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लाप्लास की निहारिका परिकल्पना क्या है ? nebular hypothesis of laplace in hindi definition

what is nebular hypothesis of laplace in hindi definition लाप्लास की निहारिका परिकल्पना क्या है ?

लाप्लास की निहारिका परिकल्पना (Nebular Hypothesis of Laplace)
काण्ट महोदय की परिकल्पना को वैज्ञानिक महत्व नहीं मिल पाया। इस बात को ध्यान में रखकर सन् 1796 ई० में लाप्लास महोदय ने अपनी पुस्तक ‘Exposition of the World System’ में निहारिका परिकल्पना की विवेचना की। इस परिकल्पना का आधार कान्ट की विचारधारा थी। इनका उद्देश्य काण्ट की उन कमियों को दूर करना था जो कि उनके सिद्धान्त को अवैज्ञानिक ठहराती थी। काण्ट ने तीन भूलें की थी-

(1) निहारिका के कणों के टकराव से ताप नहीं उत्पन्न होता है, (2) कणों के टकराव से गति नहीं उत्पन्न हो सकती, (3) आकार में वृद्धि के साथ गति में वृद्धि नहीं हो सकती। इस कमी को दूर करने के लिये इन्होंने बताया कि – ब्रह्माण्ड में पहले से ही एक गतिशील, विशाल व तप्त निहारिका थी। निहारिका निरन्तर शीतल होकर आकार में सिकुड़ती गयी। जिससे आयतन में कमी होती गयी। आयतन में कमी होने के कारण निहारिका की गति निरन्तर तीव्र होती गयी। गति तीव्र होने से निहारिका के मध्य का भाग हल्का हो गया और ऊपर उठ गया। ऊपर उठने से शीघ्र ही ठंडा हो गया। यह ठंडा भाग निहारिका के साथ गति नहीं कर सका, परिणामस्वरूप यह भाग उससे अलग हो गया। यही क्रिया बार-बार होने से 9 छल्ले निहारिका से अलग होकर ठंडे हो गये, जिसे 9 ग्रह की संज्ञा प्रदान की गयी। बाद में इन्हीं ग्रहों से इसी क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण उपग्रहों का निर्माण हुआ।

आलोचना-ऐसा करने से लाप्लास महोदय ने काण्ट की कमियों को दूर तो कर दिया, परन्तु स्वयं का सिद्धान्त भी आरोपों से परिपूर्ण हो गया। इसमें सबसे प्रमुख आरोप था कि स्वयं सिद्धों को किस हद तक बढ़ाया जा सकता है, क्योंकि इन्होंने आधार से हटकर स्वयं एक कल्पना की। इसलिये स्वयं सिद्धों को इससे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। उदाहरण के लिए लाप्लास महोदय निहारिका को गतिशील तथा संतप्त पहले ही मान लिया। वैसे वे मान सकते थे कि निहारिका पहले से ही गतिशील थी, परन्तु जब कभी परिणाम का अधिक भाग स्वयं सिद्ध मान लिया जाता है, तो व्याख्या की वैज्ञानिकता क्षीण हो जाती है। इस प्रकार लाप्लास महोदय का सिद्धान्त एक ओर आरोपों का सुधार करता है, तो दूसरी ओर स्वयं आरोपों का शिकार होता है। साथ ही साथ भौतिकशास्त्र के सिद्धान्त से भी मान्य नहीं है। इसमें कोणात्मक भ्रमण शक्ति का संचयन कहा गया है, क्योकि लाप्लास महोदय ने गति तथा निहारिका बढ़ने से छल्ला अलग होने की वात कही है। इस तरह काण्ट की त्रुटियाँ लाप्लास महोदय की परिकल्पना में निहित हो गयी।
वास्तव में, देखा जाय तो लाप्लास महोदय ने कोई नई कल्पना नहीं किया, बल्कि काण्ट की कमी को दूर किया था। बहुत अधिक मात्रा में सुधारना उचित नहीं समझा, क्योंकि ज्यादा सुधार करने पर काण्ट के सिद्धान्त का आधार समाप्त हो जाता। लाप्लास महोदय की परिकल्पना काण्ट के कारण अवैज्ञानिक हो गयी।
इन संकल्पनाओं के द्वारा यह सिद्ध होता है कि सौर मण्डल का निर्माण एक ही पिण्ड से हुआ है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सौरमण्डल का उद्भव एक पिण्ड से सम्भव नहीं है। इन्हीं कारणों से काण्ट तथा लाप्लास महोदय की परिकल्पनाओं को वैज्ञानिकता नहीं मिल पायी। इन व्यक्तियों ने पहला वैज्ञानिक प्रयास किया था, जिस कारण इनका महत्वपूर्ण स्थान है। काण्ट की विचारधारा सन् 1755 ई० में तथा लाप्लास की विचारधारा 1796 में प्रकाशित हुई। इसके पूर्व का काल ज्ञान का पूर्वकाल माना जाता है। इतना ही नहीं चीन, भारत तथा यूनान इसके विषय में पहले ही अपने-अपने मत दिये थे। चीन 6वीं शताब्दी में सूर्य, तारे तथा चन्द्रमा, ग्रहों तथा उपग्रहों का पता लगा लिया था। धीरे-धीरे वैज्ञानिकता बढ़ती गयी। वे सभी संकल्पनायें तथा खोजें वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर खरी नहीं उतरी। आज वैज्ञानिक युग है, नई-नई खोजें जारी हैं, जिससे प्राचीन निहारिका परिकल्पना का कोई महत्व नहीं है।
द्वैतवादी संकल्पना (Dualistic Concept)
धीरे-धीरे अद्वैतवादी विचारधारा असत्य, भ्रामक तथा कल्पना मात्र प्रतीत होने लगी, क्योंकि ब्रह्माण्ड में नये-नये ग्रहों तथा उपग्रहों का पता लगाया जाने लगा। बड़ी-बड़ी दूरबीनों की सहायता से यह सत्यता ज्ञात की गयी कि ग्रहों तथा उपग्रहों के बीच दूरियाँ एक सिद्धान्त के अनुसार पायी जाती हैं। ग्रहों के एक निश्चित संख्या में उपग्रह पाये जाते हैं। बड़े ग्रह के पास उपग्रहों की संख्या अधिक तथा छोटे के पास कम होती है। वृहस्पति सबसे बड़ा ग्रह है। इसके बाद दूसरा स्थान शनि का आता है। सौर मण्डल में गति का संचार पूरब से पश्चिम में है। कुछ उपग्रह इसके विपरीत घूमते हैं। यही कारण है कि ऐसे उपग्रहों को उन ग्रहों का वास्तविक उपग्रह नहीं माना जाता है। ऐसा ज्ञात होता है कि वे पहले अन्य ग्रहों के साथ बाह्य परिधि में थे, जो आकर्षण के कारण दूसरे में संलग्न हो गये।
अन्तरिक्ष ज्ञान में धीरे-धीरे वृद्धि हुई। फैले हुए सौर मंडल की कल्पना प्रस्तुत की जाने लगी। 1924 ई० तक नये-नये विचारों का प्रतिपादन किया गया। इसी समय अमेरिका के दो विद्वानों ने एक नयी धारणा का प्रतिपादन किया। इनके अनुसार – गति के साथ-साथ समय को भी महत्व देना चाहिए। उदाहरण के लिये यदि सौर मण्डल का ज्ञान प्राप्त करना चाहें, तो ग्रहों-उपग्रहों की लम्बाई, चैड़ाई, ऊँचाई, दूरी तथा गति के अतिरिक्त समय भी आवश्यक होगा। इसका प्रधान कारण यह है कि ग्रह तथा उपग्रह सभी गतिमान है। इसीलिये समय के महत्व को इनकी स्थितियों से पृथक नहीं किया जा सकता है। यह विचारधारा 1924 ई० तक प्रचलित हो चुकी थी। आधुनिक वैज्ञानिक युग में इसी दिशा में वैज्ञानिक तथा अन्वेषक अपने-अपने प्रयास जारी किये हुए हैं। अब सौर मण्डलीय स्थितियों में समय का ध्यान दिया जाने लगा है। नये प्रयोगों से स्पष्ट है कि सौर मण्डल इससे भिन्न तथा बहुत बड़ा है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर पुराने विचारों में कई परिवर्तन हो सके हैं। 20वीं शताब्दी में द्वैतवादी विचारधारा का सूत्रपात सौर मण्डलीय उद्भव में किया जाने लगा। इसमें चैम्बरलीन महोदय का योगदान विशेषम्प से उल्लेखनीय है। इनका विचार 1905 या इसके उपरान्त प्रतिपादित किया गया।
द्वैतवादी विचारधारा के समर्थकों का विचार है कि – पृथ्वी की उत्पत्ति एक तारे से नहीं बल्कि दो या दो से अधिक तारों के संयोग से हुयी है। इस संकल्पना के अन्तर्गत चैम्बरलिन तथा मोन्टन की ‘ग्रहाण परिकल्पना‘, जेम्सजीन्स तथा जेफरीज की ‘ज्वारीय परिकल्पना‘, यच0यन० रसेल का ‘द्वैतारक सिद्धान‘ आदि प्रमुख हैं। वर्तमान में ‘निहारिका सिद्धान्त‘ मान्य नहीं है, परन्तु इस युग में भी इस मत के समर्थक कुछ इने-गिने लोग हैं। इन विद्वानों का विचार आज वैज्ञानिक युग में सार्थक प्रतीत नहीं होता, जब अन्तरिक्ष विज्ञान अपनी विकास की चरम सीमा पर पहुँचना चाहता है।
चैम्बरलिन की ग्रहाणु परिकल्पना (Planetesimal Hypothesis of Chamberlin)
चैम्बरलिन महोदय 1905 में ‘ग्रहाणु परिकल्पना‘ पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रस्तुत की। इनके अनुसार सौर मण्डल में ग्रहों तथा उपग्रहों का उद्भव दो ताराओं के संयोग के परिणामस्वरूप हुआ होगा। इसमें से एक तारा हमारा सूर्य रहा होगा। दूसरा जो अब गतिमान होते हुये बहुत दूर चला गया। बड़ा तारा गति करते-करते सूर्य के निकट पहुँच रहा था। जब काफी नजदीक पहुँच गया, तो आकर्षक शक्ति के कारण सूर्य से बहुत से पदार्थ परित्यक्त होकर बह रहे थे। ये आपस में मिलकर एक होने लगे। गतिमान तारा उनको खींचता गया। ऐसी दशा में बहुत से केन्द्रीभूत पुंज उद्भूत हो गये। इन पिण्डों पर छोटे-छोटे परित्यक्त गैसीय पिण्ड एकत्र होने लगे। इन क्रियाओं द्वारा उन पिण्डों में विकास होता गया। काया के विस्तार के साथ-साथ उनमें ठोसीकरण होता गया। ठोसीकरण के कारण नीचे के भागों में दबाव बढ़ने लगा, जिस कारण ताप की वृद्धि होने लगी और कायान्तरण की क्रियायें बड़े पैमाने पर होने लगी। ऐसे समय में गैसीय पंजों में जो गैस की मात्रा निहित थी बड़े पैमाने पर निष्कासित होने लगी। इस पर पदार्यों के जमने से कहीं नीचा तथा कहीं ऊँचा हो गया। गैस के मिलने से जल बनकर नीचे हो गया है। इस तरह चैम्बरलिन महोदय ने पृथ्वी की बनावट, जल मण्डल तथा वायु मण्डल का इतिहास स्पष्ट किया।
यदि AP2/P2O = 1
तो-
AP1<P1O (पथ अण्डाकार होगा।)
AP2=P2O (पथ गोलाकार होगा।)
AP3>P3O (पथ अण्डाकार होगा।)

छोटे-छोटे गैस पुंज जो ग्रहों के निर्माण में सहायक हैं, इसी कारण इस परिकल्पना का नाम ‘ग्रहाणु परिकल्पना‘ रखा गया। जितने भी ग्रहों का निर्माण हुआ-वेे इन्हीं क्रियाओं के परिणामस्वरूप हुआ। प्रारम्भ में ये क्रियायें तेजी से हुयी, बाद में धीमे से होने लगी। ये सभी ग्रह सूर्य का भ्रमण करने लगे। अब प्रश्न उठता है कि – ये उस बड़े तारे के साथ क्यों नहीं हो लिये जिसके आकर्षक से वे अलग हुये थे? यह एक गणित का प्रश्न है। यदि हम निश्चित बिन्दु और एक निश्चित रेखा के बीच एक ऐसे बिन्दु को अनुरेखित करें जो निश्चित अनुपात पर आगे बढ़ता है, तो स्थिति का समाधान हो जायेगा।
जो पदार्थ छोटे-बड़े तारों के मध्य होगा, न तो सूर्य में जायेगा, न तो ऊपर जायेगा, बल्कि एक निश्चित पथ पर भ्रमण करेगा। यदि सूर्य का केन्द्र ज्ञात करें तो एक निश्चित विन्दु होगा। इस तरह सभी ग्रह और उपग्रह एक निश्चित पथ पर भ्रमण करते हैं।
आलोचना-ग्रहाणु परिकल्पना को मानने वाले व्याख्याताओं ने चैम्बरलिन की ‘ग्रहाणु परिकल्पना‘ को सत्य बताया और सुधारों की परिस्थितियाँ दी, परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक विकासों के सन्दर्भ में चैम्बरलिन का मत सत्य दिखाई नहीं पड़ता है, क्योंकि परिकल्पना में ऐसे तथ्य आये हैं, जो वैज्ञानिक तर्कों से असंगत सिद्ध होते हैं।
ग्रहाणु परिकल्पना में बताया गया है कि पृथक-पृथक गैस पुंज परित्यक्त होंगे, परन्तु ऐसा तर्क मान्य नहीं है, क्योंकि बड़े तारे के आकर्षक से जो ज्वार होगा उससे पृथक-पृथक पंजों का निर्माण नहीं है बल्कि ऐसी दशा में गैस का एक ही बड़ा पिण्ड बहिष्कृत होगा। ग्रहाणु परिकल्पना में कई ऐसे तथ्य आते हैं, जो नई समस्या पैदा कर देते हैं। उदाहरण के लिए जब ग्रहों की कायाओं पर ऊपर से ग्रहाणु एकत्र होने लगे, जिससे ऊँचे-नीचे स्थान बन गये। वे कालान्तर में महाद्वीपों एवं महासागरों में परिणित हो गये। इसलिये महाद्वीप स्थिर माने जाते हैं जबकि महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त यह बताता है कि – महाद्वीप स्थिर नहीं है, बल्कि गाढ़े द्रव पर तैर रहे हैं। वेगनर महोदय का यह सिद्धान्त अधिक मान्य बताया जाता है। यदि ऐसा होता है तो ग्रहाणु परिकल्पना में विरोधाभास पैदा करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि एक सत्य है, तो दूसरा असत्य होगा।
ग्रहों के आकारों पर ध्यान दिया जाय, तो ऐसा ज्ञात होगा कि बड़े ग्रह बीच में तथा छोटे ग्रह किनारों पर हैं। वृहस्पति और शनि बड़ी काया वाले ग्रह हैं, जो बीच में हैं। बुध, शुक्र, मंगल, शनि, अरुण तथा वरुण किनारों पर हैं। ऐसा होने का ‘ग्रहाणु परिकल्पना‘ में समुचित कारण नहीं बताया गया है। यद्यपि संकेतों से स्पष्ट होता है कि जब बड़ा तारा दूर रहा होगा, दो छोटे-छोटे पदार्थ निकले तारा जब नजदीक होगा, तो ज्वारीय क्रिया अधिक हुयी होगी और अधिक पदार्थ निकला होगा। यदि दूर चला गया होगा, तो पुनः छोटा-छोटा का निकला होगा। यदि इस समस्या को मान लिया जाय तो यह स्पष्ट नहीं होता है कि ग्रहों तथा उपग्रहों की संख्या निश्चित क्यों है ?