सामाजिक परिणामों का वर्णन | गतिशीलता के सामाजिक परिणाम क्या है Social consequences of social mobility in hindi
Social consequences of social mobility in hindi सामाजिक परिणामों का वर्णन | गतिशीलता के सामाजिक परिणाम क्या है ?
गतिशीलता के सामाजिक परिणाम
अब हम बूर्जुआवादी शोध ग्रंथ के साथ आरंभ हुए गतिशीलता के कुछ सामाजिक परिणामों की ओर ध्यान देंगे।
सामाजिक गतिशीलता तथा वर्ग-निर्भरता की दर
सामाजिक गतिशीलता की दर किसी समाज में एक स्तर से दूसरे स्तर में संचलन की मात्रा होती है। औद्योगिक अर्थव्यवस्था वाले समकालीन समाज में पहले वाले समाजों की अपेक्षा । गतिशीलता दर पर्याप्त रूप से अधिक होती है। इसका कारण यह है कि सामाजिक गतिशीलता की ऊँची दर योग्यता, पात्रता, बुद्धिमत्ता, महत्वाकांक्षा तथा कठोर परिश्रम पर आधारित उपलब्धि का मानदंड है जो समाज में व्यक्ति की स्थिति निर्धारित करती है। वर्ग निर्भरता समाज में किसी वर्ग की सम्बद्धता की डिग्री होती है। इसलिए सामाजिक गतिशीलता के परिणाम वर्ग सम्बद्धता के लिए महत्वपूर्ण होते है।
अनेक समाजशास्त्रियों के अनुसार सामाजिक गतिशीलता की दर परोक्ष रूप से सामाजिक निर्भरता के आनुपातिक होती है। कहा जा सकता है कि यदि सामाजिक गतिशीलता की दर कम होती है तो वर्ग-निर्भरता और सम्बद्धता अधिक होगी और यदि सामाजिक गतिशीलता की दर अधिक होगी तो वर्ग-निर्भरता और सम्बद्धता कम होगी। एंटोनी गिड्डन्स के अनुसार, यदि सामाजिक गतिशीलता की दर कम होगी तो अधिकांश व्यक्ति अपने मूल वर्ग में ही रहेंगे। इससे सामान्य जीवन के अनुभव पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते जाएंगे, विशिष्ट वर्ग की उपसंस्कृतियाँ बनेंगी तथा वर्ग की ठोस पहचान विकसित झेंगी। इसके विपरीत, सामाजिक गतिशीलता की उच्च दर एक ही पीढ़ी में विभिन्न जीवन शैली का अनुभव कराएगी, वर्ग की विशिष्ट उप-संस्कृतियों का विघटन होगा तथा अगले उच्च वर्ग के साथ पहचान बनाने की महत्वाकांक्षा होगी। इस प्रकार, वर्ग निर्भरता समाप्ति की शुरुआत हो जाती है।
मार्क्स का भी विश्वास था कि सामाजिक गतिशीलता की उच्च दर से वर्ग निर्भरता की प्रवृत्ति कमजोर होती है। वर्गों की स्थिति विषम होती जाती है क्योंकि उनके सदस्य एक जैसी पृष्ठभूमि में रहना छोड़ देते हैं। वर्ग की विशिष्ट उप-संस्कृतियाँ पृथक-पृथक हो जाती हैं क्योंकि नियम, प्रवृत्तियाँ, तथा मूल्य किसी वर्ग-विशेष के लिए न केवल पीढ़ियों में अपितु एक ही पीढ़ी में परिवर्तित हो जाते हैं। इस प्रकार, मार्क्स के लिए वर्ग की जागरुकता और वर्ग विभाजन की प्रबलता की संभावना काफी हद तक कम होगी। जबकि राल्फ डैहरेंडरफ के अनुसार समकालीन औद्योगिक समाजों में उच्च सामाजिक गतिशीलता की दर के कारण वर्ग-विभाजन का रूप बदल गया। चूंकि आजकल समाजों ने उपलब्धियों के मानदंडों की प्रमुखताएँ बना दी हैं, और खुलापन आ गया है इसलिए व्यावसायिक पारिश्रमिक संरचना में एक ही वर्ग के व्यक्तियों में प्रतिस्पर्धाओं में वृद्धि हो गई। इस प्रकार, वर्ग-निर्भरता में तथा वर्ग-विभाजन की प्रबलता में कमी आ गई।
