विद्वानों ने अपने-अपने मत दिए हैं। इन विद्वानों में स, बुराई, कोवर, आरगंड फाक्स एवं वेडेल, डा.हेस आदि का नाम उल्लेखनीय हैं। जिनका हम यहाँ विस्तृत अध्ययन करेंगे।
(1) स्वेस का मत – हिमालय पर्वत की उत्पत्ति के बारे में स्वेस का मत है कि अंगारालैंड (उत्तर) और गोड़वाना (दक्षिण) के बीच टेथीस सागर का विस्तार था। कालान्तर में इस सागर में भहलचलों के कारण उत्तर (अगारालैंड) से आने वाली दाब शक्ति के कारण यह मलबा मुड़ गया क्योंकि भूसन्नति का दक्षिणी भाग पहले से कठोर और अस्थिर था। स्वेस महोदय ने अंगारालैंड को पृष्ठ प्रदेश और प्रायद्वीपीय भारत को अग्र प्रदेश की संज्ञा प्रदान की है।
(2) आरगंड के अनसार – स्वेस के विपरीत आरगंड का मत था कि टेथोस भूसनति का मलवा दक्षिणी प्रायद्वीपीय भाग के उत्तर की ओर सरकने से मुड़ा है। कुछ लोग इस मत का खण्डन हिमालय के आकार के आधार पर कहते हैं, लेकिन वर्तमान समय में यह लगभग निश्चित होता जा रहा है कि प्रायद्वीपीय धकेलने से ही हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ है। महाद्वीपों के प्रवाह पर आधारित सिद्धान्त इस बात की विशेष पुष्टि करते हैं। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि समस्त हिमालय का निर्माण एकबारगी नहीं हुआ है कि दवाब उत्तर से आया और तुरंत से वर्तमान आकार वाले पर्वत का निर्माण हो गया।
(3) बुराई का मत – बुबार्ड भी संकुचनवादी है, लेकिन इनका मत कोबर के मत से भिन्न है। इनका मत है कि पृथ्वी के नीचे स्थित एक अन्य तह में ऋमिक शीतलता के कारण संकुचन होता है और मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति होती है।
(4) कोबर का मत- कोबर संकुचन पाश्विक सिद्धान्त में आस्था रखने वाले हैं। इनके अनुसार हिमालय पर्वत को उत्तर दक्षिणी दोनो ओर से पड़े पाश्विक दबाव के कारण हुई है। यह पाशर््िवक दबाव भूपटल में संकुचन होने से उत्पन्न हुआ और दोनों ओर से खण्डअगारा लेण्ड और गोडवानालैंड के सरकने से हिमालय की उत्पत्ति हुई। कोबर मानते है कि इस दो तरफा सरकाव के कारण भूसत्रत्ति के किनारे के भाग मोड में बदल जाते हैं, और बीच का भाग लगभग अप्रभावित रह जाता है। उत्तर से कुनलुन तथा दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच अवशिष्ट टेथोस, कोबर के अनुसार एक मध्यप्रदेश का उदाहरण है। लेकिन इस मत को आज के समय में बहुत कम मान्यता दी जाती है।
(5) डॉ. हेस का मत – हेस ने सन् 1960 में अपने ‘टेक्टॉनिट प्लेट सिद्धान्त‘ के जरिए बताया कि प्रायद्वीपीय भारत के प्लेट का सरकाव उत्तर की ओर हो रहा था। इसके साथ ही इसके अग्रभाग पर स्थित भूसत्रत्ति भी उत्तर की ओर सरकता रहा और जब यह प्रायद्वीपीय खण्ड एशियायी भूखण्ड (तिब्बत-काटकोरम) से टकराया तो भूगर्भिक हलचले हुई और भूसन्नति का मलबा मोड़ में बदलने लगा और लगभग चार हलचलों के कारण हिमालय का जन्म हुआ।
हिमालय की उत्पत्ति और विकास की विभिन्न अवस्थाएँ
हिमालय पर्वत का निर्माण एक साथ न होकर विभिन्न चरणों में हुआ है। इन अवस्थाओं का उल्लेख निम्नानुसार है –
