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बौद्ध धर्म के नियम , बौद्ध धर्म के सिद्धांत pdf और विशेषताएं क्या है किसे कहते है Buddhism basic beliefs in hindi

Buddhism basic beliefs in hindi बौद्ध धर्म के नियम , बौद्ध धर्म के सिद्धांत pdf और विशेषताएं क्या है किसे कहते है ?

बौद्ध धर्म: मूल शिक्षाएँ (Buddhism : Basic Teachings)
इस अनुभाग में हम बौद्ध धर्म के संस्थापक और उनकी मूल शिक्षाओं पर चर्चा करेंगे।
बौद्ध धर्म के संस्थापक (The Founder of Buddhism)
महात्मा बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उनका पारिवारिक नाम गौतम तथा माता-पिता ने उन्हें एक और नाम दिया था-सिद्धार्थ । वे शाक्य राजवंश के राजकुमार थे और जाति से क्षत्रिय थे। बचपन से ही सिद्धार्थ में आध्यात्मिक तथा मानवतावादी दृष्टि थी। 16 वर्ष की आयु में यशोधरा से उनका विवाह हुआ। 29 वर्ष की आयु में उनके जीवन में मोड़ तब आया, जब उन्हें लगा कि मनुष्य तो जरा, रोग और मृत्यु से ऊपर नहीं है और मनुष्य का जीवन पीड़ा से भरा है। उन्होंने स्वयं महाभिनिष्क्रमण अर्थात राजपाट छोड़कर तपस्वी बनने का निर्णय लिया और एक दिन अपने नवजात शिशु तथा पत्नी यशोधरा को राजमहल में छोड़कर निकल गये। वे सत्य की तलाश में कई विद्वानों से मिले। उनके उत्तरों से असंतुष्ट होकर अन्यत्र सादगी और घनघोर तपस्या में प्रायः छह वर्षों तक लीन रहे। बाद में उन्होंने इस मार्ग को छोड़ दिया और उन्होंने मोक्ष के लिए अपना मार्ग-मध्यम मार्ग (गृहस्थ्य जीवन और उग्र आत्म निषेधो के बीच का मार्ग) चुना। ऐसा उन्होंने तब किया जब वे बोध गया के पास एक स्थान पर पीपल के वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाकर बैठे थे। वहीं वे ईसा पूर्व छठी शताब्दी में सिद्धार्थ से महाबुद्ध बने।

बौद्ध धर्म का सार (The Essence of Buddhism)
भगवान बुद्ध के प्रारंभिक उपदेशों का सार चार आर्य सत्य-दुख को जानना, दुख के कारण को जानना, दुख का अंत करना तथा दुख से मुक्ति के लिए आस्टांगिक (आठ प्रक्रियाओं) मार्ग पर आधारित है। इन सत्यों पर हम अब विस्तार से चर्चा करेंगे।

क) जीवन मूलतः निराशा और पीड़ा से भरा है।

कई विशेषज्ञों ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि भगवान बुद्ध के दर्शन की मूल प्रस्थापनाएं आध्यात्मिक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक हैं। उनकी मूल प्रस्थापना है, वह दुख ही है जिस पर ही अन्य प्रस्थापनाएं टिकी हुई हैं। दुख ऐसी चीज है जिससे कोई बच नहीं सकता। सारनाथ में भगवान बुद्ध द्वारा दिये गये पहले उपदेश का प्रारंभ दुख की अनिवार्यता से होता है।

‘‘श्रमण सुने‘‘ दुख का चिरंतन सत्य। जन्म दुख है, जरा दुख है, व्याधि दुख है, मृत्यु दुख है, प्रियजनों से अलग रहना दुख है, उनसे बिछड़ना दुख है, इच्छा पूर्ति का होना दुख है, संसार के मोह में पड़े रहना दुख है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध दर्शन दुख की निरंकुशता को मान्यता देता है। वैसे हर व्यक्ति विशेष में दुख का एक विशिष्ट कारण होता है लेकिन भगवान बुद्ध मानवीय पीड़ा के सार्वभौमिक पक्ष पर जोर देते थे। उस युग के उथल-पुथल भरे जीवन में गरीबी के कारण, निरंकुश क्रियाकलापों में ढूंढे जा सकते हैं, लेकिन सभी पक्षों की विशिष्ट स्थितियों से ऊपर उठकर मनुष्यता को आहत करने वाले मनोवैज्ञानिक सामान्यताओं को समझा जा सकता है । इस कोण से देखें तो बुद्ध द्वारा अवलोकित तीन दुखों-व्याधि, जरा और मृत्युका उनके उपदेशों में बार-बार आना अकारण नहीं है। यह भगवान बुद्ध के विद्यमान मानवीय अनुभव की गहरी समझ को दर्शाता है।

