जाति और वर्ग में अंतर क्या है स्पष्ट कीजिए बताइए | difference between caste and category in hindi

difference between caste and category in hindi जाति और वर्ग में अंतर क्या है स्पष्ट कीजिए बताइए किसे कहते है ?

जाति तथा वर्ग
कुछ विद्वानों के अनुसार, जाति प्रथा अनिवार्य रूप से एक वर्ग-व्यवस्था है। आरम्भ के रचनात्मक वर्षों में ऐसा आवश्यक भी था। ये वर्ग थे: राजण्य अथवा क्षत्रिय. अभिजात वर्ग, ब्राह्मण, पुरोहित, वैश्य, विशाल जनसाधारण, मुख्यतः कृषक व व्यापारी, और शूद्र, यानी सेवक समुदाय । इस व्यवस्था के उद्भव की विभिन्न परिकल्पनाएँ हैं। कुछ का मानना है कि यह व्यवस्था समाज में समरसता बनाए रखने के लिए दैविक शक्ति द्वारा बनायीं गई। इसी के अनुसार, किसी का जन्म एक जाति विशेष में पूर्वजन्म के उसके कर्मों के कारण होता है। दूसरे यह मानते हैं कि यह व्यवस्था आर्थिक अतिरेक के विकास के साथ समय के साथ ही विकसित हुई। यह आर्थिक विभाजनों के साथ अस्तित्व में आई। अथबा आक्रान्ताओं ने स्थानीय जनजातीय लोगों को अधीन बनाने के लिए उसे रचा।

स्वतंत्रोत्तर काल में देश के विभिन्न भागों में किए गए अनेक ग्राम अध्ययन जाति व भूमि के जुड़वाँ पदानुकमों के बीच थोड़ा-बहुत अधियापन दर्शाते हैं । एन.एम. श्रीनिवास का अवलोकन है – “ग्राम समुदाय में अधिक्रमिक समूह होते थे. प्रत्येक के अपने अधिकार, कर्त्तव्य तथा विशेषाधिकार थे। सर्वोच्च जाति के पास वो शक्ति व विशेषाधिकार होते थे जो निम्नतर जातियों के लिए मना थे। निम्न जातियाँ थीं – काश्तकार, सेवक, भूमिहीन श्रमिक, कर्जदार तथा उच्च जातियों के सेवार्थी।‘‘ सत्तर के दशकांत वर्षों में शिवकुमार व शिवकुमार द्वारा तमिलनाडु के दो गाँवों से एकत्रित किए आँकड़े यह दर्शाते हैं कि 59 प्रतिशत मुदालियर (उच्च जाति) तथा चार प्रतिशत पल्ली (अछूत जाति) धनी कृषक अथवा भू-स्वामी कुटुम्ब हैं। कोई भी मुदालियर कृषि-श्रमिक में रूप नहीं लगा है, जबकि 42 प्रतिशत पल्ली कुटुम्ब अपनी आजीविका खेत-मजदूरों के रूप में अर्जित करते हैं। सत्तर के दशके में के. एल. शर्मा द्वारा किया गया राजस्थान के छह गाँवों का अध्ययन इसी प्रकार का प्रतिमान प्रस्तुत करता है: ‘‘मात्र 12.5 प्रतिशत निम्नवर्गीय कुटुम्ब ऊंची जातियों से संबद्ध हैं, 60 प्रतिशत उच्चवर्गीय कुटुम्ब ऊँची जातियों से संबद्ध हैं, 24 प्रतिशत ऊँची जातियाँ उच्च वर्ग से सम्बद्ध हैं, जबकि माध्यमिक तथा‘‘ भारतीय न -वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने ‘‘भारत के लोग (पीपल ऑव इण्डिया)‘‘ पर अपनी परियोजना में 4635 समुदायों/ जातियों का अध्ययन किया है। यह अध्ययन पुष्टि करता है कि उच्च स्थानासीन जातियों के संकेत हैं: (क) क्षेत्रीय सामाजिक-कर्मकाण्डयुक्त पदानुक्रम में एक उच्च स्थितिय (ख) भूमि व अन्य संसाधनों पर बेहतर नियंत्रणय और (ग) निचले दर्जे के अन्य समुदायों के साथ गैर-वाणिज्यिक संबंध। (निचली जातियाँ) निचले दर्जे पर रखी जाती हैं क्योंकि (क) भूमि पर कम अधिकार तथा आर्थिक संसाधनों पर कम नियंत्रण द्वारा जन्मी उनकी दीन-हीन दरिद्रताय (ख) शुद्धता तथा प्रदूषण के द्योतन पर आधारित उनका सामाजिक-कर्मकाण्डयुक्त निम्नपदारोपणय और उन काम-धंधों में उनका पारम्परिक विनियोजन जो कर्मकाण्डीय रूप से अस्वच्छ माने जाते हैं।

