भारत में अंग्रेजों की सफलता के कारण बताइए causes of british success in india in hindi

causes of british success in india in hindi भारत में अंग्रेजों की सफलता के कारण बताइए ?

अंग्रेजों की सफलता के कारण
अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के मध्य हुए युद्ध में अंग्रेजों को ही विजयश्री मिली, जिसके निम्नलिखित प्रमुख कारण थे-
फ्रांसीसियों का यूरोप की राजनीति में उलझना-यूरोप की राजनीति में उलझे रहना फ्रांसीसियों की हार का मुख्य कारण था। फ्रांस की सरकार इटली-जर्मनी आदि क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयास में लगी रहती थी, जिसके फलस्वरूप वह भारत की ओर व्यवस्थाएं बनाने में अपना समुचित ध्यान नहीं दे पाती थी। ठीक इसके विपरीत अंग्रेजों का एक ही लक्ष्य था भारत में अपना प्रभुत्व जमाना और उन्होंने अपने षड्यंत्रों के अनुसार अपनी पूरी ताकत भारत की ओर लगाई जिससे उन्हें अपने कार्य में वांछित परिणामों की प्राप्ति हुई।
फ्रांसीसी तथा अंग्रेजों की व्यवस्थाओं में अन्तर- फ्रांसीसी सरकार में तानाशाही तथा स्वेच्छाचारिता की भावना थी, इस भावना ने पन्द्रहवें लुई शासक के शासनकाल में और भी विकराल रूप धारण कर लिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में भ्रष्टाचार, अपव्यय तथा अराजकता का माहौल आवश्यकता से अधिक व्याप्त हो गया और फ्रांसीसी सरकार अपने हितों की रक्षा सही ढंग से नहीं कर सकी। इस कारण जब-जब फ्रांसीसियों को भारत में अंग्रेजों से लड़ते समय सहायता की आवश्यकता पड़ी, उन्हें सहायता नहीं मिल पाई। फ्रांसीसियों के भ्रष्ट तथा गैरजिम्मेदारानापूर्ण क्रियाकलापों की वजह से फ्रांसीसी युद्ध में हारते रहे।
फ्रांसीसी सरकार की उपनिवेशों में कम रुचि-फ्रांसीसी सरकार अपने आंतरिक विद्रोह तथा आपसी झगड़ों में इतनी व्यस्त थी कि वह भारत में अपनी सरकार जमाने के प्रति पर्याप्त दिलचस्पी नहीं दिखा पाई। इसलिए वह यथोचित ध्यान नहीं दे सकी, जबकि दूसरी ओर अंग्रेजों ने अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए हरसम्भव प्रयास किए।
फ्रांसीसी नौसेना का अशक्य होना- अंग्रेजों के पास शक्तिशाली नौसेना थी। भारत की तात्कालिक परिस्थितियाँ इस प्रकार की थी कि जिस देश के पास पर्याप्त नौसना होती वही सही मायने में भारत पर अपना अधिकार कर सकता था। उस समय भारत में व्यापारिक तथा सैनिक सफलता की दो ही मुख्य शर्ते थी कि भारतीय तट पर दृढ़ आधार स्थापित किया जाए तथा सामुद्रिक शक्ति पर्याप्त हो। इन दोनों ही प्रकार की व्यवस्था में फ्रांसीसियों की अपेक्षा अंग्रेज अधिक कुशल सिद्ध हुए। परिणामतया उन्हें अपना अधिकार क्षेत्र वढ़ाने में आसानी रही।
अंग्रेजों की कुशल सैन्य नीति-अंग्रेजों के बजाय फ्रांसीसियों के पास भौगोलिक महत्व के स्थानों की कमी थी। उनके पास सामुद्रिक किनारों का अभाव था, उनकी शक्ति का प्रमुख केन्द्र पांडिचेरी था जहाँ पर मद्रास की अपेक्षा कम सुविधाएँ थी, जिसके कारण अंग्रेजों ने अपनी धाक सरलता से जमा ली।
दोनों कम्पनियों के पदाधिकारियों में अन्तर-फ्रांसीसी तथा अंग्रेजी कम्पनियों के पदाधिकारियों के नेतृत्व में जमीन-आसमान का अन्तर था। अंग्रेजी कम्पनी को क्लाइव, लॉरेंस तथा फोर्ड जैसे कुशल नेतृत्व करने वाले मिले थे। वे धैर्यवान, कुशल तथा साथ ही व्यवहारकुशल भी थे, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी के नेतृत्वकारियों की हठधर्मिता, जल्दवाजी, अयोग्यता तथा अदूरदर्शिता के कारण उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा।
