हिन्दू धर्म की परिभाषा क्या है | हिंदू धर्म किसे कहते है अर्थ क्या है विशेषताएं बताइए hindu religion in hindi
hindu religion in hindi meaning and definition हिन्दू धर्म की परिभाषा क्या है | हिंदू धर्म किसे कहते है अर्थ क्या है विशेषताएं बताइए ?
ब्रह्म और आत्मा (Brahm and Atma)
हिन्दू लोग एक चिरंतन, अनंत और सर्वव्यापी शक्ति में विश्वास करते हैं। जिसे वे ब्रह्म कहते हैं। यह ब्रह्म जीवन के प्रत्येक रूप में विद्यमान है। ब्रह्म और आत्मा का संबंध हिन्दू धर्म का मुख्य सरोकार रहा है। वैसे, इस संबंध को लेकर अलग-अलग तरह के विचार या मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार परमेश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है और ब्रह्म संपूर्ण और निर्गुण है। लेकिन अधिकांश अन्य मत परमेश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, और एक ओर ब्रह्म के साथ तो दूसरी ओर आत्मा के साथ परमेश्वर के संबंध को मानते हैं। आत्मा को अविनाशी माना जाता है और वह मनुष्य, पशु या दैवीय रूप धारण करने के एक अंतहीन चक्र से गुजरती है और यह पिछले जन्म के अच्छे या बुरे कर्म के अनुपात से प्रभावित होती है। बुरे या अच्छे का निर्णय धर्म के आधार पर होता है (श्रीनिवास और शाह 1972ः359)। इसलिए हमारे लिए ‘‘धर्म‘‘ और ‘‘कर्म‘‘ का अर्थ जान लेना आवश्यक हो जाता है।
धर्म (Dharam)
‘‘धर्म‘‘ के अनेक मिश्रित अर्थ निकलते हैं। इसमें ‘‘ब्रह्मांडीय, नैतिक, सामाजिक और वैधानिक सिद्धांत (आते हैं) जो एक व्यवस्थित संसार की धारणा को आधार प्रदान करते हैं। सामाजिक संदर्भ में, धर्म सदाचारी जीवन की परिभाषा में धर्मपरायणता के आदेश का प्रतीक है और स्पष्ट कहा जाए तो, धर्म का संबंध सामाजिक व्यवहार के उन नियमों से है जिन्हें पारंपारिक रूप में ‘‘वर्ण‘‘, ‘‘आश्रम‘‘ और ‘‘गुण‘‘ के संदर्भ में प्रत्येक व्यक्ति (कर्ता) के लिए निर्धारित किया गया है। आसान शब्दों में कहें तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए आचार का एक तरीका है जो सर्वाधिक उपयुक्त है: यह उस व्यक्ति का ‘‘स्वधर्म‘‘ होता है। वास्तव में, धर्म सदाचारी जीवन की आधारशिला है। इस तरह धर्म में ‘‘आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्यों और आनंद को प्राप्त करने का युक्तिसंगत प्रयास‘‘ शामिल रहता है। जीवन के लक्ष्य (पुरुषार्थ) में ‘‘मोक्ष‘‘ अर्थात ‘‘अंतर्ज्ञान के माध्यम से जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति भी शामिल रहती है।‘‘ ‘‘अर्थ‘‘ और ‘‘काम‘‘ को समेटे हुए धर्म जीवन का एक महान रूप है और मोक्ष उसका विकल्प है। (मदन, 1989: 118-119)।
इसे और स्पष्ट करने के लिए यहाँ हम पुरुषार्थी व्यक्ति के लक्ष्य, ऋण (उसके कर्तव्य, और वर्णाश्रम (समाज के विभाजन) और उनकी एक दूसरे पर निर्भरता के बारे में संक्षेप में विचार करेंगे।
क) पुरुषार्थ (Purusartha) हिन्दू धर्म में सफल जीवन की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करने की रीति रही है। इस प्रकार के जीवन की प्राप्ति के लिए कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करने के प्रयास अनिवार्य माने गये हैं। हिन्दू धर्म मानने वाले व्यक्ति के जीवन में चार लक्ष्यों को प्राप्ति के प्रयास निहित होते हैं रू धर्म, अर्थ (भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति), काम (प्रेम वासना) और मोक्ष (उद्धार या मुक्ति)। इन चार लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करने को ‘‘पुरुषार्थ‘‘ कहते हैं। इन लक्ष्यों को इस ‘‘संसार‘‘ में (जहाँ मोक्ष प्राप्त होने तक जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है) धर्मप करने का प्रयास करना होता है। हिन्दू धर्म जीने और सोचने का समष्टिवादी तरीका है। हिन्दू जीवन की पूर्ण वैधता उपर्युक्त चार लक्ष्यों के समाकलन में निहित है। इस प्रक्रिया के चलते हिन्दू व्यक्ति अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में आत्मपरीक्षा के लिए बाध्य होता है और व्यापक सामाजिक और आत्मिक कर्तव्यों से बँध जाता है। इस तरह हिन्दू धर्म इन चार ऋणों या कर्तव्यों का स्वेच्छा से पालन और स्वीकार करने की माँग करता है।
