विवाह की परिभाषा क्या है | विवाह किसे कहते है अर्थ मतलब बताइए प्रकार Marriage in hindi meaning

Marriage in hindi meaning and definition विवाह की परिभाषा क्या है | विवाह किसे कहते है अर्थ मतलब बताइए प्रकार ?

विवाह (Marriage)
हिन्दुओं में विवाह एक अनिवार्य अनुष्ठान है। यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए हिन्दू व्यक्ति को धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं और अपने पूर्वजों के प्रति कुछ अनुष्ठान करने होते हैं। ये अनुष्ठान पुरुष के हाथों संपन्न करने आवश्यक होते हैं। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक हिन्दू मोक्ष के लिए विवाह के माध्यम से एक पुरुष वंशन तैयार करें।

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हिन्दू धर्म में विवाह सुपरिभाषित संस्कार हैं। हिन्दू धर्म में प्रत्येक संस्कार का एक विशेष ध्येय है अर्थात किसी दैवीय क्रियाकलाप में भाग लेने के लिए उपयुक्त बनने के वास्ते शुद्धीकरण करना। हिन्दू जीवन के सारे पक्ष दैवीय क्रियाकलाप के अंग हैं। इस तरह, विभिन्न संस्कारों की प्रक्रियाओं के माध्यम से हिन्दू जीवन के सभी पक्षों का शुद्धीकरण होता है जिससे वे दैवीय सत्ता का अंग बन सकें। ब्रह्म सूत्र (1.1.4) के अनुसार: ‘‘संस्कार एक घटना है जिसे किसी व्यक्ति या वस्तु में गुणों के निवेश या बल देने के माध्यम से और उस व्यक्ति या वस्तु के कलंक को धोने के माध्यम से संभव किया जाता है।‘‘ मंत्रों का उच्चारण संस्कार का एक अत्यावश्यक अंग है। यह विश्वास किया जाता है कि इस प्रकार के मंत्रोच्चार से उस व्यक्ति या वस्तु में दैवीय शक्ति आ जाती है और जो उसे शुद्ध कर देती है। विद्यानिवास मिश्र संस्कारों को प्रतिष्ठापित और शुद्ध करने वाले अनुष्ठान मानते हैं। ये संस्कार हिन्दुओं के जीवन में जन्म पूर्व से लेकर मृत्यु के बाद तक किये जाते हैं। ऐसे सोलह संस्कार बताये जाते हैंः गर्भाधान (स्त्री की कोख में बीज डालना). पुंसवन (पुत्र पाने कि लिए अनुष्ठान करना), सिमंतोन्नयन (गर्भवती स्त्री के केश गूंथना), गर्भ के आठवें महीने में विष्णु को भेंट, जात कर्म (जन्म के अनुष्ठान), नामकरण (बच्चे का नाम रखना), निष्क्रमण (बच्चे को घर से बाहर ले जाना), अन्नप्रसन (पहली बार बच्चे को आहार देना), मुंडन करना, अक्षरारंभ (ज्ञान का अनुष्ठान), कर्णवेधन (कान छेदना), उपनयन (जनेऊ धारणा करना), वेदारंभ विदों का अध्ययन शुरू करना), समावर्तन (जीवन में प्रवेश करना), विवाह और अंत्येष्टि (अंतिम संस्कार)।

प्राचीन हिन्दू शास्त्रों के अनुसार विवाह के तीन प्रमुख उद्देश्य होते हैं, ये हैं: धर्म (ईमानदारी भरा और नेक व्यवहार), प्रज्ञा (संज्ञा) और रति (इन्द्रियजव्य सुख)। इस तरह, हिन्दू व्यक्ति पत्नी और पत्रों के बिना अधूरा रहता है। हिन्दू धर्म की कुछ प्रमुख विशेषताएं है।

प) एक विवाह (Monogamy): यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दू धर्म में एक विवाह, अर्थात एक समय में एक पुरुष का, एक स्त्री से विवाह ही विवाह का सामान्य रूप है। कुछ हिन्दुओं में स्थानीय प्रथाओं के आधार पर बहविवाह भी पाया जाता था। भारत में इस प्रकार की कुरीतियों के खिलाफ राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती आदि ने अनेक सामाजिक सुधार आंदोलन चलाये। 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम में केवल एक विवाह की अनुमति है।

पप) सजातीय (Endogamy): हिन्दुओं में धर्म और जाति में सजातीय की परंपरा कायम है। अंतर्जातीय और अंतधर्मीय विवाहों को वैधानिक अनुमति होने पर भी ऐसे विवाह कम ही होते हैं और केवल पढ़े-लिखे और शहरी तबके में ही देखने को मिलते हैं।

पपप) उच्चविवाह (Hypergamy): उच्चविवाह के नियम के अनुसार पति की प्रस्थिति पत्नी की प्रस्थिति से हमेशा ऊंची होती है। उच्चविवाह की प्रथा एक ही जाति के विभिन्न गोत्रों या उपजातियों के बीच विवाह के कारण बनी। प्राचीन हिन्दू शास्त्रों में उच्चविवाह के ‘‘अनुलोम‘‘ रूप की अनुमति है, जिसमें कन्या का विवाह अपने से ऊँची जाति के लड़के के साथ होता है। शास्त्रों, में, उच्चविवाह के ‘‘प्रतिलोम‘‘ रूप की मनाही हैं जिसमें लड़की किसी निम्न जाति के लड़के के साथ विवाह करती है।

पअ) गोत्र बहिर्विवाह (Gotra Exogamy): हिन्दुओं में गोत्र से बाहर विवाह की प्रथा कायम है। एक गोत्र के व्यक्तियों का पूर्वज एक ही होता है। एक ही पूर्वज के वंशजों के बीच विवाह की अनुमति नहीं है। हाल के वर्षों में इसे इस तरह परिभाषित किया गया है कि कोई व्यक्ति अपनी माँ की ओर से पाँच पीढ़ियों तक और पिता की ओर से सात पीढ़ियों तक के किसी संबंधी के साथ विवाह नहीं करेगा। फिर भी, उत्तर और दक्षिण भारत में इस तरह के विवाह के संबंध में अलग-अलग नियम और प्रतिबंध हैं। दक्षिण भारत में चचेरे-मौसेरे भाई-बहनों के बीच विवाह की अनुमति है, जबकि उत्तर भारत में ऐसा नहीं है। (इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए आप ईएसओ-12 के खंड 2 की इकाई 8 और 9 का अध्ययन कर सकते हैं)।