पार्सन्स और मर्टन कौन है | सिद्धांत क्या है | रॉबर्ट मर्टन समाजशास्त्र Robert K. Merton and parsons sociology theory
Robert K. Merton and parsons sociology theory in hindi पार्सन्स और मर्टन कौन है | सिद्धांत क्या है | रॉबर्ट मर्टन समाजशास्त्र ?
प्रस्तावना
इस इकाई से पूर्व चार इकाइयों में आपने टालकट पार्सन्स और रॉबर्ट के. मर्टन के योगदान के बारे में पढ़ा है। आपने इकाई 27 और 28 में पार्सन्स द्वारा विकसित सामाजिक व्यवस्थाओं की अवधारणा और प्रकार्यवाद एवं सामाजिक परिवर्तन के बारे में पढ़ा है। इकाई 29 और 30 में आपने मर्टन के अव्यक्त प्रकार्यों की अवधारणा के बारे में तथा उसके “समूह संदर्भ‘‘ से संबंधित सिद्धांत के बारे में पढ़ा है।
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य पर पार्सन्स और मर्टन की तुलनात्क समालोचना की चर्चा उपभाग 31.2.1 में की गई है। सामाजिक विश्लेषण के बारे में दोनों विद्वानों का प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण किन बातों में भिन्न है और किन बातों में समान है, इसके बारे में उपभाग 31.2.2 में विचार किया गया है। उपभाग 31.2.3 में सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना की अवधारणा के संबंध में उनके विचारों की व्याख्या की गई है। अंत में, उपभाग 31.2.4 में, उनके समाजशास्त्रीय सिद्धांत और सामाजिक परिवर्तन की उनकी अवधारणा का विवरण दिया गया है।
पार्सन्स और मर्टन : एक समालोचना
इससे पूर्व आपने टालकट पार्सन्स और रॉबर्ट के. मर्टन के कुछ महत्वपूर्ण समाजशास्त्रीयं योगदानों के बारे में पढ़ा है। इन दोनों को अमरीका के उन सर्वोत्कृष्ट समाजशास्त्रियों में गिना जाता है, जिनकी समाजशास्त्र की अवधारणाओं, सिद्धांतों और पद्धतियों पर गहरी छाप पड़ी है। इन दोनों ने ही 1940 से 1968 के दशकों में अमरीकी समाजशास्त्र को अपने योगदान के द्वारा नई अंतर्दृष्टि प्रदान की। यह समाजशास्त्र के विकास का वह ऐतिहासिक चरण था, जब यूरोप, लैटिन अमरीका और एशियाई देशों में समाजशास्त्र की अधिकांश परंपराओं को अमरीकन समाजशास्त्र ने प्रभावित किया। पार्सन्स और मर्टन एक ही समय के समाजशास्त्री थे, समाजशास्त्र के संबंध में दोनों के विचारों में पर्याप्त समानता थी, लेकिन ये दोनों समाजशास्त्र में अलग-अलग परंपराओं और पृष्ठभूमियों से आए थे। इसके अलावा, उनकी कार्य-पद्धतियां और सामाजिक समस्याओं तथा सामाजिक सिद्धांत के संबंध में चिंतन के क्षेत्र भी अलग-अलग थे। साथ ही, समसामयिक विश्व में समाजशास्त्र की भूमिका और सार्थकता के बारे में भी उनके विचार काफी अलग-अलग थे।
इससे पूर्व की चार इकाइयों (इकाई 27, 28, 29 और 30) के विशिष्ट संदर्भ में इन दोनों समाजशास्त्रियों के योगदानों में समानताओं और भिन्नताओं को स्पष्ट करने के लिए कुछ विशिष्ट विषयों पर यहां चर्चा की गई है। ये विषय हैंः समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य, प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण, सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना तथा समाजशास्त्रीय सिद्धांत एवं सामाजिक परिवर्तन । आइए, अब हम इन विषयों पर एक-एक करके विचार करें।