(1) टेबीस भूसन्नति की अवस्था – लगभग 130-140 करोड़ वर्ष पूर्व मेसेजोइक कल्प में आज के हिमालय के स्थान पर टेथीस सागर का विस्तार था। इस सागर में 60-65 करोड़ वर्ष तक तलछटीय निक्षेप होता रहा। उस समय कार्ड और बैक्टीरिया के अतिरिक्त कोई और वनस्पति या जीव धरती पर नहीं थे। इसी जमाने में, यानी 60-65 करोड़ वर्ष पूर्व कुछ भौमिक हलचलें हुयीं और लघु हिमालय का जन्म हुआ।
(2) लघु हिमालय का जन्म – यद्यपि 60-65 करोड़ वर्ष टेथीस भूसन्नति में हुई भौमिक हलचल के कारण लघु हिमालय का जन्म हो चुका था। लेकिन लगभग 30 करोड वर्ष पूर्व हसीनियन हलचल के परिणामस्वरूप टेथील सागर का विस्तार संकुचित होकर उत्तरी अंचल तक ही सीमित रह गया आर इस तरह लघु हिमालय पूरी तरह उभर आया।
(3) हिमालयन क्रांति – लगभग 7 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय क्रांति के समय पश्चिमोत्तर में कराकोरम पर्वतमाला का निर्माण हुआ, और दक्षिणी भाग का सागर अचानक काफी गहरा हो गया। यह सम्भवतः प्रवाहित होते हुए प्रायद्वीपीय भारत के तिब्बत खण्ड से टकराने से हुआ। इसी कारण सागर के दक्षिणी सीमावर्ती भाग में लगभग 50-60 किलोमीटर गहरी दरारों का निर्माण हुआ। इन दरारों से होकर ऊपरी प्रावार का काला भारी लादा बाहर निकलकर चटटानी परतों में जम गया। इस प्रकार के आग्नेय-युक्त शैलों से निर्मित पट्टी को सिन्यु-संधि कहते हैं। सिन्धु, सतलज और ब्रह्मपुत्र नदियाँ इसी पट्टी में बहती है।
(4) शिशु हिमालय का जन्म – मध्य मायोसीन में, लगभग 2 करोड़ वर्ष पूर्व सागर का निक्षेप बुरी तरह मुड़ गया और हजारों फिट मोटी परतें फट कर उभर आयीं जिन्होंने शिशु हिमालय को जन्म दिया। इसके साथ ही दारे विकसित होती रहीं और ‘उक्रम ग्रंश‘ का निर्माण हुआ। दबाव के बढ़ते रहने से नवजात हिमालय अपने मूल में उखड़ का दक्षिण की ओर सरक ने लगा। लघु हिमालय में इस तरह के अनेकों ग्रीवाखण्ड पाए जाते है। शिमला, रानीखेत, अल्मोड़ा दाजिर्लिंग आदि नगर इसी तरह के ग्रीवाखण्डों पर स्थित है।
(5) शिवालिक की उत्पत्ति – महान हिमालय के जन्म के बाद टेथीस सागर पर्वत के एकदम दक्षिणी भाग तक ही सीमित रह गया। इसमें हिमालय की अनेक नदियाँ अपने साथ बहाकर लाये हुए मलबे का निक्षेप करती रही और 25-30 लाख वर्ष पूर्व एक और हलचल के परिणामस्वरूप शिवालिक बेसिन का मलबा मुड़कर शिवालिक पर्वत बन गया।
इसका यह अर्थ नहीं है कि हिमालय का उत्थान या विकास समाप्त हो चुका है। अनेक आधारों पर प्रमाणित हो चुका है कि हिमालय के चट्टान समूह अब भी दक्षिण की ओर विस्थापित हो रहे है। लोहित (अरूणांचल) जलपाईगुड़ी (बंगाल) पूर्वी नेपाल, देहरादून होशियारपुर (पंजाब) आदि क्षेत्रों में रेतीले मैदानों या नदी किनारे में मलबों पर हिमालय की पुरानी विस्थापित चट्टाने पायी जाती है।
इतना ही नहीं, हिमालय वर्तमान समय वर्तमान समय में प्रायद्वीपीय भारत के विस्थापन के कारण की ओर धकेला भी जा रहा है। यह सिलसिला 6-7 करोड़ वर्ष पूर्व का है। एक अनुमान के अनुसार प्रायद्वीप वाली प्लेट लगभग 6 से.मी. प्रतिवर्ष की दर से पूर्वोत्तर दिशा में सरक रहा है, जिससे हिमालय भी उत्तर की ओर सरकने पर मजबूर होता है, जिससे उत्पन्न प्रतिबल और तनाव के कारण प्रायः भूकम्प आते रहते है।

