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सीरियाई ईसाइयों में विवाह संस्कार क्या है कैसे होते है (Marriage Rites Among Syrian Christians)

(Marriage Rites Among Syrian Christians in hindi) सीरियाई ईसाइयों में विवाह संस्कार क्या है कैसे होते है वर्णन कीजिये विस्तार से बताइये ?

सीरियाई ईसाइयों में विवाह संस्कार (Marriage Rites Among Syrian Christians)

पहले बाल विवाह का केरल में बहुत बोलबाला था। वैसे शारीरिक संपर्क परिपक्व या वयस्क होने पर ही किया जाता था। आजकल विवाह-वयस्क होने पर ही किए जाते हैं। यह भी वांछनीय होता है कि वर कामकाजी हो और वधू कम से कम बीस वर्ष की हो। विवाह की बातचीत के लिए पहल की जिम्मेदारी आमतौर पर वधू के परिवार की होती है। वधू पक्ष के हिसाब से उपयुक्त चुनाव हो जाने के बाद लड़के के परिवार का कोई प्रतिनिधि विवाह तय करने के लिए भेजा जाता है। पहले वर वधू पहली बार गिरजाघर में अपने विवाह के अवसर पर ही मिलते थे। आजकल, विवाह से पूर्व प्रणय की अनुमति तो नहीं है, लेकिन लड़का और लड़की एक-दूसरे की फोटो ले सकते हैं और बड़ों की निगरानी में मिल सकते हैं और थोड़ी देर के लिए बात भी कर सकते हैं। निगरानी का काम आमतौर पर लड़की की माँ या कोई विवाहित बहन करती है। सीरियाई ईसाइयों में मंगनी या सगाई की रस्म गिरजाघर में पादरी द्वारा विवाह की ‘‘पुकार‘‘ या औपचारिक घोषणा करने के बाद होती हैं। यह रस्म यीशु या यूखरिस्त (म्नबींतपेज) के अंतिम भोज की स्मृति में मनाए जाने वाले यूखरिस्त अनुष्ठान के तुरंत बाद होती है। सामान्यता, विवाह के पूर्व होने वाले सभी अनुष्ठान विच्छेद के पूर्वसांक्रांतिक संस्कार होते हैं। पुकार लड़के और लड़की दोनों के गिरजाघरों में पड़ती है। पुकार इसलिए डाली जाती है ताकि अपर किसी को इस विवाह को लेकर कोई आपत्ति हो, तो वह अपना पक्ष प्रस्तुत कर सकता है।

कार्यकलाप 2
किसी हिन्दू, सीरियाई ईसाई या सिक्ख के विवाह में शामिल हों। वहाँ आप जो कुछ देखते हैं, उसका मिलान इस इकाई में दिए गए विवरण से कीजिए। संभव हो तो अपने अध्ययन केन्द्र के अन्य विद्यार्थियों के साथ उनकी समानताओं और असमानताओं पर चर्चा कीजिए।

सगाई की दावत लड़की के घर में होती है। इसमें शुरू में मिठाई बाँटी जाती है और फिर भोज होता है। इसी समय दहेज भी दिया जाता है। इसे पिता की ओर से पुत्री को उपहार माना जाता था और दहेज का मूल्य लगभग उस रकम के बराबर होता था, जो छोटे बेटों को पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति आदि के रूप में मिलनी होती थीं।

विवाह संस्कार दो चरणों में पूरा होता है। पहला चरणा होता है सगाई और दूसरा चरण विवाह का विधिवत संपन्न होना। ये दोनों ही सांक्रांतिकता के पक्ष हैं। ये एक प्रस्थिति (अविवाहित) से दूसरी प्रस्थिति (विवाहित) में संक्रमण के क्षण से पहले आते हैं। जब दूल्हादुल्हन गिरजाघर में पहुँचते हैं, तो सोने की दो जंजीरें और कपड़ा उसके बूंघट का काम करते हैं । ‘‘मिन्नू‘‘ (उपददने) या ‘‘ताली‘‘ (जंसप) को वेदी के सामने एक मेज पर रखा जाता है। दूल्हा-दुल्हन इस मेज के आगे खड़े होते हैं। दूल्हा दाहिनी ओर खड़ा होता है और दुल्हन बांई ओर। पश्चिमी सभ्यता के अनुसार, दुल्हन हमेशा दूल्हे के बांई ओर खड़ी होती है। प्रार्थना सभा का प्रांरभ दोनों अंगुलियों पर आशीर्वाद देकर प्रार्थना करने के साथ होता है। पादरी दूल्हा-दुल्हन को उनकी अनामिका (सबसे छोटी अंगुलि के पास वाली अंगुली) में अंगूठी पहनाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस अंगुलि में एक नस होती है जिसका संबंध हृदय से होता है। यहाँ भी सीरियाई ईसाई पश्चिमी पंथ से भिन्न रहते हैं जिनमें अंगूठी पुरोहित नहीं पहनाता। पश्चिमी पंथ के ईसाइयों में दूल्हा-दुल्हन ही एक-दूसरे को अंगूठी पहनाते हैं।

