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coser and dahrendorf theory views in hindi sociology कोजर और डारहेंडॉर्फ सिद्धांत क्या है समाजशास्त्र

coser and dahrendorf theory views in hindi sociology कोजर और डारहेंडॉर्फ सिद्धांत क्या है समाजशास्त्र में ?

डारहेंडॉर्फ और कोजर
मार्क्सवाद के अलावा सामाजिक स्तरीकरण के समाजशास्त्र में अन्य सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य भी हैं जो समाज में मौजूद अंतर्द्वद्व को एक सार्वभौमिक लक्षण मानते हैं जो उसमें सामाजिक श्रेणियों के रूप में विद्यमान रहता है। राल्फ डारहेंडॉर्फ और लुइस कोजर उन पश्चिमी समाजशास्त्रियों के उदाहरण हैं जो अंतर्द्वद्व की सार्वभौमिकता को सामाजिक स्तरीकरण के हर स्वरूप में स्वीकार करते हैं। लेकिन ये समाजशास्त्री इस द्वंद्व को वर्ग संघर्ष और सर्वहारा क्रांति के सिद्धांत से जोड़ने के बजाए सामाजिक तंत्र में विद्यमान संस्थागत विसंगतियों में देखते हैं।

इन समाजशास्त्रियों के अनुसार द्वंद्व हितों में परस्पर वैमनष्य और ऊर्ध्व सामाजिक गतिशीलता प्राप्त करने के प्रयास में समाज के एक स्तर द्वारा दूसरे स्तरों के ऊपर सत्ताधिकार या शक्ति के प्रयोग से उत्पन्न होता है। इसलिए यह द्वंद्व सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था की आंतरिक गतिशीलता को दर्शाता हैं । बल्कि यह द्वंद्व स्तरीकरण के पूर्ण प्रतिस्थापन की ओर अभिगमन जैसा कि मार्क्स ने कहा था क्रांतिकारी विधियों से सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन का द्योतक नहीं है। सामाजिक स्तरीकरण के ऐसे सिद्धांत, जिन्हें ‘द्वंद्व सिद्धांत‘ की संज्ञा दी जाती है, ऐतिहासिक भौतिकतावाद के मार्क्सवादी नजरिए को स्वीकार नहीं करते जिसमें क्रांतिकारी आंदोलनों के माध्यम से सामाजिक विकास-क्रम के नियत चरणों का प्रतिपादन किया गया है। इस द्वंद्व सिद्धांत में सामाजिक क्रम-व्यवस्था की जो धारणा दी गई है वह इसकी द्वंद्वात्मक भौतिकतावादी व्याख्या के बजाए इसके कार्यपरक दृष्टिकोण के ज्यादा नजदीक है।

प्रकार्यवादी सिद्धांत
सामाजिक स्तरीकरण का प्रकार्यवादी सिद्धांत सामाजिक व्यवस्था के प्रति मार्क्सवादी नजरिए से एकदम अलग है। सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययन में यह सिद्धांत विशेष रूप से अमरीकी समाजशास्त्रियों में बड़ा प्रचलित है। कार्यपरक सिद्धांत यह मानकर नहीं चलता कि सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक स्तरों की असमनाताओं पर आधारित आत्म-उन्मूलक अंतर्विरोध या द्वंद्व नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहते हैं। बल्कि यह सिद्धांत मानता है कि सामाजिक व्यवस्था में आत्म रख-रखाव और आत्म-नियमन की नैसर्गिक क्षमता विद्यमान होती है। यह सिद्धांत यह मानकर चलता है कि समाज और सामाजिक स्तरीकरण समेत इसकी तमाम संस्थाओं की रचना सामाजिक संबंधों के परस्पर-निर्भर समुच्चयों से होती है, जिनमें द्वंद्वों को बांधे रखने और उन्हें सुलझाने की क्षमता होती है। यहां यह सिद्धांत द्वंद्वों को अस्वीकार नहीं करता। यह सिद्धांत सामाजिक व्यवस्था और जीव में समरूपता मानता है जिसके अनुसार दोनों में आत्म-नियमन और स्वदोषहरण की आंतरिक क्रियाविधि पाई जाती है। कार्यपरक दृष्टिकोण से सामाजिक स्तरीकरण एक गतिशील व्यवस्था है जिसकी विशिष्टता सामाजिक गतिशीलता और सहमति निर्माण के नियमों का निरंतर पुनर्संयोजन है। यह स्पर्धा और द्वंद्व की भूमिका को स्वीकार तो करता है मगर इसके साथ संस्थागत-कार्यप्रणाली के अस्तित्व में रहने की बात भी करता है। जैसेः समाजीकरण, शिक्षा और लोकतांत्रिक सहभागिता के द्वारा सशक्तीकरण की प्रक्रियाएं। इन प्रक्रियाओं के जरिए सामाजिक गतिशीलता की आकांक्षाएं पूरी की जा सकती हैं और समाज के विभिन्न स्तरों में व्याप्त अवसरों की असमानताओं से उत्पन्न अंतर्विरोधों को एक हद तक सार्थक सामाजिक सहमति से सुलझाया जा सकता है।