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के बारे में पार्सन्स और मर्टन की रचनाओं में समानता की बात यह है कि दोनों ही समाजशास्त्र को एक वैज्ञानिक विषय मानते हैं इसका अर्थ यह है कि समाजशास्त्र में समाज की संरचना और परिवर्तन से संबंधित न केवल कुछ अवधारणाओं और प्राक्कल्पनाएं (ीलचवजीमेमे) हैं बल्कि इन अवधारणाओं और प्राक्कल्पनाओं की वैधता की निरंतर जांच भी की जाती है। इन अवधारणाओं एवं प्राक्कल्पनाओं की वैधता अनुभव पर आधारित (मउचपतपबंस) तथा निष्पक्ष (वइरमबजपअम) अध्ययनों द्वारा जांच भी की जाती है। इस प्रयोजन के लिए समाजशास्त्र अपनी विशिष्ट पद्धतियों का इस्तेमाल करता है। इस दृष्टि से ये समाजशास्त्रीय अध्ययन जहां व्याख्यात्मक हैं, वहीं निदानात्मक (कपंहवदवेजपब) भी हैं, यानी इनके द्वारा समस्याओं को पहचाना जा सकता है। पार्सन्स और मर्टन की रचनाओं में समाजशास्त्र के वैज्ञानिक पक्ष पर बल दिया गया है। बाद के समाजशास्त्रियों ने इसे “प्रत्यक्षवाद‘‘ (चवेपजपअपेउ) कहकर इसकी आलोचना की है। ये लेखक इन दोनों समाजशास्त्रियों पर एक दोषारोपण करते हैं कि इन्होंने सामाजिक वास्तविकता के उन विशिष्ट ऐतिहासिक और प्रतीकात्मक अभिलक्षणों की उपेक्षा की है जिनका विज्ञान पर आधारित अनुभवाश्रित पद्धतियों से हटकर अन्य पद्धतियों द्वारा अध्ययन किया जाता है। इनमें भी जिस बात की विशेष रूप से आलोचना हुई है, वह है पार्सन्स और मर्टन का यह समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण कि जैविक व्यत्स्था और सामाजिक व्यवस्था में समानता है।
सोचिए और करिए 1
पिछले एक सप्ताह के समाचार पत्र पढ़िए। पढ़ते समय देश में घटित होने वाली विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं पर ध्यान दीजिए। आप समसामयिक भारतीय समाज में सर्वसम्मति या स्वीकृति की भूमिका और संघर्ष की भूमिका विषय पर दो पृष्ठ की टिप्पणी लिखिए। टिप्पणी लिखते समय पार्सन्स और मर्टन के सामाजिक विश्लेषण के प्रकार्यवादी दृष्टिकोण को ध्यान में रखिए। अपनी टिप्पणी में यह भी लिखिए कि आप इस दृष्टिकोण से सहमत हैं अथवा असहमत?
यदि संभव हो तो अपनी टिप्पणी की तुलना अपने अध्ययन केंद्र के दूसरे विद्यार्थियों की टिप्पणियों से कीजिए।
समाजशास्त्रीय परिपेक्ष्य के संदर्भ में इन दोनों समाजशास्त्रियों की रचनाओं में समान बातें होते हुए भी समाजशास्त्र के संबंध में इनकी अंतर्दृष्टि में हमें भिन्नता दिखाई देती है। समाजशास्त्र के सिद्धांत के विषय में पार्सन्स का दृष्टिकोण कहीं अधिक सार्वत्रिक (नदपअमतेंस) और सामान्य (हमदमतंस) है। उसकी अवधारणात्मक रूपरेखा अधिक अमूर्त (ंइेजतंबज) और दिक्-काल की सीमाओं से परे है। दूसरी ओर, मर्टन का समाजशास्त्रीय सिद्धांत के प्रति दृष्टिकोण अधिक संयत है। उसका जोर सिद्धांत (जीमवतल) और विचार पद्धति (उमजीवकवसवहल) के सार्वत्रिक प्रश्नों के बजाय विशिष्ट (ेचमबपपिब) प्रश्नों पर है। उदाहरण के तौर पर, मर्टन ने समाजशास्त्रीय सिद्धांत के अनुप्रयोग (ंचचसपबंजपवद) के रूप में संदर्भ समूह (तममितमदबम हतवनच) प्रतिमानता हीनता (ंदवउपम) अथवा विज्ञान की प्रकृति जैसे विशिष्ट विषयों को लिया है। दूसरी ओर, पार्सन्स ने क्रिया के सामान्य सिद्धांत (हमदमतंस जीमवतल व िंबजपवद) की बात की है।
प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण
पार्सन्स और मर्टन, दोनों ने ही समाजशास्त्रीय विश्लेषण के लिए प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। परंतु मर्टन का प्रकार्यवाद दिक्-काल की सीमाओं के भीतर है। इसका संबंध अनुभवाश्रित वास्तविकता से है। उसने हमारा ध्यान, विशेष रूप से इस बात की ओर दिलाया कि मलिनॉस्की तथा रैडक्लिफ-ब्राउन के सिद्धांत समसामयिक समाज के अध्ययन के लिए विशेष उपयोगी नहीं हैं। उसका कहना था कि मलिनॉस्की तथा रैडक्लिफ-ब्राउन ने ये अध्ययन अधिकतर विश्व के अधिकांश हिस्सों से अलग सरल जनजातीय समाज की वास्तविकता के संदर्भ में किए थे। अतः रैडक्लिफ-ब्राउन और मलिनॉस्की के प्रकार्यात्मक सिद्धांतों को ऐसे समाजों पर लागू नहीं किया जा सकता जहां पिछली दो-तीन शताब्दियों से ऐतिहासिक परंपराओं ने सामाजिक संस्थाओं को परिव्याप्त (वअमतसंच) किया हुआ है। मर्टन ने कहा कि ‘‘धर्म‘‘ एक ऐसी संस्था है, जो सरल जनजातीय समाज में एकात्मता स्थापित करती है और उन्हें जोड़ती है तो वही संस्था हमारे समाज में सामंजस्य को छिन्न-भिन्न भी कर सकती है, क्योंकि यहां विभिन्न धर्मों में प्रतिद्वंद्विता की स्थिति होती है। ऐसी स्थिति में समाज में धर्म प्रकार्यात्मक (एकात्मकता स्थापित करने वाला) होने की बजाय दुष्प्रकार्यात्मक (विघटनकारी) बन सकता है। इसी प्रकार, उसकी अव्यक्त और व्यक्त प्रकार्यों की संकल्पनाएं भी आधुनिक समाज के ऐतिहासिक अनुभव पर आधारित है। इसके विपरीत, पार्सन्स का प्रकार्यवाद विशिष्ट अथवा ऐतिहासिक दृष्टिकोण की चर्चा नहीं करता है। उसकी अनुकूलन (ंकंचजंजपवद), लक्ष्य प्राप्ति (हवंस-वतपमदजंजपवद), एकीकरण (पदजमहतंजपवद) और विन्यास अनुरक्षण (संजमदबल) जैसी प्रकार्यात्मक पूपिक्षाओं की अवधाणाएं समय और स्थान से परे हैं। इस बारे में आपने इकाई 27 में भी पढ़ा है। वे सामान्य (हमदमतंस) हैं और इतिहास निरपेक्ष (ंीपेजवतपबंस) हैं अर्थात् पार्सन्स के अनुसार वे सभी समाजों में और सभी समय में पाई जाती हैं।
कई कमियों के कारण बहुत से समाजशास्त्रियों ने पार्सन्स और मर्टन के प्रकार्यवाद की आलोचना की है। इन कमियों में से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है। ये हैंः उनका प्रकार्यवाद इस परिकल्पना पर अत्यधिक निर्भर है कि सामाजिक व्यवस्था सर्वसम्मति अथवा स्वीकृति के सिद्धांत पर आधारित है। इस प्रकार उनके प्रकार्यवाद में यह मान्यता है कि सभी संस्थाएं व्यापक रूप से कुछ मूल्यों और लक्ष्यों को प्रतिबिंबित करती है, जिन्हें सामान्यतः समाज में अधिकांश सदस्य स्वीकार करते हैं। इस प्रकार, इनके प्रकार्यवाद में सामाजिक व्यवस्था में असहमति और संघर्ष के पहलू को नजरअंदाज किया गया है। रंगभेद पर आधारित संघर्ष अथवा वर्ग-विरोध की उपेक्षा होने के कारण मार्क्सवादी समाजशास्त्री पार्सन्स और मर्टन के प्रकार्यवाद की आलोचना करते हैं। राजनीतिक समाजशास्त्री इसलिए आलोचना करते हैं क्योंकि इस प्रकार्यवाद में सामाजिक संस्थाओं की संरचना और प्रकार्य में सत्ता तथा प्रभुत्व की भूमिका की उपेक्षा की जाती है।
प्रकार्यवाद की मुख्य कमी यह नहीं है कि इन मुद्दों की पूरी तरह से अवहेलना की गई है क्योंकि सच तो यह है कि पार्सन्स और मर्टन ने समाज में असहमति तथा संघर्ष के पक्ष को भी लिया है। संभवतः जिस बात की उपेक्षा हुई है, वह है समाज में सर्वसम्मति और संघर्ष की भूमिका में संतुलन का अभाव। यह ऐसा प्रश्न है, जिसका उनके समाजशास्त्रीय सिद्धांत में समाधान नहीं हो सकता है।
आइए, अब बोध प्रश्न 1 को पूरा कर लें ताकि अभी तक की प्रगति को जाँचा जा सके।
बोध प्रश्न 1
प) नीचे दिए गए वाक्यों में रिक्त स्थानों को उपयुक्त शब्दों से भरिए।
क) पार्सन्स और मर्टन, दोनों ही समाजशास्त्र को एक …………………… विषय मानते थे।
ख) समाजशास्त्र के वैज्ञानिक पक्ष पर बल देने को बाद के समाजशास्त्रियों ने इसे ………………….