हिमालय का भौतिक एवं संरचनात्मक रूप
(Physiographic and Structural feature of the Himalaya)

हिमालय के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने वालों में डा. वाडिया, आदेन तथा पिलग्रिम एवं सदृश विद्वानों का नाम प्रमुख है। साधारणरूप से हिमालय की संरचना अन्य मोड़दार पर्वतों की तुलना यद्यपि बहुत जटिल नहीं हैं, फिर भी हमें इसका पूरा-पूरा ज्ञान नहीं है, क्योंकि भारतीय विद्वान समुचित स्थान के अभाव के कारण इसका पूरा-पूरा अध्ययन नहीं प्रस्तुत कर सके हैं। फिर, हिमालय के कुछ भागों दुर्गमता भी आड़े आयी है।
हिमालय का वर्गीकरण: विशाल हिमालय पर्वत का निम्न भागों में वर्गीकरण किया जाता है।
(1) शिवालिक पेटी – हिमालय के एकदम दक्षिण में विस्तृत नवीनतम श्रेणी को शिवालिक या बड़ा हिमालय कहते हैं। साधारण रूप से यह श्रेणी पश्चिम में अधिक चैड़ी है और क्रमिक रूप से पूर्व की और इसकी चैड़ाई घटती गयी है। संरचना की दृष्टि से समस्त शिवालिक क्रम अत्यन्त चट्टानों (2 लाख से 2 करोड़ वर्ष) का बना है। साधारण रूप से इस क्रम में परतदार नवीन चट्टानें पायी जाती हैं। इस प्रकार की संरचना का पहला अध्ययन हरिद्वार के पास शिवालिक पहाड़ियों पर किया गया। बाद में इसी प्रकार की चट्टानें बलूचिस्तान सिंधु, आसाम और बर्मा में मिली, इसलिए उन्हें भी इसी क्रम में शामिल कर लिया गया।
पिलग्रिम महोदय ने शिवालिक श्रेणी की संरचना लम्बवत् रूप में बतायी है। उनके अनुसार शिवालिक श्रेणी की 3 भागों में बांटा जा सकता है –
(i) ऊपरी शिवालिक – शिवालिक के ऊपरी भाग में मोटे तौर पर कांगलोमरेट एवं लाल मिट्टी अथवा रेत आदि के स्तर पाए जाते हैं। इस क्रम में जमाव की गहराई लगभग 2,000 से 3,000 मीटर है।
(ii) मध्य शिवालिक – मध्य शिवालिक के चट्टानी जमाव में भी दो स्तर पाये जाते हैं –
(अ) नागरी स्तर का जमाव चिन्गी स्तर के ऊपर पाया जाता है। इस क्रम के चट्टानों की रचना बालु का पत्थर, शैल और चिकनी मिट्टी के समिश्रण से हुई। इस क्रम में आदि मानव के अवशेष भी पाये जाते है।
(ब) थोक पठान स्तर- नागरी स्तर के ऊपर पाया जाता है। इस क्रम की चट्टानों का सबसे विकसित रूप सोइन नदी के आस-पास के इलाकों में मिलता है, जहाँ कांग्लोमरेट के साथ-साथ चूने के पत्थर भी पाये जाते है।
(iii) निचला शिवलिक- मध्य शिवालिक की तरह इस क्रम के भी चट्टानी जमाव को दी स्तरों में विभाजित किया गया है-
(अ) कमलियाल स्तर- के जमाव में कांग्लोमरेट लाल रंग के कठोर बालुका पत्थर सर्वप्रमुख है। इस स्तर में लाल व बैगनी रंग के शैल भी पाये जाते हैं।
(ब) चिन्गी स्तर- कमलियाल के ऊपर का स्तर है। इस स्तर में भूरे रंग वाले बालु का पत्थर तथा चमकीली लाल रंग वाली शेल सबसे अधिक पायी जाती है। इस स्तर में कांग्लोमरेट का जमाव कहीं भी पर ही है।
(2) लघु दिपालय – शिवालिक के उत्तर में विस्तृत लघु हिमालय की श्रृंखलायें मुख्य रूप् से मुख्य सीमन्त दरार के द्वारा शिवालिक से अलग की जाती है। हिमालय का यह क्षेत्र अपेक्षाकृत परिपक्व भूआकृतियों वाला है। यहाँ बाल अपेक्षाकत धीमा है और घाटियों गहरी। इससे प्रकट होता है कि इस क्षेत्र की नदियाँ बहुत लम्बे समय से अपरदन के कार्य में लगी थी। जहा तक लघुहमालय की संरचना का प्रश्न है, यहाँ की चट्टाने बहुत पुरानी है।