ख) ऋण (Rins) हिन्दुओं के लिए चार महत्वपूर्ण ऋण होते हैं। जिन्हें उन्हें चुकाना होता है। ये हैं, संतों के प्रति ऋण, पूर्वजों के प्रति ऋण, ईश्वर के प्रति ऋण और मनुष्यों के प्रति ऋण। इन ऋणों का पालन व्यक्ति अपने जीवन के विभिन्न आश्रमों के कर्तव्यों का निर्वाह करके करता है। हिन्दू धर्म के अनुसार चार आश्रम होते हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। जीवन के प्रथम आश्रम में हिन्दू व्यक्ति को अध्ययन के प्रति समर्पित होना होता है। वह ब्रह्मचारी रह कर ज्ञान प्राप्ति के प्रयास में लगता है। जीवन का दूसरा आश्रम गृहस्थ आश्रम है जिसका प्रारंभ व्यक्ति के विवाह के साथ होता है। तीसरे चरण या आश्रम का प्रारंभ तब होता है जब गृहस्थ व्यक्ति अपनी गृहस्थी से कुछ संबंध बनाये रखते हुए यायावर का जीवन जीता है। अंतिम आश्रम में वृद्ध हिन्दू गृहस्थी से सारे संबंध तोड़कर वन की ओर प्रस्थान कर लेता है और संन्यासी बन जाता है।
विद्यानिवास मिश्र अपनी पुस्तक “हिन्दू धर्मः जीवन में संतान की खोज‘‘ (हिन्दी) में कहते हैं, कि हिन्दू व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करके, ज्ञान का संचय करके, और कठोर जीवन जीकर संतों के प्रति अपने ऋण का पालन कर सकता है। ये ब्रहमचर्य आश्रम के कार्यकलाप होते हैं। पूर्वजों के प्रति ऋण का पालन गृहस्थ का जीवन जी कर किया जा सकता है। गृहस्थी के रूप में उसके उत्तरायित्व हैं-संतान उत्पन्न करना, अपने पूर्वजों की परंपरा को कायम रखना, उन तरुणों की देखभाल करना जो अभी सीखने के चरण में हैं, और उन लोगों की देखभाल करना जो वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में हैं। जीवन के तीसरे चरण में, अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में देवताओं के साथ एकत्व का प्रयास होता है, जब अपना घर छोड़कर वह त्यागी व्यक्ति का जीवन जीता है। ‘‘इसलिए देवताओं के साथ एकत्व का अर्थ होता है उन सभी व्यक्त शक्तियों के साथ एकत्व स्थापित करना जिनकी छवि समस्त तत्वों, समस्त जीवों और समस्त प्रकृति में मिलती है‘‘।
जीवन के इस आश्रम में वह इस प्रकार की अभिव्यक्ति के लिए तैयार हो जाता है। जीवन के चैथे और अंतिम आश्रम में वह तमाम जीवों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है। इस आश्रम में आकर वह अनाम, बेघर, यायावर (घुमक्कड़) हो जाता है और संन्यासी बन जाता है।
ग) वर्ण आश्रम: (VarnaAshrama) हिन्दू जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति हिन्दू सामाजिक संगठन के संदर्भ में होती है। हिन्दू समाज के चार विभाजन हैं जो ‘‘वर्ण‘‘ कहलाते हैं: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । प्रत्येक हिन्दू किसी वर्ण विशेष में जन्म लेता है और मोक्ष के लिए इस जीवन में अपने वर्ण धर्म का पालन करता है। ऋग्वेद के अनुसार, ये चार वर्ण उस आदि पुरुष के अंगों से निकले हैं जो ब्रह्मांड या विश्व की रचना के लिए हुए दैवीय बलिदान की भेंट चढ़ा । ब्राह्मण की उत्पत्ति उसके मुख से हुई और उनका काम ज्ञान प्राप्त करना है। क्षत्रिय उसकी भुजा से पैदा हुए और उसका काम युद्ध और शासन करना है। वैश्य उस आदि पुरुष की जांघ से बने और उनका क्षेत्र व्यापार और वाणिज्य है। शूद्र की उत्पत्ति उसके चरणों से हुई और उनका काम अन्य तीन वर्गों की सेवा करना है। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि वैदिक स्तोत्रों में अछुतों का कोई उल्लेख नहीं है। (श्रीनिवास और शाह, 1972ः358) इस विशिष्ट व्यवसायों या कामों वाले वर्गों में अनगिनत जातियाँ हैं। इनमें सामाजिक स्थिति और शुद्ध-अशुद्धि, की स्थानीय अवधारणाएं भी मिलती हैं। पारंपरिक तौर पर प्रत्येक जाति जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपने जाति धर्म का निर्वाह करती है।
सभी हिन्दू इस व्यवस्था को मानते हैं और वे वर्णाश्रम की इस व्यवस्था में अपनी स्थिति निश्चित कर सकते हैं। वर्ण व्यवस्था के अधिकांश बुनियादी विचार और कर्म और धर्म की अवधारणाओं के साथ उनके संबंध हिन्दुओं के विश्व दृष्टिकोण में प्रत्येक स्थान पर पाये जाले हैं।
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