………. कह कर इसकी आलोचना की है।
ग) समाजशास्त्रीय सिद्धांत के बारे में पार्सन्स का दृष्टिकोण अधिक ……………….. और…………….. रहा है, जबकि मर्टन ने …………….. प्रश्नों पर जोर दिया है।
घ) मार्क्सवादी समाजशास्त्रियों ने समाज में वर्ग …………………… की उपेक्षा करने के कारण पार्सन्स और मर्टन के प्रकार्यवाद की आलोचना की।
पप) पार्सन्स और मर्टन के विश्लेषण के प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण की तुलना आठ पंक्तियों में कीजिए।
सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना
पार्सन्स और मर्टन दोनों ने भूमिका, प्रस्थिति, सामाजिक संरचना, सामाजिक व्यवस्था, वर्ग आदि की अवधारणाओं के बारे में विचार किया है। समाज विशेष की प्रकृति को समझने के लिए ये आधारभूत इकाइयां हैं। परंतु आपको यह भी मालूम है कि इस समानता के पीछे इन दोनों समाजशास्त्रियों में सूक्ष्म अंतर है। यह अंतर संभवतरू समाजशास्त्र के प्रति उनकी अंर्तदृष्टि में अंतर के कारण है। मर्टन की दृष्टि में समाजशास्त्र का आधारभूत प्रश्न है सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए समाजशास्त्र के संकल्पनात्मक प्रारूपों और इसकी पद्धतियों के इस्तेमाल का। इन समस्याओं का समाधान समाजशास्त्र में वर्तमान सिद्धांतों के द्वारा स्पष्ट रूप से किया जा सकता है। इसलिए मर्टन सामाजिक संरचना के विश्लेषण के बारे में अपेक्षाकृत संयत और स्पष्ट है, जैसा कि हमने संदर्भ समूह के उसके सिद्धांत में देखा है। पार्सन्स की तरह, मर्टन भी सामाजिक संरचना, प्रस्थिति और भूमिका की व्याख्या के लिए न केवल सामाजिक वरन मनोवैज्ञानिक कारकों को भी मद्दे-नजर रखता है। विशेष रूप से, आपने ध्यान दिया होगा कि उसने किसी समूह विशेष की सदस्यता में मनोवैज्ञानिक तत्वों पर विशेष बल दिया है। प्रत्याशी समाजीकरण (ंदजपबपचंजवतल ेवबपंसप्रंजपवद) की अवधारणा के संदर्भ में भी मनोवैज्ञानिक तत्वों पर ध्यान दिया गया है। पार्सन्स ने भी सामाजिक क्रियाओं को समझने में अभिप्रेरणात्मक परिप्रेक्ष्य पर बहुत अधिक बल दिया है। सामाजिक व्यवस्था को समझने के लिए पार्सन्स का दृष्टिकोण बहुत अमूर्त (ंइेजतंबज) और सामान्य (हमदमतंस) है, जबकि मर्टन के मध्य स्तर के सिद्धांतों की चर्चा की है। उसके अनुसार, मध्यस्तरीय सिद्धांतों में अवधारणात्मक अमूर्तीकरण तब आता है जब अनुभवाश्रित परिस्थितियों (मउचपतपबंस ेपजनंजपवदे) की ठोस यथार्थता को समझने का प्रयास किया जाता है। मर्टन ने सारे समाजों के लिए एक सैद्धांतिक रूपरेखा देने का प्रयास नहीं किया है।
समाजशास्त्रीय सिद्धांत और सामाजिक परिवर्तन
पार्सन्स और मर्टन, दोनों ने समाजशास्त्र और इसके स्वरूप के संबंध में सिद्धांत की भूमिका को पर्याप्त महत्व दिया है। मर्टन ने इस समस्या पर बहुत सावधानी से विचार किया और उसका विशेष ध्यान प्राक्कल्पनाओं की अनुभवाश्रित जांच में कमियों पर रहा है। वह समाजशास्त्रियों को आगाह करता है कि वे अति सामान्य अथा अमूर्त सिद्धांतों को बनाने में न लग जाएं। इस प्रकार के सिद्धांत में न तो ठीक से परिभाषित प्राक्कल्पनाएं होती हैं और न ही उनकी अनुभवाश्रित जांच के लिए आवश्यक साधन होते हैं। इसी कारण से मर्टन समाजशास्त्र में सामान्य सिद्धांत बनाने के पक्ष में नहीं है। उसके अनुसार मध्यस्तरीय सिद्धांत अधिक उपयुक्त है। इस सिद्धांत का स्वरूप यद्यपि सीमित है, फिर भी वह अत्यंत सुस्पष्ट है और वह अध्ययन की विशिष्ट समस्या को लेता है। इकाई 30 में आपने संदर्भ समूह सिद्धांत के बारे में पढ़ा था। यह मध्यस्तरीय सिद्धांत का एक अच्छा उदाहरण है। मर्टन के मत में तार्किक वर्गीकरण के साधन अर्थात् प्रतिरूप (चंतंकपहउे) मध्यस्तरीय सिद्धांत निर्माण के आवश्यक चरण हैं।