फ्रांसीसियों की धार्मिक नीति-अनुदार धार्मिक नीति के कारण भी फ्रांसीसी अपने ध्येय की प्राप्ति में असफल रहे थे. अंग्रेजों की धार्मिक नीति ज्यादा उदार तथा सहिष्णु थी, जो अंग्रेजों के लिए सहायक सिद्ध हुई। भारतीयों का उन्हें पर्याप्त सहयोग एवं समर्थन मिला।
डूप्ले की भ्रांतिपूर्ण नीतियाँ-फ्रांसीसियों के पतन में मुख्य रूप से फ्रांसीसी कम्पनी के नेतृत्वकारी इप्ले की भ्रांतिपूर्ण नीतियों का प्रमुख हाथ रहा। उसने भारत में व्यापार करने की अपेक्षा राजनीति करने की ओर अपना रुख रखा। वह राजनीतिक षड्यंत्रों में इतना अधिक उलझ चुका था कि वह चाहते हुए भी व्यापार की सफलता की तरफ उचित ध्यान नहीं दे सका।
उपर्युक्त कारणों की वजह से तथा अन्य कई कारणों से भी भारत में अंग्रेजों के हाथों फ्रांसीसियों को धूल चाटनी पड़ी और अंग्रेज अपनी विजय पताका फहराने में कामयाब हुए।
बंगाल विजय-अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को हराकर 18वीं शताब्दी में बंगाल पर भी अपना आधिपत्य जमा लिया। बंगाल में आशातीत सफलता मिलने से अंग्रेजों का सम्पूर्ण भारत पर एकाधिकार हो गया। बंगाल में अंग्रेजी सत्ता दो महत्वपूर्ण युद्धों का परिणाम थी। ये दोनों युद्ध थे प्लासी तथा बक्सर का युद्ध, बंगाल विजय का परिणाम यह हुआ कि जो अंग्रेज भारत में व्यापारी की हैसियत से आए वे यहाँ के शासक बन बैठे।
बंगाल में ब्रिटिश शक्ति का विस्तार-बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की शक्ति के विस्तार में प्लासी का युद्ध महत्त्वपूर्ण माना जाता है जो 1757 ई. में हुआ। उस समय मुगल साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर अलीवर्दी खाँ 1740 ई. में वहाँ का नवाव वन गया, लेकिन वह शासन व्यवस्था को संभाल नहीं सका। 1756 ई. में उसकी मृत्योपरांत बंगाल की स्थिति ज्यादा दयनीय हो गई। जिसका लाभ अंग्रेजों ने उठाया।
प्लासी का युद्ध-प्लासी के युद्ध ने अंग्रेजों को भारत में एकछत्र राज्य करने का अवसर प्रदान किया। यह बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के आपसी संघर्ष की परिणति थी।
प्लासी युद्ध के कारण और महत्व-अंग्रेजों की स्वार्थपरता तथा बंगाल की तात्कालिक परिस्थिति ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को वहाँ की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया। जब औरंगजेब की मृत्यु हो गई, तो उसके बाद बिहार के नायब-निजाम अलीवर्दी खाँ ने मौके का फायदा उठाकर स्वयं को बंगाल का स्वतन्त्र नवाब घोषित कर दिया। बंगाल का नवाब बनने से पहले उसने वहाँ के तत्कालीन नवाब सरफराज के साथ युद्धकर तथा उसे मार डाला। नवाब बनने के तुरन्त बाद अलीवर्दी खाँ ने मुगल सम्राट् मुहम्मदशाह को अपार धन का लालच देकर अपनी नवाबी की मान्यता को कानूनन पक्का कर लिया था। उसने कुशलता से शासन तो किया, परन्तु पूर्णतया सफल शासन नहीं कर सका।
