अबू हनीफा क्या है | मलिक इब्न अनस किसे कहते है | अहमद इब्न हंबल इब्ने तैमैया इतिहास जानकारी abu hanifa in hindi

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प्रमुख संप्रदाय, आंदोलन और पंथ (Major Schools of Thoughts, Movements- and Sects)
कोई भी धार्मिक विश्वास या रीतियाँ अकेले संचालित नहीं होतीं। उन्हें अपने आसपास की अन्य रीतियों आदि का सामना करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में वे दूसरे विश्वासों पर प्रभाव भी डालती हैं और स्वयं भी प्रभावित होती हैं। अब हम इस बात की चर्चा करेंगे कि इस्लाम ने इन सबका किस प्रकार सामना किया। वैसे तो मुसलमान के लिए कुरान ही पथ प्रदर्शक रही है, फिर भी दुनिया के अन्य हिस्सों में इस्लाम के फैलने के साथ उसकी संस्थाओं पर उन नई जगहों में व्याप्त स्थितियों का प्रभाव भी पड़ा। इस्लाम में आंदोलन का सिद्धांत है और मुस्लिम संस्थाओं में व मुस्लिम जीवन पद्धति में स्थान और समय दोनों के साथ से बदलाव आया है। आइए अब इस्लाम में इस ष्आंदोलन के सिद्धांतष् की प्रकृति व क्षेत्र (दृष्टिकोण) को समझें।

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पवित्र पुस्तक कुरान में कोई स्पष्ट और सटीक उत्तर न मिलने की स्थिति में, उस परम ईश्वर पैगम्बर साहब के निर्णयों-उनके विचारों, उनके कार्यों और रीतियों को ही निर्णायक माना गया, चाहे वे सकारात्मक हों या नकारात्मक । अरबों को विरासत में जो रूढ़िवादी संस्कार मिले उनसे ‘सुन्ना‘ के नियम बने, और उनसे हटने का कोई भी प्रयास ‘बिद्दत‘ कहलाया। बिद्दत को सफल होने के लिए उस समय के जबर्दस्त पूर्वाग्रहों से टकराना होता था । इस्लाम ने इस परंपरा को बदल डाला और उसका स्थान पैगम्बर मुहम्मद की परंपराओं ने ले लिया। मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद, चार संप्रदाय अस्तित्व में आये जिन्होंने न्याय की विवेचना करने और न्याय देने का बीड़ा उठाया । वास्तव में, न्यायिक राय के इस्तेमाल पर गंभीर प्रश्न उठाये गये और नवीं शताब्दी में ही इसके अधिकार क्षेत्र का सही निर्धारण हो पाया। अखसीद (।इइंेपके) के अधीन मुस्लिम कानून के स्रोतों पर विचार किया गया और इस काल में स्थापित चार संप्रदायों ने मुस्लिम। कानून के विकास में कानूनी कार्यवाही और समानता के अधिकार क्षेत्र को सुनिश्चित किया। यहाँ हम संक्षेप में इन चार संप्रदायों की चर्चा कर रहे हैं।

प्रमुख इस्लामी संप्रदाय और आन्दोलन (Major Schools in Islamic Thoughts and Movements)
प) अबू हनीफा (699-766ई.)
उन्होंने इस्लामी न्यायशास्त्र के एक संप्रदाय की स्थापना की और यह राय दी कि जहां कुरान और सुन्ना किसी मसले पर खामोश हों, वहाँ ‘कयास‘ (Qiyas) से काम लेना चाहिए। कयास का मतलब है किसी मिसाल या उदाहरण को सामने रख कर तर्क करना। इसके आधार पर लोगों का मार्गदर्शन किया जा सकता है।

पप) मलिक इब्न अनस (713-95 ई.)
इस्लामी कानून के इस संप्रदाय की स्थापना मलिक इब्न अनस ने की। इस संप्रदाय के अनुसार, कुरान, सुन्ना और उजमा (सभी धार्मिक ग्रंथ) को आधार मानकर नई स्थिति की विवेचना करनी चाहिए।

पपप) अश-शफी (767-820 ई.)
इस संप्रदाय की स्थापना इस इरादे से की गई थी कि पैगम्बर मुहम्मद की परंपराओं को ही मुख्य स्रोत मानकर विवेचना की जाए और ‘इस्तिहसाम‘ या ‘इस्तिसलाह‘ को न माना जाए। उन्होंने समझौते के सिद्धांत यानी श्इजमाश् का सहारा लिया ।

पअ) अहमद इब्न हंबल (780-855 ई.)
इस संप्रदाय ने इस्लामी कानून की विवेचना के संदर्भ में इजाम और कया की भूमिका को गौण कर दिया और कुरान और सुन्ना को इस्लामी कानून की बुनियाद मानने पर जोर दिया।

अ) इब्ने तैमैया (13वीं शताब्दी)
इन संप्रदायों के बाद, मुस्लिमों की बदलती स्थितियों में पैदा होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए कुछ आंदोलन शुरू हुए। 13वीं शताब्दी में ‘इब्ने तैमैया‘ ने इस्लामी विश्वास को नई दिशा देने के लिए नया आधार प्रदान किया। इसके लिए उन्होंने कुरान में दिये आदेशों और पैगम्बर मुहम्मद की परंपराओं का सहारा लिया।

