दलित पैंथर आंदोलन क्या है | दलित पैंथर्स का उदय स्थापना कब और किसने की मुद्दे dalit panthers in hindi
dalit panthers in hindi दलित पैंथर आंदोलन क्या है | दलित पैंथर्स का उदय स्थापना कब और किसने की मुद्दे उठाये ?
दलित पंथेर आंदोलन
सन् 1972 में, महाराष्ट्र के दो मुख्य शहरों में, दलितों के एक शिक्षित समूह – युवा दलित लेखकों व कवियों ने ‘दलित पंथेर‘ नामक एक संगठन बनाया। अम्बेडकरवाद, मार्क्सवाद व ‘‘नीग्रो साहित्य‘‘ से प्रभावित इन लोगों ने उस जाति-व्यवस्था के बहिष्कार को लक्ष्य बनाया जो उनके अनुसार ब्राह्मणवादी हिन्दूवाद पर आधारित थी। सार्वजनिक स्थल, यानी, कार्यालय, घरों, चाय की दुकानों, सार्वजनिक पुस्तकालयों में चर्चाओं व वाद-विवादों के मार्फत जन-संपर्क व संचार नेटवर्क के माध्यम से, दलित लेखकों व कवियों ने हिन्दू जाति-व्यवस्था व शोषक आर्थिक व्यवस्था की समालोचना प्रस्तुत की।
‘दलित पंथेर‘ के मूल को उस विवाद में खोजा जा सकता है जो एक सामाजिक पत्रिका ‘साधना‘ में दलित लेखकों द्वारा लिखे गए लेखों व कविताओं के इर्द-गिर्द केन्द्रित था। इन लेखों में सार्वजनिक विवादास्पद था राजा धाले का लेख। यह विवाद दो बिन्दुओं के आस-पास केन्द्रित थाय एक, दलित महिला के अपमान पर पचास रुपये के जुर्माने की तुलना सौ रुपये में करना, जो राष्ट्रीय झण्डे के अपमान पर जुर्माना होता है। दूसरा, बिन्दु था उन बातों का दोहराया जाना, जो एक अन्य विख्यात दलित-मार्क्सवादी लेखक, नामदेव धासल के कविता-संग्रह – गोलपिता, के प्रकाशन समारोह में पहले हो चुकी थीं। ‘गोलपिता‘ की कविताएँ महिलाओं के शोषण से भी संबंधित थीं।
उच्च जाति के मध्यवर्ग ने उन लेखों द्वारा घोर अपमान महसूस किया और ‘साधना‘ के उस अंक पर प्रतिबंध लगाने की माँग की जिसमें राजा धाले कृत लेख थे। प्रतिक्रियास्वरूप, दलित युवाओं ने हाथों में लाल-व-काला पंधेर ध्वज लेकर एक रक्षा-मार्च भी आयोजित किया। पारम्परिक संगठनात्मक नामकरण को छोड़ने के लिहाज से, उन्होंने अपने संगठन को नया नाम दिया – दलित पंथेर । ‘दलित पंथेर‘ के कार्यकर्ता प्रथम-सीढ़ी के शिक्षित युवा थे, जिसके माता-पिता वे गरीब किसान व श्रमिक थे जिनको अम्बेडकर आंदोलन की बपौती विरासत में मिली थी।
प्रारंभिक रूप से इस आंदोलन ने शोषित लोगों – दलितों, पिछड़े वर्गों, कामगारों व किसानों, का एक गठजोड़ बनाने की उद्घोषणा की। इसका कार्यक्रम महिलाओं की समस्याओं, शुद्धता व प्रदूषण के ब्राह्मणवादी सिद्धांतों का परित्याग, तथा सभी प्रकार के राजनीतिक व आर्थिक शोषणों के खिलाफ जंग के इर्द-गिर्द केन्द्रित था। अम्बेडकरवाद की परम्परा में, उनका लक्ष्य था राजनीतिक सत्ता हासिल करना । यह आंदोलन सत्तर के दशक के इस रिपब्लिकन आंदोलन की असफलता को देखते हुए जन्मा जिसने अपने नेतृत्व के व्यक्तित्व मतभेदों की वजह से हानि उठाई थी। अपने मुख्य नेतृत्व द्वारा कांग्रेस अथवा किसी अन्य संगठन में शामिल हो जाने के साथ ही, आर.पी.आई. आंदोलन एक महत्त्वहीनप्राय शक्ति बन चुका था। लेकिन इस आंदोलन द्वारा बोए गए बीज दलित पंधेर व उसके आंदोलन के संघटन में फलीभूत हुए। परन्तु आर.पी.आई. आंदोलन की भाँति, इसको भी विच्छेद का कष्ट भोगना पड़ा। दलित पंथेर के दो नेताओं, राजा धाले और नामदेव धासल ने वैचारिक आधार पर मतभेद बढ़ा लिए। पहले एक उत्साही अम्बेडकरवादी रहे व्यक्ति ने नामदेव धासल, एक मार्क्सवादी, पर जाति-समस्या की अनदेखी करने और दलित पंथेर आंदोलन में कम्यूनिस्टों की घुसपैठ में मदद करने का आरोप लगाया। यह अन्ततः 1974 में दलित पंथेर से धासल के निष्कासन में परिणत हुआ। राजा धासल ने दलित पंथेर का एक पृथक् गुट बना लिया।
