मछली के बाह्य लक्षण और जीवन-प्रणाली , मछली की अंदरूनी इन्द्रियां अंग fish internal and external in hindi

fish internal and external in hindi मछली के बाह्य लक्षण और जीवन-प्रणाली , मछली की अंदरूनी इन्द्रियां अंग ?
अध्याय ५
प्रारथ्योपोडा
१८. नदी को के-मछली के बाह्य लक्षण और जीवन-प्रणाली
बाह्य लक्षण क्रे-मछली (रंगीन चित्र ५) नदियों, झीलों और बहते पानीवाली ताल-तलैयों का एक आम निवासी है। इसके शरीर के दो हिस्से होते हैं – शिरोवक्ष और उदर।
शिरोवक्ष वृत्तखण्डों में विभाजित नहीं होता। उसपर वृत्तखण्डों सहित . शृंगिकाओं ( लघु और दीर्घ ) के दो जोड़े, आंखें, मुखांग और वृत्तखण्डों सहित पैरों के पांच जोड़े (आकृति ३३ ) होते हैं। पैरों का पहला जोड़ा विशेष बड़ा होता है और उसके सिरों में पंजे होते हैं।
शिरोवक्ष के विपरीत क्रे-मछली का उदर वृत्तखण्डों में विभाजित होता है। वह लचीले ढंग से शिरोवक्ष से जुड़ा रहता है और उसके नीचे मुड़ सकता है। उदर के हर वृत्तखण्ड पर छोटे पैरों का एक एक जोड़ा होता है। ये उदर-पैर दो दो शाखाओं वाले छोटे-से तनों से लगते हैं। उदर के अन्त में पुच्छ मीन-पक्ष होता है जो सख्त, चैड़ी प्लेटों का बना रहता है। आखिरी वृत्तखण्ड पर गुदा होती है।
श्रावरण के-मछली का शरीर एक सख्त बहिःकंकाल से ढंका रहता है। यह कंकाल काइटिन नामक एक विशेष कार्बनीय पदार्थ का बना रहता है। काइटिन चूना-लवणों से भरपूर रहता है जिससे बहिःकंकाल बहुत ही सख्त बन जाता है। यह जैसे जिरहबख्तर होता है जो चोटों से उक्त प्राणी के शरीर की रक्षा करता है। बहिःकंकाल में अंदर की ओर से वे पेशियां जुड़ी रहती हैं जो पैरों, शृंगिका और अन्य अंगों में गति उत्पन्न करती हैं। अतः बहिःकंकाल केवल आवरण का ही नहीं बल्कि बाह्य कंकाल का भी काम देता है। उदर के वृत्तखण्डों, पैरों और शृंगिका के बीच का काइटिन पतला और लचीला होता है जिससे ये अंग गतिशील हो सकते हैं।
काइटिन का आवरण बहुत ही ठोस होता है और फैलता नहीं। इस कारण के-मछली जैसे प्राणियों की वृद्धि नियमित निर्मोचन (moulting) से सम्बद्ध रहती है। जब पुराना आवरण बहुत ही तंग होने लगता है तो वह छोड़ दिया जाता है और उसके स्थान में नया विस्तृत आवरण परिवर्दि्धत होता है।
क्रे-मछली का रंग बहुत परिवर्तनशील होता है पर आम तौर पर वह उस जमीन के रंग से मिलता-जुलता होता है जहां वह रहती है। यह रंग काइटिन में मिले हुए रंग-पदार्थों पर निर्भर करता है। यह लाल , नीला , हरा और भूरा हो सकता है। के-मछली को उबालने पर लाल रंग-पदार्थ को छोड़कर बाकी सब नष्ट हो जाते हैं। इसी कारण पकायी गयी के-मछली हमेशा लाल रंग की. होती है।
काइटिन के नीचे एक पतली-सी झिल्ली होती है जो पेशियों को ढंके रहती है। इसी झिल्ली से हर निर्मोचन के बाद आवश्यक नया काइटिन रसता है।
वातावरण से संपर्क
नदी की के-मछली अपनी सुपरिवर्दि्धत ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से वातावरण से संपर्क रखती है। इस प्राणी की आंखों में कई पहलू (आकृति ३४ ) होते हैं जो केवल माइक्रोस्कोप से देखे जा सकते हैं। यह प्राणी जिस वस्तु पर नजर डालना चाहता है उसका एकेक छोटा अंश इनमें से हर पहलू देखता है। पासवाला पहलू उसी चीज का दूसरा अंश देखता है और यही प्रक्रिया जारी रहती है। इस प्रकार की आंखें संयुक्त आंखें कहलाती हैं। के-मछली की आंखों में अंकित होनेवाला किसी वस्तु का चित्र कई छोटे छोटे अंशों से बना रहता है।