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गोल्डथोर्प और सी.लेवेलीन ने ‘ऑक्सफोर्ड गतिशीलता अध्ययन‘ के आधार पर श्रमिक वर्ग में वर्ग-निर्माण के लिए सामाजिक गतिशीलता का आशावादी पक्ष दर्शाया है। उनके निष्कर्षों के अनुसार, चूँकि समकालीन समाजों में ऊपर की तरफ गतिशीलता नीचे की तरफ गतिशीलता से अधिक होती है, इसलिए वास्तव में बहुत कम लोग हाथ से काम करने वाले श्रमिकों के स्तर में नीचे की तरफ जाते हैं। इससे एक जैसे श्रमिक वर्ग का निर्माण होने लगता है क्योंकि प्रायः उनके उद्गम तथा अनुभव एक जैसे होते हैं जो एक-समान हितों को पूरा करने के लिए सामूहिक नीतियाँ बनाने के लिए आधार प्रदान करते हैं। इस प्रकार, हाथ से काम करने वाले श्रमिकों के बीच वर्ग-निर्भरता तथा एक जैसे वर्ग निर्माण की अधिक संभावना है।
उसी समय गोल्फथोर्प तथा लेवेलीन ने मध्य वर्ग में वर्ग-निर्भरता को नहीं माना। सदस्यों की विषम पृष्ठभूमि के कारण उनमें सम्बद्धता की कमी अर्थात् कर्म वर्गवादिता होती है और मध्य वर्ग का एकल सामाजिक वर्ग के रूप का खंडन होता है जो पिछले भाग में वर्णित केनिथ रॉबर्ट के ‘विघटित‘ मध्य वर्ग के समान है।
सामाजिक व्यवस्था का रूप
जब से दुर्खाइम ने ‘एनोमी‘ (सामान्य सामाजिक स्तरों की कमी) संकल्पना के बारे में लिखा है जिसका अर्थ है समाज में ऐसे भी लोग होते हैं जो अपने असीमित लक्ष्य और, महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं कर पाते हैं, अनेक लेखकों ने सामाजिक व्यवस्था पर सामाजिक गतिशीलता के प्रभावों के बारे में लिखा है। दुर्खाइम ने अपनी श्रेष्ठ पुस्तक ‘सुसाइड‘ में बताया है कि सामाजिक गतिशीलता का समाज और व्यक्ति दोनों पर उलटा प्रभाव भी हो सकता है। उसके अनुसार पहले के समाज अपने स्तरीकरण व्यवस्था पर कठोर नियंत्रण रखते थे जिससे किसी विशेष समाज में रहने वाले व्यक्ति को अपनी महत्वाकांक्षाओं की वैधानिक सीमाओं का पता होता था। लेकिन जब से इन स्तरीकरण नियंत्रणों में कमी आई है और शक्ति तथा धन की आकस्मित वृद्धि एवं अर्थव्यवस्था के संकटों से समाज की नैतिक व्यवस्था के लिए काफी गंभीर स्थितियाँ पैदा हो गई हैं। न केवल परिवर्तनकालीन समय में जैसे आर्थिक पतन के (क्योंकि कोई श्रेणीकरण नहीं होगा) कारण अपितु समृद्धि या शक्ति की शीघ्र वृद्धि के कारण (क्योंकि महत्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं होती) व्यवस्था के सामाजिक एकता पर विघटनकारी प्रभाव पड़ता है। जिससे वैयक्तिक एकता के नष्ट होने के कारण व्यक्तियों में आत्महत्याएँ होती हैं। इससे समाज में अव्यवस्थावादी प्रवृत्तियों का पता चलता है।
इसी धारा में लिपसेट और बैंडिक्स तथा डोरमनी ने इस बात पर बल दिया है कि विभिन्न सामाजिक संरचनाओं पर सामाजिक गतिशीलता के भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं। सामाजिक गतिशीलता का पारंपरिक समाजों में अधिक विघटनकारी प्रभाव होता है। पारंपरिक समाज में स्तरीकरण की आरोपित व्यवस्था होती है जिसकी कठोर रूढ़िवादिता होती है और इस प्रकार ये समाज गतिशीलता के लिए तैयार नहीं होते। यह इस धारणा पर आधारित है कि पारंपरिक समाज में उत्पन्न वर्गों के दबाव काफी शक्तिशाली और बंधनकारी होते हैं। यदि ये गतिशीलता के कारण टूट जाएँ तो व्यक्ति अकेला पड़ जाता है और अपनी सामाजिक स्थिति तथा पहचान के लिए चिंतित रहता है। जबकि औद्योगिक समाज की स्तरीकण व्यवस्था में खुलापन होता है। इस व्यवस्था को जारी रखने में सामाजिक गतिशीलता एक सामान्य प्रक्रिया है।
यहाँ तक कि पी.ए. सोरोकिन ने भी ‘सामाजिक और सांस्कृतिक गतिशीलता‘ (1927) की बात की है तथा सामाजिक गतिशीलता के विघटनकारी परिणामों के बारे में लिखा है। उसका विश्वास है कि सामाजिक गतिशीलता, सामाजिक व्यवस्था की अस्थिरता सांस्कृतिक अनिश्चितता तथा पारस्परिक निर्भरता की कमी को बढ़ाती है! इससे श्रेष्ठता की भी समाप्ति होती है जिससे राष्ट्रों को नुकसान होता है। इससे लघुता, व्यक्तित्व में छिछोरापन, संदेहवाद, कटुता और घृणा को बढ़ावा मिलता है। सोरोकिन के अनुसार, सामाजिक गतिशीलता अपनत्व तथा संवेदना में कमी, मानसिक तनाव तथा रोगों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एकाकीपन, एकांत, बेचैनी में वृद्धि, क्षणिक ऐंद्रिय सुखों की तरफ ले जाती है जिससे आगे चलकर समाज में नैतिक पतन होता है। सोरोकिन ने सामाजिक गतिशीलता के विपरीत प्रभावों को संतुलित करने के लिए समाज तथा व्यक्ति के लिए भी इसके सकारात्मक प्रभावों को भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस संदर्भ में वह व्यक्तियों के ऐसे श्रेष्ठ और पर्याप्त वितरण की बात करता है जिसमें श्रेष्ठ व्यक्ति सबसे ऊपर हो जो संकुचित दृष्टिकोण तथा खतरनाक व्यावसायिक विशेष व्यवहारों को कम करे। इससे आर्थिक समृद्धि और शीघ्र सामाजिक विकास में सहायता मिलेगी। इससे सामाजिक व्यवस्था के लिए सामाजिक गतिशीलता के सकारात्मक परिणामों में वृद्धि होगी।
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एक पत्र में मेल्बिन एम.प्यूमिन ने भी ‘विस्तृत समाज में सामाजिक गतिशीलता के कुछ नकारात्मक परिणामों‘ के बारे में वर्णन किया है (1957) उन्होंने अपने प्रसिद्ध संदर्भ के रूप में एक समकालीन व्यापक समाज को लिया है। उसने देखा कि जीवन के हर क्षेत्र में ‘उपभोग‘ की प्रवृत्ति प्रेरक शक्ति के रूप में काम करती है। चाहे धन, आमदनी, सामाजिक स्तर, कला और सौंदर्यशास्त्र हो, संस्कृति हो या शासनव्यवस्था या फिर परिवार, धर्म और शिक्षा जैसी मौलिक परंपराएँ – यहाँ तक कि सामाजिक विवेचन भी सभी को व्यापारिक तराजू पर तौला जाता है।
इसका अर्थ है कि कार्य का क्षेत्र, कार्य की पारंपरिक विशिष्टता सभी के अर्थ समाप्त हो । गए हैं तथा शक्ति एवं सम्पत्ति उपभोग के माध्यम से सफल होने का मार्ग खुल गया है जो सामाजिक गतिशीलता का सबसे महत्वपूर्ण मानदंड बन गया है। इससे कार्य निंदनीय होने लगा और कुछ अच्छी आमदनी वाले कार्यों को छोड़कर सभी का सम्मान कम हो गया। कार्य के इस नकारात्मक रूप के सामाजिक अखंडता के लिए नकारात्मक परिणाम हुए।
फिर तीव्र सामाजिक गतिशीलता के कारण परिवार संबंधी समूह, धर्म, राजनीतिक एवं शैक्षणिक संस्थाएँ आदि असंतुलित हो गई। इन्हें आमदनी और आर्थिक उत्पादन के मानदंडों से मापा जाने लगा। इससे इन संस्थाओं की बदली परिभाषाओं तथा मानदंडों पर प्रभाव प्रभाव पड़ा तथा अब इनका आधार केवल उपयोगिता मूल्य हो गया। इस प्रकार, इनके पारंपरिक रूप से लिए जाने कार्यों का खतरा हो गया। इसके अतिरिक्त, सामाजिक गतिशीलता के अनुचित प्रभाव से न केवल विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ समाप्त हो रही थीं अपितु पुरानी पीढ़ी के संदर्भ में मानवीय पक्ष जो विगत समय की परंपराओं और परिपाटियों में ओत-प्रोत था, आबादी के नत गतिशील