1976 में, अरुण काम्बले और रामदास अथावले के नेतृत्व वाले धाले गुट के युवा सदस्यों ने, इसको एक अखिल भारतीय रूप देने के प्रयास में, एक नया संगठित ‘भारतीय दलित पंथेर‘ बना लिया। इसने शिक्षा-प्रणाली, बौद्ध-धमोन्तरितों को सुविधाएं, औरंगावाद-स्थित ‘मराठवाड़ा विश्वविद्यालय‘ का पुनर्नामकरण ‘अम्बेडकर विश्वविद्यालय‘ किए जाते, तथा “प्राथमिक उद्योगों का राष्ट्रीयकरण‘‘ से संबंधित मुद्दे उठाए। परन्तु यह भी कोई छाप नहीं छोड़ सका।
दलित पंथेर सभी शोषितों का गठजोड़ करने में सफल नहीं हो सका। यह अम्बेडकरवादियों और मार्क्सवादियों में बँट गया, विशेषतः बम्बई संसदीय निर्वाचन-क्षेत्र के 1974 के उप-चुनाव के बाद ।
कुछ उपयोगी पुस्तकें व लेख
ओम्वेद्त, गेल, रिइनवेंटिंग रिवल्यूशन: न्यू सोशल मूवमेण्ट्स एण्ड सोशलिस्ट ट्रेडीशन्स इन् इण्डिया, एम.ई.शार्प, इंग्लैंड, 1993.
दुबे, सौरभ, अनटचेबल्स पास्ट्स: रिलीजन, आइडेंटिटी, एण्ड पॉअर अमंग ए सैंट्रल इण्डियन कम्यूनिटी, 1780-1950, स्टेट यूनीवर्सिटी ऑव न्यू यॉर्क प्रैस, 1998.
पाई, सुधा, दलित एसर्सन एण्ड दि अनफिनिश्ड डेमोक्रेटिक रिवल्यूशन: बहुजन समाज पार्टी इन् उत्तर प्रदेश, नई दिल्ली सेज पब्लिकेशन्स, 2002.
मेण्डलसोन, अॅलीवर एण्ड बिब्जिअनी, मरिका, दि अनटचेबल्स: सबोर्डिनेशन, पॉवर्टी एण्ड दि स्टेट इन् मॉडर्न इण्डिया, कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज, 1998.
बोध प्रश्न 3
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें ।
1) पचास व साठ के दशक के दौरान भारत में दलित आंदोलन के मौलिक अभिलक्षण क्या थे।
2) दलित पंथेर के उदय के लिए जिम्मेदार कारकों पर चर्चा करें।
3) नब्बे के दशक के दौरान दलित आंदोलन के मौलिक अभिलक्षणों का वर्णन करें।
बोध प्रश्न 3
1) ये थे: दलितों के बीच, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के कार्यान्वयन, शैक्षणिक व राजनीतिक संस्थानों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण जैसी राज्य-नीतियों का लाभ उठाने वालों का उदय। इस चरण में दलित कोई स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में नहीं उभरेय इसकी बजाए वे ही कांग्रेस जैसे बड़े राजनीतिक दलों द्वारा लामबंद किए गए। बहरहाल, उनमें से बहुसंख्यक उत्तर-प्रदेश व महाराष्ट्र में आर.पी.आई. के प्रभाव आ गए।
2) ये थे: अम्बेडकरवाद, मार्क्सवाद व ‘‘नीग्रो साहित्य‘‘ का प्रभाव, और एक विवाद जो महाराष्ट्र में दलित बुद्धिजीवियों द्वारा लिखे गए लेखों व कविताओं से और उच्च जातियों की प्रतिक्रिया से उठा।
3) इस काल ने देखा देश के विभिन्न भागों में दलित संगठनों के प्रचुरोद्भव द्वारा इंगित एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में दलितों का उद्भव। उत्तर भारत में श्बसपाश्, विशेषतः उत्तर प्रदेश में, एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में उनके उदय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
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