द्वंद्व सिद्धांत किसे कहते है | समाजशास्त्र में द्वंद्व सिद्धान्त की परिभाषा क्या है Duality principle in hindi
Duality principle in hindi द्वंद्व सिद्धांत किसे कहते है | समाजशास्त्र में द्वंद्व सिद्धान्त की परिभाषा क्या है ?
द्वंद्व सिद्धांत
द्वंद्व सिद्धांत की प्रेरणा कार्ल मार्क्स की कृतियां रही हैं, जिन्होंने पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था की विस्तृत मीमांसा तैयार की और सभी के लिए सामाजिक समानता के सिद्धांत के आधार पर एक समाजवादी समाज की स्थापना का दर्शन दिया । जैसा कि लेंस्की तर्क देते हैं, मार्क्स पहले विद्वान थे जिन्होंने उदार अर्थशास्त्रियों और प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों द्वारा रचित ‘रूढ़िवादी प्रस्थापना‘ के प्रत्युत्तर में ‘आमूल-परिवर्तनवादी प्रतिस्थापना‘ प्रस्तुत की थी।
अभ्यास 1
प्रकार्यवादी और द्वंद्व जैसे दो भिन्न परिप्रेक्ष्यों से क्या एक ऐसा नजरिया निकल सकता है जो दोनों को लेकर चलता हो? अगर निकल सकता है तो कैसे? इस प्रश्न पर अपने अध्ययन केन्द्र के सहपाठियों के साथ चर्चा कीजिए और अपनी नोटबक में टिप्पणी लिखिए।
प्रकार्यवादियों के विपरीत, द्वंद्व सिद्धांत सामाजिक स्तरीकरण के प्रश्न का समाधान तलाशने के लिए समाज की अमूर्त धारणा लेकर नहीं चलता जिसकी अपनी कुछ जरूरतें हों। बल्कि वह मानकर चलता है कि समाज विभिन्न व्यक्तियों और समूहों से बनता है जिनकी कुछ जरूरतें, अपेक्षाएं और हित होते हैं। यही जरूरतें और हित द्वंद्ववादी सिद्धांतकारों के लिए प्रस्थान बिंदु हैं। प्रकार्यवादी समाज और सामाजिक असमानता के अपने विश्लेषण में शक्ति या सत्ताधिकार की अवधारणा के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते। लेकिन द्वंद्ववादी सबसे पहले सत्ताधिकार के प्रश्न से ही अपनी बात शुरू करते हैं। उनकी नजर में समाज एक रंगमंच है जिसमें उपलब्धं दुर्लभ संसाधनों और समाज में प्रतिष्ठित पद-स्थानों के लिए व्यक्तियों और समूहों में संघर्ष होता है। जो लोग सत्ताधिकार संपन्न और शक्तिशाली हैं वे अपनी ताकत के बूते प्रतिष्ठित, महत्वपूर्ण पद-स्थानों को हथिया लेते हैं। कुछ समूहों के अन्य समूहों पर प्रभुत्व से ही समाज में विषमताएं जन्म लेती हैं। उदाहरण के लिए, जो लोग धनी हैं वे अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं और यही कारण है कि वे आगे चलकर उन पद-स्थानों के लिए स्पर्धा कर लेते हैं जिनका महत्व और मान अधिक है। दूसरी ओर, गरीब अपने बच्चों को साधारण स्कूलों में भी नहीं भेज पाते इसलिए वे धनी और शक्तिशाली लोगों के साथ कभी स्पर्धा नहीं कर पाते हैं। इन दोनों मतों की तुलना करते हुए लेंस्की लिखते हैंः