उसके बाद मुकुटों पर आशीष की रस्म होती है। इसके लिए सलीब वाली जंजीरों का उपयोग किया जाता है। सोने की जंजीरों को आशीषित करने के बाद पादरी दूल्हे की जंजीर को उस पर से तीन बार मुकुट की शक्ल में उठाता है। फिर वह उसे दूल्हे के गाल पर रखता है। दुल्हन की जंजीर से भी वह ऐसा ही करता है। ये जंजीरें आमतौर पर परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चली जाती हैं और इनका इस्तेमाल ऐसे ही अवसरों पर होता है।

फिर पादरी विवाह की वास्तविक या मूल रस्म अदा करता है। वह ष्तालीष् को दुल्हन के गले में डालता है और दूल्हा ‘‘मिन्नू‘‘ के धागे में गाँठ लगाता है। उसके बाद पादरी एक कपड़ा जो दुल्हन के लिए दूल्हे का उपहार होता है, उसे दुल्हन के सिर पर रखता है और उसके साथ ही विवाह की रस्म समाप्त होती है।

मिन्नू या ताली बाँधने की रस्म को नबूंदरी ब्राह्मणों से लिया गया है। पहले “वेल‘‘ या यूँघट को स्त्री की मृत्यु के बाद उसे लपेटने के लिए प्रयोग किया जाता है।

गिरजाघर में विवाह की रस्म पूरी हो जाने के बाद दूल्हा-दुल्हन बाजे-गाजे के साथ दुल्हन के घर आते हैं, जहाँ पंडाल या शामियाना लगा होता है। विवाह की रस्म पूरी होने के बाद होने वाले संस्कार और बारातियों आदि का दुल्हन के घर आना समावेशन या उत्तरसांक्रांतिक संस्कार होते हैं। द्वार पर युवतियाँ दीप लेकर उनका स्वागत करती हैं। दूल्हें का साथी उन्हें लेकर अन्दर जाता है। विवाह में शरीक लोग “चलो, चलो‘‘ चिल्लाते हुए सीटियाँ बजाते हैं । दुल्हन को दहलीज पर से पहले अपना दाहिना पाँव रखना होता है। यह आदर का सूचक भी होता है और शगुन की दृष्टि से भी शुभ होता है। दुल्हादुल्हन चावल और फूलों से सजे एक मंच पर बैठते हैं। मेहमानों पर गुलाब जल छिड़का जाता है। विवाह के गीत गाए जाते हैं और भोज शुरू होता है। मेहमानों के जाने से पहले पान, तंबाकू और सुपारी दी जाती है। इस तरह सीरियाई ईसाइयों में विवाह के अनेक संस्कार होते हैं। उनके लिए विवाह में गिरजाघर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और सारे विवाह वहीं संपन्न होते हैं। पश्चिमी ईसाई समाज के विवाहों की तरह उनमें भी अंगूठियों का आदान-प्रदान होता है। वैसे दूल्हा और दुल्हन को पादरी अंगूठी देता है। वे एक दूसरे को अंगूठी नहीं देते। सीरियाई ईसाइयों के इन संस्कारों में सामाजिक नियंत्रण और अस्मिता, व्यवसाय और जीवन शैली के दर्शन होते हैं। हम यह और कहेंगे कि ये संस्कार समाजों में, उनके मूल्यों और मान्यताओं में, अर्थात उनकी ‘‘भावनाओं‘‘ में नए प्राण फूंकने का काम करते हैं।