दूसरी ओर पार्सन्स सिद्धांत को बहुत ही सामान्य और अमूर्त रूप में लेता है। वह अवधारणाओं के वर्गीकरण के लिए शक्तिशाली तर्कमूल पद्धतियों का समर्थन करता है। इकाई 27 में विन्यास के प्रकारांतरों (चंजजमतद अंतपंइसमे) के निर्धारण के संदर्भ में इन अवधारणाओं के बारे में आपने पढ़ा है। वह समाजशास्त्र में एक ऐसे सामान्य और सार्वजनिक रूप से लागू हो सकने वाले सिद्धांत के बारे में सोचता है, जिसे किसी भी समाज पर किसी भी समय लागू किया जा सके। यह बात सामाजिक व्यवस्था को समझने और उसके विश्लेषण के संदर्भ में विशेष रूप से लागू होती है। लेकिन, सामाजिक परिवर्तन के विश्लेषण में विशेष रूप से जब वह विकासात्मक सार्विकीय तत्वों (मअवसनजपवदंतल नदपअमतेंसे) के बारे में विचार करता है तो वह इतिहास की विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं से गुजरते हुए विशिष्ट समाजों के बारे में बात करता है। साथ ही, जब वह विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं की संरचना के प्रकारों के बारे में बात करता है जो कि विन्यास के प्रकारांतरों की अवधारणा पर आधारित है तब भी वह अमूर्त और सामान्य सिद्धांत की ही बात कर रहा है।
पार्सन्स के क्रिया के सिद्धांत (जीमवतल व िंबजपवद) का व्याख्यात्मक दायरा बहुत व्यापक है। इसमें व्यक्तित्व प्रणाली (चमतेवदंसपजल ेलेजमउ) से लेकर सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का परीक्षण शामिल है। यह वास्तव में सामाजिक वास्तविकता के संपूर्ण क्षेत्र को अपने दायरे में समाहित कर लेता है। सिद्धांत के बारे में पार्सन्स का दृष्टिकोण भी अंतर्विषयक (पदजमत कपेबपचसपदंतल) है, जिसकी प्रासंगिकता केवल समाजशास्त्र के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह मनोविज्ञान, राजनीतिज्ञविज्ञान, अर्थशास्त्र, सांस्कृतिक नृशास्त्र और सामाजिक विज्ञान की दूसरी शाखाओं में भी उतना ही प्रासंगिक है। इसलिए सिद्धांत के संबंध में उसका परिप्रेक्ष्य मर्टन की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक है।
यह बात सामाजिक परिवर्तन के विश्लेषण से संबंध में भी उतनी ही सटीक है। पार्सन्स व्यवस्था में परिवर्तन और व्यवस्था के परिवर्तन के बीच भी अंतर करता है। वह परिवर्तन के इन दोनों पहलुओं का विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस विषय में आपने इकाई 28 में पढ़ा ही है।
दूसरी ओर, मर्टन मुख्य रूप से सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पर ही ध्यान केंद्रित करता है। पार्सन्स की तरह वह व्यवस्थात्मक (ेलेजमउपब) सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया में विकासात्मक सार्विकीय तत्वों का दिशा-निर्देश नहीं करता। पार्सन्स और मर्टन, दोनों का ध्यान सामाजिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों के विश्लेषण पर केंद्रित रहा है। इस विषय में दोनों के दृष्टिकोण में काफी समानता दिखाई देती है। दोनों समाजशास्त्रियों की दृष्टि में सामाजिक व्यवस्था विशेष में होने वाले परिवर्तनों के कारण सामाजिक समूहों के सदस्यों पर पड़ने वाले तनाव अथवा दबाव हैं। इन दबावों से समाज में निरंतर उनकी भूमिकाएं और परिस्थितियां पुनर्स्थापित होती रहती हैं। आकांक्षाओं को पुनः परिभाषित करने से उत्पन्न तनाव के कारण व्यक्तियों की भूमिका और प्रस्थिति में गतिशीलता आती है। मर्टन ने इसे प्रत्याशी समाजीकरण (ंदजपबपचंजवतल ेवबपंसप्रंजपवद) कहा है। पार्सन्स के अनुसार बहुविध हितों के संदर्भ में अभिप्रेरणात्मक परिप्रेक्ष्य से होने वाले तनावों से भी भूमिका और प्रस्थिति में गतिशीलता आती है। इस प्रकार, पार्सन्स और मर्टन दोनों ही इस विषय में एकमत हैं कि सामाजिक व्यवस्थाओं में आंतरिक विभेदीकरण (कपििमतमदजपंजपवद) और सामाजिक परिवर्तन के लिए एक सतत प्रवृत्ति क्यों पाई जाती है।