(3) आन्तरिक अथवा महाहिमालय – लघु हिमालय के उत्तरी भाग में विस्तृत हिमालय एक क्षेत्रीय उत्क्रम द्वारा लघु हिमालय से अलग किया जाता है। शिवालिक से पहले निर्मित हिमालय का यह भाग विवर्तनिक रूप से बहुत सक्रिय है। यहाँ पर ऊंची-ऊँची हिमाच्छादित चोटियाँ, खडे ढ़ाल वाले कगार उद्र्धाकार दीवार वाली गाज युक्त घाटियों पायी जाती हैं। नदियों का निरन्तर नवोन्मेष यह सिद्ध करता है कि इसमें अभी भी उभार हो रहा है, यानी यह श्रेणी अभी-अभी निर्मित हुई है, हो रही है। इस सबके बावजूद यहाँ की चट्टाने हिमालय क्षेत्र की सबसे पुरानी चट्टानें है। यानी लगभग 130-140 करोड़ वर्ष पूर्व की, जबसे टेबीस सागर में जमाद की शुरुआत मानी गयी है।
(4) टेवीस अथवा तिब्बतन हिमालय – महाहिमालय के उत्तर में विस्तृत यह खण्ड जीवा-वशेष युक्त परतदार चट्टानों से बना है। महान हिमालय और तिब्बतीय हिमालय के बीच लगभग 50-60 किलोमीटर गहरा विदर स्थित है। इसे सिंधु-संधि कटिबन्ध कहते हैं। इस विदर से 6-7 करोड़ वर्ष पूर्व लावा प्रवाह के प्रमाण मिले है।

हिमालय की प्रवाह प्रणाली
(drainage Pattern of the Himalays)

हिमालय की प्रवाह-प्रणाली मोटे तौर पर अनुवर्ती लगती है, क्योंकि दोनों क्रम हिमालय के समांतर प्रवाहित होती है। परन्तु ऐसा है नहीं। विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने अकाट्य तर्कों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि हिमालय की प्रवाह-प्रणाली वास्तव में पूर्ववर्ती ही है। इन विद्वानों में पैस्को माईकल, पिलग्रिम, टोनी हेगन तथा डा. अहमद का नाम उल्लेखनीय है।
हिमालय प्रवाह प्रणाली की विशेषताएँ – हिमालय प्रवाह प्रणाली की निम्नलिखित विशेषताएं पायी जाती है।
1. हिमालय की तमाम नदियाँ साधारण तौर पर दो दिशाओं में प्रवाहित होती हैं।
2. नदियाँ का एक वर्ग (सिधं दर्ग) पश्चिम दिशा में दूसरे वर्ग (गंगा-यमुना) पूर्वी दिशा में प्रवाहित होती है।
3. पहले वर्ग की नदियाँ, जिसके हत होते हुए, जिसमें सिंध और उसकी सहायक नदियाँ -सतलज, रीवा, चिनाब और झेलम भी शामिल है, दक्षिण पश्चिम में अरब सागर में मिलती है।
4. दूसरे वर्ग की नदियाँ-गंगा-यमुना-बह्मपुत्र आदि पूर्व की ओर प्रवाहित होते हुए, दक्षिण दिशा में मुड़कर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
हिमालय प्रवाह-प्रणाली की उत्पत्ति:
हिमालय के प्रवाह प्रणाली की उत्पत्ति के संबंध में अलग-अलग विद्वानों ने अपने विचार रखे है।
1. टोनी ड्रैगन के अनुसार – विद्वानों ने नपान हिमालय (पूर्वी हिमालय) पर लगभग 8 वर्ष तक शोध कार्य करने के बाद हिमालय-प्रवाह प्रणाली की उत्पति और विकास से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किये है। टोनी हेगन ने बताया कि लगभग 7 करोड वर्ष पूर्व हिमालय के उत्थान के कारण टेथीस सागर दो भागों में बट गया। बाद का लगभग 5 करोड़ वर्ष का समय अपरदन और निक्षेपण में बीता। तत्पश्चात् लगभग 70 लाख वर्ष पूर्व उतर से पड़ने वाले दबाव के कारण क्षेप