प्रकार्यवादी समान हितों की बात करते हैं जो समाज के सभी सदस्यों के साझे होते हैं। लेकिन द्वंद्ववादी ऐसे हितों की बात करते हैं जो उन्हें बांटते हैं, विभाजित करते हैं। प्रकार्यवादी सामाजिक संबंधों से मिलने वाले लाभों की बात करते हैं, मगर द्वंद्ववादी सिद्धांतकार प्रभुत्व और शोषण के तत्वों को महत्व देते हैं। प्रकार्यवादियों के अनुसार सामाजिक एकता का आधार मतैक्य है, तो द्वंद्ववादी सिद्धांतकार बाध्यता को इसका आधार बताते हैं। प्रकार्यवादी में मानव समाजों को सामाजिक व्यवस्थाओं के रूप में देखते हैं तो द्वंद्ववादी सिद्धांतकार उन्हें रंगमंच के रूप में पाते हैं जिस पर सत्ताधिकार और विशेषाधिकारों के लिए संघर्ष होता है।
इन दोनों मतों को आम तौर पर एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत माना जाता है। मगर वहीं कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि इन दोनों परिप्रेक्ष्यों में कई बाते समान हैं। इन विद्वानों का तर्क है कि द्वंद्व और मतैक्य दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी भी समाजशास्त्रीय सिद्धांत को सामाजिक यथार्थ के सभी पहलुओं को लेकर चलना चाहिए। कुछ समाजशास्त्रियों ने इन ध्रुविताओं के दायरे से बाहर निकलकर समाज और सामाजिक स्तरीकरण के एक एकीकृत या संयोजित सिद्धांत की रचना की है, जिसमें दोनों दृष्टिकोणों को साथ मिलाने का प्रयास किया गया है। डाहरेंडॉर्फ, लेंस्की, बर्घ और लहमान जैसे समाजशास्त्रियों ने यह काम किया है।
संश्लेषण की दिशा में
इस शब्द को जर्मन दार्शनिक हेगेल ने अपन द्वंद्वात्मक सिद्धांत के जरिए लोकप्रिय बनाया था। उनके विचारों के अनुसार संपूर्ण मानव चिंतन विरोध या निषेध की प्रक्रिया से गुजरता है। एक विशेष विचार या प्रस्थापना (‘थीसिस‘) एक विरोधी विचार या प्रतिस्थापना (‘एंटी-थीसिस‘) के विकास की ओर ले जाती है। द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के जरिए एक नए विचार का संश्लेषण होता है जो प्रस्थापना (‘थीसिस‘) और प्रतिस्थापना (‘एंटी-थीसिस‘) दोनों के मान्य बिन्दुओं को जोड़ता है और प्रश्न को एक अलग धरातल से देखता है। जैसा कि लेंस्की कहते हैं, ष्प्रस्थापना (‘थीसिस‘) और प्रतिस्थापना (‘एंटी-थीसिस‘) दोनों अनिवार्यतः असमानता के नियामक सिद्धांत हैं जिनका सरोकार नैतिक मूल्यांकन और न्याय के प्रश्न से रहता है। मगर संश्लेषण (‘सिंथेसिस‘) अनिवार्यतः अनुभवजन्य संबंधों और उनके कारणों से होता है।‘‘ दूसरे शब्दों में, प्रस्थापना और प्रतिस्थापना वैचारिक से बनते हैं, लेकिन संश्लेषण (‘सिंथेसिस‘) अनुभवजन्य सूचनाओं के संग्रहण पर निर्भर करता है। यह मानव समाज में व्याप्त असमानता की युगों पुरानी समस्या के अध्ययन में वैज्ञानिक विधि के आधुनिक अनुप्रयोग का परिणाम है।
प्रारंभिक प्रयास