परंतु, पार्सन्स सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं में सामाजिक संचलन के बलों को और विभिन्न हित समूहों की गतिशीलता को भी आगे लाता है इसके अतिरिक्त उसने रूपांतरण के लिए निर्धारित चरणों के माध्यम से मानव समाजों में सामाजिक परिवर्तन की सामान्य विकासात्मक दिशा बताने का प्रयास किया है। इस विषय में आपने इकाई 28 में पढ़ा ही है। मर्टन ने सामाजिक परिवर्तन के इन पहलुओं यानी सामाजिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तनों की प्रायः उपेक्षा की है।
इकाई में चर्चा के अंतिम बिंदु पर पहुँचकर अब बोध प्रश्न 2 को पूरा करें।
बोध प्रश्न 2
प) सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना के अध्ययन के संबंध में पार्सन्स और मर्टन के विचारों में मुख्य-मुख्य अंतर और समानताएं क्या हैं, स्पष्ट कीजिए। उत्तर दस पंक्तियों में दीजिए।
पप) नीचे दिए गए वाक्यों में रिक्त स्थानों को उपयुक्त शब्दों से भरिए।
क) मर्टन के अनुसार अति सामान्य और अमूर्त सिद्धांतों के निर्माण के लिए न तो प्राक्कल्पनाओं के सुनिर्धारित समुच्चय है और न ही उनकी ………………. जांच के लिए आवश्यक साधन है।
ख) मर्टन की यह धारणा है कि केवल एक प्राक्कल्पना के परीक्षण के द्वारा हम समाजशास्त्रीय सिद्धांत की ……………… नहीं कर सकते।
ग) मर्टन के अनुसार तर्कमूलक वर्गीकरण के साधनों को ……………… कहते हैं, जो मध्यस्तरीय सिद्धांतों के निर्माण में आवश्यक चरण हैं।
घ) मर्टन के विपरीत, पार्सन्स ने …………… सार्विकीय तत्वों के द्वारा सामाजिक व्यवस्थाओं में परिवर्तनों के बारे में विचार किया है।
सारांश
इस इकाई में आपने टालकट पार्सन्स और राबर्ट के. मर्टन के विचारों की समालोचना कुछ नीचे दिए गए चुने हुए विषयों के संदर्भ में पढ़ी है।
प) उनका समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
पप) उनका प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण
पपप) सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना की अवधारणा की उनकी समझ
पअ) सामाजिक परिवर्तन पर उनका समाजशास्त्रीय सिद्धांत
पार्सन्स और मर्टन, दोनों ने, समाजशास्त्र को एक वैज्ञानिक विषय के रूप में माना है। लेकिन उन दोनों की समाजशास्त्र के संबंध में अंतर्दृष्टि भिन्न है। पार्सन्स का दृष्टिकोण मर्टन के दृष्टिकोण की अपेक्षा कहीं अधिक सार्वत्रिक और सामान्य है जबकि मर्टन का दृष्टिकोण पार्सन्स की अपेक्षा कहीं अधिक अनुभवाश्रित और अनुप्रयोगोन्मुखी (ंचचसपबंजपवद-वतपमदजमक) है। उन दोनों के प्रकार्यात्मक विश्लेषण में भी पर्याप्त समानता है, लेकिन मर्टन का दृष्टिकोण समय और स्थान सापेक्ष है, जबकि पार्सन्स का दृष्टिकोण सार्वत्रिक है। पार्सन्स के दृष्टिकोण को उसके अनुसार किसी भी सामाजिक व्यवस्था पर और किसी भी समय पर लागू किया जा सकता है।
इस इकाई में आपने उन सामान्य तरीकों के बारे में पढ़ा, जिनके द्वारा पार्सन्स और मर्टन ने सामाजिक व्यवस्थाओं तथा सामाजिक संरचना का अध्ययन किया। दोनों ने ही भूमिका, प्रस्थिति, सामाजिक संरचना आदि की अवधारणाओं का भी अध्ययन किया। लेकिन पार्सन्स ने एक सामान्य, अमूर्त सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जबकि मर्टन का सिद्धांत मध्यस्तरीय है।