घंश और ग्राीवाखण्डों के निर्माण के बावजूद भी मुख्य नदियाँ अपनी पूर्ववर्ती दिशा में प्रवाहित होती रहीं। फिर लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व तिब्बत-उत्तरी के उठने के कारण उन नदियों की धार अवरोधित हो गयी, जो उत्तर में तिब्बत सागर में गिरती थी और इन नदियों ने अपना मार्ग पूर्व या पश्चिम की ओर ग्रहण कर प्रारम्भ कर दिया। जिससे ट्रांस-हिमालय की मुख्य धाराओं का विकास हुआ। फिर मुख्य हिमालय में पूरा उत्थान हो जाने के कारण इस (हिमालय) क्रम में भी विभाजन हो गया। और इस तरह दो क्रमों (सिंधु और गंगा) का जन्म हुआ।
2. डा. इनायत अहमद के अनुसार- अन्तिम पैलियोजोइक के समय टेथीस सागर का विस्तार उत्तर में सिक्यांग और थ्यान शान तक था। इसकी दक्षिणी सीमा प्रायद्वीप भारत से निर्धारित होती।
3. डी.डी.एन.वाडिया – हिमालय के पूर्ववर्ती प्रवाह-प्रणाली के पक्ष में अपना मत प्रस्तुत करते हुए डा. वाडिया ने माना कि हिमालय की नदियाँ उन पर्वत श्रृंखलाओं से कहीं अधिक पुरानी हैं, जिन्हें वे पर करती है। दसरे शब्दों में हिमालय के उत्थान से इन नदियों का अस्तित्व था और ज्यों-ज्यों हिमालय में उत्थान होता गया ये नदियाँ घाटी से नीचे की ओर कटाव करके अपने पूर्व मार्ग पर बहती रहीं। हिमालय का उत्थान कई क्रमों में हुआ है, इसलिए पहले से निर्मित नदी-घाटियों में बहने वाली नदियों ने उसी क्रम में कटाव (घाटी में) करके अपने पूर्व मार्ग को सुरक्षित रखा है। हालांकि इसके लिए नदियों को अपनी घाटी में नीचे की ओर तेजी से कटाव करना पड़ा है, जिसके परिणामरूप ही वर्तमान नदियाँ गहरी और तंग अनुप्रस्थ घाटियों से होकर बहती है। यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है, वह यह कि हिमालय की तमाम नदियाँ केवल अपरदन और परिवहन का ही काम नहीं करती है बल्कि मैदानी भाग से सागर तक की यात्रा के दौरान वे निक्षेप भी करती हैं। सम्भवतः इसीलिए पर्वतीय भाग से लाये गए सिल्ट से नदियों ने सिघं, गंगा मैदान का निर्माण किया है और प्राचीन पर्वतीय भाग के बीच की घाटियों में बजरी का निक्षेप। यह निक्षेप अब नदी वेदिकाओं के रूप में देखा जा सकता है।
हिमालय की नदियों और नदी घटियों से सम्बन्धित इन तथ्यों के आधार पर ही कहा जाता है कि हिमालय की नदियाँ पूर्ववर्ती प्रवाह प्रणाली वाली है। क्योंकि पूर्ववर्ती प्रवाह-प्रणाली का तात्पर्य ही उन मुख्य लधाराओं से है जो कि किसी उत्थान के बावजूद भी अपनी पूर्व दिशा कायम रख सके।
हिमालय के अनुप्रस्थ गार्ज (The Tarnsverse gorges of Himalaya) – हिमालय का कई प्रमुख नदियाँ (सिंध, सतलज, भागीरथी, अलकनन्दा, गंडक, काली, करनाली आदि) तिब्बतीय ढाल के उत्तरमें निकलती है और हिमालय के उत्तरी ढाल पर कछ दूर तक हिमालय के समान्तर स्थित संरचनात्मक गर्त में अनुधैर्य घटियों से होकर बहती हैं और कुछ दूर चलने के बाद उनके मार्ग में एकाएक तीन परिवर्तन होता है और तब दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर हिमालय के आड़े दिशा में काटती हुई मैदानी भाग में उतरती है। नदियों के इस अचानक परिवर्तन से हिमालय में अनेक अनुप्रस्थ तंग घाटियों