सामाजिक विषमता के विषय पर स्थापित रूढ़िवादी और आमूल परिवर्तनवादी धारणाओं के दायरे से बाहर जाने का सबसे प्रारंभिक प्रयास हम जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर की रचनाओं में पाते हैं। हालांकि उन्होंने चिंतन की इन दोनों परंपराओं को जोड़ने का कोई सचेतन प्रयास नहीं किया था, मगर इन विषयों पर उन्होंने जो लिखा है, वह उनके विश्लेषणधर्मी अध्ययन को दर्शाता है। इसमें उन्होंने दोनों परिप्रेक्ष्यों की ओर से महत्वपूर्ण दृष्टि डाली है, जो हमें धुविताओं और नैतिक दृष्टिकोण के दायरे से बाहर ले जाती है। उदाहरण के लिए, वर्ग की अवधारणा का विवेचन करते हुए वेबर हालांकि मार्क्स से सहमति प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह सामाजिक संरचना या ढांचे का एक महत्वपूर्ण पहलू है, लेकिन वह मार्क्स के इस । विचार से सहमत नहीं हैं कि वर्ग का अस्तित्व समाज को अनिवार्यतः वर्ग संघर्ष की ओर ले जाता है। इसी प्रकार मार्क्स के विपरीत वेबर ‘सत्ताधिकार‘ और ‘प्रतिष्ठा‘ का अर्थ अनिवार्यतः ‘वर्ग‘ से नहीं लेते। इसके बावजूद वेबर कहते हैं कि पूंजीवादी समाज के ढांचे पर जो उन्होंने कहा है उसे ही आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया है।
बोध प्रश्न 1
1) सामाजिक स्तरीकरण के द्वंद्ववादी और प्रक्रियावादी सिद्धांतों की तुलना कीजिए और उनमें अंतर बताइए। पांच पंक्तियों में अपना उत्तर लिखिए।
2) सामाजिक स्तरीकरण के दृष्टिकोणों के संश्लेषण की दिशा में आरंभिक प्रयासों के बारे में पांच पंक्तियां लिखिए।
स्तरीकरण के सिद्धांत और. संश्लेषणरू लेंस्की, लहमान, बर्घ
वेबर के अलावा सामाजिक स्तरीकरण के दोनों परिप्रेक्ष्य के संश्लेषण के प्रयास हमें विल्फ्रेडो पैरेटो, पिटिरिम सोरोकिन और स्टैन्सिलॉव ओसोवस्की की रचनाओं में मिलते हैं। कुछ समय पहले पियरे वैन डेन बर्घ, गेरहार्ड लेंस्की और लहमान ने भी ऐसा प्रयास किया।
बोध प्रश्न 1
1) प्रकार्यवादी सिद्धांतकार समाज को एक सजीव तंत्र की तरह देखते हैं जिसके विभिन्न अंग उसकी अनिवार्य जरूरतों को पूरा करते हैं। तंत्र या समाज की अपनी ‘आवश्यकताएं‘ होती हैं। सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली उसी समाज की मूल्य व्यवस्था का प्रतिबिंब है। द्वंद्ववादी सिद्धांतकार सत्ताधिकार की धारणा प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार समाज में संघर्ष सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित, माननीय पद-स्थानों के लिए होती है। इस प्रकार प्रकार्यवादी साझे हितों को महत्व देते हैं तो दूसरी ओर द्वंद्ववादी सिद्धांतकार प्रभुत्व और शोषण पर अधिक जोर देते हैं।
2) संश्लेषण शब्द को लोकप्रिय हेगेल ने बनाया, जिसका आधार मानव असमानता की अनुभवजन्य सूचना है। सामाजिक स्तरीकरण अध्ययन में संश्लेषण की शुरुआत मैक्स वेबर से हुई थी। वेबर का मत वर्गों की ध्रुविताओं या नैतिक रुखों से आगे जाता है। इस प्रकार मार्क्स के चिंतन को पूंजीवाद में आगे विस्तार देने के प्रयास में वेबर वर्ग, सत्ताधिकार और प्रतिष्ठा पर मार्क्स से सहमत नहीं हैं। संश्लेषण की दिशा में शुरुआती प्रयासों में पैरेटो, सोरोकिन और ओसोव्स्की के कार्य शामिल हैं।
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