अंत में इस इकाई में हमने चर्चा की है कि दोनों समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन का एक सिद्धांत प्रस्तुत किया। पार्सन्स ने सामाजिक परिवर्तन का वर्णन सामाजिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्थाओं के परिवर्तन के रूप में किया। मर्टन ने भी व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन के सिद्धांत का वर्णन किया, लेकिन उसने सामाजिक व्यवस्थाओं के परिवर्तन के अध्ययन की प्रायः उपेक्षा की।
शब्दावली
अंतर्दृष्टि (vision) यह पार्सन्स और मर्टन के समाजशास्त्र के प्रति मानसिक बिंब की ओर संकेत करती है। इसमें उनकी समाजशास्त्र के परिप्रेक्ष्य और समाजशास्त्र से उनकी क्या अपेक्षाएं हैं – ये दोनों बातें सम्मिलित हैं।
निदानात्मक (diagnosotic) यह रोग के लक्षणों की परीक्षा करके रोगी की दशा के बारे में निर्णय लेने की प्रक्रिया है। इस संदर्भ में, सामाजिक रोगों अथवा समस्याओं की ओर संकेत किया गया है।
प्रत्यक्षवाद इसके अंग्रेजी पर्याय positivism का सर्वप्रथम प्रयोग आगस्ट कॉम्ट (1798-1857)ने किया था। यह शब्द दो तथ्यों की ओर संकेत करता है। पहले तो यह भौतिकी, रसायन, जीव विज्ञान आदि प्राकृतिक विज्ञानों को मानवीय ज्ञान के प्रतिमान के रूप में ग्रहण करता है। दूसरे, इसमें प्राकृतिक विज्ञानों जैसा ही विशिष्ट दृष्टिकोण सामाजिक अध्ययन के लिए रखना होता है।
प्राक्कल्पनाएं (hypotheses) ऐसे सिद्धांत जिन्हें कुछ तथ्यों की व्याख्या के लिए अंतरिम रूप में स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन तभी तक जब तक उनकी जांच नहीं की गई होती है।
कुछ उपयोगी पुस्तकें
हैमिल्टन, पीटर 1983. टालकट पार्सन्स. रूटलजः लंदन एंड न्यूयार्क
टर्नर, जे.एच. 1987. द स्ट्रक्चर ऑफ सोशियोलॉजिकल थ्योरी. रावत पब्लिकेशन्सः जयपुर,
चतुर्थ संस्करण
बोध प्रश्नो के उत्तर
बोध प्रश्न 1
प) क) वैज्ञानिक
ख) प्रत्यक्षवादी
ग) सार्वत्रिक, सामान्य। सिद्धांत और विचार पद्धति के विशिष्ट
घ) विरोध
पप) पार्सन्स और मर्टन, दोनों के प्रकार्यवद में यह परिकल्पना अंर्तनिहित है कि जैविक व्यवस्था में समानता है। लेकिन मर्टन प्रकार्यवाद के बारे में अधिक विशिष्ट रूप में विचार करता है जो समाजों में पाई जाने वाली अनुभवाश्रित वास्तविकता पर आधारित है और जो स्थान तथा समय के संदर्भ में है परंतु पार्सन्स का प्रकार्यवाद अत्यधिक अमूर्त और सामान्य है। उसकी सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक पूर्वपक्षाएं हैंः अनुकूलन, लक्ष्य प्राप्ति, एकीकरण और विन्यास अनुरक्षण। ये स्थान और समय से बाधित नहीं हैं यानी समय और स्थान से परे हैं। पार्सन्स के अनुसार ये सर्वत्र सभी सामाजिक व्यवस्थाओं में पाई जाती हैं।
बोध प्रश्न 2
प) पार्सन्स और मर्टन, दोनों ने ही भूमिका, सामाजिक संरचना, सामाजिक व्यवस्था, समूह, आदि को समाज के स्वरूप को समझने के लिए आधारभूत इकाई माना है। लेकिन समाजशास्त्र के संबंध में उनकी अंर्तदृष्टि में अंतर होने के कारण उनके चिंतन का क्षेत्र अलग हो गया है। मर्टन ने सामाजिक समस्याओं के अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की अवधारणाओं और पद्धतियों को लागू करने का प्रयास किया। उसने अनुभवाश्रित वास्तविकता को समझने के लिए सिद्धांत का उपयोग करना चाहा। इन दोनों ने सामाजिक व्यवस्थाओं और सामाजिक संरचना के अपने अध्ययन में मनोवैज्ञानिक कारकों का प्रयोग किया। जैसे पार्सन्स ने अभिप्रेरणात्मक परिप्रेक्ष्य का और मर्टन ने प्रत्याशी समाजीकरण का उपयोग किया।
पप) क) अनुभवाश्रित
ख) जांच
ग) प्रतिरूप
घ) विकासात्मक
संदर्भ ग्रंथ सूची
(अ)
ब्लैक, मैक्स, (संपादित) 1961. द सोशल थ्योरीज ऑफ टालकट पार्सन्स ए क्रिटिकल एग्जामिनेशन. पेंटिस हॉल, ई.एन.सी.ः इंग्लवुड क्लिफ्स, एन.जे.
