पुनर्जागरण किसे कहते हैं | पुनर्जागरण की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब renaissance in hindi meaning
renaissance in hindi meaning definition in sociology पुनर्जागरण किसे कहते हैं | पुनर्जागरण की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब ?
शब्दावली
पुनर्जागरण (renaissance) : इसका शाब्दिक अर्थ है पुनर्जन्म या पुनरुद्धार। इसका प्रयोग यूरोप में चैदहवीं, पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दियों में कला, साहित्य और ज्ञान के पुनर्जागरण या पुनरुद्धार के लिए किया जाता है।
आधारनामी (eponymous) : किसी गोत्र या चरण के आधारभूत प्रवर्तक। हिंदुओं में गोत्र या तो जन्म से होते हैं या ऋषियों अथवा गुरुओं के नाम पर । इन ऋषियों या गुरुओं को आधारनामी कहते हैं।
एकलकृषि लगातार कुछ वर्षों तक एक नकदी फसल की खेती करना। इससे मृदा की पोषकता समाप्त हो (mono&cultivation) जाती है और जमीन बंजर हो जाती है।
धर्मसिद्धान्त (canon) : धर्म के नियम और सामान्य सिद्धांत
कोष्ठीकरण : किसी विषय अथवा वस्तु को अलग-अलग विभाजित करना। इस इकाई में कोष्ठीकरण से हमारा (compartmentalisation) अभिप्राय सामाजिक विज्ञानों का विभिन्न विषयों में विभाजन से है। जैसे इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र आदि।
नैतिक सापेक्षवाद एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में मूल्यों की विभिन्नता को नैतिक सापेक्षवाद कहते हैं।
(ethical relativism)
पारिस्थितिकी (ecology) पर्यावरण से संबंधित वनस्पतियों, प्राणियों, जनसमूहों और संस्थाओं का अध्ययन करने वाले विज्ञान को पारिस्थितिकी अथवा परिस्थिति विज्ञान कहते हैं।
सुधारात्मक (ameliorative) : ऐसा उपाय जिससे किसी सामाजिक समूह का कल्याण अथवा सुधार हो सके
उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप के द्वारा संभव होगा
ऽ समाजशास्त्र के तीन अग्रणी विद्वानों के योगदान का वर्णन करना
ऽ राधाकमल मुकर्जी, धूर्जटीप्रसाद मुकर्जी और गोविंद सदाशिव घुर्ये के जीवन का संक्षिप्त विवरणं देना
ऽ समाजशास्त्र के बारे में उनके कुछ मुख्य विचारों की व्याख्या करना
ऽ उनकी कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं के नाम जानना।
प्रस्तावना
इस खंड की इकाई 4, भारत में समाजशास्त्र का इतिहास और विकास-प्, में आपने भारत में समाजशास्त्र के उद्भव के बारे में पढ़ा था। हमने आपको बताया था कि कैसे भारतीय विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र विषय की नींव डाली गई। इकाई 4 में हमने कई भारतीय और विदेशी विद्वानों के द्वारा समाजशास्त्र के विकास में किए गए योगदान के बारे में और समाजशास्त्र के सामाजिक नृशास्त्र और भारत-शास्त्र (Indology) विषयों के साथ संबंधों पर प्रकाश डाला था। इसलिए, आपको भारत में समाजशास्त्र के विकास की पृष्ठभूमि की मोटी जानकारी मिल चुकी है।
इकाई 5 में हमने भारत में समाजशास्त्र के तीन प्रमुख अग्रणी विद्वानों के योगदान की जानकारी दी है। ये विद्वान हैं, राधाकमल मुकर्जी (1889-1968), धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी (1894-1962) और गोविंद सदाशिव घुर्ये (1893-1984)। हमने इनके नामों का उल्लेख पिछली इकाई में भी किया था लेकिन इस इकाई में हमने उनके मुख्य विचारों की चर्चा की है। ये उस समय से संबंधित थे जब प्रत्येक भारतीय के हृदय में आजादी की ज्योति जल रही थी। इन विद्वानों की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना थी। इसका प्रभाव इनकी रचनाओं पर भी पड़ा।
इस इकाई के भाग 5.2 में राधाकमल मुकर्जी, धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी और गोविंद सदाशिव घुर्ये आदि विद्वानों का सामान्य परिचय दिया गया है। भाग 5.3 में राधाकमल मुकर्जी के जीवन परिचय, मुख्य विचार और महत्वपूर्ण रचनाओं का विवेचन किया गया है। भाग 5.4 धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी के जीवन परिचय, मुख्य विचारों और महत्वपूर्ण रचनाओं का विवरण दिया गया है। अंत में भाग 5.5 में गोविंद सदाशिव घुर्ये का जीवन परिचय, उनके मुख्य विचार और महत्वपूर्ण रचनाओं की जानकारी दी गई है।
भारत में समाजशास्त्र के अग्रणी विचारक
इस इकाई में राधाकमल मुकर्जी, धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी और गोविंद सदाशिव घुर्ये के समाजशास्त्र संबंधी योगदान पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। ये भारतीय शैक्षिक जगत के समसामयिक विद्वान थे। राधाकमल मुकर्जी और धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी, दोनों लखनऊ विश्वविद्यालय में । अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग में अध्यापन कार्य में संलग्न थे, जबकि गोविंद सदाशिव घुर्ये मुंबई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में पढ़ाते थे। अध्यापक, शोधकार्य के मार्गदर्शक और लेखक के रूप में इनकी रचनाओं का भारत में समाजशास्त्र पर, विशेषतः बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में, गहरा प्रभाव पड़ा। समाजशास्त्र के प्रति इनका समान दृष्टिकोण था। इनकी रचनाओं में समाजशास्त्र के अलावा अन्य कई समाज विज्ञानों की रचनाएं भी शामिल थीं। राधाकमल मुकर्जी ने समाज विज्ञानों के कोष्ठीकरण (बवउचंतजउमदजंसप्रंजपवद) की आलोचना की। अपनी रचनाओं में इन्होंने अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और इतिहास को एक साथ प्रस्तुत किया। वे हमेशा विभिन्न समाज विज्ञानों में समान आधार अथवा उन्हें जोड़ने वाली कड़ी की खोज में रहते थे। धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी मार्क्सवादी विचारधारा को मानने वाले थे। उन्होंने भारतीय समाज में परंपरा और आधुनिकता के बीच संवादात्मक (कपंसमबजपबंस) संबंधों के संदर्भ में लिखा। वे एक ऐसे भारतीय व्यक्तित्व की खोज में थे जिसकी आधुनिकता भारतीयता पर आधारित हो। उनके विचारों में यदि कोई भारतीय अपनी सांस्कृतिक विरासत से विच्छिन्न हो गया हो तो उसे संतुलित व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। घुर्ये जनजातियों और जातियों के संदर्भ में नृशास्त्र विशारद थे लेकिन उन्होंने दूसरे विषयों पर भी विस्तृत रूप से लेखन कार्य किया।
अपने लेखों में घुर्ये ने राष्ट्रीय एकीकरण पर बल दिया। उनके विचार में हिन्दू धर्म की विचारधारा भारतीय समाज की मार्गदर्शक शक्ति है। हमारे देश में धर्मनिरपेक्षवाद हिंदू धर्म की सहिष्णुता की भावना का ही प्रतीक है। समाजशास्त्रीय रचनाओं में अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने ऐतिहासिक और सांख्यिकीय सामग्री प्रस्तुत की परन्तु उनमें और राधाकमल मुकर्जी में अंतर था। राधाकमल मुकर्जी व्यापक अर्थों में अर्थशास्त्री ही रहे। डी. पी. मुकर्जी भी अर्थशास्त्री थे। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का अध्यापन किया। लेकिन घुर्ये ने अपनी रचनाओं में अर्थशास्त्र पर चर्चा नहीं की।
राधाकमल मुकर्जी और घुर्ये दोनों ने ही अपने अध्ययन कार्यो में परिशुद्ध शोध पद्धतियों को नहीं अपनाया। उन्होंने भारतीय सामाजिक यथार्थ की जांच करने के लिए भी परिकल्पनाओं का सहारा नहीं लिया। उन्होंने जो लेख और पुस्तकें लिखीं. वे या तो अंशतः अपनी निजी प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर लिखीं या कुछ सार्वजनिक जीवन के दबाव की प्रतिक्रिया में लिखीं। इसलिए उनके शैक्षिक जीवन में कोई निर्धारित योजना नहीं दिखाई देती है। उन्होंने भारत में परिवार-पद्धति, जातियाँ और वर्ग, शहरी केन्द्र तथा कृषि संबंधी या ग्रामीण जीवन आदि विभिन्न सामयिक विषयों पर लेख लिखे। उनकी रचनाओं में भारतीय धर्मग्रन्थों, धर्मसिद्धान्त ग्रंथों, महाकाव्यों और पुराणों के पर्याप्त प्रसंग मिलते हैं। अपने जीवन के पिछले दिनों में राधाकमल मुकर्जी ने कई महत्वपूर्ण संस्कृत रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। घुर्ये ने जब समाजशास्त्र के क्षेत्र में प्रवेश किया तो उससे पूर्व उन्हें संस्कृत का अच्छा प्रशिक्षण मिला था। उन्होंने वैदिक काल के भारत पर जो लेखन कार्य किया, उससे उनकी संस्कृत ग्रंथों में रुचि का पता चलता है। आइए, अब हम इन तीनों विचारकों के जीवन परिचय, मुख्य विचारों और महत्वपूर्ण रचनाओं के बारे में अलग-अलग चर्चा करें।
सारांश
इस इकाई में आपने भारतीय समाजशास्त्र के तीन प्रमुख अग्रणी विचारकों के बारे में पढ़ा जिनके नाम हैं, राधाकमल मुकर्जी (1889-1968), धूर्जटी प्रसाद मुकर्जी (1894-1962), और गोविंद सदाशिव घुर्ये (1893-1984)।
आपने इन तीन विचारकों के जीवन परिचय के बारे में पढ़ा। हमने समाजशास्त्र में उनके प्रमुख विचारों की व्याख्या की। इन सभी विचारकों ने समाज के अध्ययन का विवरण अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। इन विचारकों ने भारत की सांस्कृतिक परंपरा, कला और सभ्यता का अध्ययन प्रस्तुत किया। अंत में, हमने इन तीन विचारकों की महत्वपूर्ण रचनाओं की सूची दी है।
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