एम.एन. श्रीनिवास m n srinivas in hindi books sanskritization structural functionalism sociology
Mysore Narasimhachar Srinivas एम.एन. श्रीनिवास m n srinivas in hindi books sanskritization structural functionalism sociology ? मैसूर नरसिंहाचार श्रीनिवास full name ?
एम.एन. श्रीनिवास
इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले यहां यह उल्लेख किया जा सकता है कि जो विद्वान गुण प्रधान नजरिए को लेकर चलते हैं, वे जाति के गुणों पर विशेष जोर देते हैं। मगर इस प्रक्रिया में हर विद्वान इस या उस गुण को अधिक महत्व देता है और बताता है कि ये गुण किस तरह लोगों के आपसी व्यवहार को प्रभावित करते हैं। मगर प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास ने 1950 के दशक में वर्ण-व्यवस्था का गहन विश्लेषण करके इन गुणों के आधार पर जातियों के बीच बनने वाले संबंधों के ढांचे का अध्ययन किया। उन्होंने बड़े ही प्रभावशाली ढंग से जातिगत पहचान के गतिशील पहलू को हमारे सामने रखा है।
स्थितिक गतिशीलता पर श्रीनिवास के अध्ययन में हमें यह पहलू स्पष्ट हो जाता है, जिसे हम संस्कृतीकरण कहते हैं। संस्कृतीकरण वह प्रक्रिया है, जिसमें एक जाति वर्ण क्रम-परंपरा में अपनी श्रेणी को उन्नत बनाने का प्रयत्न करती है जिसके लिए वह श्रेणी क्रम में अपने से ऊंची जाति या जातियों के गुणों को अपना लेती है। इसका यह मतलब है कि वह निम्न या हेय समझे जाने वाले गुणों को धीरे-धीरे त्याग देती है और ऊंची जातियों के गुणों की नकल करती है। इस नकल में शाकाहार, साफ-सुथरे काम-धंधे अपनाना शामिल है।
इससे प्रबल जाति की अवधारणा का गहरा रिश्ता है। किसी भी गांव में जो भी जाति प्रबल होती है वह हमें इन बातों में सबसे अलग नजर आ जाती हैः
1) भारी संख्यात्मक उपस्थिति
2) भूमि का स्वामित्व
3) राजनीतिक सत्ताधिकार
इस प्रकार प्रबल जाति संख्या की दृष्टि से ही नहीं बल्कि आर्थिक और राजनीतिक सत्ताधिकार के मामले में भी महत्वपूर्ण ओहदा रखती है। यहां एक और रोचक बात है कि यह जरूरी नहीं कि प्रबल जाति गांव की जाति क्रम-परंपरा में सबसे ऊंचा स्थान रखती हो। यही नहीं, प्रबल जाति गांव में बची अन्य सभी जातियों से सेवा-चाकरी कराने का अधिकार भी रखती है।
बोध प्रश्न 2
1) एम.एन. श्रीनिवास ने जाति का जो विशेषताबोधक सिद्धांत रखा है, उसका सार दस पंक्तियों में लिखें।
19.4 जाति का अन्योन्य-क्रियात्मक सिद्धांत
यह सिद्धांत इस बात को लेकर चलता है कि स्थानीय अनुभव के स्तर पर जातियां एक दूसरे के सापेक्ष असल में किस-किस श्रेणी में होती हैं।
हमने अभी तक यह तो जान ही लिया है कि जाति के अध्ययन में हम किस प्रकार जाति के गुणों का प्रयोग कर सकते हैं। इससे आपको यह भी स्पष्ट हो गया होगा कि गुणों का एक समुच्चय परस्पर-व्यवहार से जुड़ी प्रक्रियाओं का द्योतक होता है। इसलिए हम यह कदापि नहीं कह सकते कि गुणों का परस्पर व्यवहार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बल्कि हमें यह देखने को मिलता है कि परस्पर-व्यवहार के भी अपने गुणात्मक पहलू हैं। सो अब प्रश्न उठता है कि इन पहलुओं में से किसको अन्य से ज्यादा महत्व मिले और जाति की गतिकी और पहचान के सृजन के विश्लेषण में प्रमुखता दी जाए। जाति के अध्ययन में अन्योन्य-क्रियात्मक सिद्धांत की लीक पर जो भी प्रवर्तक अध्ययन कार्य अब तक हुए हैं, आइए उनमें से कुछ के बारे में जानें।
समाजशास्त्रीय व्याख्या
धार्मिक व्याख्याओं के विपरीत आरंभिक समाजशास्त्रीय व्याख्याएं सामाजिक रूप से मान्य वास्तविकता पर आधारित हैं। आइए संक्षेप में हम इसे कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर और सेलेस्टिन बौगल के अध्ययन की रोशनी में समझें ।
कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक समूहों के भूमि से संबंध और स्वामित्व से ही समाज में उनका स्थान तय होता था। उनके अनुसार भारतीय गांवों में दो प्रकार के समूह थेः
क) भूमि जोतने वाली जातियां
ख) कारीगर और चाकर जातियां
भूमि जोतने वाली जातियों ने बेशी उत्पादन किया। मार्क्स के अनुसार इस बेशी उपज को उन्होंने कारीगर जातियों को दिया। बदले में इन जातियों ने अपना पारंपरिक दस्तकारी का कुछ भाग उन्हें दिया। इस प्रकार दोनों जातियों ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति और आदान-प्रदान के लिए उत्पादन किया। इससे समाज में समरसता बनी रही। मगर इस श्ग्राम गणतंत्रश् मॉडल को अयथार्थवादी करार देकर खारिज कर दिया गया है।
जातियों के शुद्धता स्तर के अनुसार पदानुक्रम में रखा जाता है।
साभारः किरणमई बुशी
बोध प्रश्न 1
1) कार्ल मार्क्स ने जाति की जो आरंभिक समाजशास्त्रीय व्याख्या पेश की थी, उसके बारे में पांच पंक्तियां लिखिएः
बोध प्रश्न 1
1) जाति की आरंभिक समाजशास्त्रीय व्याख्याएं इसलिए उल्लेखनीय हैं कि वे ठेठ धार्मिक व्याख्याओं से अलग हटकर चलती हैं। इसलिए कार्ल मार्क्स के अध्ययन से हमें पता चलता है कि भूमि स्वामित्व का संबंध समाज में किसी भी जाति-समूह की स्थिति को निर्धारित करता है।
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