ख) सत्ता, आनंद तथा अनवरत अस्तित्व की इच्छा ही दुख का कारण है
दुख का मूल भाव चार आर्य सत्यो की दूसरी प्रस्थापना से जुड़ा है और तन्हा (तृष्णा) यानी ‘‘सुख की तृष्णा, जीवन की तृष्णा तथा सत्ता की तृष्णा‘‘ में स्थित है। तृष्णा का व्यापक प्रभाव धन तथा राज्य विस्तार के अतृप्त लोभ में छिपा है। बौद्ध धर्मग्रंथों में मनुष्य की अतृप्त तृष्णा बहुत उपयुक्त ढंग से अभिव्यक्त हुई है: ‘‘इस संसार के धनी लोग ऐसा सब कुछ औरों को नहीं देते जो उन्होंने दूसरे से अर्जित किया है, वे समृद्धि का ढेर जमा करना चाहते हैं फिर और-और अधिक सुख प्राप्त करना चाहते हैं । वैसे राजा ने सागर के इस पार स्थित पृथ्वी के राज्यों को जीत लिया होगा और वहां के शासक भी बन बैठे होंगे। लेकिन उनमें सागर के उस पार के राज्यों को जीतने की लालसा बनी रहती है। व्यक्तिपरकता को सीमित कर स्वयं को छोड़कर ही तन्हा (तृष्णा) का अंत हो सकता है।

ब्राह्मंड की प्रकृति के बारे में अज्ञान से ही दुख और तन्हा जन्म लेते हैं। ये दोनों उसी संसार के अंग हैं जो सतत परिवर्तन की प्रक्रिया के निरंतर प्रवाह में (अनिच्चा) में स्थित हैं। इसलिए बौद्ध दर्शन को ‘‘सतत परिवर्तन का आध्यात्मक‘‘ कहा गया है। बौद्ध दर्शन में संसार को अनत्र (अनित्य) और इसे आत्माहीन भी कहा गया। बुद्ध के अनुसार कोई भी स्थायी सत्व नहीं है, हालाकि कारण और कर्म के चलते पुनजेन्म होता है इसलिए कोई आत्मा ऐसी नहीं जो देहान्तरण नहीं करती हो। जैसे एक दीपक बुझता है तो दूसरा जलता है, वैसे ही जब एक मनुष्य मरता है तो उसकी चेतना और अतृप्त कामनाओं को पूरा करने की उसकी लालसा दूसरे जीवन में प्रवेश कर जाती है, इसलिए व्यक्तिगत चेतना का ही देहान्तरण होता है।

ग) निराशा और दुख से बचने के लिए इच्छाओं को नियंत्रित करें
व्यक्तिगत आचार के माध्यम से दुख का अंत करना बौद्ध दर्शन का उद्देश्य है। बौद्ध धार्मिक आचार के मध्य से आत्म-नियंत्रण का निकाय है कि जब आत्म नियंत्रण शिखर पर पहुंच कर निब्बान (निर्वाण) को प्राप्त करता है। यही सतत प्रवाह में स्थायी सत्व और विश्राम की अवस्था होती है। बुद्ध और अन्य अर्हत इस परमानंद की अवस्था को प्राप्त कर सकें।

बौद्ध धर्म में अन्य अनोखी विशेषताएं भी हैं। इनमें शामिल हैं-बुद्ध द्वारा घोषित अच्याक्तनि (अनावश्यक) समस्याओं से दूर रहना, किसी को ईश्वर के मार्ग से हटाना। ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं, यह बिन्दु बुद्ध की मूल प्रस्थापनाओं की नहीं बदलता। इस बिन्दु को ध्यान में रखकर बुद्ध ने आत्म-निर्भरता पर जोर दिया होगा जिसमें उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि वे बाहरी मदद की अपेक्षा न करें वे स्वयं (अंधकार में) दीप बने (अप्प दीपों भवः)। मनुष्य मात्र के लिए प्रेम का केन्द्रीय भाव भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

घ) इच्छा और दुख का शमन आर्य आष्टांगिक मार्ग से ही हो सकता है।
बुद्ध द्वारा सुझाये गये आठ मार्ग हैं: सम्यक दृष्टि, संकल्प, वाक, कर्मात, आजी, यायात, स्मृति और समाधि अर्थात सही सोच, सही उद्देश्य, सही वचन, सही आचरण, सही आजीविका और सही सतर्कता।

बौद्ध धर्म की सामाजिक व्यवस्था (Buddhist Social Order)
जब कोई बौद्ध धर्म से दीक्षा लेता है तो उसे किसी जाति में नहीं रहना पड़ता है। दीक्षा के एक अनुष्ठान में उसे बढ़ना पड़ता हैः
बुद्धं शरणम् गच्छामि (मैं बुद्ध की शरण में आया हूं)
संछम शरणम् गच्छामि (मैं संघ की नियम की शरण में आया हूं)
धम्म शरणम् गच्छामि (मैं धर्म की शरण में आया हूं)

चूंकि गृहस्थ जीवन में आष्टांगिक मार्ग का पालन करना कठिन है इसलिए भगवान बुद्ध ने अपने गंभीर शिष्यों से गृहस्थ जीवन त्यागने की सलाह दी। इसलिए बौद्ध धर्म के अनुयायी दो प्रकार के हैं: तपस्वी और सामान्य शिष्य ।