 इस्लाम की दृष्टि में सामाजिक संस्थाएं (Social Institutions as Viewed by Islam)
धार्मिक संगठनों की विश्वास पद्धति का संचालन कुछ सामाजिक संगठनों के माध्यम से होता है। समाजशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते, इन संगठनों की प्रकृति के बारे में जानकारी हासिल करने में आपकी दिलचस्पी होती होगी। मुस्लिम सामाजिक संगठन के तीन मुख्य आधार हैंः
ऽ परिवार
ऽ विवाह, तलाक, और
ऽ उत्तराधिकार या विरासत ।

ई.एस.ओ.-12 की इकाई 16 में हमने भारत में मुस्लिम समाज में परिवार, विवाह की संस्थाओं और उत्तराधिकार के कानूनों के बारे में चर्चा की थी। यहाँ हम इस्लामी व्यवस्था में इन संस्थाओं की विस्तार से चर्चा करेंगे।

 परिवार
परिवार का अस्तित्व सभी समाजों में रहा है। यह बात और है कि अलग-अलग संस्कृतियों में इसका रूप अलग-अलग रहा है। इस्लाम में परिवार की संस्था का अध्ययन इस्लामी जीवन शैली और इस्लामी संस्कृति के संदर्भ में करना चाहिए। इस्लाम में परिवार को पूरा महत्व दिया गया है और इसकी रचना को बनाये रखने तथा इसे टूटने से बचाने के लिए कुछ नियम निर्धारित किये गये हैं। कुरान का एक तिहाई हिस्सा और पैगम्बर साहब की अनेक परंपराएं परिवार और परिवार के सही व सुचारू ढंग से कार्य करने के तथ्य से संबंधित हैं कि परिवार के हर सदस्य के लिए किस प्रकार समान अधिकार सुनिश्चित किए जा सकते हैं।

इस्लामी परिवार संयुक्त परिवार होता है जिसमें तीन से चार पीढ़ियों के सदस्य साथ-साथ रहते हैं। इसकी संरचना सामान्यतः तीन स्तरीय होती हैं। सबसे पहले स्तर में पति, पत्नी, उनके बच्चे, उनके मां-बाप और उनके नौकर-चाकर आते हैं। दूसरे स्तर में परिवार के ऐसे नजदीकी रिश्तेदार आते हैं, जिनमें आपस में विवाह नहीं हो सकता । यह आवश्यक नहीं कि वे साथ-साथ ही रहें। वे परस्पर एक-दूसरे पर अधिकार प्रकट कर सकते हैं। ये रिश्ते खूनी रिश्ते हो सकते हैं और विवाह के फलस्वरूप बनने वाले रिश्ते हो सकते हैं। खूनी रिश्तों में शामिल रिश्ते हैं,

ऽ माता, पिता, दादा, दादी और अन्य प्रत्यक्ष या सगे पूर्वज,
ऽ सगे वंशज यानी बेटे, बेटियां, पोते, पोतियां आदि,
ऽ दूसरे दरजे के रिश्ते (जैसे भाई, बहन, और उनके वंशज)
ऽ पिता या मां की बहन (उनकी बेटियों और अन्य वंशजों को छोड़कर) विवाह के फलस्वरूप बनने वाले रिश्तों में निम्नलिखित आते हैंः
ऽ सास, ससुर, ददिया सास, ददिया ससुर,
ऽ पत्नी की बेटी, पति के बेटे, और उनके पोते, पोतियां और पड़पोते-पड़पोतियां,
ऽ बेटे की पत्नी, बेटे के बेटे की पत्नी, बेटी का पति, सौतेली मां, सौतेला बाप,

अनेक धार्मिक आदेशों के अनुसार गुलामों और नौकरों-चाकरों को भी परिवार का अंग मानना चाहिए और उनके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए।

सहायक और सह-अस्तित्व के अपने तमाम कारकों सहित, परिवार संपूर्ण इस्लामी व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु है। परिवार के इन तीन स्तरों में जो रिश्ते नहीं आते वे परिवार का बाहरी स्तर होते हैं। इन्हें उत्तराधिकारियों की दूसरी या तीसरी पंक्ति में रखा जाता है, इसलिए इनके भी अपने अधिकार और कर्तव्य होते हैं।

परिवार के उद्देश्य और कार्य
परिवार का मुख्य उद्देश्य है मानव समाज और सभ्यता का संरक्षण करना । पूरा सामाजिक सांस्कृतिक ढांचा इसी पर आधारित है। यह एक ऐसे तंत्र की तरह है जो पूरे समाज में सामाजिक, वैचारिक और सांस्कृतिक स्थिरता को सुनिश्चित करने के लिए स्वयं को कायम रखता है। कुरान और शरीअत में परिवार के जो मुख्य उद्देश्य और कार्य बताये गये हैं, वे इस प्रकार हैंः