ये आंखें चल डंठलों पर स्थित होती हैं। सीने से ठोस तरीके से जुड़े हुए ऋऋसिर की अचलता के कारण देखने में आनेवाली अड़चन इस प्रकार अंशतः दूर होती है – यह प्राणी स्वयं बिना घूमे अपनी आंखें घुमा सकता है और अगल-बगल देख सकता है।
के-मछली की दीर्घ शृंगिका स्पर्शेन्द्रिय का काम देती है जबकि लघु शृंगिका घ्राणेन्द्रिय का।
गति और पोषण
के-मछली अपने पैरों के सहारे नदी के तल में रेंग सकती है और तैर भी सकती है। उसके उदर में पेशियों की एक मोटी परत होती है। यदि इस प्राणी को कुछ परेशानी होती है तो वह बड़े जोर से अपना पेट मोड़ लेता है और पीछे की ओर तैरने लगता है। क्रे-मछली अपने पिछले सिरे को एकदम आगे की ओर करती हुई तेज झटकों के साथ तैरती है।
के-मछली नन्हीं नन्हीं मछलियों, मेंढ़कों , कृमियों और तरह तरह के मुर्दा मांस को खाकर जीती है। अपने पैरों के पहले जोड़े के पंजों से वह अपना शिकार पकड़ लेती है और फाड़ डालती है। इस प्रकार तोड़े गये भोजन के टुकड़े मुखांग द्वारा पकड़े और चबाये जाते हैं। मुखांग सख्त मूक्ष्मास्थियों के छः जोड़ों का बना रहता है।
चूंकि के-मछली गंध के सहारे अपना भोजन ढूंढ लेती है इसलिए उसे तेज गंधवाले चार । मास-मछली के फेंके गये अवशेप) की सहायता से पकड़ा जाता है। जाल के फंदों में ऐसा चाग लगाकर एक धागे के सहारे उसे नदी के तल में उतारा जाता है। प्राकृति ३५)।
प्रश्न – १. नदी की के-मछली में हमें कौनसे वाह्य लक्षण दिखाई देते हैं? २. के मछली के आवरण की विशेषताएं क्या हैं ? ३. के-मछली किम प्रकार चलती है, खाती है और वातावरण से संपर्क रखती है ?
व्यावहारिक अभ्यास – एक मुर्दा के-मछली लेकर उसकी शृंगिकाएं, मुखांग और पैर हटा दो। इन्हें ठीक क्रम से एक दफ्ती पर चिपका दो और उनके नाम लिख दो (आकृति ३३ के अनुसार )।
१६. के मछली की अंदरूनी इन्द्रियां
पचनेन्द्रियां मुखांग द्वारा चवाया गया भोजन के-मछली निगल लेती है। पहले वह छोटी और चैड़ी ग्रसिका में पहुंचता है और फिर जठर में (रंगीन चित्र ५)।
जठर में दो हिस्से दिखाई देते हैं – जठरीय चक्की या पेषणी और चलनी। जठरीय चक्की में काइटिन के दांत लगे रहते हैं जिनसे चर्वण-प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। भली भांति पीसा गया भोजन चलनी के काइटिन उभारों से छनकर मध्य प्रांत में जाता है जिसमें यकृत् अपने तेज पाचक रस रसाता है। यहां भोजन पर रासायनिक क्रिया होती है और वह घुलनशील द्रव्यों में परिवर्तित होता है यानी पच जाता है।
पचा हुआ भोजन प्रांत की दीवालों में अवशोषित होकर रक्त में चला जाता है। भोजन के अनपचे अवशेष पिछली प्रांत में चलकर गुदा से शरीर के बाहर फेंके जाते हैं।