जाति तथा व्यवसाय/भूमिधारण पर क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर समस्त आँकड़े एक इसी प्रकार की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। तालिका-1 के.एन.राज विश्लेषित, 1952 में संग्रहित राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एन.एस.एस.) द्वारा एकत्रित जाति व व्यवसाय आँकड़े प्रस्तुत करती है। ये आँकड़े दर्शाते हैं कि जाति व व्यवसायिक पदस्थिति के बीच एक सकारात्मक संबंध है। छोटे व उपान्त किसान तथा कृषि-श्रमिक मुख्यतः निम्न अथवा पिछड़ी जातियों तथा पूर्व-अछूत (अनुसूचित जातियों से संबद्ध हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में निम्न व निम्नतम जातियों के सदस्यों के बीच व्यवसायों का एक उपान्त विविधीकरण है। बहरहाल, इस बात को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि निम्नतर तथा ते-कुटुम्बों का एक छोटा अनुपात उन धनी किसानों का है जो श्रमिकों को मेहनताना

टिप्पणी: कोष्ठकों में दिए गए अंक प्रत्येक प्रसंग में अखिल भारतीय औसत की प्रतिशतता दशति हैं।
 मुख्य कृषि व्यवसाय चार समूहों में बाँटे गाए हैं:
क) कृषक- किसान जो अपनी निजी भूमि पर खेती करता है, खासकर भाड़े के श्रमिकों के साथ, (ख) खेतिहर किसान -वह जो मुख्य अपने स्वामित्व वाली भूमि पर खेती करता है और कभी-कभी पट्टे पर ली गई भूमि अथवा अन्य कुटुम्ब-सदस्यों की मदद से तथा अंशतः भाड़े के श्रमिकों के साथ बटाई-काश्तकारी प्रणाली पर, (ग) बटाई काश्तकार-वह जो मुख्यतः औरों की भूमि पर बटाई काश्तकारी के आधार पर खेती करता है, और (घ) कृषि-श्रमिक-वह जो दूसरों की भूमि पर पगार हेतु अथवा प्रथागत भुगतान के लिए खेती करता है।
 लकड़हारे, बगान श्रमिक, माली, मछुआरे, पशु-प्रजनक, चरवाहे तथा पशुपालक शामिल हैं।
/ प्रशासनिक तथा व्यावसायिक सेवाओं, अध्यापन तथा चिकित्सा, विनिर्माण – विशेषतः खाद्य उत्पादों तथा वस्त्रों का, व्यापार तथा वाणिज्य, परिवहन तथा संचार, निर्माण तथा स्वास्थ्य-रक्षा, और खनन में लगे ग्रामीण क्षेत्र के कुटुंब शामिल हैं।
एन.एस.एस. के अनुसार ‘‘उच्चतर जातियाँ उनके रूप में परिभाषित की गईं जो, प्रथानुसार, पवित्र धागा प्रयोग करते थे, मध्यम उनके रूप में जिनसे ब्राह्मण परम्परापूर्वक पानी ग्रहण करते थेय और निम्नतर उन अन्य जातियों के रूप में जो अनुसूचित नहीं थीं।‘‘

देकर रखते हैं और बाजारयोग्य बेशी उत्पादन करते हैं। गुजरात में सामाजिक अध्ययन केन्द्र, सूरत द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, दस प्रतिशत निम्नतर जाति तथा पाँच प्रतिशत अनुसूचित जाति कुटुम्बों के पास 15 एकड़ से अधिक भूमि है। इसका विपरीत भी सत्य है। एन.एस.एस. आँकड़ों के अनुसार एक प्रतिशत उच्चतर जातियाँ और 12 प्रतिशत मध्यम जातियाँ कृषि-श्रमिक हैं। इसके अतिरिक्त, यह गौरतलब है कि देश के कुछ हिस्सों में चंद उच्चतर जातियाँ हैं जिनके अधिकांश सदस्य उच्चतर वर्ग से संबद्ध नहीं हैं। गुजरात के राजपूत (उच्चतर जाति) का मामला ध्यातव्य है। भू-स्वामित्व व अन्य व्यवसाय के लिहाज से उनकी स्थिति अनेक अन्य-पिछड़े-वर्गों की अपेक्षा कोई खास भिन्न नहीं है।

सक्रिय सम्बन्ध
कोई भी सामाजिक व्यवस्था अचल नहीं रहती है। बदलती सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों के साथ समय-समय पर सामाजिक व्यवस्था परिवर्तित होती रहती है। यह जाति-व्यवस्था के बारे में भी सत्य है। अनुभवाश्रित स्तर पर जाति पदानुक्रम पूरे इतिहास में कभी अचल नहीं रहा है। सिद्धांततः, सभी जातियाँ एक पूर्वनिर्धारित सामाजिक स्थिति के भीतर पदानुक्रमानुसार रखी जाती हैं। कुछ जातियाँ उच्च पदस्थिति का उपभोग करती हैं और कुछ निम्न पदस्थिति पर रहती हैं। पदानुक्रम में, सामाजिक व्यवस्था में जाति का स्थान अन्तर्वैयक्तिक संबंध हेतु रीतियों के अनुपालन पर आधारित उसकी कर्मकाण्डीय पदस्थिति द्वारा निर्धारित होता है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि यह मूल्य-पद्धति – जीवन में किसी के व्यवसाय को स्वीकृति ही पूर्व-जन्म का परिणाम है – अछुतों समेत सभी हिन्दुओं के बीच सर्वसम्मति रखती है। लेकिन यह सत्य नहीं है। यद्यपि उच्च जातियाँ अपनी ऊँची पदस्थिति को बनाए रखने का प्रयास करती हैं, मध्यम व निम्न जातियों ने सफलतापूर्वक अपनी पदस्थिति को बदलने को प्रयास किया है। अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार कर कुछ निम्न जातियों के एक प्रबल वर्ग ने अपने अड़ोस-पड़ोस में रहने वाली उच्च जातियों की प्रथाओं व आदर्शों का अनुकरण कियाय इनमें वे समूह शामिल हैं जिनसे किसी समय अछूतों के रूप में व्यवहार किया जाता था। समाजशास्त्री इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण के रूप में जानते हैं। कुछ ऐसी जातियों अथवा व्यक्तियों के उदाहरण भी सामने आते हैं जो उच्च जातियों के आदर्शों तथा कर्मकाण्डों का पालन किए बगैर भी अपनी पदस्थिति को सुधारने में सफल हुए हैं। राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो जाने से न सिर्फ सत्ताधारक – शासक – को मदद मिलती है बल्कि उसके नाते-रिश्तेदारों को भी जाति पदानुक्रम में उच्चतर सामाजिक प्रतिष्ठा का उपभोग करने में मदद मिलती है। इतिहास में ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं जो दर्शाते हैं कि संस्कृतिकरण के मार्ग का अनुसरण किए बगैर ही सत्ता की स्थिति पर काबिज होकर शूद्रों व अतिशूद्रों ने क्षत्रियों की पदस्थिति अर्जित कर ली है।

संस्कृतिकरण की प्रक्रिया जो एक समय, खासकर 19वीं व 20वीं सदी के आरम्भ में, निम्न जातियों के बीच उत्कर्ष पर थी, साठ व सत्तर के दशक में धीमी पड़ चुकी थी। पहले अनेक जातियाँ अपने सदस्यों की खराब आर्थिक स्थिति के बावजूद ‘पिछड़ी‘ पुकारे जाने पर संकोच करती थीं। उन्हें डर था कि ‘पिछड़ी‘ के रूप में पहचाने जाने पर वे अपनी सामाजिक पदस्थिति नहीं सुधार सकेंगे।

परन्तु अब यह सत्य नहीं रहा है, क्योंकि राज्य ने पिछड़ी जातियों को कुछ निश्चित लाभ प्रदान किए हैं, क्योंकि राज्य ने पिछड़ी जातियों को कुछ निश्चित लाभ प्रदान किए हैं। इन जातियों को यह बोध हुआ है कि उच्च जातियों द्वारा अपनाए जाने वाले कर्मकाण्डों के अनुपालन की बजाय अपनी स्थिति को सुधार कर वे अपनी सामाजिक स्थिति सुधार सकते हैं। अब जातियों के बीच ‘पिछड़ी‘ पकारे जाने के लिए होड़ लगी है। यहाँ तक कि कुछ ब्राहमण और राजपूत जातियाँ भी सरकार के पास ‘पिछड़ी‘ के रूप में वर्गीकृत किए जाने के लिए पहुँची हैं। केन्द्रीय गुजरात के कोलियों ने राजपूतों के कर्मकाण्डों को अपनाया और क्षत्रियों के रूप में पहचाने जाने के लिए तीन दशकों तक संघर्ष किया। पूर्व काल में, कोली पुकारे जाने पर वे अपमानित महसूस करते थे। परन्तु अब उन्होंने स्वयं को कोली पुकारना शुरू कर दिया है ताकि उनको वे भौतिक लाभ मिल सकें जो कि सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए सर्वाधिक सुनिश्चित रास्ता है। कर्मकाण्डों के अनुपालन पर आधारित सामाजिक स्थिति उत्तरोत्तर रूप से व्यर्थ हो चुकी हैं।

पारम्परिक रूप से जाति-सदस्यों को उन जातियों से संबंधित व्यक्तियों से पका भोजन स्वीकार करने को मना किया जाता है जिनको वे अपने से निम्नतर मानती हैं । गत पाँच दशकों में, खासकर शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक मण्डलों में, ये नियम कमजोर पड़ चुके हैं। विस्तृत समर्थनाधार प्राप्त करने के अपने प्रयास में जिला व राज्य स्तर पर राजनीतिक संभ्रांत वर्ग निचले सामाजिक स्तर (स्ट्राटा) से संबंधित जाति-सदस्यों के साथ भोजन करने में नहीं हिचकिचाते हैं।

अधिकतर जातियाँ अन्तर्जात हैं। कुछेक सामान्यतः जाति समूह के भीतर अति-विवाह का अनुसरण करते हैं। विवाह पर पूर्वकालिक प्रतिबंध अब सुनम्य हो गए हैं। कुछ जातियों में विवाह परिधियाँ बढ़ रही हैं। शिक्षा और शहरीकरण के साथ उच्चतर व मध्यम जातियों के बीच अन्तर्जातीय विवाहों के उदाहरण काफी हद तक बढ़े हैं यद्यपि ऐसे मामले अभी तक अपवाद हैं।

क्षेत्रीय भिन्नताएँ
सामाजिक समूहों के बीच अंतर्सम्बन्ध हेतु पदानुक्रम तथा सीमा-रेखा के लिहाज से जाति संरचना ग्राम-स्तर पर न्यूनाधिक साफ-सुधरी व अभिन्य है। परन्तु क्षेत्रीय स्तर पर ऐसा नहीं है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर जातियों की आनुभविक रूपाधारित व हद तस्वीर खींचना और भी अधिक कठिन व जोखिमपूर्ण है। जाति संरचना इस उप-महाद्वीप के सभी क्षेत्रों में समान रूप से विकसित नहीं हुई है। असम ने उत्तर प्रदेश अथवा बिहार की जाति संरचना की अपेक्षा कम कठोर पदानुक्रम वाली एक निर्बन्ध जाति संरचना विकसित की है। जाति विशेष के नियमों के अनुपालन के संबंध में भी यही बात है।

जातियों की संख्या भी क्षेत्रानुसार भिन्न-भिन्न है। गुजरात में पश्चिम बंगाल की अपेक्षा जातियों की अधिक बड़ी संख्या है। ऐतिहासिक अनुभवों ने विभिन्न क्षेत्रों में आज की सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं के सुगठन में योगदान दिया है। इसके अतिरिक्त, देश में और राज्यों में भी, असमान आर्थिक विकास हुआ है और होता रहा है। कुछ क्षेत्रों में जमींदारी और कुछ में रैयतबाड़ी भू-काश्तकारी प्रणाली थी। सामान्यतः राजस्थान में राजपूतों अथवा तमिलनाडु में ब्राह्मणों का खेतीहर व किसान जातियों में वर्चस्व उसी प्रकार कायम था जैसे कि महाराष्ट्र में मराठा तथा गुजरात में पटिदार प्रभावशाली जातियाँ थीं । सभी जातियों की संख्यात्मक शक्ति तथा फैलाव एकसमान नहीं हैं। कुछ की सदस्य-संख्या काफी बड़ी है और कुछ की बहुत कम है। कुछ जातियाँ तो पूरे क्षेत्र में छितरी हुई हैं और चंद कुछेक भौगोलिक लघुक्षेत्रों में सघनता से बसी हैं। इस प्रकार, राजनीति के संबंध में जाति की भूमिका और स्थिति समय-समय, क्षेत्र-क्षेत्र और जाति-जाति के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है।