क) तपस्वी को परिवार, पेशा और समाज को त्यागकर या तो एकांत साधना करनी पड़ती है या वे भिक्खु बन जाते हैं। तपस्वी समुदाय के लिए कठोर नियम बने हैंः सादगी पूर्ण जीवन, तीन वस्त्र, मुंडा सिर और दाढ़ी, भोजन के लिए भिक्षा, जरूरी मांगें, और मांसाहार न लें। उन्हें चार आदेशों का पालन करना पड़ता है। वे निषेध हैंः हत्या, चोरी, व्यभिचार, आसत्य, मद्यपान, मध्याह्न के बाद ठोस आहार लेना, नृत्य-संगीत-नाट्यकला, पुष्पामाला-सुगंध-उबटन तथा ऊंचे लम्बे-चैड़े पलंग का उपयोग और सोना चांदी ग्रहण करना।

तपस्वी जीवन में निर्वाण प्राप्ति के लिए अन्य छोटे-छोटे विवरणों का भी निर्धारण है। प्रतिमोक्ष (प्राचीनतम बौद्ध दस्तावेज) में 250 ऐसे नियम उल्लंघनों की सूची दी गई है जिसके माध्यम से तपस्वी प्रत्येक दो माह पर अपनी चेतना की परख कर सकता है। आत्मा की इस जाँच के लिए उपरस्थ (उपवास का दिन) को चुना जाता है। जो भी प्रतिबंधित जाति का हो जो गर्हित पाप में लिप्त रहा हो, कोई गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो अथवा दास रहा हो तपस्वी नहीं बन सकता।

बॉक्स 1
निर्वाण प्राप्त करने में तपस्वी जीवन में चार अवस्थाएं आती हैं। इसका प्रारंभ नौ भिक्षुओं यानी जिन्होंने तपस्वी जीवन में प्रवेश लिया हो, से होता है। दूसरे चरण में वे आते हैं जो इस पृथ्वी पर दुबारा जन्म नहीं लेंगे। तीसरे चरण में वे आते हैं जो अब पृथ्वी पर दुबारा जन्म नहीं लेंगे। वे स्वर्ग में रहेंगे और इस प्रकार निर्वाण प्राप्त कर लेंगे। आखिरी और सबसे उच्च चरण वह है जिसमें तपस्वी अर्हत (संत) हो जाता है और अपने वर्तमान जीवन से सीधे निर्वाण में प्रवेश ले लेता है (हेकमेन, 1988ः307)

ख) जन-साधारण और स्त्रियों के लिए भी बुद्ध के कुछ निर्देश हैं। ‘‘युग के अनुकूल रहते हुए तथा माता-पिता, शिक्षक, पत्नी, संतान, नौकर, मातहत, कर्मचारी, तपस्वी तथा ब्राह्मण के प्रति अपने सारे कर्तव्यों को पूरा करते हुए उन्हें एक नैतिक जीवन जीना चाहिए। जन-साधारण में अनुशासन के लिए उनके पांच आदेश हैं: वे इन निषेधों से बचें- हत्या, चोरी, व्यभिचार, असत्य तथ मद्यपान । हालांकि जनसाधारण के लिए इन प्रक्रियाओं के जरिये मोक्ष.के सर्वोच्च स्तर को पाना कठिन है, इससे उन्हें एक अच्छे पुनर्जन्म में सहायता मिलेगी। इस तरह वे तपस्वी बन सकेंगे और अंततः अर्हत बनने के योग्य हो जाएंगे। (हेकमेन 1988: 307)। इस तरह के आदर्श पुनर्जन्म का संबंध हिन्दू धर्म के कर्म सिद्धांत से है।

जन-साधारण से यह नहीं कहा गया कि वे ब्रहमचारी बनें, लेकिन वे अपनी पत्नी के प्रति वफादार रहे। बौद्ध धर्म में आडम्बर वाले धार्मिक अनुष्ठान नहीं सुझाये गये हैं।

बोध प्रश्न 3
1) बुद्ध के चार आर्य सत्यों के बारे में सात पंक्तियों की एक टिप्पणी लिखें।
2) जन-साधारण के लिए इनमें से कौन सा बुद्ध का आदेश नहीं है।
क) हत्या से बचना
ख) असत्य से बचना
ग) मद्यपान से बचना
घ) सोना तथा चांदी स्वीकार करने से बचना

बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) महात्मा बुद्ध के अनुसार जीवन (क) मूलतः निराशा और दुख है। (ख) जीवन, सत्ता तथा सुख की इच्छा के कारण दुःख से भरा है। (ग) में निराशा से बचने के लिए इच्छा को नियंत्रित करना चाहिए। (घ) में इच्छा पर नियंत्रण के आर्य अष्टांगिक मार्ग हैः सम्यकय दृष्टि (सही सोच), संकल्प (सही उद्देश्य), वाक् (सही वचन), कर्मांत (सही आचरण) आजीव (सही आजीविका). यायात (सही सतर्कता)।
2) घ)