भारत के द्विपक्षीय संबंध किसे कहते है | भारत के ऑस्ट्रेलिया के साथ द्वि पक्षीय सम्बन्ध bilateral relations in hindi

bilateral relations in hindi भारत के द्विपक्षीय संबंध किसे कहते है | भारत के ऑस्ट्रेलिया के साथ द्वि पक्षीय सम्बन्ध ?

द्वि-पक्षीय संबंध
भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंधों का एक संक्षिप्त सर्वेक्षण पैन्डूलम जैसा व्यवहार दर्शाता है। जहाँ ऐसे दौर आये जिनमें दोनों देशों के मध्य गहरी मित्रता और समझ थी, वहीं कभी आपसी समस्याएं और कड़वाहट काफी बढ़ गयी। यह उतार-चढ़ाव ऑस्ट्रेलिया में सरकार परिवर्तन से मेल खाते हैं। शीत युद्ध की समाप्ति तक भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंध सुधरे जब लेबर पार्टी सत्ता में थी और अनुदारवादी सरकारों के दौर में बिगड़ गए। जबकि उत्तर-शीत युद्ध काल में, ऐसा मामला देखने को नहीं मिला।

 स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत की स्थिति
1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब लेबर पार्टी सत्ता में थी और जे. बी. शीफले प्रधानमंत्री थे। यह सरकार उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का विरोध करती थी। एक उदारवादी और एशियन दृष्टिकोण होने के कारण इसने एशिया और अन्य स्थानों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का समर्थन किया। कॉमनवेल्थ में एक स्वतंत्र भारत का होना ऑस्ट्रेलिया की सुरक्षा के लिए लाभदायक माना गया। दिवंगत जवाहरलाल नेहरू जोकि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे, इन्होंने इस क्षेत्र में सहयोग की महत्ता को समझते हुए 1947 में नई दिल्ली में आयोजित एशियन रिलेशंस कांफ्रेंस में ऑस्ट्रेलियन पर्यवेक्षकों का स्वागत किया। उन्होंने कहा, ष्हमारी कई समस्याएँ सामान्य हैं, विशेष रूप से प्रशान्त और एशिया के दक्षिण पूर्व क्षेत्र में और समस्याओं के हल के लिये हमें आपस में सहयोग करना है।‘‘

ऑस्ट्रेलिया को 1947 में इंडोनेशिया में आयोजित एशियन रिलेशंस कांफ्रेंस में भी आमंत्रित किया गया और इस आमंत्रण को उसने स्वीकारा। किन्तु, भारत-ऑस्ट्रेलियाई संबंधों की अच्छी शुरुआत अधिक समय तक नहीं चल पायी।

 लिबरल अनुदारवादी शासन : 1949-72
आगामी 23 वर्षों तक ऑस्ट्रेलिया लिबरल कंजरवेटिव पार्टी के शासन के अधीन रहा। इस अवधि में भारत और ऑस्ट्रेलिया के मूल्यांकनों में मतभेद और अधिक उजागर हुए। भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंधों में गिरावट तेजी से आयी और यह समय अवधि अधिक होने से पारस्परिक दृष्टिकोणों में और सख्ती हो गयी। विश्व स्तर पर शीत युद्ध अपनी चरम सीमा पर था और इसका भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंधों पर खासा प्रभाव देखने को मिला। ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री रॉबर्ट मैजिस (1949-65) और भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू (1947-64) के विश्व दृष्टिकोण पूर्णतया भिन्न थे। वैश्विक, क्षेत्रीय और वैचारिक स्तर पर दोनों के दृष्टिकोणों में खासा फर्क था। भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया। जोकि विदेश नीति में एक स्वतंत्र मार्ग पर आधारित थी। भारत सैनिक गठबंधनों के खिलाफ था और उसने दोनों पूँजीपति और समाजवादी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने की कोशिश की।

जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है, 1952 में ऑस्ट्रेलिया ऐंजस का सदस्य बना। ऐंजस ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका को लेकर बना था। अपनी सुरक्षा का खतरा ऑस्ट्रेलिया को सर्वप्रथम नवशक्तिमान जापान और तदुपरांत चीन, उत्तरी कोरिया ओर वियतनाम के रास्ते साम्यवाद से था। अपने सुरक्षा दृष्टिकोण के अनुसार ऑस्ट्रेलिया की प्रथम रक्षा पंक्ति दक्षिण-पूर्वी एशिया थी। थाईलैण्ड, सिंगापुर और मलेशिया के रास्ते से चीनी साम्यवादी घुसपैठ उसके यूरोप से सम्पर्क मार्गों के लिए खतरा था। ऑस्ट्रेलियाई दक्षिण-पूर्वी एशियाई सन्धि संस्था का भी सदस्य बना। ऑस्ट्रेलिया में संयुक्त राज्य अमेरिका के सैनिक अड्डों की स्थापना हुई और अमेरिका का एक गठबंधन सहयोगी होने के नाते उसने पश्चिमी गठबंधन ब्लॉक के अन्य सदस्यों जिनमें कि पाकिस्तान भी था, के साथ नजदीकी संबंध स्थापित किये। जहाँ भारत ने सीऐटो की सदस्यता नहीं स्वीकार की, वहीं पाकिस्तान इसका सदस्य बना। भारत द्वारा शीत युद्ध की राजनीति से परे एक स्वतंत्र विदेश नीति के अनुसरण ने विभिन्न मुद्दों पर एक दूसरे से भिन्न दृष्टिकोणों को जन्म दिया। कोरियन मसले पर भारत और ऑस्ट्रेलिया ने अलग अलग रूख अपनाये। जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ में ऑस्ट्रेलिया ने चीन की एक आक्रमणकारी होने की भर्त्सना की, भारत ने ऐसा नहीं किया। डच न्यू गीना के मामले में ऑस्ट्रेलिया ने जहाँ डच का समर्थन किया, वहीं भारत ने इंडोनेशिया की स्थिति का समर्थन किया।

इस अवधि में भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंध खासतौर से कश्मीर के मुद्दे को लेकर कड़वे हो गए। ऑस्ट्रेलिया ने पाकिस्तान का समर्थन किया और भारत के हितों के खिलाफ मध्यस्था की कोशिश की। सर ऑवैन डिक्सन जोकि ऑस्ट्रेलियन हाई कोर्ट के न्यायाधीश थे, उनको कश्मीर में मध्यस्था के लिए नियुक्त करना और कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा दलों में ऑस्ट्रेलिया का शामिल होना, भारत द्वारा सही नहीं माना गया।

आगे चलकर 1956 के दो प्रमुख राजनीतिक घटनाचक्रों के संदर्भ में भारत और ऑस्ट्रेलिया ने विपरीत पक्ष लिये। एक था स्वेज नहर का मामला जिसमें ऑस्ट्रेलिया ने मिश्र के विरूद्ध ऐंग्लोफ्रांसिसी कार्यवाही का समर्थन किया, जबकि दूसरा मसला हंगरी के संकट का था जहाँ भारत के अस्पष्ट दृष्टिकोण की ऑस्ट्रेलिया ने कड़ी आलोचना की। इस दौर में एक सुनहरी किरण 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत को ऑस्ट्रेलिया का समर्थन था। जैसे कि कुछ समय के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका का रूख भी रहा, चीन का एक समान खतरे के रूप में उभरना ऑस्ट्रेलिया और भारत को करीब लाया। ऑस्ट्रेलिया ने चीन की भर्त्सना की और भारत को नैतिक और आर्थिक सहायता प्रदान की। इसके साथ ही भारतीय रक्षा व्यवस्था में ऑस्ट्रेलियन संबंध की शुरूआत हुई। नवम्बर 1963 में भारत चीन सीमा के पूर्वी और पश्चिमी भागों में रॉयल ऑस्ट्रेलियन वायु सेना ने हवाई प्रशिक्षण उड़ानों में हिस्सा लिया। किन्तु, हिन्द महासागर में पश्चिमी अड्डों की स्थापना को लेकर विरोधी आंकलनों ने सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देने में अड़चने पैदा कर दी।

1965 के भारत पाक युद्ध के दौरान ऑस्ट्रेलिया ने जोकि चीन और वियतनाम के मसलों मे उलझा हुआ था, संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह बिना पाकिस्तान का पूर्ण समर्थन करते हुए एक तटस्थ रूख अपनाया। उसने ताशकंत समझौते का स्वागत किया। 1968 में अपने प्रथम शासन काल में प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी ने ऑस्ट्रेलिया की यात्रा की। इस अवधि में मतभेद का एक मुद्दा वियतनाम था। जहाँ ऑस्ट्रेलिया ने वियतनाम पर अमेरिका के साथ मिलकर आक्रमण में हिस्सा लिया, भारत इसके खिलाफ था। ऑस्ट्रेलिया ने चेकोस्लोवाकिया में सोवियत हस्तक्षेप के प्रति भी भारतीय दृष्टिकोण की आलोचना की। मैंजिस के बाद के काल में संबंधों में कुछ सुधार हुआ। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान की शरणार्थी समस्या के दौरान ऑस्ट्रेलिया ने नरमी दिखायी, 1971 के भारत-पाक युद्ध में तटस्थता अपनाते हुए उसने 31 जनवरी 1972 को बांग्लादेश को मान्यता प्रदान की।

बोध प्रश्न 2
नोट : क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) लिबरल अनुदारवादी शासन (1949-72) के दौरान भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंधों की जाँच कीजिये।

बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) 1949-77 तक भारतीय-ऑस्ट्रेलियाई संबंधों पर शीत युद्ध का प्रभाव। शक्तिशाली जापान और साम्यवादी चीन, उत्तरी कोरिया एवं वियतनाम के खतरे से बचने के लिए ऑस्ट्रेलिया द्वारा 1952 में ऐंजस (।र्छन्ै) का सदस्य बन जाना। ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान ने सीएटो का सदस्य बनकर स्वयं को पश्चिमी देशों के निकट पाया, जबकि भारत गुटनिरपेक्ष बना रहा। (अधिक विवरण के लिए अनुभाग 22.3.2 देखें)

विटलैम अधीनस्थ लेबर सरकार 1972-75
ऑस्ट्रेलियन प्रधानमंत्री विटलैम ने अपनी विदेश नीति में एक स्वतंत्र रूख अपनाया। वे भारत के साथ अच्छे संबंधों के पक्षधर थे। उन्होंने 1973 में भारत की यात्रा भी की। हिन्द महासागर को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में देखा गया, जोकि अंतर्राष्ट्रीय तनावों और प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त हो और विटलैम ने इसका एक शांति क्षेत्र होने का समर्थन किया। हिन्द महासागर पर यह रूख पहले के रूखों से अलग था। दोनों देशों ने दक्षिण-पूर्वी एशिया को भी एक शांति क्षेत्र घोषित करने के लिए अपना समर्थन दिया। दोनों ने नस्लवाद की भी भर्त्सना की और संयुक्त राष्ट्र संघ में सहयोग की वकालत की।

1970 में ऑस्ट्रेलिया ने परमाणु निशस्त्रीकरण सन्धि (एन.पी. टी.) पर हस्ताक्षर किए और 1973 में इसकी पुष्टि कर दी। 1974 में उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आई.ए.इ.ए.) समझौते पर हस्ताक्षर किये। परन्तु भारत ने इन दोनों में से किसी पर भी हस्ताक्षर नहीं किये। 1974 में भारत ने पोखरण में शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट किया। यह ध्यान देने की बात है कि इस अवस्था में ऑस्ट्रेलिया ने भारत की अधिक आलोचना नहीं की, हांलाकि हल्के रूप में विरोध किया।

दक्षिण अफ्रीका के मामले में ऑस्ट्रेलिया ने जो दृष्टिकोण अपनाया, वह पश्चिमी शक्तियों से भिन्न था। लेबर सरकार ने नस्लवाद नीति की आलोचना की और उपनिवेशवाद पर 24 सदस्यों की कमेटी की सदस्यता प्राप्त की। विटलैम सरकार ने चीनी गणतन्त्र को भी मान्यता दी। किन्तु चीन को लेकर भारत और ऑस्ट्रेलिया के दृष्टिकोणों में खासा फर्क था। इस अवधि में भारत और ऑस्ट्रेलिया के मध्य कई सरकारी आदान-प्रदान हुए। इसमें थे फ्रैंक क्रीऐन, जे. पी. कैर्स और ऑस्ट्रेलियन गवर्नर जनरल जॉन कैर की यात्राएं। कैर ने हिन्द महासागर में स्थायित्व लाने में भारत की भूमिका का उल्लेख किया। भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की विवशता की भी एक बेहतर समझ उत्पन्न हुई। साथ ही पेरू में 1971 में गुटनिरपेक्ष देशों के विदेशमंत्रियों की कांफ्रेंस में ऑस्ट्रेलिया ने एक मेहमान के रूप में हिस्सा लिया।