सिक्खों में विवाह संस्कार (Marriage Rites Among Sikhs)
अन्य धार्मिक समूहों की तरह सिक्खों में भी लड़के/लड़कियों के ज्यादा मेलजोल पर प्रतिबंध है। ज्यादातर सिक्ख संयुक्त परिवारों में रहते हैं। इसलिए सिक्खों में विवाह व्यक्तिगत मामला न होकर दो परिवार समूहों को एक अटुट बंधन में बांधने वाला कारक है। नए परिवार में जाने वाली लड़की को स्वयं को तालमेल रखने वाला सिद्ध करना होता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह अपने पति के साथ ही नहीं बल्कि पति के भाई-बहनों, भाभियों और माता-पिता आदि के साथ भी तालमेल बना कर चलेगी। यहाँ सामाजिक प्रस्थिति और रुपए-पैसों का लेन-देन गौण रहता है। सिक्खों में बाल-विवाह की अनमति है। हमारे देश में सिक्खों में विवाह की मान्य उम्र लड़कियों के लिए अठारह वर्ष और लड़कों के लिए इक्कीस वर्ष है।

विवाह के संदर्भ में, सिक्खों में कुछ मान्यताएँ और नियम हैं। सामान्यतया घर की सबसे बड़ी लड़की का विवाह उसकी छोटी बहन या बहनों के विवाह से पहले होता है। अगर कोई विवाह योग्य लड़का या लड़की ऊंची पढ़ाई में लगा है, तो उसका विवाह उसकी पढ़ाई पूरी हो जाने पर ही किया जाता है। इसके अलावा, अगर परिवार के मुखिया की मृत्यु हो जाती है तो बड़े लड़के का विवाह तब तक नहीं किया जाता जब तक उसके छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई पूरी न हो जाए। परिवार के लोग और मित्र मिलकर वर या वधू ढूंढने का काम करते हैं (कोल और सांभी: 1978)। उनमें सद्गुणों, स्वभाव और उम्र को देखा जाता है। इसके अलावा सामाजिक प्रस्थिति या हैसियत और आर्थिक प्रस्थिति भी देखी जाती है। अंत में, जाति का भी ध्यान रखा जाता है। इस तरह जाट का विवाह जाट से और रामगढ़िया का विवाह रामगढ़िया से ही होता है। वैसे इसके अपवाद भी मिल जाते हैं। सिक्ख को सिक्ख से ही विवाह करना होता है। गृहस्थ स्थिति में गुरु की शिक्षाओं का सही ढंग से पालन होता है। मिश्रित विवाह आमतौर पर सफल नहीं होते और शहरी-देहाती अमीर-गरीब और नैतिक-अनैतिक को लेकर टकराव और तनाव की स्थिति बनती है। सिक्ख अपने परिवार के निकट के संबंधियों में या उनमें विवाह नहीं कर सकते ‘‘जिनका नाम चार पुरानी पीढ़ियों में एक सा होता है‘‘ (कोल और साभी, वहीं)। विवाह की बात पक्की होने से पहले लड़का और लड़की अनौपचारिक तौर पर मिलते हैं। उनका मिलन परिवार के सयानों के सामने होता है। इससे उन दोनों को एक दूसरे को समझने और वैवाहिक जीवन की संभावनाओं का आकलन करने में मदद मिलती है।

विवाह से पहले सगाई की रस्म अदा की जा सकती है लेकिन यह अनिवार्य नहीं होती। विवाह सामाजिक और धार्मिक अवसर होता है। विवाह का दिन कोई भी हो सकता है। सिक्ख शुभ और अशुभ दिन में विश्वास नहीं करते। वैसे कुछ व्यावहारिक बातों को ध्यान में रखा जाता है। उदाहरण के लिए, मानसून के महीनों में विवाह तय नहीं किया जाता क्योंकि बारिश के कारण विवाह का प्रबंध करने में बाधा आ सकती है। विवाह वधू के गाँव में संपन्न किया जाता है। विवाह किसी घर की चैरस छत पर या किसी बाग में या गुरुद्वारा में किया जाता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की वहाँ मौजूदगी महत्वपूर्ण मानी जाती है। अब हम पूर्वसांक्रांतिक, सांक्रांतिक और उत्तरसांक्रातिक संस्कारों की चर्चा करेंगे। अब तक आप उनसे परिचित हो चुके होंगे। इस इकाई में उन्हें पहचानने की कोशिश कीजिए।