भावों के द्वारा घोर निंदनीय समझा जाने लगा। इसकी पुष्टि न केवल तथाकथित पश्चिमी समाजों में अपितु पूर्व के अनेक सहिष्णु समाजों में भी तेजी से खुल रहे ओल्ड डेज होम्स (वृद्ध आश्रमों) से होती है। कोई भी समाज यदि अंधाधुंध अपने भूतकाल में लौटता है या आधुनिकता का अविवेकपूर्ण खंडन करता है तो हानि उठाएगा। इसलिए एक समाज को तीव्र सामाजिक गतिशीलता के दुष्प्रभावों से दूर करने के लिए पारंपरिक और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाना होगा।
इसके अतिरिक्त, मेलबिन प्यूमिन गतिशील आबादी के महत्वपूर्ण वर्गों में कृतज्ञता के प्रति सम्मान की घटती सामाजिक आलोचना की भी निंदा करता है। यहाँ तक कि ऐसे विद्वानों जिनसे सामाजिक व्यवस्था की रचनात्मक विवेचन की आशा की जाती है तथा एक खुले समाज को बनाने के लिए सक्रिय एवं गंभीर संवाद स्थापित करना जिनका दायित्व है उनपर भी सामाजिक गतिशीलता का निंदनीय प्रभाव पड़ा। उनके विचार अब राज्य के प्रसिद्ध । उपायों के लिए विक्रय की वस्तु बन गए। वे अपना मूल्य अपने विचारों के विक्रय से प्राप्त करते हैं। संस्कृति और रुचि में उस समय हास होता है जब कलाओं का मानदंड उनका बिक्री मूल्य हो जाता है। कला और संस्कृति का उपभोग श्रेष्ठ व्यक्तियों की सनक तथा फैशन के द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह प्रणाली अधिसंख्य सदस्यों वाले समाज की लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों के लिए खतरा है क्योंकि प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति यहाँ तक कि विचार भी पूँजी और इससे संबंधित सामाजिक वस्तुओं की प्रगतिशील प्रभुता के आगे-पीछे हट जाते हैं। मानव समूह सांस्कृतिक समूह बनने की अपेक्षा स्तर के लिए प्रतिस्पर्धा करने वालों के संगठन बन जाते हैं। इस प्रकार, असमान समाज में यही सांस्कृतिक आबादी की संभावनाओं को कम कर देते हैं। जब सामाजिक व्यवस्था का ऐसा विघटित रूप प्रस्तुत किया जाता है तो व्यक्ति तीव्र सामाजिक परिवर्तन के अंधेरे में गुम हो जाता है। इस प्रकार उत्पन्न असुरक्षा के परिणाम असम्बद्धता, गंभीर एकाकीपन, आत्म-घातकता तथा ऐसी ही अनेक प्रक्रियाओं की तरफ ले जाते हैं।
उपर्युक्त तीव्र सामाजिक गतिशीलता के द्वारा सामाजिक व्यवस्था की उत्पत्ति का वर्णन अति-रंजित है। पीटर एम.ब्लौ जैसे अनेक विचारकों द्वारा इस अति-रंजना का खंडन किया गया है। वह सामाजिक गतिशीलता द्वारा सांस्कृतिक संक्रमण को संकट में सामाजिक व्यवस्था के कारण बताने का प्रयास करता है। ब्लौ का तर्क है कि सामाजिक रूप से गतिशील व्यक्ति को मूल्यों, प्रवृत्तियों, व्यवहार और अपने उत्पत्ति-वर्ग या लक्ष्य वर्ग के मित्रों का चयन करने में दुविधा होती है। यह दुविधा ही है जो सामाजिक गतिशीलता के ज्ञात विभिन्न परिणामों की ओर ले जाती है जैसे सामाजिक विघटन, असुरक्षा या सामाजिक रूप से गतिशील व्यक्तियों की अति-समरूपता। इसलिए ब्लौ वास्तव में सामाजिक व्यवस्था के विघटनकारी रूप को चुनौती नहीं देता अपितु वह सांस्कृतिक संक्रमण की परिकल्पना के माध्यम से सामाजिक गतिशीलता द्वारा सामाजिक परिवर्तन के कारणों को निर्धारित करने का प्रयास करता है।
अभ्यास 2
भारत में सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न परिणामों की व्याख्या कीजिए। एक सूची बनाइए और फिर अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों के साथ चर्चा कीजिए।
विघटनकारी परिकल्पना के प्रतिपादकों द्वारा सामाजिक व्यवस्था के निराशाजनक वर्णन (जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है) के विपरीत इंगलैंड में फ्रेंक पार्किन तथा सी.जे.रिचर्ड्सन ने तथा एच.एल.बिलंस्की और एच.एडवर्ड ने अमेरिका में पूँजीपति समाज में वर्गों की जाँच की। फ्रेंक पार्किन ने उर्ध्व गतिशीलता की उच्च दर के अपने निष्कर्ष में स्पष्ट किया कि यह राजनीतिक सुरक्षा उपाय के रूप में कार्य करता है। उर्ध्व गतिशीलता व्यक्तियों को उच्च स्थिति में पहुँचने और अधिक आमदनी की अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के अवसर प्रदान करती है। परिणामस्वरूप विकास से होने वाली कुंठाओं को रोकती है जिसके अभाव में यदि ये तीव्र हो जाए तो सामाजिक ताना-बाना खतरे में पड़ सकता है। प्रायः जो व्यक्ति श्रमिक वर्ग से संचलन करता है वह अपने छोड़े गए साथियों के बारे में चिंतित होने की अपेक्षा स्वयं का उच्च वर्ग के नए नियमों और सिद्धांतों से तालमेल बैठाने के लिए अधिक चिंतित होता है। इस प्रकार, पूँजीवादी समाज में वर्गों के बीच वर्ग संघर्ष की तीव्रता कम हो जाती है। दूसरी तरफ, एच.एल.बिलंस्की और एच.एडवर्ड ने ‘नीचे की तरफ गतिशीलता‘ के परिणामों की जाँच की। उनके अनुसार मध्य वर्ग से वास्तव में सामाजिक क्रम के श्रमिक वर्ग मे संचलन करने वाले व्यक्ति प्रायरू अपनी निम्न-स्थिति को स्वीकार नहीं करते तथा श्रमिक वर्ग के नियमों के अनुरूप स्वयं को समायोजित नहीं कर पाते। वे अपनी समाप्त स्थिति को पुनः प्राप्त करने के लिए हमेशा प्रयत्न करते रहते हैं। इस प्रकार, उनके दृष्टिकोण में रूढ़िवादिता की उत्पत्ति झलकती है। इस प्रकार, इंगलैंड में सामाजिक अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार न तो उर्ध्व गतिशीलता और न ही नीचे की तरफ गतिशीलता बिछुड़ने वालों की किसी भावना को भड़काती है या उन्हें अपने वर्तमान समूह से कोई असंतोष होता है। इसके सामाजिक व्यवस्था के लिए कोई विघटनकारी परिणाम भी नहीं होते। इस प्रकार, दोनों उर्ध्व और नीचे की तरफ गतिशीलताओं की प्रवृत्ति अपनी स्थिति को मजबूत करने की होती है। दोनों प्रवृत्तियाँ अपने सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण में अधिक रूढ़िवादी होती है, एक (उर्ध्व गतिशीलता) गतिशीलता के बाद अपनी प्राप्तियों को एकत्रित करती है, तथा दूसरी (नीचे की तरफ गतिशीलता) अपनी पहले वाली स्थिति को पुनः प्राप्त करने की आशा रखती है। इस प्रकार, इनमें से कोई भी समाज की स्थिरता या अखंडता के लिए खतरा नहीं है।
सामाजिक व्यवस्था के दोनों रूपों का अध्ययन वास्तविक और प्रभावशाली अध्ययनों पर आधारित है। ये किसी समाज पर कहाँ तक लागू होते हैं, यह संवाद का विषय है। लेकिन हम सुरक्षित रूप से यह मान सकते हैं कि इसमें वास्तविक रूप से दोनों ही रूपों के तत्व मिश्रित हैं। सामाजिक गतिशीलता के परिणाम न तो पूरी तरह निराशावादी हैं और न ही अति-रूप से सकारात्मक। इस प्रकार, वर्तमान समाजों की सामाजिक व्यवस्था का रूप क्रमिक रूप से सामाजिक व्यवस्था के दो धुवों के बीच में रहेगा।
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