श्वसन जलचर प्राणी होने के कारण क्रे-मछली अपनी जल-श्वसनिकानों यानी शरीर के नाजुक झालरदार उभारों से सांस लेती है। जल-श्वसनिकाएं शिरोवक्ष की वगलों के दो बाहुकक्षों में स्थित और बहिःकंकाल से ढंकी होती हैं। शिरोवक्ष के नीचेवाले छेदों में से ताजा पानी इन कक्षों में प्रवेश करके जल-श्वसनिकाओं पर से बहता है। यदि हम क्रे-मछली को पानी से भरे शीशे के बरतन में रखकर उसके शिरोवक्ष के पास काजल की रोशनाई की एक बूंद छोड़ दें तो हम सहज ही देख सकेंगे कि वह पानी के साथ बाहुकक्ष में खींची जाती है। यह पानी पीछे से प्रवेश करके आगे से वाहर निकलता है। जल-श्वसनिकानों की दीवालों के जरिये क्रे-मछली के रक्त को ऑक्सीजन मिलता है और कारबन डाइ-आक्साइड पानी में छोड़ दिया जाता है।
रक्त-परिवहन की इन्द्रियां
हृदय रक्त-परिवहन तंत्र की केन्द्रीय इन्द्रिय है। हृदय इस प्राणी की पीठ की ओर होता है और उसका आकार सफेद-सी पंचकोणीय थैली जैसा होता है। रंगहीन रक्त उसमें सीधे शरीर-गुहा से विशेष खुले हिस्सों के जरिये प्रवेश करता है। जब हृदय संकुचित होता है उस समय रक्त उससे बाहर निकलकर रक्त-वाहिनियों में चला जाता है और फिर शरीर-गुहा में बहता है। ऐसे रक्तपरिवहन तन्त्र को खुला तन्त्र कहते हैं क्योंकि इसमें रक्त केवल रक्त-वाहिनियों से होकर ही नहीं बहता।
अंदरूनी इन्द्रियों पर से बहते हुए , रक्त प्रांत से पचा हुआ भोजन और जल-श्वसनिकाओं से ऑक्सीजन प्राप्त करता है। रक्त यह सब लेकर विभिन्न इन्द्रियों और ऊतकों को पहुंचाता है। वह इन्द्रियों में तैयार होनेवाले कारवन डाइ-आक्साइड को जल-श्वसनिकाओं में और तरल मल को उत्सर्जन ग्रन्थियों में ले जाने का भी काम करता है।
उत्सर्जन इन्द्रियां
शिरोवक्ष के अगले हिस्से में शरीर के बाहर की ओर खुलनेवाली दो गोल थैलियां होती हैं। ये हैं हरी ग्रन्थियां जो के-मछली की उत्सर्जन इन्द्रियां हैं। रक्त द्वारा तरल मल इन ग्रन्थियों तक लाया जाता है और उनकी दीवालों से वह छनता है। वहां एकत्रित मल ग्रन्थियों के संकुचित होते ही शरीर से बाहर फेंका जाता है।
उपापचय अन्य सभी प्राणियों की तरह नदी की क्रे-मछली भी अपने शरीर की वृद्धि के लिए वातावरण से भोज्य पदार्थ प्राप्त करती है। उसी स्रोत से उसे ऑक्सीजन भी मिलता है जिसकी पूर्ति श्वसनेंद्रियों मे बराबर होती रहती है।
इस प्राणी के ऊतकों में कारवन डाइ-आक्साइड तथा अन्य हानिकारक पदार्थ तैयार होते हैं और श्वसन तथा उत्सर्जन इन्द्रियों के जरिये बराबर बाहर फेंके जाते हैं।
इस प्रकार शरीर और वातावरण के बीच पदार्थों का सतत आदान-प्रदान जारी रहता है जिसे उपापचय कहते हैं। कुछ पदार्थ शरीर में प्रवेश करते हैं तो कुछ उमसे बाहर निकलते हैं।
उपापचय तभी सम्भव है जब सम्बन्धित प्राणी अनुकूल स्थितियों में रहता हो। यदि जीवन के लिए आवश्यक बातों में से किसी एक (उदाहरणार्थ ऑक्सीजन या भोजन ) का भी अभाव हो तो उपापचय रुक जाता है और प्राणी मर जाता है। हर प्राणी वातावरण से मिल-जुलकर ही जीवित रह सकता है। प्राणी और उसके आसपास के वातावरण का मिलाप प्रकृति का एक महत्त्वपूर्ण नियम है।
तन्त्रिका-तन्त्र क्रे-मछली के तन्त्रिका-तन्त्र में केंचुए की तरह ही एक बड़ी अधिग्रसनीय तंत्रिका-गुच्छिका होती है जो तन्त्रिकाओं के सहारे आंखों, शृंगिकाओं तथा मुखांगों से सम्बद्ध रहती है। इसके अलावा परिग्रसनीय तन्त्रिका-वृत्त और उपग्रसनीय तंत्रिका-गुच्छिका भी होती है। शिरोवक्षस्थ बड़ी युग्म रूप तन्त्रिका-गुच्छिकाओं और उदरस्थ छोटी गुच्छिकाओं को लेकर प्रौदरिक तन्त्रिका-रज्जु बनती है। इन्हीं गुच्छिकाओं से निकलकर तन्त्रिकाएं शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंचती हैं।
जब कोई इन्द्रिय उद्दीपित होती है तो उसमें स्थित तन्त्रिकाओं के सिरे उत्तेजित हो उठते हैं । यह उत्तेजन फौरन तन्त्रिकाओं के जरिये तन्त्रिका-गुच्छिकाओं तक पहुंच जाता है। यहां वह उन तन्त्रिकाओं में स्थानान्तरित होता है जो उसे पेशियों में ले जाती हैं। पेशियां उत्तेजित होकर संकुचित हो जाती हैं जिससे सम्वन्वित इन्द्रिय में गति उत्पन्न होती है। इस प्रकार तन्त्रिका-तन्त्र शरीर और वातावरण के बीच के संचार-साधन का काम देता है।
के-मछली का व्यवहार प्रतिवर्ती क्रियाओं से बना रहता है और हमने अब तक जिन प्राणियों का अध्ययन किया उनके व्यवहार से अधिक जटिल होता है। के मछली अनेक प्रकार से चल सकती है ( अपने पैरों के सहारे वह नदी के तल में रेंग सकती है या उदर को मोड़कर और फिर सीधा करके तैर भी सकती है )। वह अपना शिकार खोजती है और पत्थरों के नीचे या बिलों में छिपकर शत्रुओं से अपना बचाव कर सकती है।
जनन नदी की के-मछली डायोशियस होती है। नर का वृपण एक सफेद ग्रन्थिरूप होता है जिसमें शुक्राणु परिपक्व होते हैं। ये शुक्राणु शुक्रीय वाहिनी नामक लंबी, मुड़ी हुई सफेद नलियों से बाहर छोड़े जाते हैं । मादा का अण्डाशय बहुत अधिक अण्डे पैदा करता है। इन्हें अक्सर अण्ड-समूह कहते हैं। परिपक्व होने के बाद वे अण्ड-वाहिनियों अर्थात् एक प्रकार की छोटी नलियों में चलकर उनके जरिये शरीर से बाहर निकलते हैं।
संसेचित अण्डे बहुत ही चिपचिपे होते हैं और मादा के उदर-पैरों से चिपके रहते हैं। अण्डों से निकली हुई नन्हीं क्रे-मछलियां भी इन्हीं पैरों को पकड़े रहती हैं (आकृति ३६)।
आरथ्योआरथोपोडा समूह के-मछली के समान प्राणियों को पोडा समूह में गिना जाता है। अन्य प्राणियों से ये दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं के कारण भिन्न हैं। ये विशेषताएं इस प्रकार हैं – काइटिन का आवरण जो बाह्य कंकाल का काम देता है और वृत्तखण्ड सहित अवयव। पारथ्रोपोडा का तन्त्रिका-तन्त्र उदर की ओर और हृदय पीठ की ओर होता है ।
सभी समूहों को वर्गों में विभाजित किया जाता है। आरथ्नोपोडा समूह में हम स्टेशिया , अरैकनिडा और कीट इन वर्गों का परिचय प्राप्त करेंगे।
प्रश्न – १. उपापचय क्या होता है ? २. उपापचय में पचन , श्वसन , रक्त-परिवहन और उत्सर्जन इन्द्रियों का क्या स्थान है? ३. के-मछली के तन्त्रिका-तन्त्र का वर्णन करो । ४. शरीर में तन्त्रिका-तन्त्र का कार्य क्या है ? ५. के-मछली का जनन कैसे होता है ? ६ . आरथ्योपोडा समूह के प्रतिनिधि के नाते के-मछली की क्या विशेषताएं हैं ?
व्यावहारिक अभ्यास – १. गरमियों के मौसम में क्रे-मछली पकड़कर पानी सहित ग्रीगे के वर्तन में उसे छोड़ दो। तिनके के ड्रापर से उसके शिरोवक्ष के पास काजल की रोशनाई की बूंद गिरायो और देखो क्या होता है। के-मछली का एक चित्र बनायो। २. क्रे-मछली की प्रतिवर्ती क्रियाओं का निरीक्षण करो।