पश्चिमीकरण किसे कहते हैं | पश्चिमीकरण की अवधारणा किसने दी क्या है Westernization in hindi
Westernization in hindi definition meaning theory in sociology in india पश्चिमीकरण किसे कहते हैं | पश्चिमीकरण की अवधारणा किसने दी क्या है ?
पश्चिमीकरण
श्रीनिवास के अनुसार भारत में ‘ब्रिटिश शासन के 150 वर्ष के परिणामस्वरूप भारतीय समाज और संस्कृति का पश्चिमीकरण हुआ है जिसमें विभिन्न स्तरों जैसे प्रौद्योगिकी, विचारधाराओं और संस्थानों, सिद्धांतों तथा मूल्यों के स्तर पर हुए परिवर्तनों को शामिल किया गया है।‘ (श्रीनिवास 1966)। इसलिए पश्चिमीकरण विस्तृत, बहु-आयामी और जटिल प्रक्रिया है जोकि संस्थानों के किसी सदस्य के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में आक्रमण करती है जाति गतिशीलता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। यह न केवल मौजूदा ढाँचे को ही बदलती है बल्कि सामाजिक गतिशीलता के लिए नए क्षेत्रों और नवीन मार्गों को भी प्रस्तुत करती है। इस प्रक्रिया में बहुत सारे अंतःसम्बद्ध घटकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
ब्रिटिश शासनकाल के दौरान भूमि को क्रय-विक्रय की वस्तु के रूप में स्वीकार किया गया तथा इसके परिणामस्वरूप व्यापक गतिशीलता का आरंभ हुआ। छोटी जातियों के भूमि खरीद सकने वाले व्यक्ति भूस्वामी बनकर उच्चता की ओर गतिशील हो सकते थे। जबकि जो लोग अपनी भूमि को किन्हीं कारणों से नहीं रख पाए। नीचे की ओर गतिशीलता में आ गए।
अभ्यास 1
अपने निकट किसी शहरी गाँव के समाज का अध्ययन करें। सामाजिक पारस्परिक संबंध कहाँ तक पश्चिमीकरण संकल्पना के अनुरूप हैं। अपने निष्कर्ष लिखें तथा अध्ययन केंद्र में अन्य छात्रों से उनकी तुलना करें।
नई-नई खोजों, साधनों तथा संचार की प्रगति से जातिगत बंधनों, अवरोधों में कमी आ गई।
ब्रिटिश शासनकाल में पूर्व-संस्थापित संस्थाओं के स्थान पर नई संस्थानों की स्थापना की गई, जो पहले से बिल्कुल भिन्न प्रकृति की थी। इससे सभी जातियों के लिए सामाजिक गतिशीलता के लिए आधुनिक मार्ग खोल दिए तथा प्रगति के दरवाजे सबके लिए उपलब्ध करा दिए गए थे। अंग्रेजो ने नए विद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना की जिसमें बिना किसी जातिगत भेदभाव के सबको प्रवेश दिया गया था। इसके साथ ही सेना, शासन वर्गों, विधि न्यायालयों में योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ की जाने लगीं। इससे सभी को समान अवसर मिलने लगे जिससे पर्याप्त गतिशीलता हुई। ब्रिटिश शासन ने सबसे अधिक काम आर्थिक क्षेत्र में विभिन्न अवसरों की उत्पत्ति करके किया। ऊँची जाति के लोगों ने संस्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आर्थिक लाभ के अवसरों का भरपूर लाभ उठाया। किंतु इस नई व्यवस्था से छोटी जाति के लोग भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। बेले ने उदाहरण दिया है कि अंग्रेजों की प्रतिबंधित नीति ने गांजा और बोर्द शराब कारखाने को किस प्रकार से प्रभावित किया। उसके फलस्वरूप लोग धनवान बन गए। इसी प्रकार, श्रीनिवास ने उदाहरण दिया है कि रेलवे, सड़क और नई नहरों का निर्माण होने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नोनीयास तथा सूरत के समुद्री-तट के कोलियों ने इस नई व्यवस्था में विस्तृत रोजगार के अवसरों को प्राप्त किया और आर्थिक स्तर पर समृद्ध बन गए। इसके साथ ही, पूर्वी भारत के तेली जाति के लोग तेल के लिए नए-नए खुले बाजारों और व्यापार में हिस्सा लेकर धनी बन गए। इस तरह, हम देखते हैं कि जातिगत गतिशीलता में नई प्रौद्योगिकी और ब्रिटिश शासनकाल की बहुत बड़ी देन माना जा सकता है।