क्लार्क, टैरी निकोलस 1999. रॉबर्ट के. मर्टन एण्ड कंटेम्प्रेरी सोशियोलॉजी. कंटेम्प्रेरी सोशियोलॉजी. 28(6)ः 744
कोहेन, पर्सी 1968. मार्डन सोशल थ्योरी. हाइमैन एजुकेशनल बुक्स लि.ः लंदन, चैप्टर 3
फंक एंड बैगनल 1983. न्यू इनसाइक्लोपीडिया. वाल्यूम 13. पृष्ठ 370-371, द इन एंड ब्रैडस्ट्रीट कॉर्प. यू. एस. ए.
फैदरस्टोन, रिचर्ड एंड मैथ्यू डैफलम 2003. अनोमी एंड स्ट्रेनः कंटैक्सट एंड काँसिक्वेंसेस आफ मर्टन्स टू थियरीज. सोशियोलॉजिकल इंक्वायरी 73(4)ः47
हैमिल्टन, पीटर 1983. टाल्कट पार्सन्सः की सोशियोलॉजिस्ट्स सीरीज रूटलैज: लंदन
मलिनॉस्की, बी. 1960. ए साइंटिफिक थ्योरी ऑफ कल्चर एंड अदर एसेज. ऐ गैलेक्सी बुक, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेसः नई दिल्ली
मर्टन. आर. के. 1968. सोशल थ्योरी एंड सोशल स्ट्रक्चर. फ्री प्रेसः न्यूयार्क
मिचल, डनकेन, जी.(संपादित) 1981.ए न्यू डिक्शनरी ऑफ सोशियोलॉजी. रूटलेज एंड केगन पॉलः लंदन
मोंगार्दिनि, कार्लो एण्ड सिमोनेटा तब्बोनि (सम्पादित) 1998. रॉबर्ट के. मर्टन एण्ड कंटेम्प्रेरी सोशियोलॉजी. ट्रान्सैक्शनः न्यू ब्रन्सविक, न्यू जर्सी
पार्सन्स टालकट 1937. द स्ट्रक्चर ऑफ सोशल एक्शन. मैकग्रॉहिल (पुनर्मुद्रण संस्करण, 1949)ः न्यूयार्क
पार्सन्स टालकट 1951. द सोशल सिस्टम द फ्री प्रेस: इलिनोय
पार्सन्स टालकट 1966. सोसाइटिज: एवल्यूशनरी एंड कम्पैरेटिव पर्सपक्टिव. पें्रटिस हॉलः इंग्लवुड क्लिफस एन.जे.
पार्सन्स टालकट 1967. सोशियोलॉजिकल थ्योरी एंड मॉडने सोसाइटी. फ्री प्रेसः न्यूयार्क
पार्सन्स टालकट 1971. द सिस्टम ऑफ मॉडर्न सोसायटीज. पेंटिस हॉलः इंगलवुड क्लिफ्स,एन.जे.
पार्सन्स टालकट 1977. द एवल्यूशन ऑफ सोसायटीज पेंटिस हॉलः इंगलवुड क्लिफ्स
रैडक्लिफ-ब्राउन, ए.आर. 1952. स्ट्रक्चर एंड फंक्शन इन प्रिमिटिव सोसायटीज कोहेन एंड वेस्ट लि.ः लंदन
स्टॉफर एस.ए. और अन्य 1949. द अमेरिकन सोलजर कमबैट एंड इट्स आफ्टरमाथ. वाल्यूम प्-प्प् प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेसः लंदन
टर्नर, जे.एच. 1987. स्ट्रक्चर ऑफ सोशियोलॉजिकल थ्योरी. रावत पब्लिकेशनः जयपुर
वेब्लेन टी. 1899. थ्योरी ऑफ द लेजर क्लास. मैकमिलनः न्यूयार्क
(ब) हिंदी में उपलब्ध पुस्तकें
फर्फे, पाल हान्ले 1973. समाजशास्त्र का क्षेत्र एवं पद्धति. (अनुवादक) हरिशचन्द्र उप्रेती, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमीः जयपुर
सिंह, आर.जी. समाजशास्त्र की मूल अवधारणाएं. मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमीः भोपाल
श्रीवास्तव, सुरेन्द्रकुमार समाजविज्ञान के मूल विचारक उत्तर प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमीः लखनऊ
पार्सन्स और मर्टन के विचारों की समालोचना
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
पार्सन्स और मर्टनः एक समालोचना
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण
सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना
समाजशास्त्रीय सिद्धांत और सामाजिक परिवर्तन
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आपके लिए पार्सन्स और मर्टन के विचारों की नीचे दिए गए चर्चा बिंदुओं पर समालोचना प्रस्तुत करना संभव होगा
ऽ समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
ऽ सामाजिक विश्लेषण के प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण
ऽ सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक संरचना की समझ
ऽ समाजशास्त्रीय सिद्धांत और सामाजिक परिवर्तन
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics