चर्च किसे कहते हैं | गिरजाघर या चर्च की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब बताइए church in hindi meaning

what is church in hindi meaning definition चर्च किसे कहते हैं | गिरजाघर या चर्च की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब बताइए ?

 धर्म संस्था (Ecclesia) (चर्च)
चर्च की स्थापना बाइबिल में वर्णित ईसा मसीह के धार्मिक अनुभव के आधार पर हुई। धर्म संस्था में ईसा मसीह को मानव व ईश्वर के पारलौकिक मध्यस्थ के रूप में स्वीकार करने के कारण उनका धार्मिक अनुभव सभी रहस्यों को खोलने वाला तथा भ्रांतियों से परे है। क्योंकि यह ज्ञान मानव जाति के उद्धार के लिए है अतः मानव को इसे अपनाना चाहिए । मनुष्यों द्वारा इसका अनुसरण किया जाना चाहिए तथा इसमें विश्वास न रखने वालों को दंडित अथवा बहिष्कृत किया जाना चाहिए।

सैद्धांतिक व हठी दृष्टिकोण ने धर्म संस्था को अत्यधिक धर्म प्रवर्तकों का धर्म बना दिया है। यहाँ तक की राजा राममोहन राय ने ईसा तथा ईसाई धर्म के उपदेशों तथा धर्मप्रचारकों के क्रियाकलापों में स्पष्ट भेद किया है। (सरकार, बी. के. 1937: 619-624, भट्ट, जी. एस. 1968ः: 34 ) चूंकि इसे संगठित किया जा सकता था तथा इसमें विभिन्न लोगों को परिवर्तित किया जा सकता था अतः यह राष्ट्रीय, प्रांतीय व स्थानीय विशिष्टताओं के साथ अन्तरराष्ट्रीय धर्म के रूप में विकसित हुआ।

जन सामान्य व पुरोहितों ( पादरी ) के बीच संगठनात्मक भेद के कारण धर्म संस्था शिष्यात्मक रूप लिए हुए है। पुरोहित वर्ग में ईसाई धर्म के संचालकों का समावेश है। उन्हें शिक्षा दी जाती है, उनका चुनाव होता है तथा उनकी नियुक्ति होती है, उन्हें प्रदत्त कार्यालयों के ढांचे में जोड़ा जाता है। इनकी कार्यप्रणाली नौकरशाही का गुण लिए हुए है। पादरी बनना एक व्यवसाय या पेशा है। पुरोहित वर्ग का सदस्य अपने धार्मिक गुण उस गद्दी से प्राप्त करता है जिसे वह नियुक्ति तथा धार्मिक आदेश के रूप में प्राप्त होने के कारण ग्रहण करता है। निस्संदेह समूची व्यवस्था अपनी कार्यप्रणाली के नजरिए से श्रेणीबद्ध और नौकरशाही है।

पादरी व उसका पद धर्म संस्था के लिए महत्वपूर्ण केन्द्र है। अपने कार्यक्षेत्र में आने वाले जनसामान्य के लिए आध्यात्मिक-धार्मिक व संरक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त होने के कारण पादरी स्वीकारोक्ति को सुनने तथा पापों से क्षमा देने का कार्य कर सकता है। वह विवाह सम्पन्न कराता है तथा चर्च के सदस्यों को धर्मेतर कार्यों में भी सलाह देता है। इसका मुख्य कार्य उपदेश देना तथा धर्म परिवर्तन कराना है।

ऐतिहासिक तौर पर चर्च में भी पादरी के सर्वस्व अधिकार को स्वीकार व अस्वीकार करने वालों के परस्पर संघर्ष की विशिष्टता है। ‘सर्वस्व अधिकार‘ का जन्म इस धारणा के कारण हुआ है कि ईश्वर को सामान्य मानवीय ज्ञान के द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता। इनका मूल पाप में विश्वास भी एक कारण है। ‘मूलपाप‘ की धारणा के कारण जिसने यौन क्रिया के प्रति भ्रम व चिंता को जन्म दिया। ईश्वर की सेवा के मार्ग पर स्वःत्याग एक प्राथमिक आवश्यकता है। चर्च, पादरी तथा वैराग्य धार्मिक प्राधिकार का प्रतीक बने, तथापि चर्च पुरुषों और स्त्रियों दोनों के लिए खुला था।

पादरी के सर्वाधिकार का विरोध करने वालों के अनुसार ईश्वर तथा संसार अलग हैं। संसार को वास्तविकता-मनुष्य द्वारा सांसारिक क्रियाओं और उपलब्धियों का कार्यक्षेत्र के रूप में स्वीकारा गया । परोपकारी सामाजिक कार्य व बड़े परोपकारी-धर्माथ संस्थानों का प्रबंध चर्च का ही कार्य माना गया तथा तब से यह चर्च की ही विशेषता बनी हुई है। इस तालमेल की प्रक्रिया के कारण तपस्वी पादरियों में तथा पादरी तपस्वियों में समाहित हो गए। दोनों ने मिलकर बजाए दो वर्ग अर्थात धार्मिक मनुष्य (पादरी) और जनसाधारण बनाने के, मिलकर चर्च की सर्जना की।

चुने हुए व नियुक्त पदों को मिला कर चर्च का एक स्व-नियंत्रित एक संघीय ढांचे के रूप में विकास व विस्तार हुआ। इसका मुखिया पोप, नियुक्त पदाधिकारियों के एक छोटे समूह के बीच से चुना जाता है। इस पदीय-ढांचे के अन्य अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। इनमें से भी पादरी का ही पद सही मायनों में धार्मिक है तथा अन्य सभी पद प्रबंधकीय हैं।

चर्च अपने कर्मियों की शिक्षा तथा नियुक्ति का कार्य अपने धार्मिक शिक्षा संस्थानों द्वारा करता है। इसकी अधिक विशिष्ट परिभाषा हेतु यह, अनुसंधान संस्थान, शिक्षण केंद्र, विचार-गोष्ठी तथा कार्यशाला आदि का आयोजन भी करता है। यह पत्रों के प्रकाशन, मुद्रण सुविधाओं व प्रकाशन गृहों के संचालन का कार्य भी करता है। यह धर्मेतर शिक्षा के लिए विद्यालय व महाविद्यालयों की स्थापना व प्रबंधन भी करता है। जहाँ धर्मेतर शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा को श्ईश्वरीय ज्ञानश् के प्रसार के लिए प्राथमिकता दी जाती है।

आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार के साथ चर्च संपत्ति व अन्य सांसारिक शक्तियों में भी अपनी अभिरुचि का विकास करता है। यह स्थापित सामाजिक तंत्र में भी रुचि लेता है। इसकी शक्ति, संपत्ति, विशेषाधिकारों तथा प्राथमिकताओं को विधिगत मान्यता प्रदान करता है। धर्मेतर मामलों में चर्च की यह रुचि इसके धर्मेतर-राजनीतिक तंत्र के साथ संघर्ष का कारण बनती है तथा धर्मभेद को जन्म देती है जैसा इंगलैण्ड के चर्च के विकास के संदर्भ में हुआ।

चर्च का धर्मेतर रूझान पादरी वर्ग को अधिक रूढ़िवादी बनाता है। यह भी संघर्ष की स्थिति को जन्म दे सकता है। पर धर्मेनर संसार से संघर्ष चर्च की प्रमुख विशेषताओं में से नहीं है। अधिकांश चर्च धर्मेतर-राजनीतिक संसार से सामंजस्य स्थापित कर अपने को धर्मेतर जीवन के अनुरूप ढाल लेते हैं।