प) नव जाति का संरक्षण करना और उसे बनाये रखना (Preservation and Continuation of Human Race)
संरक्षण और प्रजनन का तंत्र मानव जाति और संस्कृति का अस्तित्व बनाये रखने और उसकी निरंतर क्रियात्मकता पर आधारित है। इस उद्देश्य के लिए प्रकृति ने विपरीत लिंगों के बीच मनोवैज्ञानिक और शारीरिक भेद बनाकर रखा है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। प्रजनन की यह प्रक्रिया और इसे प्रभावित करने वाले तमाम तथ्य केवल तभी कार्य कर सकते हैं जब समूची प्रक्रिया का ढांचा स्थिर हो। पुरुष, स्त्री और बच्चा, सभी को समाज में रहते हुए अपनी-अपनी एक निश्चित भूमिका निभानी पड़ती है और इसके लिए उन्हें एक स्थिर और स्थाई संस्था की आवश्यकता होती है तभी वे अपनी भूमिकाएं सही ढंग से निभा सकते हैं। परिवार को ऐसी मुख्य संस्था समझा जाता है जो इस पूरी प्रक्रिया को संभाल सकता है। कुरान में लिखा हैः

‘‘ऐ लोगो अपने परवरदिगार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करो, जिसने तुम सबको एक ही जान से पैदा किया और उसी से उसका साथी भी पैदा किया और उन दोनों से तमाम मानव जाति का प्रसार हुआ।‘‘ (कुरान शरीफ-आयत 4ः1)

‘‘तुम्हारी बीवियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं, अपनी खेती में जिस तरह चाहो जाओ, और अपने लिए आइदः का भी बंदोबस्त करो और अल्लाह से डरो और जाने रहो कि उसके सामने हाजिर होना है‘‘ (कुरान शरीफ-आयत 2ः223)।

यहाँ ‘‘आइद: का भी बंदोबस्त करो‘‘ का अर्थ है इस संबंध से पैदा होने वाले बच्चे, उनकी शिक्षा, दीक्षा, उनका पालन-पोषण, उनकी नैतिक शिक्षा और उनका समाजीकरण।

पप) नैतिकता की रक्षा (Protection of Morals)
इस्लाम में विवाह के बाद किसी भी अन्य प्रकार के यौन संबंध की मनाही है, लेकिन विवाह एक ऐसा विकल्प है जिसके जरिये स्त्री-पुरुष स्वाभाविक और प्रजननक्षम यौन इच्छा को पूरा कर सकते हैंः

पपप) मनोभावनात्मक स्थिरता-प्रेम और सहृदयता (Psycho-Emotional Stability
Love and Kindness
)
मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक मैत्रीभाव/साहचर्य बनाये रखना, परिवार का एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य है। पति-पत्नी का संबंध स्वार्थपरक न होकर आध्यात्मिक होता है। विवाह और परिवार की इस भूमिका को कुरान में भिन्न-भिन्न तरीकों से जोर देकर बताया गया है। एक जगह पर पति-पत्नी के संबंध को शरीर और पोशाक के संबंध का रूप बताया गया हैः ‘‘वे तुम्हारी पोशाक के समान है और तुम उनकी पोशाक के समान हो‘‘ (कुरान शरीफ-वही 2ः187)

यह पति-पत्नी की निकटता को व्यक्त करता है। जैसे कि पोशाक शरीर की रक्षा करती है, उसी तरह पति भी पत्नी की रक्षा करता है और वे एक-दूसरे के रक्षक हो जाते हैं।

पअ) समाजीकरण और मूल्योन्मुखता (Socialisation and Value Orientation)
‘‘परिवार को समाजीकरण का मूल अवयव माना जाता है। पैगम्बर मुहम्मद ने ‘‘हदीस‘‘ में जगह-जगह पर इस तथ्य की ओर इशारा किया है। जब वे कहते हैं कि पिता अपने बच्चों को जो कुछ भी दे सकता है उनमें सर्वोत्तम है उनकी अच्छी शिक्षा, दीक्षा।

वैसे तो अपने बच्चों और छोटे भाई बहनों की देखभाल करना व्यक्ति की पहली जिम्मेदारी है, लेकिन परिवार में दूर और नजदीक के अनेक रिश्तेदार आ जाते हैं। कुरान और शरीअत में जगह-जगह पर मां-बाप और गरीब व कमजोर रिश्तेदारों की देखभाल पर जोर दिया, गया है।

अ) सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा (Social and Economic Security)
परिवार संस्था परिवार के सदस्यों के सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा करती है, जो कि इस्लामी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पैगम्बर मुहम्मद ने कहा है कि-‘‘जब अल्लाह तुम्हें समृद्धि दे तो, पहले अपने ऊपर और अपने परिवार के ऊपर खर्च करो।‘‘

पति को कानूनन यह निर्देश होता है कि वह अपने परिवार की देखभाल करे, चाहे संपति की मालिक पत्नी ही क्यों न हो। इस बात पर भी जगह-जगह जोर दिया गया है कि खून के रिश्तेदारों की मदद करनी चाहिए। अगर कोई सामाजिक अंशदान और ‘‘जकात‘‘ देता है तो उस पर पहला हक गरीब रिश्तेदारों का होगा।