जब 9 अप्रैल, 1756 ई. में उसकी मृत्यु हो गई तो उसकी सबसे छोटी बेटी का लड़का सिराजुद्दौला राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। सिराजुद्दौला को अलीवर्दी खाँ ने अपने जीवनकाल में ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, क्योंकि उसके कोई पुत्र नहीं था। सिराजुद्दौला के नवाब बनते ही बंगाल में उपद्रव होने शुरू हो गए। उसकी मौसी घसीटी बेगम, उसका पुत्र शौकत जंग, जोकि उस समय पूर्णिया का शासक था तथा उसका दीवान राजवल्लभ सिराजुद्दौला के प्रमुख विरोधी थे। इन लोगों ने सेनापति मीरजाफर, कलकत्ता के एक व्यापारी अमीचंद तथा जगत सेठ को भी अपने खेमे में मिला रखा था। ये लोग सिराजुद्दौला को गद्दी से उतारकर अपना मनचाहा व्यक्ति गद्दी पर बैठाना चाहते थे, लेकिन सिराजुद्दौला ने चालाकी से घसीटी बेगम को कैद कर उसकी सारी सम्पत्ति हड़प ली तथा अपने पुत्र को 16 अक्टूबर, 1756 ई. में मनीहारी के युद्ध में परास्त करके मार डाला।
इतने समयांतराल में अंग्रेजों ने अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली थी, उनके हौसले काफी बढ़ चुके थे तथा उनकी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ हो चुकी थी. उनके क्रियाकलापों से सिराजुद्दौला सशंकित रहने लगा था और कुछ अधिक ही सावधानी भी बरतने लगा।
सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के मध्य युद्ध के कारण-अंग्रेजों तथा सिराजुद्दौला के मध्य युद्ध होने के कई प्रमुख कारण थे, जिनमें से कुछ पर यहाँ प्रकाश डाला जा रहा है-
जब सिरजुद्दौला नवाब बना था तो उस समय की परम्परा के अनुसार अंग्रेजों ने उसे नजराना नहीं भेजा, जिसके कारण उसने स्वयं को अपमानित महसूस किया। अंग्रेज उसके अधिकारियों से ही सारा काम निकलवा लेते थे तथा उसकी अवहेलना भी करते थे। एक बार तो उन्होंने खुद नवाब को ही कासिम बाजार की कोठी में ही आने से रोक दिया। इसके अलावा अंग्रेजों ने उसके मना करने पर भी कलकत्ता तथा अन्य स्थानों पर किलेबंदी करना चालू रखा तथा सिराजुद्दौला के विरोधियों से उनकी सांठ-गांठ थी। वे उन्हें अपने यहाँ शरण देते और उनसे राज की बातें भी मालूम करते थे। ऐसी स्थिति में दोनों में टकराव होना स्वाभाविक था। जब सिराजुद्दौला ने यह देखा कि फ्रांसीसियों ने तो चंद्रनगर की किलेबंदी करना उसके कहने से बंद कर दिया था, परन्तु अंग्रेजों ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह अंग्रेजों को एक शासक के रूप में नहीं, अपितु एक व्यापारी के रूप में ही देखना चाहता था। उधर अंग्रेज भी अपनी महत्वाकांक्षा के कारण सदैव उसकी अवहेलना करके उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं देते थे, जिसके कारण सिराजुद्दौला के मन में अंग्रेजों के प्रति विष की बेल दिन प्रतिदिन पनपती हुई आगे बढ़ गई।
संघर्ष का प्रथम चरण-सिराजुद्दौला की ओर से अंग्रेजों के लिए यह आदेश भेजा गया कि वे फोर्ट विलियम की किलेबंदी को नष्ट कर दें, लेकिन अंग्रेजों ने उसकी इस माँग को ठुकरा दिया। इसके एवज में उसने मई, 1756 ई. में कासिमवाजार पर हमला करके उसे अपने अधिकार में ले लिया। इसके बाद उसने कलकत्ता पर आक्रमण किया तथा 20 जून, 1756 ई. को फोर्ट विलियम किले को जीत लिया। इस विजय के कारण ही अंग्रेज गवर्नर ड्रेक को फुल्टा द्वीप में जाकर शरण लेनी पड़ी। इस विजय के पश्चात् उसने अंग्रेजों को बंदी बनाया और मानिकचंद के हाथ में कलकत्ता का राज्यभार सौंप दिया और स्वयं मुर्शिदाबाद लौट गया।
