sequence tradition in hindi क्रम परंपरा की परिभाषा क्या है | क्रम परंपरा किसे कहते है के सिद्धांत बताइए ?
शब्दावली
जातीयता: यह सांस्कृतिक प्रथाएं और दृष्टिकोण है जो लोगों के एक निश्चित समुदाय को विशिष्ट पहचान देते हैं।
सामाजिक-लिंग: यह सामाजिक और सांस्कृतिक विचार है जो हमारे पालन-पोषण के साथ चलते हैं। ये विचार ही
सोच (जेंडर) हममें स्त्री/पुरुष की धारणाओं को जन्म देते हैं।
क्रम परंपरा : यह कमान या आदेश की एक सीढ़ी है, एक क्रम है. जो हमें एक जन-समूह की हैसियत, उसकी स्थिति को दर्शाती है। उच्च स्थिति समूह अक्सर क्रम-परंपरा के शीर्ष पर विराजमान होता है।
पितृसत्ता: यह परिवार के रूप में गठित एक सामाजिक समूह है जिसकी सत्ता की बागडोर उसके नर-मुखिया के हाथों में होती है।
सामाजिक लिंग और स्तरीकरण
सामाजिक स्तरीकरण पर किया जाने वाला अध्ययन कई वर्षों तक ‘सामाजिक-लिंग उदासीन‘ ही रहे। जैसे कि स्त्रियों का कोई अस्तित्व ही न हो। या जैसे कि सत्ताधिकार संपत्ति और प्रतिष्ठा के बंटवारे के विश्लेषण में महिलाएं महत्वहीन, रुचिहीन हों। मगर इसके बावजूद सामाजिक-लिंग अपने आप में स्तरीकरण का सबसे प्रमुख उदाहरण है। विश्व में कोई भी समाज ऐसा नहीं, जिसमें सामाजिक जीवन के किसी न किसी पहलू में पुरुषों को स्त्रियों से अधिक संपदा, उनसे ऊंचा दर्जा और प्रभाव हासिल न हो।
सामाजिक-लिंग के इस पहलू को अनदेखा करने के पीछे कई कारण हैं। सामाजिक-लिंग और जातीयता के मुद्दों में समानताओं पर अपनी चर्चा पर लौटें, तो महिलाओं का अधिकार नैसर्गिक रूप से हीन समझा जाता है। महिलाएं अबला और हाशिए पर हैं, इन दोनों धारणाओं को इस हद तक शब्दशः समाज में लिया जाता था कि महिला आंदोलन को इन्हें चुनौती देनी पड़ी। इसका यह पूछना था कि महिलाओं को गैर-बराबरी का दर्जा क्यों दिया जाता है। स्तरीकरण के अध्ययन में अधिकतर यह मानकर चला जाता था कि स्त्रियों की स्थिति को हम उसके पति, पिता, भाई या घर के मुखिया की स्थिति से जान सकते हैं।
अब घर का यह मुखिया निस्संदेह पुरुष को ही होना था, लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत थी। हाल के अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि अनेक महिलाएं अपने घर की मुख्यिा थीं। अब तो ऋणदाता संस्थाओं को पता चल गया है कि पुरुषों के बजाए स्त्रियों को ऋण देना अधिक उपयोगी और उत्पादक होता है। महिलाओं की सफलता की ऐसी गाथाएं दिनों-दिन प्रकाश में आने लगी हैं। मगर ये महिलाएं कोई बड़ी उद्यमी नहीं हैं। बल्कि ये गांव की गरीब महिलाएं हैं। जैसे मछुआरिन, खेतिहर किसान, जुलाहा इत्यादि । समाज में पहले तो यह गलत धारणा प्रचलित है कि स्त्री-पुरुष के बीच असमानताएं प्राकृतिक रूप से जैविक कारणों से उत्पन्न होती हैं। दूसरी गलत धाणा यह है कि पुरुष घर का स्वाभाविक और सर्वमान्य मुख्यिा है। स्तरीकरण के अध्ययन में स्तरीकरण के एक सिद्धांत के रूप में सामाजिक-लिंग की उपेक्षा का कारण ये धारणाएं ही हैं।
जैसा कि इस इकाई से आपको स्पष्ट हो जाएगा, समाजशास्त्री अब यह महसूस कर रहे हैं कि सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांत रूप में सामाजिक-लिंग को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। स्तरीकरण पर अपने नए शोध कार्य में शर्मा जैसे समाजशास्त्री ने सामाजिक-लिंग (जेंडर) और जातीयता के नए मुद्दों को उठाया है। यह पता लगाने के लिए बहस चल रही है कि आधुनिक युग में असमानताएं वर्ग के इर्दगिर्द घूमती हैं या इसमें सामाजिक-लिंग की क्या कोई निर्णायक भूमिका है?