का निर्माण हो जाता है। इस तरह की तंग घाटियों में सिंध नदी की घाटी प्रमुख है। यह नदी गिलगिट के पास हिमालय की श्रेणियों को काटकर लगभग 17000 फीट गहरी घाटी का निर्माण करती है। इस घाटी में वर्तमान तल से ऊपर की और नदी वेदिकाओ के रूप में बजरी और रेत के कमिक जमाव मिलते है। इस जमाव में यह स्पष्ट होता है कि सिंध से होकर यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है, वह यह कि हिमालय की तमाम नदियाँ केवल अपरदन और परिवहन का ही काम नहीं करती है बल्कि मैदानी भाग से सागर तक की यात्रा के दौरान वे निक्षेप भी करती है। सम्भवतः इसीलिए पर्वतीय भाग से लाये गए सिल्ट से नदियों ने सिंध, गंगा मैदान का निर्माण किया है और प्राचीन पर्वतीय भाग के बीच की घटियों में नदी अपने प्रारम्भिक काल में नदी वेदिकाओं के उपरी भाग वाले सतह पर बहती रही होगी। फिर हिमालय में उभार होने से नदी ने घाटी में नीचे की ओर कटाव किया होगा। इसी प्रकार क्रमिक उभार और क्रमिक कटाव के कारण इन नदी वेदिकाओं का निर्माण हुआ और सिंध नदी वर्तमान समय के तल में बहने के लिए बाध्य हुई और इसीलिए पूर्ववर्ती है।
हिमालय में सिंध घाटी के समान और भी तंग घाटियाँ है जैसे सतलज, गंडक, कोसी और अलकनन्दा आदि नदियों की घाटियां औसत रूप से 6000 से 12000 फीट गहरा है,
अनुप्रस्थ गार्ज की उत्पत्ति (Origin of transverse gorges) – वर्तमान समय में अनुप्रस्थ गार्ज की उत्पत्ति के बारे में अधिकतर लोग यह स्वीकार करते है कि इनका निर्माण नदियों द्वारा अपना घाटी में का नीचे की ओर कटाव करने से हआ है। यह मत काफी विश्वसनीय भी लगता है लेकिन विद्वानों का एक वर्ग इस प्रक्रिया में शंका प्रकट करता है। क्योंकि हिमालय के निर्माण के समय अनुप्रस्थ विदरों या दरारों की श्रृंखला का निर्माण हो गया था। बाद में जल-क्रिया के द्वारा इन विदरों और दरारों का विस्तार हो गया, और इस तरह निर्मित घटियों को नदियों ने अपना प्रवाह-मार्ग बना लिया। एक दूसरी विचारधारा अनुसार हिमालय के उत्थान ने प्राचीन नदियों के प्रवाह को बांध दिया था, जिससे नदियों का जल एकत्रित होकर डील बन गया। बाद में अधिक जल एकत्रित होने के कारण जब इन झीलों में उफान आया, तो पानी की तेज धारा ने पर्वत के आर-पार तीव्र कटाव करके गार्ज का निर्माण कर लिया।
हिमालय की प्रवाह-प्रणाली में परिवर्तन (Changes in the äainage system of the Himalaya) – हिमालय प्रवाह-प्रणाली को जो रूपरेखा आज है, वह पहले नहीं थी। पैस्को के अनुसार टरशियरी के अन्त से हिमालय की प्रवाह-प्रणाली में तमाम परिवर्तन हो गया है। जैसे आज की दो प्रमुख नदियों का क्रम (सिंघ और गंगा-ब्रह्मपत्र) प्राचीन काल में एक नदी के रूप में था। इस नदी को पिलग्रिम ने शिवालिक नदी और पैस्को ने इण्डोब्रा नदी की संज्ञा प्रदान की है। इस प्राचीन नदी की उत्पत्ति टेथीस सागर से मानी जाती है। हिमालय के द्वितीय उत्थान के बाद टेथीस सागर का जल हिमालय के दक्षिण में संकुचित हो कर नदी में बदल गया। इसी को शिवालिक और इण्डोब्रा नदी कहा गया है। यह नदी आसाम के उत्तरी-पूर्वी भाग से शुरू होकर हिमालय और प्रायद्वीपीय भारत के बीच से होती हुई उत्तर-पश्चिम दिशा में सुलेमान ओर किरथर पर्वत श्रेणियों के समीप तक बहती थी। यहाँ से इन्हीं श्रेणियों के सहारे यह नदी दक्षिण-पश्चिम दिशा में मुड़कर मायोसीन कालीन सिंघ सागर (वर्तमान में अरब सागर) में गिरती थी। यह सिध सागर प्रारम्भिक काल में नैनीताल, गढ़वाल एवं कमायं तक विस्तत था। बाद में इसमें धीरे-धीरे दाक्षण पश्चिम में सरकता रहा। इस क्रमिक सरकाव के प्रमाण नैनीताल. सोलन, मुजफ्फराबाद, अटक तथा में डेल्टा जमाव के रूप में मिले हैं।
शुरू-शुरू में शिवालिक नदी हिमालय की अन्य अनेक सहायक नदियों के साथ पूर्व से पश्चिम में बहती थी। लेकिन बाद में पोटवार के उत्थान के कारण नदी के मार्ग में व्यातक्रम हो गया, जिससे पाश्चमी भाग में सिंध क्रम और पूर्वी भाग में गंगा बहापन कम का विकास हुआ। शिवालिक नदी का उपरी भाग गंगा नदी में बदल गया, और कालान्तर में इस नदी ने यमुना का अपहरण कर लिया। हिमालय की अन्य प्राचीन नदियाँ-अलकनन्दा, करनाली, गंडक और कोसी इसी क्रम में गिरती रहीं या मिली रही। पंजाब की पाँचों नदियों (झेलम, चेनाब, रावी. व्यास और सतलज) का निर्माण शिवालिक श्रेणी के निर्माण की अन्तिम अवस्था और सिंधु-गंगा में पोटवार के पास उभार होने के कारण सम्बन्ध विच्छेद होने के बाद हुआ है। पोटवार पठार के निर्माण के समय दक्षिणी पंजाब की नदियों में नवोन्मेष हो गया, जिससे इन नदियों ने शीर्ष अपरदन करके पोटवार के पश्चिम में बहने वाली शिवालिक नदी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया, और बाद में शिवालिक नदी को अपने में समाहित कर लिया।
महत्वपूर्ण प्रश्न
दीर्घउत्तरीय प्रश्न
1. हिमालय पर्वत की उत्पत्ति और विकास पर प्रकाश डालते हुए। उसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
2. हिमालय के भौतिक संरचनात्मक रूप को स्पष्ट करते हुए हिमालय के अंक्षाशीय भागों की जानकारी दीजिए।
3. हिमालय की प्रवाह प्रणाली का वर्णन करते हुए शिवालिक नदी के अस्तित्व को स्पष्ट कीजिए। उसको विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन
लघुउत्तरीय प्रश्न
1. हिमालय पर्वत की उत्पत्ति और विकास को स्पष्ट कीजिए।
2. हिमालय क्रांति पर टिप्पणी लिखिए।
3. हिमालय पर्वत के भौतिक रूप को स्पष्ट कीजिए।
4. हिमालय के अक्षांशीय भागों की जानकारी दीजिए।
5. शिवालिक नदी की जानकारी दीजिए। वा
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. नवीन मोड़दार पर्वत ……………………
(अ) हिमालय (ब) नील गिरी (स) आल्पस (द) टुड्रापर्वत
2. हिमालय के उपविभाग ……………………
(अ) शिवालिक (ब) लघु हिमालय (स) महानहिमालय (द) सभी
3. स्वेस के अनुसार आज जहाँ हिमालय है वहाँ प्राचीन काल में कौन सा सागर था ……………………
(अ) हिदंमहासागर (ब) टेथीज (स) स्वेस (द) कोबर
4. निम्नलिखित में से हिमालय के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने वाले ……
(अ) वडिया (ब) आदेन (स) पिलग्रिम (द) उपरोक्त सभी
5. शिवालिक यह हिमालय के एकदम ………
(अ) उत्तर (ब) पूर्व (स) दक्षिण (द) पश्चिम
उत्तर- 1. (अ), 2. (द), 3. (ब).4. (द), 5. (स)

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