 फ्रेजर दौर (1975-83) और अनुदारवादी शासन की वापसी
इस अवधि में ऑस्ट्रेलियन दृष्टिकोण में एक और परिवर्तन हुआ। उसने हिन्द महासागर क्षेत्र के संदर्भ में अपनी नीति को बदल दिया। उसने महासागर में संयुक्त राज्य अमेरिका के अड्डों, विशेष रूप से दीऐगो गार्सिया में संयुक्त राज्य अमेरिका के अड्डों और उनकी सुविधाओं में सुधार का समर्थन किया। इस सरकार ने हिन्द और प्रशान्त महासागरों में सोवियत उपस्थिति के प्रति अधिक चिंता प्रकट की। भारत ने इन अड्डों को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा माना। भारत को खास तौर से चिढ़ फ्रेजर के चीनी प्रधानमन्त्री को भारत के संयुक्त राज्य अमेरिका के अड्डों के प्रति रूख पर दिये गये नकारात्मक टिप्पणियों से हुई। फ्रेजर ने हिन्द महासागर में एक संगठित चीनी-जापानी ऑस्ट्रेलियन-संयुक्त राज्य अमेरिका गंठबन्धन की भी पेशकश की। संबंध सुधारने के कुछ प्रयास किए गए। जिनके फलस्वरूप कुछ आधिकारिक भारतियों ने ऑस्ट्रेलिया की यात्रा की और एक व्यापार समझौते पर 1976 में हस्ताक्षर हुए। किन्तु, अगस्त 1976 में आयोजित गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया को आमंत्रित नहीं किया गया।

1977 में भारत में जनता पार्टी शासन में आयी और अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मन्त्री बने। एक प्रयास किया गया संबंधों को सुधारने का, विशेष रूप से कॉमनवैल्य क्षेत्रीय सभा के दौरान, जिसके तहत और अधिक सहयोग के प्रयास किए गए। नयी दिल्ली ने फ्रेजर द्वारा रंगभेद नीति की भर्त्सना का स्वागत किया। फ्रेजर की जनवरी-फरवरी 1976 की यात्रा से भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंधों में कुछ सुधार हुआ। भारतीय संसद को सम्बोधित करते हुए उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की सराहना की। उन्होंने गुटनिरपेक्षता के प्रति भी पहले से अधिक अच्छी समझ दिखायी। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि दोनों देश तनावों को दूर करने के लिए रास्ते खोजें। दोनों पक्षों ने परमाणु निशस्त्रीकरण और हिन्द महासागर को एक शांति क्षेत्र के रूप में विकसित करने जैसे विषयों पर विचार विमर्श किया। भारत और ऑस्ट्रेलिया के मध्य मतभेद बने रहे, विशेष रूप से वियतनाम और कम्पूचिया पर और इंडो-चीन की समस्या को लेकर। जहाँ भारत ने वियतनाम पर चीनी आक्रमण की आलोचना की, उसने कम्पूचिया पर वियतनाम आक्रमण की भर्त्सना नहीं की। दूसरी ओर, ऑस्ट्रेलिया ने कम्पूचिया पर वियतनाम के आक्रमण की आलोचना की, पर वियतनाम पर चीन के आक्रमण की नहीं। अफगान मसले पर भी ऑस्ट्रेलिया और भारत ने विरोधी दृष्टिकोण और नीतियाँ अपनायी। किन्तु, फ्रेजर ने नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की अवधारण का समर्थन किया। शायद, दोनों राज्यों के मध्य यह एक आपसी सहमति का क्षेत्र था।

 हॉक अधीनस्थ लेबर सरकार
एक बार फिर, लेबर पार्टी के शासनकाल में भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंधों को सुधारने के प्रयास किए गए। नवम्बर 1983 में कॉमनवेल्थ राष्ट्राध्यक्षों की सभा में इंदिरा गांधी और हॉक की एक महत्त्वपूर्ण सफल भेंट हुई। यद्यपि हिन्द महासागर को शांति क्षेत्र के रूप में विकसित करने पर दोनों देशों में कुछ मतभेद था तथापि ऑस्ट्रेलिया ने इस मुद्दे पर भारत का जोरदार समर्थन किया। 1983 की जैकसन समिति ने दक्षिण एशिया, खासतौर से भारत पर अधिक ध्यान देने की बात की। ऑस्ट्रेलियन लेबर पार्टी में हमेशा एक संयुक्त राज्य अमेरिका विरोधी घटक था, जोकि हिन्द महासागर और ऑस्ट्रेलिया, दोनों में संयुक्त राज्य अमेरिका के अड्डों को हटाने के पक्ष में था। यह घटक ऑस्ट्रेलिया के ऐंजस छोड़ने के पक्ष में था। यह घटक सुरक्षा के मामले में ऑस्ट्रेलिया की आत्मनिर्भरता का पक्षधर था। लेकिन लेबर सरकार इस परिप्रेक्ष्य से पूरी तौर से सहमत नहीं थी।

लेबर सरकार ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अधिक महत्ता प्रदान की। हॉक ने एक अतिथि के रूप में नैम वार्ता में भाग लिया। अक्टूबर 1986 में राजीव गांधी की ऑस्ट्रेलिया यात्रा से ऑस्ट्रेलिया और भारत के संबंधों में बढ़ोतरी हुई। एक संयुक्त ऑस्ट्रेलिया-भारत व्यापार समिति का गठन हुआ और विज्ञान एवं तकनीकी समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

सार्क की उत्पत्ति का ऑस्ट्रेलिया ने स्वागत किया यद्यपि वह इसका सदस्य नहीं है। फिजी द्वीपों में सेना द्वारा तख्ता पलटने के विषय में भी ऑस्ट्रेलिया और भारत के विचारों में समानता थी।

1989 में प्रधानमंत्री बॉब हॉक की भारत द्विपक्षीय संबंधों के तहत एक यादगार यात्रा थी। उन्होंने ऑस्ट्रेलिया की एक नयी छवि प्रस्तुत की, एक एशिया-प्रशान्त साथी की, व्यापार और कूटनीति दोनों के संदर्भ में । दोनों देशों ने विश्व के विभिन्न मंचों जैसे कि प्रशुल्क एवं व्यापार सामान्य करार (ळ।ज्ज्), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (प्डथ्) और विश्व बैंक के स्तर पर प्रयासों को संगठित करने पर बल दिया। यह विशेष रूप से निम्नलिखित संदर्भ में था : विकसित देशों द्वारा सुरक्षात्मक (व्यापार सम्बन्धित) ढांचों को गिराना और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं द्वारा विकासशील देशों को न्याय दिलवाना। इस यात्रा के दौरान भारत ने अपने समुद्र संबंधी हितों की साफ तौर से व्याख्या की, जिससे भारत की समुद्रीय शक्ति को लेकर ऑस्ट्रेलिया की आशंकाएं दूर हों।

इस यात्रा के बाद जून 1989 में ऑस्ट्रेलियन विदेशमंत्री, गैरेथ ईवांस की यात्रा हुई। बेहतर संबंधों के लिए कई कदम उठाये गये। किंतु, इस सरकार के शासन के दौरान एक उल्लेखनीय तनाव पैदा करनेवाली बात ऑस्ट्रेलिया द्वारा पाकिस्तान को 50 मिराज लड़ाकू विमानों को बेचना था। इससे भारत को गंभीर चिंता हुई।

हावर्ड शासन
यद्यपि यह एक अनुदारवादी सरकार थी, फिर भी भारत और ऑस्ट्रेलिया के मध्य संबंध खराब नहीं हुए। यह मुख्यतः विश्व स्तर पर हो रहे विभिन्न परिवर्तनों का परिणाम था, विशेष रूप से शीत युद्ध की समाप्ति और उसके बाद सोवियत संघ का नाटकीय तौर से विघटन। इस अवधि में भारत में आर्थिक व्यवस्था के उदारीकरण और वैश्वीकरण दोनों अवस्थाओं में आर्थिक सुधारों के दौर की शुरूआत हुई। ऑस्ट्रेलियन सिनेट की विदेशी मामले, सुरक्षा और व्यापार समिति ने भारत ऑस्ट्रेलियन संबंधों पर विशेष रूप से एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस विस्तृत अध्ययन ने ऑस्ट्रेलिया में निर्णय लेने वालों में भारत के प्रति बढ़ी हुई जागरूकता को रेखांकित किया। भारतीय बाजार में विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं और पूँजी निवेश के लिए मार्ग खुलने पर ऑस्ट्रेलिया में काफी उत्सुकता थी। अब द्विपक्षीय संबंधों को, विशेष रूप से व्यापार और निवेश के संदर्भ में, बढ़ाने की ठोस चेष्टाएँ की गयीं। इन आदान-प्रदानों के फलस्वरूप, दो इकाइयों, श्भारत-ऑस्ट्रेलिया काउंसिलश् और श्ऑस्ट्रेलिया-भारत काउंसिलश् का गठन किया गया, ताकि भारत-ऑस्ट्रेलिया संबंध मजबूत हो सकें। इन काउंसिलों के विभिन्न कार्यों और गतिविधियों की वजह से ऑस्ट्रेलिया में भारत और भारत में ऑस्ट्रेलिया के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद मिली।

बोध प्रश्न 3
नोट : क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) प्रधानमंत्री गफ विटलैम की अधीनस्थ लेबर सरकार के दौरान भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंधों का वर्णन कीजिये।
2) प्रधानमंत्री नील फ्रेजर के कंजरवेटिव शासन के दौरान भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंध कैसे थे?
3) प्रधानमंत्री हॉक की लेबर सरकार के दौरान भारत-ऑस्ट्रेलियन संबंधों पर विचार विमर्श कीजिये।

बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) प्रधानमन्त्री विटलैम ने स्वतंत्र विदेश नीति अपनाई, भारत के साथ संबंधों को सुधारने का प्रयत्न किया तथा हिन्द महासागर को शांति क्षेत्र बनाने में पहल की। 1973 में ऑस्ट्रेलिया ने एन. पी. टी. पर हस्ताक्षर किए, लेकिन भारत ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। दक्षिण अफ्रीका की नस्लवादी सरकार के प्रति भी दोनों देशों के मत अलग-अलग थे। (अधिक विवरण के लिए अनुभाग 22.3.3 देखें)

2) फ्रेजर ने हिन्द महासागर से सम्बन्धित नीति में परिवर्तन लाते हुए अमेरिका को वहाँ पर अड्डा बनाने में सहयोग प्रदान किया, ताकि वह हिन्द तथा प्रशान्त महासागरों में सोवियत संघ के प्रभावों को नकार सके। भारत किसी भी सैन्य अड्डे को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। (अधिक विवरण के लिए अनुभाग 22.3.4 देखें)

 ऑस्ट्रेलिया भारत सम्बंध एक नये परिप्रेक्ष्य की ओर
अक्टूबर 22, 1996 को भारत में ऑस्ट्रेलियन वित्तमंत्री ऐलैक्जैडर डाऊनर द्वारा एक छह सप्ताह लंबा ऑस्ट्रेलिया-भारत नयी बातचीतों का सिलसिला का प्रारम्भ हुआ। अक्टूबर 22 से नवम्बर 8, 1996 की खास अवधि में कई ऑस्ट्रेलियन नेताओं जिनमें कि उपप्रधानमंत्री टिम फिशर और वित्तमंत्री ऐलैक्जेंडर डाऊनर थे, ने भारत की यात्रा की। नये कार्यक्रम ने कुछ विशेष विषयों जैसे कि खान खुदाई, दूर संचार, इलेक्ट्रॉनिक्स, कृषि आदि पर ध्यान देने की बात की। नए परिप्रेक्ष्य के अंतर्गत सबसे खास घटनाएं ऑस्ट्रेलियन उपप्रधानमंत्री और व्यापारमंत्री टिम फिशर की यात्राएं थीं।