पश्चिमीकरण ने गतिशीलता की प्रक्रिया को विभिन्न तरीकों से विशेष गति प्रदान की है। एक ओर, उनकी क्रियाविधि गतिशीलता के लिए आवश्यक थी तथा दूसरी ओर, उन्होंने विभिन्न प्रकार से गतिशीलता को पैदा किया क्योंकि अन्य व्यक्तियों द्वारा पश्चिमीकरण को आदर्श के रूप में स्वीकार कर लिया गया था।
यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी चाहिए कि ब्रिटिश शासनकाल के आरंभ से पश्चिमीकरण का आरंभ और इसके अंत के साथ इसका अंत नहीं हो गया। बल्कि उन्होंने गतिशीलता की प्रक्रिया को लगातार गति देने के लिए मार्ग प्रदान किया। उन्होंने हमें एक ऐसी व्यवस्था दी है जो स्वतंत्रता के बाद भी और अधिक तेजी से आगे बढ़ रही है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि स्वतंत्र भारत ने अंग्रेजों के तर्क-बुद्धिपरक समानतावादी एवं मानवतावादी सिद्धांतों को समान रूप में अपनाया है जिस कारण गतिशीलता के लिए आगे और मार्ग खुल गए।
1) नया विधि व्यवस्था: ब्रिटिश शासनकाल राजनीतिक रूप से पूरे देश में एकल शासन व्यवस्था की इकाई थी। उनका शासन कानून-व्यवस्था की तर्कवादपरक, मानवतावादी एवं समानतावादी सिद्धांतों पर आधारित था जो बिना किसी जातिगत भेदभाव के अपने निर्णय देता था। इसलिए उनका न्याय-तंत्र समानतावादी और समान रूप से सबपर लागू होता था। ये कानून कभी-कभी पहले के कानूनों के विपरीत होते थे। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश शासन से पहले के कानून जातिगत और भेदभावपूर्ण थे। अपराध करने वालों को यहाँ की दण्ड-व्यवस्था में सजा या न्याय जाति के आधार पर दिए जाते थे। परंतु ब्रिटिश शासनकाल में सभी लोगों पर समान रूप से कानून लागू होता था। उन्होंने जाति निर्योग्यता उन्मूलन अधिनियम तथा दास प्रथा उन्मूलन अधिनियमों को निर्मित करके निम्न जाति के लोगों को आगे बढ़ने और उन्हें समान अधिकार देकर उन्नति के लिए नए अवसरों को उपलब्ध कराया। इन कानूनों के माध्यम से ऊँची जाति और नीची जाति के लोगों के बीच जो दूरी थी उसे कम करने में विशेष योगदान दिया गया। इस तरह से अंग्रेजों की कानून व्यवस्था ने जातिगत गतिशीलता को बढ़ाने में आदर्श सहयोग दिया है।
बॉक्स 30.01
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में कानूनी व्यवस्था को सार्वभौमिकतावाद एवं समानतावाद के सिद्धांतों के आधार पर रचना की है जिसके कारण निम्न जातियों में सामाजिक गतिशीलता को प्रोत्साहन मिला। नए दीवानी, दांडिक एवं प्रक्रिया कानून में पुराने पारंपरिक कानून में विद्यमान असमानता को समाप्त किया गया। दूसरा महत्वपूर्ण अंशदान नई विधि व्यवस्था का यह है कि इसमें सकारात्मक अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत की है। छुआछूत उन्मूलन अधिनियम तथा अत्याचारों को रोकने के लिए संरक्षणात्मक नीतियों को अपना कर निम्न समाजों को असीम लाभ दिए गए हैं।