बारात आमतौर से शाम को जल्दी पहुंच जाती है और दोनों परिवारों की औपचारिक भेंट होती है । ‘जब आसा दी वार‘ शब्दों का गायन होता है, तो दूल्हा आदि ग्रंथ के आगे अपना स्थान ग्रहण कर लेता है। दुल्हन एक सहेली के साथ दूल्हे के बांई ओर बैठ जाती है। एक छोटा-सा भजन गाया जाता है जो आमतौर पर शिक्षा होती है। फिर एक धर्माधिकारी यह समझाता है कि सिक्ख विवाह दो आत्माओं का मिलन होता है, न कि यह सामाजिक अनुबंध है। यह मनुष्य और परमात्मा के मिलन की तरह होता है। सिक्ख धर्म का उद्देश्य भी यही है। भजन के माध्यम से सीख दी जाती है कि पत्नी को वफादार, विनम्र और पति की आज्ञा मानने वाली होना चाहिए।

वर और वधू श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आगे सिर झुकाकर विवाह के प्रति सहमति प्रकट करते हैं। वे बैठ जाते हैं तब वधू का पिता श्री गुरु ग्रंथ साहिब को माला चढ़ाता है। फिर वधू के दुपट्टे को वर के कंधे से लटकने वाले रेशमी गमछे से बाँध दिया जाता है। फिर वर वधू श्री गुरु ग्रंथ साहिब के फेरे लगाते हैं। वर आगे रहता है और वधू पीछे। इसके साथ गुरु रामदास का छंद गाया जाता है।

इसके बाद वे वापस पूर्वनिर्धारित अपने स्थान पर बैठ जाते हैं और तब दूसरा छंद पढ़ा जाता है। एक बार फिर फेरे होते हैं। इस तरह चार बार फेरे लगाए जाते हैं । चैथा फेरा पूरा होते ही फूलों की पंखुड़ियाँ बरसाई जाती हैं। अंत में “आनन्द साहिब‘‘ के पहले पाँच और अंतिम श्लोकों को पढ़ा जाता है। उसके बाद अरदास (प्रार्थना) होती है। फिर गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ शुरू किया जाता है और वाणी के रूप में उनकी सीख ग्रहण की जाती है। मौजूद लोगों को कड़ाह प्रसाद बाँटा जाता है। दोपहर बाद बारात वर के गाँव जाती है। यह पूरी क्रिया संस्कार का सांक्रांतिक पक्ष होता है । बारात के वर के गाँवध्कस्ब/शहरध्निवास स्थान को जाने के साथ समावेशन या उत्तरसांक्रांतिक अवधि शुरू होती है।

यहाँ संस्कार की प्रतीकात्मकता के विषय में कुछ कहना उपयोगी होगा। पहला फेरा गृहस्थ के कर्तव्यों के पालन के लिए होता है। दूसरा फेरा परमात्मा में आस्था के लिए होता है। तीसरा फेरा संसार में विरस्त रहकर परमात्मा से लौ लगाए रखने के लिए होता है । चैथा फेरा और छंद आत्मा के परमात्मा में विलीन हो जाने के लिए होता है। इस तरह सिक्ख धर्म प्रतीकात्मक होता है लेकिन उसमें संस्कार की सरलता और खूबसूरती को बनाए रखा जाता है। सिक्ख विवाह की प्रतीकात्मकता का संबंध सीधे-सीधे श्री गुरु ग्रंथ साहब से होता है। यह उत्सव उस अर्थ में अत्यंत सुंदर और सरल होता है कि इसमें पवित्र ग्रंथ के चार फेरे होते हैं । इन चारों फेरों का एक विशेष महत्व होता है, जो पवित्र ग्रंथ से ही लिया होता है। यहाँ तक की विवाह की सहमति भी वर और वधू दोनों श्री गुरु ग्रंथ साहिब को देते हैं, किसी व्यक्ति को नहीं । समाजीकरण, अमौखिक संवाद, आध्यात्मिक प्रगति, व्यवसाय और उत्कृष्टता की रचना अर्थात ये सभी सिक्खो के इन विवाह संस्कारों में होते है।