सामाजिक स्तरीकरण के अध्ययन में भारतीय समाजशास्त्रियों ने ऊपर बताए हुए सभी सैद्धांतिक नजरियों का प्रयोग किया है। मगर भारत में वर्गीय ढांचे और कृषक वर्ग पर जो भी अध्ययन हुए हैं उनमें से अधिकांश में मार्क्सवाद के ऐतिहासिक भौतिकवाद सिद्धांत को प्रयुक्त कर इस सिद्धांत को भारतीय ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप बनाने का प्रयास हुआ है। सामाजिक स्तरीकरण के ग्रामीण और शहरी पद्धतियों के कई अध्ययनों में वेबर के सिद्धांत का प्रभाव रहा है। सामाजिक गतिशीलता, शिक्षा, लोकतांत्रिक सहभागिता और अनुसूचित जातियोंध्जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव (आरक्षण) की नीतियां, उद्योग और उद्यमशीलता का विकास इत्यादि इन सब शक्तियों से सामाजिक स्तरीकरण में आए बदलावों को आंकने के लिए किए गए अनेक अध्ययनों में जाति, वर्ग और सत्ताधिकार को अवधारणात्मक प्रारूपों को लिया गया है। इन अध्ययनों में विशेष समाजशास्त्रीय रुचि की बात यह मिलती है कि वर्ण-व्यवस्था के अंदर सामाजिक स्तरों की आर्थिक स्थिति, आनहानिक स्थिति और सत्ताधिकार की स्थिति या हस्ती जैसे कारकों के बीच जो पारंपरिक सर्वांगसमता पाई जाती थी वह सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रियाओं और सशक्तीकरण की नीति के कारण टूट गई है। दूसरे शब्दों में ऊंची जातियों को आज उच्च आर्थिक दर्जा या सत्ताधिकार का सिर्फ इसलिए नहीं मिल जाता कि परंपरा के अनुसार वर्ण-व्यवस्था में उन्हें उच्च आनुष्ठानिक दर्जा मिला हुआ है। इस संदर्भ में समाजशास्त्रियों ने आर्थिक दर्जे को परिभाषित करने के लिए वर्ग, राजनीतिक और जातिगत दर्जे को परिभाषित करने के लिए धार्मिकअनुष्ठान का प्रयोग किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि स्वतंत्रता के बाद पिछले कई दशकों से चली आ रही सामाजिक विकास नीतियों के फलस्वरूप उपजी सामाजिक गतिशीलता ने जाति के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण में स्थिति सारश् सिद्धांत को तोड़ा है। वर्ग का उदय और जाति व धर्म की जातीय लामबंदी ऐसी नई प्रक्रियाएं हैं जो सामाजिक स्तरीकरण के पारंपरिक स्वरूपों और संस्थाओं को चुनौती दे रही हैं।

अवधारणा और सिद्धांत संबंधी कुछ मुद्दे
सामाजिक स्तरीकरण से जुड़े मुद्दों और सिद्धांतों का झुकाव मूलतः सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक क्रम व्यवस्था के बीच मौजूद संबंध की ओर रहा है। मैक्स वेबर ने समाज की तीनों व्यवस्थाओं में भेद किया। ये हैं सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक। उनके अनुसार सामाजिक स्तरीकरण की बनावट समाज के ‘क्रम‘ की प्रकृति के अनुसार बदलता है। ‘सामाजिक क्रम‘ की प्रमुखता ‘प्रतिष्ठा‘ के मानकीय की सिद्धांत में निहित है और इसके संस्थागत संरचनाएं इसी से प्रभावित होती हैं। यह स्थिति समूहों में विद्यमान रहती है।