समान रूप से मताधिकार के सिद्धांत के साथ पंचायती राज व्यवस्था को लागू करके शक्ति का विकेंद्रीकरण किया गया है ताकि कमजोर वर्गों के लोगों के हाथ मजबूत किए जा सकें और ऊँची जाति के लोगों के प्रभुत्व को कम किया जा सके। इसी प्रकार, भूमि सुधार कानूनों ने गतिशीलता को तेजी से प्रभावित किया है। हदबंदी लागू कर जमींदारी व्यवस्था पर कड़ी चोट की गई है तथा छोटे किसानों (जिन्होंने भूमि प्राप्त की है) को कृषि करने के अधिकार एवं भूस्वामी बनने के अधिकार दिए गए हैं। यह व्यवस्था छोटे किसानों के लिए वरदान सिद्ध हुई है। इन अधिकारों से जातिगत गतिशीलता में निश्चित रूप से असीम वृद्धि हुई है।
2) सुधारों को अपनाना: जब भी समाज में सुधार किए जाते हैं गतिशीलता के अवसर उत्पन्न होते हैं। बौद्ध धर्म, जैन धर्म और बाद के सिख धर्म ने शुद्धता एवं अपवित्रता की रुढ़िवादिता को त्यागा है। उन्होंने विद्यमान असमानता और भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष किया। वहीं पर अपने धर्मों में नए समानता के सिद्धांत को लागू किया। इसी प्रकार, अंग्रेजों के शासनकाल में ईसाई मिशनरियों ने निम्नतम दलित जाति के लोगों में धर्म-परिवर्तन कराया और जो अछुत माने जाते थे उनके जीवन से गरीबी एवं शोषण को दूर किया, और उन्हें शिक्षा प्रदान की और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई। इससे उन्हें रोजगार के अच्छे अवसर मिले और उनका सामाजिक स्तर बढ़ा और उन्होंने वह प्रतिष्ठा प्राप्त की जो उन्होंने इससे पहले कभी नहीं प्राप्त की थी।
कुछ शिक्षित उदारवादी सुधारक जैसे कि राजाराम मोहन राय, केशव चन्द्र सेन, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद ने समाज में व्यापक अंधविश्वासों, बुराइयों जैसे कि सती प्रथा, बाल विवाह, मानव बलि आदि को मिटाने के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास किए थे। उन्होंने वंचित और दलितों तथा निम्न जाति के लोगों में अत्याचारों को कम करने तथा उनके स्तर को सुधारने के लिए तर्कसंगत बनाने और हिंदू धर्म को आधुनिक बनाने के प्रयास किए। उन्होंने यह कार्य हिंदु धर्म के साथ जुड़े सिद्धांत और कर्मकांडों को दूर करके तथा ब्राह्मणों जिन्हें वे अत्याचारी समझते थे, के चंगुल को कम करके किया। आर्य समाज, रामृकष्ण मिशन, ब्रह्म समाज जैसे नए धार्मिक पंथ समतावादी थे और जातिगत अयोग्यता और अत्याचारों के विरोधी थे। उन्होंने अपने सदस्यों को शिक्षित किया और उन्हें आधुनिक शिक्षा प्रदान कर उनके स्तर को उन्नत करने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया।
महात्मा गांधी तथा डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अछूतों के उत्थान के लिए भरसक प्रयत्न किया, जिसके परिणामस्वरूप छुआछूत को जड़ से मिटाने के लिए छुआछूत उन्मूलन एवं अत्याचारों से बचाने के लिए संरक्षणात्मक अधिनियमों को बनाया गया। इससे निम्न वर्गों के लोगों में व्यापक रूप से उच्च-स्तरीय सामाजिक गतिशीलता उत्पन्न की।
संस्कृतिकरण
एम.एन. श्रीनिवास ने जाति में गतिशीलता की प्रक्रिया के रूप में संस्कृतिकरण को विस्तार से सूत्रबद्ध किया है। उसके अनुसार संस्कृतिकरण एक श्प्रक्रियाश् है जिसके माध्यम से कोई नई हिंदू जाति, आदिवासी या अन्य समूह के लोग (श्रीनिवास 1966) अपने रीतिरिवाजों, सांस्कृतिक सिद्धांतों तथा जीवन-शैली को अपनी मूल जाति से दोगुनी गति ‘उच्च‘ की दिशा में परिवर्तित करते हैं। संपूर्ण इतिहास में संस्कृतिकरण विभिन्न रूपों में प्रचलित रहा है। इसको धर्मनिरपेक्षता और धर्मों के बीच की दूरी को कम करने के लिए साधन के रूप में प्रयोग किया गया है। जब कोई जाति धर्मनिरपेक्षता की शक्ति प्राप्त कर लेती है तो वह ऊँची जातियों के रीति-रिवाजों, संस्कारों, विश्वासों, शाकाहार, मद्य-निषेध जैसे विचारों को अपना कर अपने स्तर को वैध ठहराने का प्रयास करती है। इसके अतिरिक्त, वे लोग ब्राह्मण पुजारी की सेवाओं को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, और तीर्थ-स्थलों का भ्रमण एवं धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करके जानकारी प्राप्त करते हैं।
जनगणना के आँकड़े रिकॉर्ड करना उच्च स्तर के दावों के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत माना जा सकता है। श्रीनिवास का मानना है कि बाद में की जाने वाली जनगणना में ये दावे अधिक ऊँचे स्तर के लिए किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई एक जाति एक जनगणना में अपने आपको वैश्य ही घोषित करती है। परंतु यही जाति अगली जनगणना के समय अपने आपको ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय होने का दावा प्रस्तुत कर देगी। इनका इस प्रकार से दावे का अर्थ यह होता है कि वे दावा की जाने वाली संबंधित उच्च जातियों जैसी जीवन शैली तथा व्यवहारों को अपनाने का प्रयत्न करती हैं। यह स्थिति उच्च स्तर की शासक सैनिक का संकेत देती है जैसे क्षत्रिय और ब्राह्मण सर्वोच्च आदर्श या गतिशील वर्गों के उदाहरण हैं।
इसके अलावा, संस्कृतिकरण का एक बहुत ही महत्वपूर्ण रूप विशुद्धवाद उभर कर सामने आया है। यह दोबारा बनी उच्च जाति की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करता। उदाहरण के तौर पर, पूर्वी उत्तर प्रदेश की कोरी जाति के लोग ब्राह्मणों का पानी नहीं पिएंगे, न ही उनका छुआ हुआ भोजन करेंगे। इसे अपसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहा जा सकता है, जो नए वर्गों के निर्धारण में तथा उच्च राजनैतिक गतिशीलता में योगदान करती है। पुनःसंस्कृतिकरण की एक और प्रक्रिया से भी गतिशीलता को बढ़ावा मिलता है। इस मामले में पहले के पश्चिमीकृत या आधुनिकीकृत सभ्यता को स्वीकारने वाले लोग भी आधुनिकीकरण के अनेक चिह्नों को छोड़ देते हैं तथा परंपरागत सांस्कृतिक जीवन-शैली को अपना लेते हैं।
उपर्युक्त चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप किसी विशेष जाति और वर्ग के लिए केवल स्थितिगत परिवर्तन होता है। वर्गक्रम में अकेली जातियाँ नीचे अथवा ऊपर की ओर गतिशील होती हैं जबकि जातियों का संपूर्ण ढाँचा वैसा ही बना रहता है।
बोध प्रश्न 1
सही उत्तर पर टिक () का निशान लगाइएः
1) संस्कृतिकरण का अर्थ है:
क) संस्कृत में बोलना।
ख) संस्कृत में ज्ञान का प्रसार करना।
ग) जाति में गतिशीलता की प्रक्रिया।
2) पश्चिमीकरण का अर्थ है:
) प्रतिभा-पलायन
ख) ब्रिटिश शासन के आधार पर परिवर्तन लाना
ग) पश्चिमी संस्कृति को अपनाना
3) ‘भेदभावपूर्ण नीतियों के विरुद्ध संरक्षण‘ क्या है?
क) कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक संस्थाओं, वैधानिक संस्थाओं और नौकरियों में पदों की आरक्षण नीतियाँ।
ख) उच्च वर्गों के उत्थान की नीतियाँ।
ग) अछूतों का शोषण करना एवं उन्हें दबा कर रखना।
4) जाति में गतिशीलता सृजित करने वाले घटकों पर सही () का निशान लगाएँ:
क) शिक्षा
ख) कानूनी सुधार
ग) औद्योगीकरण
घ) शहरीकरण
निम्न स्तरीय समाज के लोग प्रायः असुविधाजनक यात्रा करते हैं।
साभारः बी.किरणमई
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) ग,
2) ख,
3) क
4) क, ख, ग तथा घ
कुछ उपयोगी पुस्तकें
डी. गुप्ता (संपा.) 1992, सोशल स्ट्रेटिफिकेशन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, यूनिट-प्ट
कुर्ज, वाल्टर तथा मिल्लर (1987) क्लास मोबिलिटी इन इंडस्ट्रियल वर्ल्ड, अनुअन रिव्यू ऑफ सोशियोलॉजी, भाग 13, 417-42 दिल्ली में।
शर्मा, के.एल. (1997), सोशल स्ट्रेटिफिकेशन इन इंडिया: इश्यूज एण्ड थीम्स, नई दिल्ली: सेज पब्लिकेशन्स
सिंगर, मिल्टन तथा कोन, बनर्डिस (संपा.), 1996, स्ट्रक्चर एण्ड चेंज इन इंडियन सोसाइटी, जयपुर: रावत पब्लिकेशन्स, अध्याय 8, 9 तथा 10।
सिंह, योगेन्द्र, 1986, मॉडर्नाइजेशन ऑफ इंडियन ट्रेडिशन, जयपुर: रावत पब्लिकेशन्स
श्रीनिवास, एम.एन., सोशल चेंजिस इन मॉडर्न इंडिया, बम्बई: ओरिएंट लॉंगमैन लिमिटेड।
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
जाति में गतिशीलता
गतिशीलता के स्तर
संस्कृतिकरण एवं पश्चिमीकरण
संस्कृतिकरण
पश्चिमीकरण
धर्मनिरपेक्षीकरण
शिक्षा
अनुसूचित जातियाँ एवं अन्य पिछड़े वर्ग
औद्योगीकरण एवं शहरीकरण
वर्ग एवं सामाजिक गतिशीलता
वर्ग-गतिशीलता का महत्व
वर्ग-गतिशीलता एवं वर्ग-निर्माण
औद्योगीकरण एवं गतिशीलता
शिक्षा और गतिशीलता
अंतःपारंपरिक अंतःपरिवर्तित गतिशीलता
भारत में गतिशीलता एवं वर्ग
कृषक वर्गों में सामाजिक गतिशीलता
शहरी वर्गों में सामाजिक गतिशीलता
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप:
ऽ जातिगत गतिशीलता को प्रभावित करने वाली प्रक्रियाओं और घटकों की रूपरेखा तैयार कर सकेंगे,
ऽ वर्ग गतिशीलता की प्रकृति और उसे प्रभावित करने वाले घटकों का वर्णन कर सकेंगे, और
ऽ भारत में वर्ग गतिशीलता को प्रभावित करने वाले घटकों को स्पष्ट कर सकेंगे।
प्रस्तावना