काली कोठरी की दुर्घटना-काली कोठरी की दुर्घटना ने अंग्रेजों तथा सिराजुद्दौला के सम्बन्धों में और भी अधिक कड़वाहट पैदा कर दी। घटना यह थी नवाव के अधिकारियों ने फोर्ट विलियम पर अधिकार करने के बाद 146 अंग्रेज कैदियों को, जिनमें स्त्रियाँ और बच्चे भी थे। एक छोटे अंधेरे कमरे में जो 18×14-10 फुट का था बंद कर दिया। जून के महीने में अगली सुबह उन कैदियों में से 23 व्यक्ति ही जिन्दा बचे थे, बचने वालों में हॉलवेल भी था, जिसने इस घटना का प्रचार किया था।
अंग्रेजों की प्रतिक्रिया-जब इस घटना की खबर मद्रास पहुँची तो अंग्रेजों का क्रोधित होना स्वाभाविक ही था। बदला लेने के उद्देश्य से क्लाइव तथा वाटसन सेना लेकर कलकता की ओर बढे़। उन्होंने नवाब के अधिकारियों को रिश्वत देकर ेअपने पक्ष में कर लिया, परिणामस्वरूप मानिकचंद ने विना किसी प्रतिरोध के कलकत्ता अंग्रेजों को सौंप दिया, कलकत्ता के बाद अंग्रेजों ने हुगली पर भी अधिकार कर लिया। ऐसी विषम परिस्थितियों में वाध्य होकर नवाब को अंग्रेजों से समझौता करना पड़ा। एक संधि जो 9 फरवरी, 1757 ई. को दोनों के मध्य हुई उसके अनुसार अंग्रेजों को पूर्व में प्रदत्त सारी सुविधाएँ वापस मिलनी थी। यह संधि अलीनगर की संधि के नाम से जानी जाती है. इसके अनुसार अंग्रेज कलकत्ता की किलेबंदी कर सकते थे तथा अपना सिक्का चला सकते थे। नवाब को अंग्रेजों के लिए जब्त फैक्ट्रियाँ, सम्पत्ति तथा आदमियों को लौटाने का वचन देना पड़ा. नवाब की ओर से कम्पनी को हर्जाना भी दिया जाना था. हालांकि यह संधि नवाब की शान के खिलाफ थी, परन्तु इसके अलावा उसके पास अन्य कोई विकल्प भी नहीं बचा था।
अंग्रेजी पड़यंत्र और प्लासी युद्ध का आरम्भ-अंग्रेजों की नीति कुछ और ही थी, वे इस संधि से भी प्रसन्न नहीं थे। वे किसी ऐसे व्यक्ति को शासक बनाना चाहते थे जो उनके कार्य में बाधा न डाले। क्लाइव ने सिराजुद्दौला के विरोधियों से मिलकर मीरजाफर से एक गुप्त संधि कर ली जिसके अनुसार उसे नवाब बनाने का लोभ दिया। इसके प्रतिफल के रूप में उसने कासिम बाजार, ढाका तथा कलकत्ता की किलेबंदी करने, कम्पनी के लिए एक करोड़ रुपया देने तथा उसकी सहायता के लिए भेजी गई सेना का खर्च वहन करने का अंग्रेजों को आश्वासन दिया।
अपनी षड्यंत्र नीति के तहत क्लाइव ने नवाब पर अलीनगर की संधि को भंग करने का आरोप लगाया। इस समय उसकी हालत अत्यन्त दयनीय थी। दरवारीजनों के षड्यंत्र तथा अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के खतरे ने उसको और भ्रमित कर दिया। नवाब ने मीरजाफर को अपनी ओर मिलाने की कोशिश भी की, परन्तु वह सफल नहीं हो सका. अंग्रेज इसी मौके की तलाश में थे। अपने प्रयासों में असफल रहने पर नवाव आगे बढ़ा। 23 जून, 1757 ई. को प्लासी के मैदान में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ, परन्तु सिराजुद्दौला के थोड़े ही सैनिकों ने भाग लिया। आन्तरिक विद्रोह के कारण उसे हारना पड़ा। वह जान बचाकर भागा, परन्तु मुर्शिदाबाद में मीरजाफर के पुत्र ने (मीरन ने) उसे पकड़कर मरवा डाला।
युद्ध का महत्व व परिणाम-भारतीय इतिहास में प्लासी के युद्ध का अत्यन्त ही व्यापक तथा स्थायी परिणाम निकला। क्लाइव ने मीरजाफर को बंगाल का नवाव घोषित कर दिया जिसके बदले में उसने अंग्रेजों को बेशुमार धन-सम्पदा और ढेरों सुविधाएँ प्रदान की मीरजाफर अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली था, अंग्रेज उससे मनचाहा काम करवा सकते थे, प्लासी के युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेज बंगाल की राजनीति पर नियन्त्रण करने में कामयाब हो गए। अब वे व्यापारी के स्थान पर राजशक्ति के स्रोत बन गए। आर्थिक दृष्टि से भी अंग्रेजों ने बंगाल का शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। इसी युद्ध के परिणामस्वरूप अंग्रेजी सत्ता-स्थापना की प्रक्रिया की नींव रखी गई, बंगाल से प्राप्त किए गए धन से अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों पर निर्णायक विजय प्राप्त की। नवीन चन्द्र सेन ने इस बारे में कहा है कि ‘‘प्लासी की लड़ाई के बाद भारत में अनंत अंधकारमयी रात्रि आरम्भ हो गई।‘‘
ताराचंद के अनुसार, ‘‘प्लासी के युद्ध ने परिवर्तनों की लम्बी प्रक्रिया आरम्भ की, जिसने भारत का स्वरूप ही बदल दिया। सदियों से प्रचलित आर्थिक तथा शासकीय व्यवस्था बदल गई।‘‘
बक्सर का युद्ध-इस युद्ध को दूसरा चरण कहा जाता है और प्लासी के युद्ध की अपेक्षा इस युद्ध के अधिक प्रभावी तथा स्थायी परिणाम निकले। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह रही कि इस युद्ध ने बंगाल में अंग्रेजी सत्ता की पूर्णरूपेण स्थापना कर दी।
बक्सर युद्ध के कारण और महत्व-जव प्लासी के युद्ध के वाद मीरजाफर नवाब बना तो अंग्रेजी कम्पनी की पौ-बारह हो गई, क्योंकि जैसा कम्पनी चाहती वैसा ही होता। वह कम्पनी के हाथ की कठपुतली बन चुका था। सारी शक्ति क्लाइव के हाथों में निहित हो गई। मीरजाफर ने ढेरों वादों को पूरा किया तथा कम्पनी के लिए पर्याप्त धन भी दिया, परन्तु कम्पनी की माँग दिन पर दिन बढ़ती गई। परिणाम यह हुआ कि मीरजाफर की प्रशासनिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगी। मिदनापुर, ढाका, पटना, पूर्णिया आदि स्थानों पर विद्रोह होने शुरू हो गए. मीरजाफर ने कम्पनी की सहायता से विद्रोहों पर अंकुश लगाना चाहा पर उसे सफलता नहीं मिली। कम्पनी की मनमानी के कारण एक मोटे तौर पर मीरजाफर पर 1760 ई. तक कम्पनी का करीब 25 लाख रुपए बकाया हो गए। इसी समय बंगाल में डचों का हस्तक्षेप भी शुरू हो चुका था। 1759 ई. में अलीगौहर ने बंगाल पर हमला बोल दिया तथा स्थिति मीरजाफर के नियन्त्रण से बाहर होती जा रही थी. जब तक क्लाइव का हाथ रहा कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, परन्तु 1760 ई. में जब वह चला गया तो मीरजाफर स्वयं को असहाय महसूस करने लगा। अब क्लाइव के स्थान पर हॉलवेल और वैन्सिर्टाट ने गवर्नर के रूप में सत्ता संभाली। इन लोगों का भी मीरजाफर के ऊपर दबाव बना रहा, परन्तु स्थिति नियंत्रण में न होने के कारण मीरजाफर असहाय था। परिणामतया अंग्रेजों ने उसे गद्दी से हटाने की योजना बना ली। योजना के तहत अंग्रेजों ने उसके दामाद मीरकासिम से एक गुप्त समझौता करके कम्पनी के लिए धन की माँग पूरी करने का वचन ले लिया। 14 अक्टूबर, 1760 ई. को मीरजाफर को घेर लिया गया, उसे गद्दी छोड़नी पड़ी। वह मुर्शिदाबाद छोड़कर कलकत्ता चला गया। उसके लिए 15 हजार रुपए प्रतिमाह पेंशन दी जाने लगी, मीरकासिम नवाब बन चुका था।
हालांकि मीरकासिम भी षड़यंत्र के तहत ही नवाव बना था, परन्तु वह मीरजाफर से कहीं अधिक योग्य तथा कुशल था। उसने बिगड़ती हुई प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारने के लिए विद्रोही जमींदारों को दबाया, भ्रष्ट कर्मचारियों से राजकीय धन वसूलना शुरू किया, अतिरिक्त कर लगाए तथा सेना को प्रशिक्षित करके अंग्रेजों के चंगुल से मुक्ति पाने के लिहाज से अपनी राजधानी मुंगेर को बनाया। सुरक्षा व्यवस्था भी बढ़ा दी गई।
संघर्ष की शुरूआत-मीरकासिम के इस प्रकार के व्यवहार से कम्पनी कुछ शंका करने लगी, क्योंकि वह तो ऐसा शासक चाहती थी जो कि उसकी अनुपालना करे, परन्तु मीरकासिम उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा. अतः अंग्रेजों के द्वारा उसे गद्दी से हटाए जाने के प्रयास किए जाने लगे। स्वयं के कर्मचारियों की अंतर्कलह, उपेक्षा तथा अंग्रेजों की लूट-खसोट से परेशान होकर उसने देशी व्यापारियों को भी निःशुल्क व्यापार करने की अनुमति दे दी। इस निर्णय से अंग्रेजों को ‘‘दस्तक‘‘ का दुरुपयोग करके धन कमाने की सुविधा खत्म हो गई। इस पर क्रुद्ध होकर अंग्रेजों ने सैनिक कार्यवाही की योजना बनाकर 25 मई, 1763 ई. को ऐमायट तथा हे मुंगेर ने कम्पनी की ओर से नवाव के समक्ष 11 सूत्रीय मांगें रख दी जिनको उसने ठुकरा दिया। इसी बीच पटना के अंग्रेज अफसर एलिस को कलकत्ता कौंसिल ने नगर पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। एलिस ने 24 जून, 1763 ई. को पटना पर अधिकार कर लिया जब मीरकासिम को यह पता चला, तो उसने पटना पर आक्रमण करके पुनः अपना अधिकार कर लिया।
पटना की घटना-दूसरी तरफ मेजर एडम्स के नेतृत्व में एक सेना ने मुर्शिदाबाद की ओर कूच किया. मुंगेर से मीरकासिम ने भी रवानगी ली। रास्ते में अनेक स्थानों जैसेकटवा, गिरिया तथा सुती में अंग्रेजों की सेना ने मीर की सेना को परास्त कर दिया। सबसे प्रमुख युद्ध उदयनाला के पास हुआ जिसमें मीरकासिम बुरी तरह परास्त हुआ। पराजय से विक्षुब्ध मीरकासिम ने पटना में गिरफ्तार करीब 148 अंग्रेज सैनिकों की हत्या करवा दी, जिनमें एलिस भी शामिल था। अंग्रेजों ने मौका पाकर पुनः मीरजाफर को नवाब बनवा दिया। मीरकासिम के अधिकारियों की गद्दारी के कारण पटना और मुंगेर उसके हाथ से निकल गए. उसे 1763 ई. में अपना राज्य छोड़कर अवध में शरण लेनी पड़ी।
बक्सर का युद्ध-जव मीरकासिम भागकर अवध पहुंचा तो उस समय वहाँ का नवाब शुजाउद्दौला था। उस समय मुगल सम्राट शाहआलम भी वहीं मौजूद था। उसने नवाब वजीर को सैनिक खर्च देने का वादा किया। अतः वह मीरकासिम का साथ देने को तैयार हो गया। तीनों की सम्मिलित शक्ति से डरकर अंग्रेजों ने अवध नरेश को अपने में मिलाने का असफल प्रयास किया। तीनों ने मिलकर बिहार की तरफ प्रस्थान किया। 23 अक्टूबर, 1764 ई. को बक्सर के पास युद्ध हुआ. मेजर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजों ने जमकर युद्ध किया। इस युद्ध में अंग्रेजों की ही विजय हुई। मीरकासिम युद्ध क्षेत्र से भाग गया और 1777 ई. में दिल्ली के निकट उसकी मृत्यु हो गई। कुछ समय तक तो नवाव शुजाउद्दौला अंग्रेजों का विरोध करता रहा, परन्तु कारा के युद्ध में पराजित होने के बाद उसने भी 1765 ई. में अंग्रेजों के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। शाहआलम ने बाद में अंग्रेजों से सन्धि कर ली।