पुराने यूरोपीय समाज में प्रचलित सामंतवाद की संस्थाएं, अभिजात वर्ग और विभिन्न रियासतों (एस्टेट) का निर्माण इसके उदाहरण थे। इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था में आनुवंशिक अधिकार और पैतृक संपत्ति और नाना प्रकार के प्रदत्त विशेर. कारों और सत्ताधिकारों का प्रचलन था। इधर भारत में विद्यमान समाज का जातिगत स्तरीकरण इस सिद्धांत को प्रतिबिंबित करता है । सह शुद्धि-अशुद्धि के सिद्धांत, पैतृक व्यवसाय और जातिगत विशेषाधिकारों या भेदभाव के अनुमोदित रूपों में काम करती है । यह सजातीय विवाह सिद्धांत में भी झलकता है । वर्ग के विपरीत जाति सामाजिक समुदायों की रचना भी करती है। ‘आर्थिक क्रम‘ तर्कसंगति के मानकीय सिद्धांत और बाजार स्थिति पर आधारित है। यह हित समूहों के रूप में झलकता है। मैक्स वेबर के अनुसार वर्ग बाजार स्थिति की ही उपज है। यह स्पर्धी होता है, इसमें ऐसी सामाजिक श्रेणियां होती हैं, जो समुदायों की रचना नहीं करतीं । वर्ग स्थिति में सामाजिक गतिशीलता अर्जित प्रवीणताओं और योग्यताओं पर निर्भर करती है जो आपूर्ति और मांग के नियमों से संचालित होती हैं। संस्था के रूप में इसकी अभिव्यक्ति बाजारवाद में वृद्धि में देखी जा सकती है। यह बाजार स्थिति को बढ़ावा देता है। समाज का तीसरा क्रम ‘राजनीतिक‘ है। यह ‘सत्ताधिकार‘ की आकांक्षा और उसकी साधना पर आधारित है। इसकी संस्थागत अभिव्यक्ति हमें राजनीतिक दलों और विभिन्न संगठनों के संगठित तंत्र में मिलती है, जिनका रुझान इसके अर्जन में होता है। समाज की राजनीतिक व्यवस्था और इसकी संस्थागत प्रक्रियाओं में अन्य व्यवस्थाओं यानी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं तक फैलने की प्रवृत्ति होती है।

वेबर का नजरिया
वेबर की अवधारणा और सिद्धांत संबंधी नजरिया मुख्यतः व्याख्यात्मक और व्यवस्थापरक है। उनका मानना था कि सामाजिक प्रसंग को समझने और उसकी व्याख्या करने के लिए समाजशास्त्र में सैद्धांतिक विकास ‘आदर्श किस्म‘ की अवधारणाओं के प्रयोग से किया जा सकता है। ये अवधारणाएं वास्तविकता को देखकर मिल अनुभवजन्य आगमन पर आधारित नहीं होती हैं, बल्कि ये ‘ऐतिहासिक व्यक्ति‘ या ऐतिहासिक घटनाओं का एक कालावधि में किया जाने वाला काल्पनिक चित्रण है जिससे समाजशास्त्री अपनी व्याख्यात्मक समझ से अवधारणाओं की रचना करता है। इसलिए आदर्श किस्म की अवधारणाएं वास्तविक नहीं होतीं हालांकि वे वास्तविकता की एक निश्चित समझ से ही निकलती हैं। ये आदर्श तो होती हैं मगर मानकीय न होकर (वांछनीय या अवांछनीय, अच्छा या बुरा) चिंतनात्मक या मानसिक रचनाएं होती हैं। वेबर का मत है कि समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का व्याख्यात्मक महत्व तो है मगर उनमें सामान्यीकरण की नियम जैसी शक्ति नहीं है। इसलिए सामाजिक स्तरीकरण के उनके सिद्धांत को इसी रूप में लिया जाना चाहिए। उनका सिद्धांत एक कालावधि में सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांतों के प्रकटन की तुलनात्मक समझ पर आधारित है। एक पद्धति और परिवर्तन की प्रक्रियाओं के रूप में सामाजिक स्तरीकरण को समझने में यह सिद्धांत बड़ा ही सहायक रहा है।