सोरोकिन ने सामाजिक गतिशीलता का विश्लेषण और अध्ययन किया है। साथ ही, इसकी संकल्पना, प्रकार और माध्यमों की जाँच-पड़ताल करके हमारे समक्ष रखने का प्रयास किया है जो उनका एक विशेष योगदान कहा जा सकता है। उन्होंने इसे दो समाजों के बीच स्पष्ट रूप से विभाजित किया है। प्रथम किस्म के वे समाज हैं जो अपने आप में श्अवरूद्धश्, स्थिर, अचल और अगम्य हैं। इनके नियम कठोर हैं। इसलिए इनमें गतिशीलता नहीं होती। दूसरी तरह के वे समाज हैं जिन्हें ‘मुक्त‘ समाज कहा जा सकता है। मुक्त समाजों की प्रकृति सुगम्य, खुली और लचीली होती है। सोरोकिन ने स्तरीकरण के संबंध में कहा है कि इसमें गतिशीलता की प्रकृति मौजूद है जबकि जाति प्रथा ‘अवरूद्ध समाज‘ की श्रेणी में आती है। यहाँ पर गतिशीलता का कोई स्थान नहीं है। जहाँ तक वर्गों का प्रश्न है, ये ‘मुक्त समाजों‘ में पाए जाते हैं जो उपलब्धियों के माध्यम से गतिशीलता के लिए विस्तृत अवसर प्रदान करते हैं। इसलिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि जाति और वर्ग में गतिशीलता की प्रकृति का विस्तृत विश्लेषण किया जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि वे सोरोकिन द्वारा वर्णित सामान्यीकरण कहाँ तक अनुरूप हैं।
जाति में गतिशीलता
यह आम धारणा है कि जाति स्तरीकरण की एक ‘अवरूद्ध‘ व्यवस्था है जो वास्तव में सच्चाई से बहुत दूर है। कोई भी समाज स्थिर या स्थैतिक नहीं है। यहाँ तक कि पारंपरिक संरचना में भी जहाँ पर पूजा-पाठ ही किसी व्यक्ति के धार्मिक अनुष्ठान और उसकी व्यावसायिक स्थिति का तथा उसके पारश्रमिक निर्धारण का मुख्य घटक थी वहाँ भी नीचे और ऊपर, दोनों तरफ की सामाजिक गतिशीलता समाप्त नहीं थी। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ न कुछ सामाजिक गतिशीलता अवश्य थी।
जाति प्रथा में सामाजिक गतिशीलता के प्रमाण जाति और व्यवसाय में बढ़ती विषमता में जजमानी बंधनों से परे हटने में, शुद्धता और अपवित्रता की कठोरता में तथा धर्मनिरपेक्षता की स्वीकृति में मौजूद है। श्रीनिवास ने ध्यान आकर्षित किया है कि प्राचीन समय में गतिशीलता के दो प्रमुख स्रोत थे। पहला था अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था। इसमें नई जातियों द्वारा क्षत्रियों के स्तर और शक्ति प्रयोग की स्थिति को स्वीकार करना आसान कर दिया। दूसरा कारण था कृषि-योग्य कम भूमि की उपलब्धता। उर्ध्व गतिशीलता के इन दो मार्गों के परिणामस्वरूप प्रभावशाली जातियाँ जैसे रेड्डी और मराठा जातियों के नेता राजनैतिक शक्ति तथा जाति की स्थिति की अभिलाषा करने लगे। इसी तरह से मध्यकालीन बंगाल के पालवंशी मूल रूप से शूद्र वर्ग के थे, गुजरात के पट्टीदार लोग भी मूल रूप से किसान वर्ग के थे। किसी प्रमुख जाति का कोई नेता जब राजा या राज-प्रमुख बन जाता है उस हालत में उस जाति के अन्य लोगों के लिए यह गतिशीलता का स्रोत बन जाता है और उच्च जातियों की परंपरा तथा जीवन शैली को अपनाने से यह और भी दृढ़ हो जाता है।
गतिशीलता के स्तर
गतिशीलता व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा समूहों में भी दृष्टिगोचर होती है। गतिशीलता के इन स्तरों का श्री शर्मा ने बहुत ही गहन विश्लेषण किया है।
1) परिवार में व्यक्तिगत गतिशीलता: किसी एक परिवार में चाहे वह परिवार किसी छोटी जाति का ही क्यों न हो, परिवार के अन्य सदस्यों की तुलना में कोई सदस्य एक अच्छा स्तर और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है। यह प्रतिष्ठा व्यक्ति के अच्छे व्यक्तित्व उसकी सत्य-निष्ठा और ईमानदारी, उच्च शिक्षा द्वारा अथवा अन्य उपलब्धियों के कारण हो सकती है। इसी प्रकार एक ऊँची जाति का व्यक्ति भी अपने दुष्कर्मों और जाहिलपन की आदतों के कारण अपना स्तर नीचे गिरा सकता है, अपनी प्रतिष्ठा खो सकता है। यह एक व्यक्ति की गतिशीलता की गिरावट मानी जा सकती है। अतः व्यक्ति की गतिशीलता का कारण उसकी कमी या उसकी क्षमता हो सकती है। इसलिए इस गिरावट को पूरी जाति की गिरावट नहीं माना जा सकता है। इसका प्रभाव व्यापक नहीं होता है तथा व्यक्तिगत स्तर तक ही सीमित रहता है।
2) एक जाति में अल्पसंख्क परिवारों की गतिशीलता: इस प्रकार की गतिशीलता को परिवारों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक पहलुओं के साथ जोड़कर देखना चाहिए। इस तरह के स्तरों में उन्नति होने के अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे, भूमि प्राप्त कर लेना और उच्च शिक्षा ग्रहण कर लेना जिस कारण वे उच्च जातियों की तरह से व्यवहार करने लगते हैं। जैसे कि वस्त्र धारण करना, जीवन शैली अपनाना और उनके धार्मिक कर्मकाण्ड करना है। इस तरह की गतिशीलता की प्रकृति व्यापक नहीं होती है। इन्हें समतल गतिशीलता ही मानना चाहिए न कि सोपानात्मक गतिशीलता क्योंकि यह केवल स्तर विशिष्टताओं को ही पूरा करती है। इस संबंध में बर्टन स्टीन ने स्पष्ट किया है कि इस तरह की प्रवृत्ति मध्यकाल में व्यापक रूप से रही है।
3) अधिक परिवारों की अथवा समूह की गतिशीलता: इस प्रकार की गतिशीलता व्यापक प्रकृति की होती है। इसमें सामूहिक रूप से सांझी प्रतिष्ठा, स्तर एवं सम्मान निहित होता है। और इसलिए इसका शुद्धता तथा अपवित्रता के संबंध में सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों के द्वारा पता लगता है। कुछ जातियाँ अशुद्धता और अपवित्रता जैसे व्यवहारों को त्याग कर अपनी स्थिति में सुधार करती हैं। इन सब मामलों में संस्कृतिकरण सबसे प्रमुख प्रक्रिया होती है जो इन जातियों को सामाजिक क्रम में ऊर्ध्व अथवा उच्च श्रेणी में ले जाती है तथा उच्च गतिशीलता के दावे को वैध बनाती है।
संस्कृतिकरण एवं पश्चिमीकरण
गतिशीलता की विशेषताएँ एवं प्रक्रियाएँ हैं। अब उनकी चर्चा करेंगे।
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