सामाजिक-लिंग की असमानताएं
सामाजिक-लिंग असमानताओं की जड़ें वर्ग व्यवस्था की अपेक्षा इतिहास में अधिक गहरे पैठी हैं। शिकार और भोजन संचय करने वाले उन आदिम समाजों में पुरुषों को ऊंचा दर्जा हासिल था जिनमें कोई वर्ग नहीं थे। मगर आधुनिक समाज में वर्गीय विभाजन इतने बुनियादी हैं कि वे सामाजिक-लिंग भेदों से काफी व्यापन करते हैं। महिलाओं की भौतिक स्थिति में उनके पिताओं या पतियों की स्थिति को प्रतिबिंबित करती हैं। इसीलिए कुछ विद्वानों का तर्क है कि सामाजिक-लिंग असमानताओं को वर्ग के संदर्भ में स्पष्ट किया जा सकता है। फ्रैंक पार्किन ने इस पहलू को भली-भांति स्पष्ट किया हैः
महिला का दर्जा रोजगार के अवसरों, संपत्ति के स्वामित्व, आमदनी, समेत सामाजिक जीवन में कई क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में निश्चय ही कई ज्यादा हानियां लेकर चलता है। मगर लिंग-भेदों से जुड़ी इन असमानताओं को उपयोगी ढंग से स्तरीकरण के घटकों के रूप में नहीं सोचा जाता है। इसका कारण यह है कि महिला के एक बड़े हिस्से के लिए सामाजिक और आर्थिक पारितोषिक का वितरण मुख्यतः उनके परिवार विशेषकर उनके नर मुखिया की स्थिति से निर्धारित होता है। हालांकि महिलाओं में उनके लिंग के कारण उनकी हैसियत में आज कुछ विशेषताएं समान रूप से पाई जाती हैं। लेकिन संसाधनों पर उनका अधिकार मुख्यतः उनके व्यवसाय से निर्धारित नहीं होता। बल्कि अक्सर यह उनके पिता या पतियों के व्यवसाय से ही निर्धारित होता है। और अगर वे धनाढ्य जमींदारों की बेटियां या पत्नियां हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं है, उनकी समग्र स्थिति में अंतर कहीं ज्यादा आश्चर्यजनक और बड़ा होता है। महिला स्थिति से जुड़ी अक्षमताएं भी इतनी ज्यादा हो कि वर्गीय भेद उनके सामने बौने पड़ जाएं तो इस स्थिति में लिंग को स्तरीकरण का एक मह याम मानना ही यथार्थवादी होगा।
अभ्यास 2
सामाजिक-लिंग असमानताएं क्यों होती हैं? इस विषय पर अपने अध्ययन केन्द्र के सहपाठियों सहित अन्य लोगों से चर्चा करके अपनी जानकारी को नोटबुक में लिख लीजिए।
उपरोक्त सिद्धांत में प्रत्यक्ष तौर से कोई त्रटि नजर नहीं आती है। असल में अपने दैनिक जीवन में हम जिन महिलाओं को जानते-पहचानते हैं उन्हें हम अधिकांशतया उनके पिता और पति के संदर्भ में ही परिभाषित करते हैं। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी की पत्नी, जो खुद भी किसी अच्छे रोजगार में लगी हैं, उसे भी हम उसकी सार्वजनिक स्थिति के बजाए उसके पति की हैसियत से जानते हैं। परिवार की स्थिति या हैसियत उसके पुरुष मुखिया की स्थिति से तय होती है। पर अगर हम थोड़ा गहराई में जाएं तो यह बात यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
गिडंस, एंथनी 1989 सोशियॉलाजी (पॉलिटी प्रेस, कैम्ब्रिज)
गुप्ता, दीपांकर (संपा) 1991 सोशल स्ट्रैटीफिकेशन (ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली)